23/11/2020
रमेश घोलप। कोडरमा के जिलाधिकारी (डीसी)।
माँ-पुत्र की संघर्ष कथा पढ़ें।आप निश्चित प्रेरित होंगे। ...................................................
'.... ्या_सोच_रही_होंगीं?'
(जब माँ मेरे ऑफिस में आयी थी)
आठ बच्चों में सबसे छोटी होने के कारण वह सबकी 'लाडली' थी। घर में उसकी हर जिद पूरी करने के लिए चार बड़े भाई, तीन बहने और माता-पिता थे यह बात वह हमेशा गर्व के साथ कहती है। 'फिर तुमको बचपन में स्कूल में भेजकर पढ़ाया क्यों नहीं?' इस सवाल का उसके पास कोई जवाब नहीं होता ।इस बात का उसे दुख ज़रूर है पर इसके लिए वह किसी को दोषी नहीं मानती।
शादी के बाद वह लगभग मायके जितने ही बड़े परिवार की 'बड़ी बहु' बनी थी। उससे बातचीत के क्रम में कभी भी शिकायत के सुर नहीं सुने, लेकिन लगभग १९८५ में गाँव देहात में जो सामाजिक व्यवस्थाएँ थी उसके अनुरूप माता-पिता की 'छोटी लाडली बेटी' और ससुराल की 'बड़ी बहु' में जो फ़र्क़ था उसे उसने करीब से देखा था। जिस व्यक्ति से शादी हुयी है, उनको शराब पीने की आदत है यह पता चलने के बाद, कई बार उस आदत के परिणाम भुगतने के बाद भी कभी उसने अपने मायके में माता-पिता को इसकी शिकायत नहीं की।ख़ुद के दुख को नज़र अंदाज़ कर परिवार के भविष्य को सोचकर वह लड़ती रही। हालात की ज़ंजीरो को तोड़कर अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए और घर चलाने के लिए ख़ुद को भी कमाई के लिए कुछ करना होगा इस सच्चाई को स्वीकार कर उसने रिश्तेदारों के विरोध के बावजूद चूड़ियाँ बेचने का काम शुरू किया।गाँव गाँव जाकर चूड़ियाँ बेची।दो बच्चों को पढ़ाने और पति के बिगड़ते शारीरिक स्वास्थ्य का चिकित्सा उपचार करवाने के लिए वह परिस्थितियों से दो हात कर 'मर्दानी' की तरह लड़ती रही।पति की मृत्यु के तीसरे दिन मुझे यह कहकर कॉलेज की परीक्षा के लिए भेजा था कि 'तुमने अपने पिता को वचन दिया था, की जब मेरा १२वी का रिजल्ट आएगा तो आपको मेरा अभिमान होगा।रिजल्ट के दिन वो जहाँ भी होंगे उनको तुझपर पर गर्व होना चाहिए। तु पढ़ेगा तभी हम लोगों का संघर्ष समाप्त होगा।' उस वक़्त उसने एक 'कर्तव्य कठोर माँ' की भूमिका निभायी थी।
मेरे बड़े भाई का शिक्षक का डिप्लोमा पूर्ण हुआ था। मैं भी डिप्लोमा की पढ़ाई कर रहा था और बड़े भाई को नौकरी नहीं लग रही थी, तब बहुत लोगों ने उसे कहा की, 'अब पढाई छोड़कर बड़े बेटे को गाँव में मज़दूरी के लिए भेज दो।' लेकिन 'बड़ा बेटा मज़दूरी नहीं बल्कि नौकरी ही करेगा' कह कर वह चूड़ियाँ बेचने के साथ साथ दूसरे गाँव में भी मज़दूरी के लिए जाने लगी और बड़े बेटे को आगे की पढ़ाई के लिए शहर भेज दिया।
मुझे २००९ में प्राथमिक शिक्षक की नौकरी लग गयी। २०१० में हम लोगों को रहने के लिए ख़ुद का घर नहीं था, तब मैंने टीचर की सरकारी नोकरी का इस्तीफ़ा देकर सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने का निर्णय लिया। उस समय भी वह मेरे निर्णय के साथ खड़ी रही।'हम लोगों का संघर्ष और कुछ दिन रहेगा, लेकिन तुम्हारा जो सपना है उसको हासिल करने के लिये तू पढ़ाई कर' यह कहकर मेरे ऊपर 'विश्वास' दिखानेवाली मेरी 'आक्का' (माँ) और मेरे विपरीत हालात यही पढ़ाई की दिनों में सबसे बड़ी प्रेरणा थी।सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी के दिनों में जब भी पढ़ाई से ध्यान विचलित होता था, तब मुझे दूसरों के खेत में जाकर मज़दूरी करनेवाली मेरी माँ याद आती थी।
मेरे ऊपर के उसके विश्वास को सही साबित कर मैं २०१२ में आईएएस (उसकी भाषा में 'कलेक्टर') बना। पिछले साल जून में मैंने दूसरी बार 'कलेक्टर' का पदभार ग्रहण किया।उसके बाद वह एक दिन ऑफिस में आयी थी।बेटे के लिए अभिमान उसके चेहरे पर साफ़ दिखायी दे रहा था।
उसकी भरी हुयी आँखो के देखकर मैं सोच रहा था, 'जिले की सभी लड़कियों को शिक्षा मिलनी चाहिए इसकी ज़िम्मेदारी कलेक्टर पर होती है, यह सोचकर उसके अंदर की उस लड़की को क्या लग रहा होगा जो बचपन में शिक्षा नहीं ले पायी थी?' अवैध शराब के उत्पादन और बिक्री रोकने के लिए हम प्रयास करते है यह सुनकर पति की शराब की आदत से जिस महिला का संसार ध्वस्त हुआ था, उसके अंदर की वह महिला क्या सोच रही होगी?, जिले के सभी सरकारी अस्पतालों में सरकार की सभी जन कल्याणकारी आरोग्य योजना एवं सुविधाएँ आम लोगों तक पहुँचे इसके लिए हम प्रयास करते है यह मेरे द्वारा कहने पर, पति की बीमारी के दौरान जिस पत्नी ने सरकारी अस्पताल की अव्यवस्था एवं उदासीनता को बहुत नज़दीक से झेला था, उसके अंदर की उस पत्नी को क्या महसूस हो रहा होगा?, संघर्ष के दिनों में जब सर पर छत नहीं था, तब हम लोगों का नाम भी बीपीएल में दर्ज करकर हमको एक 'इंदिरा आवास' का घर दे दीजिए इस फ़रियाद को लेकर जिस महिला ने कई बार गाँव के मुखिया और हल्का कर्मचारी के ऑफिस के चक्कर काटे थे, उस महिला को अब अपने बेटे के हस्ताक्षर से जिले के आवासहीन ग़रीब लोगों को घर मिलता है यह समझने पर उसके मन में क्या विचार आ रहें होंगे?, पति की मृत्यू के बाद विधवा पेंशन स्वीकृत कराने के नाम से एक साल से ज़्यादा समय तक गाँव की एक सरकारी महिला कर्मी जिससे पैसे लेती रही थी, उस महिला के मन में आज अपना बेटा कैम्प लगाकर विधवा महिलाओं को तत्काल पेंशन स्वीकृत कराने का प्रयास करता है यह पता चलने पर क्या विचार आये होंगे?'
आईएएस बनने के बाद पिछले ६ साल में उसने मुझे कई बार कहा है, "रमू, जो हालात हमारे थे, जो दिन हम लोगों ने देखे है वैसे कई लोग यहाँ पर भी है। उन ग़रीब लोगों की समस्याएँ पहले सुन लिया करो, उनके काम प्राथमिकता से किया करो।ग़रीब, असहाय लोगों की सिर्फ़ दुवाएँ कमाना। भगवान तुझे सब कुछ देगा!''
एक बात पक्की है..'संस्कार और प्रेरणा का ऐसा विश्वविद्यालय जब घर में होता है, तब संवेदनशीलता और लोगों के लिए काम करने का जुनून ज़िंदा रखने के लिए और किसी बाहरी चीज़ की ज़रूरत नहीं होती।'
-रमेश घोलप IAS
ज़िलाधिकारी, कोडरमा(झारखंड)