पश्चिमी राजस्थान के इस इलाके में जनता सहकार की शुरूआत एक सोच के साथ हुई। सोच लोगों की आवाज़ बनने की, उन्हे एक मंच देने की, जहां उनकी बात हो सके, जहां वो बात कर सके। ऐसा नही है कि इससे पहले इस इलाके में अखबार नही थे। अखबार तब भी थे और अब भी है, लेकिन जो नहीं था, हमने वो कमी पूरी की।
अब तक यहां के लोग अखबारों में घटनाओं के बारे में पढ़ा करते थे। उन घटनाओं के बारे में, जो उनके ईद-गिर्द देश दुनिया मे
ं घट रही थी। हमने महसुस किया कि लोग खबरों के साथ कुछ और भी चाहते है। जिस तरह हर समाज की, हर इलाके की अपनी जरूरते होती है। जिस तरह सभी को एक सोच, एक लकड़ी से नहीं हांका जा सकता। खार तौर पर उस देश में जहां चालीस कोस पर रहन-सहन, खान-पान यहां तक की बोलीयां भी बदल जाती है, हमने ये कैसे मान लिया कि वहां सबकी सोच एक सी होगी। यकीनन, ऐसा नहीं था, अब भी ऐसा नहीं है।
पश्चिमी राजस्थान के इस इलाकें के लोग क्या सोचते है, समाज और सरकार से वे क्या चाहते है? ये कुछ ऐसी बातें थी, जो अब तक अनसुनी-अनकही थी। इस इलाकें के हिसाब से, इलाकें के लोगों के हिसाब से उनकी अपनी सोच, अपनी जरूरते थी। हमने इस इलाकें को, इस इलाकें के लोगों को और उनकी जरूरतों को समझा। अखबारों और ख़बरों की भीड़ में हमने उनकी सोच, उनकी आवाज़ को एक मंच दिया। एक मंच, जहां उनकी बातें होने लगी, जहां वे बात करने लगे।
जिस दौर में जनता सहकार निखर रहा था, उस दौर में लोग खबरों से उकता चुके थे, वे अपनी बात रखना चाहते थे। हमने उन्हें यह मौका दिया, खबरों के साथ ही हमने उनकी सोच को जगह दी, मंच दिया। जहां उन्होनें अपनी बात की, अपनी बात रखी। हम ये दावा नहीं करते की हमने सब कुछ बदल दिया, हां, हम ये जरूर कहेगें कि हमने कुछ बदलने की शुरूआत कर दी। एक सफर की शुरूआत, जिसकी मंजिल बहुत नजदीक है।
मुझे याद है, जनता सहकार की शुरूआत के साथ ही हमने अपनी सोच के अनुरूप एक काॅलम की शुरूआत की थी। वह काॅलम यहां के लोग लिखते थे, वो लोगों का काॅलम था। वो लोग जिसे काॅमन मेन, आम आदमी की संझा दी जाती है। हमनें उस आम आदमी को खास बनाया। ‘‘बाड़मेर मेरी जुब़ा से’’ इस काॅलम में हमने लोगों को लिखने का मौका दिया। मौका अपने इलाके, अपने समाज, अपनी सोच को शब्दों में बंया करने का। अपने इलाकें की कौनसी चीजें, कौनसी बातें उन्हे अच्छी लगती है, वो अपने नेताओं, अपनी सरकार के बारे में क्या सोचते है। अपने आस-पास, अपने इलाकें में क्या बदलाव चाहते है।
सैकड़ों लोग हमसे सीधे जुड़े, सैकड़ों लोगों ने बंद लिफाफे में चिठ्ठी के रूप में अपनी सोच, अपनी भावनाओं को हम तक पहुंचाया और हमने उनकी आवाज़, उनकी सोच को एक मंच दिया। बस फिर क्या था, यह सिलसिला चल पड़ा। कहते है सफर की शुरूआत में ही देर होती है, मजि़ंल तो बहुत नजदीक होती, कई बार तो वो खुद-ब-खुद हमारे पास आ जाती है। हमारे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। लोगो तक पहुंचने की देर थी। हमने महसुस किया कि लोगों को बस हमारा ही इंतजार था।
आप देख रहे है, इस इलाकें के लोग अब अपनी बात कर रहे है। बात चाहे जमीन अधिग्रहण की हो, या कच्चे तेल के उत्पादन से जुड़ी। यहां तक की सरकारी योजनाओं को भी लोग अपने हिसाब से, अपने इलाकें, अपनी जरूरतों के हिसाब से मोड़ रहे है। अब यहां सड़के सीधे नहीं जाती, लोग सड़क किनारे खड़े इंतजार नहीं करते, अब सरहद की एक ढाणी से शुरू हुई सड़क सीधे संसद तक जाती है। शायद यही बदलाव की शुरूआत है।