Azad Mazdur

Azad Mazdur साप्ताहिक अखबार
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बिहार (अब झारखंड) के सबसे पुराने साप्ताहिक समाचार पत्र ‘आजा़द मज़दूर’ को देश की एकमात्र वयोवृद्ध महिला सम्पादक श्रीमती सरला कौशल अपने बूढ़े कंधों पर उठाये बिना किसी सहायता के 37 सालों तक चलातीं रहीं। पर इस दौरान न सरकार और न पत्रकारों के संगठन का ध्यान उन पर गया। सन 2011 में उनके देहांत के पहले जानेमाने पत्रकार व साहित्यकार श्री गंगाप्रसाद ‘कौशल’ 1953 से ‘आज़ाद मज़दूर’ के प्रकाशक, संपादक व मुद्रक रहे।

2 मई 1975 में कौशल जी के देहांत के बाद यह जिम्मेदारी श्रीमती सरला कौशल ने अपने कंधे पर ली।
हिन्दी के यशस्वी कवि - पत्रकार स्व० गंगाप्रसाद प्रसाद ‘कौशल’ द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक ‘आज़ाद मज़दूर’ की पत्रकारिता का मूल उद्देश्य है, जन समस्याओं को मजबूती से उजागर करना, साथ ही मज़दूरों, गरीबों, बेसहारों के हितों की बात करना।
कम्प्यूटरीकरण के इस औद्योगिक युग में मज़दूरों की समस्याएँ बढ़ीं हैं। मज़दूरों के विकास की बात तो दूर, उनके अस्तित्व की रक्षा करना ही अभी प्राथमिक मुद्दा है। आज से 64 साल पहले जमशेदपुर में बड़े-बड़े कारखाने लग जाने के बाद श्रमिकों के इस शहर में एक सशक्त अखबार की जरूरत महसूस की गयी। भारत की आज़ादी के अंतिम संघर्ष के दिनों में व आज़ादी मिल जाने के बाद के कुछ वर्षों तक प्रोफेसर अब्दुल बारी जमशेदपुर में सर्वमान्य मज़दूर नेता थे। इन्हीं की प्रेरणा से कौशल जी जमशेदपुर आये और श्रमिकों को समर्पित एक साप्ताहिक अखबार निकाला। उन्होंने इंटक के अखबार ‘मज़दूर आवाज’ का सम्पादन प्रारंभ किया। दुर्भाग्य से कुछ ही दिनों उपरांत प्रोफेसर अब्दुल बारी की हत्या कर दी गयी और फिर कई कारणों से ‘मज़दूर आवाज’ का प्रकाशन बंद हो गया।
किन्तु एक मौलिक साहित्यकार, पत्रकार की अन्तर्धारा का बहाव रुकता नहीं है। एक रास्ते के बंद हो जाने के बाद वह दूसरा रास्ता बना लेता है। गंगाप्रसाद ‘कौशल’ ने मज़दूरों की आवाज बुलंद करने के लिए 1953 में एक नया साप्ताहिक अखबार ‘आज़ाद मज़दूर’ का सम्पादन व प्रकाशन प्रारंभ किया। जिसे वे पूरी निष्ठा, लगन, दक्षता और क्षमता के साथ निकालते रहे। जीवन के अंतिम क्षणों तक उन्होंने अखबार के लिए समर्पित भाव से काम किया। पत्रकार के रूप में कौशल जी जहाँ सिंहभूम में पत्रकारिता के जनक माने जाते हैं, वहीं एक श्रेष्ठ कवि के रूप में मान्य, प्रशंसित और पुरस्कृत भी हुए। भारत सरकार ने उनकी पुस्तक ‘वीर बालक’ को पुरस्कृत किया था।
2 मई 1975 में कौशल जी का निधन हो जाने के बाद अखबार को गहरा आघात लगा। इस गंभीर परिस्थिति में ‘आज़ाद मज़दूर’ के प्रकाशन का जारी रह पाना एक कठिन समस्या थी। जैसे सागर में लहरों का उठना एकाएक बंद हो गया था।
श्रीमती सरला कौशल जो अर्धांगिनी होने के नाते उनकी योजना, कल्पना, कार्य-दक्षता से परिचित थीं, वहीं से एक शक्ति उनके हृदय में उतरी और ‘आज़ाद मज़दूर’ अपने सर्जक की अनुपस्थिति में उदासीनता की पीड़ा को भूलकर फिर एक बार अपना लक्ष्य भेदने की ओर आगे बढ़ने लगा। 1975 के मई माह से ही श्रीमती कौशल ने ‘आज़ाद मज़दूर’ के प्रकाशन का भार संभाल लिया। उन्हें पति की मौत पर आँसू बहाने का समय भी नहीं मिला।
एक साहित्यिक पत्रकार अपनी विचारधारा से जुड़ा होता है और इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह सतत् चिन्तित रहता है। कौशल जी मूलतः एक साहित्यकार थे। एक साहित्यकार, समाज की सेवा साहित्य के माध्यम से ही करता है। इन्होंने भी समाज सेवा करने के लिए ही ‘आज़ाद मज़दूर’ निकाला। समाज की चेतना जगाने का काम साहित्यकारों का है और यही समाज की वास्तविक सेवा है। बड़े-बड़े अखबारों की तरह केवल आर्थिक व्यवसाय करना इस साप्ताहिक का कभी उद्देश्य नहीं रहा। यहाँ तक कि कौशल जी ने किसी भी स्तर पर सरकारी मदद के लिए अफसरों की ‘पूजा संस्कृति’ में विश्वास नहीं किया। गंगाप्रसाद ‘कौशल’ के लिए घूस देना संभव नहीं था और बिना घूस लिए सरकारी अफसरों के लिए सरकारी विज्ञापन देना संभव नहीं था।
इस लेखक ने महीनों ‘आजा़द मज़दूर’ के अंकों की फाइलों का अध्यन किया तो पता चला कि इस औद्योगिक नगर में कई श्रेणी के मज़दूर हैं, उनकी विभिन्न प्रकार की समस्याएँ रही हैं। स्थायी श्रमिक, अस्थाई श्रमिक, ठेका मज़दूर, दैनिक पारिश्रमिक पाने वाले मज़दूर, रेजा-कुली वगैरह इन सबकी अपनी-अपनी जटिल समस्याएँ हैं। कहीं किसी मज़दूर की कम्पनी ने छँटनी कर दी, कहीं किसी को काम करा कर वेतन नहीं दिया, कहीं मालिक की लापरवाही ने मज़दूर की जान ले ली आदि सभी समस्याओं को अखबार ने प्रमुखता से बिना डरे छापा। मज़दूरों की आवाज उनके मालिक के कानों तक पहुँचाई गयी। अखबार ने मालिकों को मज़दूरों की समस्याओं के निदान के लिए, उनकी निंदा कर व कभी-कभी पुचकार कर पे्ररित किया। इसके अलावे पत्र ने मज़दूरों को सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने में भी महŸवपूर्ण भूमिका निभाई। इससे श्रम को सम्मान मिलता रहा और श्रमिक हीन भावना से ऊपर उठे, उनके विचार अखबारों में छपने पर उन्हें अपने कार्यों पर विश्वास बढ़ा, अभिरुचि बढ़ी। जिससे इस क्षेत्र के समाज का भी सांस्कृतिक स्तर पर विकास हो सका।
मज़दूरों की आवाज उठाना जहाँ अखबार का मूल उद्देश्य रहा है वहीं इसके नामकरण से पता चलता है कि इसने मज़दूरों के आंतरिक दर्द को समझ कर उसे दूर करने की दिशा में दार्शनिक स्तर पर भी विचार किया था। तभी तो कौशल जी ने ‘आज़ाद मज़दूर’ नाम को पसंद किया। पचास के दशक में शुरु किया गया इंटक का ‘मज़दूर आवाज’ जहाँ केवल भौतिक समस्याओं को उजागर करने का संकेत मात्र है, वहीं अभावों में पला-बढ़ा ‘आज़ाद मज़दूर’ श्रमिकों की वास्तविक स्वतंत्रता की प्राप्ति की दिशा में एक कदम है। यही आज दार्शनिकों, राजनीतिकों की समस्या है कि कैसे एक मज़दूर अधिकतम आज़ादी का उपभोग कर सकता है। मज़दूर शब्द से ही एक गुलाम व्यक्ति का आभास होता है, जो मालिक के अधीन काम करता है। इस दर्द का एहसास करने से ‘आज़ाद मज़दूर’ साप्ताहिक अखबार अछूता नहीं है। यहीं पर यह मज़दूरों के हितों का एक सच्चा प्रहरी है।
उस दौर में जबकि इस औद्योगिक क्षे़त्र में स्थानीय अखबार पढ़ने की अभिरुचि नहीं थी तब एक अखबार के लिए सबसे पहला काम पाठकों में स्थानीय अखबार पढ़ने की रुचि उत्पन्न करना था। इस दुष्कर काम को करने में कौशल जी जैसे प्रतिभावान सम्पादक ही सफल हो सकते थे। यद्यपि वे तब जाने-माने कवि और लेखक थे, किंतु लेखन और कविताई से अधिक कठिन है किसी अखबार का सफलता पूर्वक प्रकाशन करते रहना। मेहनत मज़दूरी के नीरस कार्य में लगे मज़दूर अखबार के महŸव को तब कम ही समझते थे। लेखन का काम व्यक्तिगत है जबकि सम्पादन का काम समष्टिगत। अखबार सम्पादन में पाठकों की अभिरुचि, उसका नियमित प्रकाशन, सामग्री, प्रबंध से लेकर अर्थ प्रबंध तक में अनेक लोगों के सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। यह जटिल कार्य कौशल जी के बहुमुखी व्यक्तित्व से ही संभव था।
समाचारों की प्रस्तुति में जो विकास वैज्ञानिक स्तर पर हो रहा है, वह ‘आज़ाद मज़दूर’ के पन्नों पर भी पूर्व से अभी तक होता आया है। ‘आज़ाद मज़दूर’ के हाल के अंक देखकर यह बात आसानी से समझ में आ जाती है। हाल के अंकों में घटनाओं की गुत्थियों को प्रकाशित करने में अखबार शहर के अन्य अखबारों से आगे रहा है। घटनाओं को सीधे पाठकों के समक्ष रखना अखबारों का काम है, किन्तु घटनाओं की तह में प्रवेश कर उसके कारणों पर प्रकाश डालना उससे भी महत्वपूर्ण काम है।
इस साप्ताहिक अखबार ने इस क्षेत्र की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विकास के उत्तरदायित्व का भार अपने स्तर पर ढ़ोया है। इसका सबसे महत्वपूर्ण काम यह है कि इसके पन्नों ने क्षेत्र की साहित्यिक गतिविधियों को विकसित करने में काफी योगदान दिया है। इसमें साहित्य की सारी विधाओं में रचनाओं का प्रकाशन हुआ है। कविता, गीतिनाट्य, कहानी, एकांकी, लघुकथा, उपन्यास, निबंध, प्रहसन, हास्य-व्यंग्य आदि के प्रकाशन से न केवल इस क्षेत्र के पाठकों का मनोरंजन किया गया, बल्कि उनके मानसिक स्तर का भी विकास हुआ।

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