हस्ताक्षर..हिंदी साहित्य की मासिक वेब पत्रिका

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हस्ताक्षर..हिंदी साहित्य की मासिक वेब पत्रिका 'हस्ताक्षर' हिंदी साहित्य की मासिक पत्रिका

संस्थापक एवं संपादक
प्रीति 'अज्ञात'
अहमदाबाद (गुजरात)
मो- 9727069342
ई-मेल [email protected]
[email protected]

01/05/2024

एक ‘मातृभाषा’, जो अब तक चुप है!

“बचपन से लेकर आज तक, जब भी हम भीड़ के बीच होते हैं तो मैं लोगों के ध्यानाकर्षण का केंद्र रहता था। शायद यही एक कारण है कि यदि अब मैं कुछ हासिल भी करूँ तो सुर्खियों में आने से नफरत करता हूँ, भले ही उसका इस बात से संबंध भी न हो। मुझे याद है कि बचपन में जब लोगों की निगाहें मेरे कानों और चेहरे पर पड़ती थीं तो मैं घबरा जाता, डर भी जाता था। मुझे यह आश्चर्य भी होता कि मेरे साथ क्या गलत है।
किशोरावस्था के दौरान, जब दूसरे लोग मुझे घूरते थे तो मैं पागल हो जाता, ऐसा लगता था कि क्या सामने वाले के पास मुझे घूरने के अलावा और कोई काम नहीं है? इस उम्र में, मैं अपने विचारों से आक्रामक और संवेदनशील दोनों था। जल्दी ही बिखर भी जाता था क्योंकि अब मैं इन बदसूरत हिस्सों को स्पष्ट रूप से समझ सकता था।
वयस्क हुआ तो मैंने सहज भाव से इसे स्वीकार कर लिया है, और मैं स्वयं से कहता हूं कि यह ठीक है। मुझे लगता है कि एक बार मुझे हियरिंग एड पहने देख घूरने के बाद वह व्यक्ति इतना शिक्षित तो हो ही जाएगा कि फिर किसी और को इस तरह नहीं घूरेगा! मुझे इसे अपनी दैनिक दिनचर्या के एक हिस्से के रूप में स्वीकार करने के लिए विवश किया गया था, अगर मैं ऐसा नहीं करता, तो संभवतः स्वयं को और चोट पहुँचाता। अब मैं जीवन के उस स्तर पर पहुँच चुका हूँ जहाँ मुझे वास्तव में इस सब की कोई परवाह नहीं है, लेकिन पर्याप्त नुकसान पहले ही युवावस्था में हो चुका है।”

यह एक ऐसे व्यक्ति के मन की बात है जिसमें सुनने की क्षमता विकसित नहीं हुई है। हमारे देश में लाखों ऐसे नागरिक हैं जो सुनने या बोलने में असमर्थ हैं। आती-जाती सरकारों ने उनके लिए बहुत योजनाएं बना दीं, कुछ उपकरण भी प्रदान कर दिए, होटलों, कैफ़े में नौकरियाँ भी दे दीं। ‘सांकेतिक भाषा’ का शब्दकोश भी आ चुका है। लेकिन क्या इतना पर्याप्त है? कुछ उत्तरदायित्व समाज का भी तो बनता है, वह संवेदनशील कब होगा? कहने को तो ‘मूक बधिर विद्यालय’ हैं, संस्थाएं हैं, शिक्षक हैं। लेकिन उन्हें देख यही लगता है कि समाज ने न केवल इन्हें अलग-थलग कर दिया है और मान भी लिया है कि “वह तुम्हारी दुनिया है और यह हमारी!”

यह भेदभाव क्यों? जिस समाज में कोई व्यक्ति रह रहा है, उसमें सहज भाव से रहना उसका मौलिक अधिकार है। यदि वह असहज है तो प्रश्न उठेगा ही कि शेष इतने शिक्षित और सभ्य क्यों न बन सके कि उसकी ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखने की बजाय, उसकी भाषा समझ सकें!

हम हिन्दी-अंग्रेजी की लड़ाई में उलझें हैं। सबको अपनी मातृभाषा प्रिय है। कोई भोजपुरी, कोई मराठी, कोई तमिल, तेलुगु का झण्डा फहराता घूम रहा। हिन्दी को राजभाषा से राष्ट्रभाषा बनाने की मांग जोरों पर है। लेकिन इस सब के बीच बिना शोरगुल किए एक भाषा मौन खड़ी है। वह है – सांकेतिक भाषा। मूक-बधिर व्यक्ति की यही एक मातृभाषा है।

हम जानते हैं कि भारतीय सांकेतिक भाषा (आईएसएल) बधिरों के लिए आधिकारिक भाषा है। इसका बोलचाल की भाषाओं से ही कोई संबंध नहीं है तो राष्ट्रीय भाषा होने का तो सोच भी नहीं सकते! लेकिन एक तथाकथित ‘सभ्य समाज’ में इस भाषा को प्रयोग में लाने वाले व्यक्तियों के प्रति कैसी सोच है? यह अवश्य समझना होगा।

क्या हम उनके प्रति उतने संवेदनशील हैं, जितना होना चाहिए? भारतीय फिल्मों में खामोशी या ब्लैक (दृष्टि बाधित) के अलावा इक्का-दुक्का ही फिल्में होंगी जहाँ इस विषय को गंभीरता से उठाया गया है। अन्यथा शेष में तो ऐसे चरित्र हास्य उत्पन्न करने के लिए ही रखे जाते हैं। किसी पर भी हँस देना सबसे आसान क्रिया है। इससे वह व्यक्ति भीतर तक कितना आहत हो रहा है, यह सोचने-समझने की ज़हमत कौन उठाए! हँसने वाले यह नहीं समझ पाते कि यदि कोई बोल या सुन नहीं सकता, तो इससे उसकी बुद्धिमत्ता का कोई संबंध नहीं। संभव है कि उसके सामने आप सदी के सबसे बड़े मूर्ख ही हों।

कहने को ‘सांकेतिक भाषा’ पाठ्यक्रम में तो सम्मिलित कर दी गई है पर इसे अनिवार्य किये बिना जागरूकता आएगी नहीं! इसीलिए मुझे लगता है कि यह भाषा सबको सीखना चाहिए। जिससे बचपन से ही सभी के मन में इस भाषा का उपयोग करने वालों के प्रति सहज भाव रहे।

एक लड़की के बारे में पढ़ा था, जिसका कहना था कि “कभी-कभी मुझे वस्तुओं को उनके (समाज) नजरिए से देखने में अपने तर्कसंगत दिमाग से सचमुच नफरत होती है। अब मैंने कुछ हासिल करने की कोशिश करना बंद कर दिया है। मैं यह भी नहीं मानती कि मैं प्रसन्न रहने या किसी भी वस्तु का पूरा आनंद लेने के लायक भी हूँ, क्योंकि मेरे दिमाग में अच्छे से लिखा जा चुका है कि मैं इसके लायक नहीं हूँ।जैसे कि अगर मैं अपनी परीक्षा में अच्छा स्कोर करूँ या कुछ रचनात्मक कार्य, तो मुझे बस बड़ी-बड़ी आँखें, आश्चर्यचकित भाव से देख कभी-कभार प्रश्न भी पूछे जाते हैं- आपने यह कैसे किया? यहाँ तक कि कुछ प्रशंसा भरे शब्दों का भी अप्रत्यक्ष अर्थ होता है। जैसे कि ‘आपने जो किया वह कोई सामान्य होकर भी हासिल नहीं कर सकता।”

भई! यह किस तरह की प्रशंसा है कि लोग समझ ही नहीं पाते कि एक सुनने-बोलने में अक्षम व्यक्ति असामान्य नहीं होता है। क्या आपकी इस नकारात्मक टिप्पणी से वह इंसान सचमुच प्रसन्न होगा? आपको अहसास भी है कि उसे कमतर सिद्ध करके, आपने कितनी क्रूरता से उसकी सारी उपलब्धि को एक ही झटके में तोड़ दिया है! यह किसी एक की नहीं, बल्कि किसी भी शारीरिक अक्षमता से जीने वाले हर उस व्यक्ति की बात है जो समाज की दया या उस पर वीभत्सता से हँसने का शिकार हुआ है। उसकी आत्मा तक कुचल जाती है।

लोगों को समझना होगा कि वे वाक्य जिन्हें हम बिना विचार किये बोल जाते हैं, वे किसी के दृष्टिकोण को किस हद तक प्रभावित कर सकते हैं। समाज की मान्यताएँ कितनी नृशंसता से किसी का आत्मविश्वास चकनाचूर कर देती हैं कि वह स्वयं को भी उन्हीं आँखों से देखने लगता है। लेकिन हम उनको समझने की बजाय, कब तक उन्हें ऐसी मानसिक चुनौतियाँ और पीड़ा देते रहेंगे?

मैं इस तथ्य को लेकर बहुत आश्वस्त हूँ कि यदि विद्यालयीन स्तर पर ‘सांकेतिक भाषा’ का अध्ययन अनिवार्य कर दिया जाए, किसी भी अक्षमता से प्रभावित व्यक्तियों के प्रति समाज सम्मान और समझ के साथ व्यवहार करे, साथ ही उनके लिए एक सुविधा सम्पन्न व्यवस्था हो तो स्थिति बेहतर हो सकती है। अभी तो इतनी बुरी स्थिति है कि प्लेटफॉर्म तो एस्केलेटर से चमचमा रहे हैं लेकिन चलने में असमर्थ लोगों के लिए हमारी रेलगाड़ियों में कोई व्यवस्था नहीं है। लोग घर से पटरे लेकर आते हैं और परिजन को बिठा पाते हैं। खैर!

जहाँ तक ‘सांकेतिक भाषा’ की बात है तो यह हम सब को पूरी तरह से न भी सही पर बुनियादी रूप से तो आना ही चाहिए। रोजमर्रा के सरल संकेत सीखकर भी हम इस अंतराल को थोड़ा तो पाट ही सकते हैं। हम जानते हैं कि उनके साथ संचार में सामान्य से अधिक समय लग सकता है, इसलिए उनकी गति का सम्मान करते हुए धैर्य रखना भी सीखना होगा। यदि बिल्कुल भी नहीं समझ पा रहे तो लिखकर दिया जा सकता है। यह भी स्मरण रहे कि जो ठीक से सुन नहीं पाते हैं, उनके सामने चीख-चिल्लाकर बोलना बेहद अभद्र और अपमानजनक लगता है। उस पर आपके विकृत चेहरे को पढ़ना और भी कठिन हो जाएगा।

मुख्य बात यह कि उनकी स्वतंत्रता का सम्मान करें। सहायता तब ही करें, जब आवश्यक लगे। थोड़ा स्वयं शिक्षित होकर और थोड़ा अपने परिवेश को शिक्षित कर हम एक सकारात्मक और समावेशी वातावरण बना सकते हैं।

समाज में चीखने-चिल्लाने, ज़हर घोलने वाले बहुत लोग हैं। शेष को इस समाज को सभ्य, शिष्ट और बेहतर बनाने की जिम्मेदारी अब उठानी ही होगी। मौन में डूबी ‘सांकेतिक भाषा’ इस कड़ी में एक प्रयास हो सकती है। आपको क्या लगता है?
- प्रीति अज्ञात
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#हस्ताक्षरवेबपत्रिका #संपादकीय #हस्ताक्षर #हिन्दीसाहित्य #हिन्दी #प्रीतिअज्ञात

'हस्ताक्षर' अप्रैल 2024 अंक में पढ़िए -https://hastaksher.com/संपादकीय:एक ‘मातृभाषा’, जो अब तक चुप है!- प्रीति अज्ञातकवित...
30/04/2024

'हस्ताक्षर' अप्रैल 2024 अंक में पढ़िए -
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संपादकीय:
एक ‘मातृभाषा’, जो अब तक चुप है!- प्रीति अज्ञात

कविता-कानन:
देह (भाग 1, 2) - शरद कोकास
युद्ध की कविताएँ - हरदीप सबरवाल
फ़ोबिया - मुकेश कुमार
बाड़े में बंधी ज़िंदगी - बिमल सहगल

हाइकु:
मंजु महिमा

छन्द-संसार :
स्त्री स्वर - अनिमा दास

व्यंग्य:
हम जनसेवक हूँ - शैलेन्द्र चौहान

भाषांतर:
दो कविताएँ - हसनैन आक़िब

कथा-कुसुम:
रॉंग नंबर - सन्दीप तोमर
अनोखा उपवास - दीपमाला शर्मा

आलेख/विमर्श:
आधुनिक हिंदी के प्रवर्तक भारतेंदु हरिश्चंद्र - शैलेन्द्र चौहान
एक साहित्यकार की चार दशक की यात्रा - डॉ.सुनीता डोगरा

धरोहर:
टी एन शेषन: संहिता का संरक्षक - नीरज कृष्ण

प्रेम वृत्त में:
प्रेम-विहीन इंसान भला क्या हँसेगा! - डॉ. प्रणव भारती

जो दिल कहे!,:
अनिवार्य मतदान कितना न्यायोचित - नीरज कृष्ण

यात्रा-वृत्तान्त:
हेग : न्याय और शांति का अंतर्राष्ट्रीय नगर - वीरेन्द्र परमार

ख़बरनामा:
‘भारतीय ज्ञान परम्परा : दृष्टि एवं सृष्टि’ विषय पर एक दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन - डॉ. अरुण कुमार निषाद

जयतु संस्कृतम्, संस्कृत:
राम! पुनरायाहि! - डॉ. राम विनय सिंह
गिरिजास्तोत्रम् (जय गिरिजे!) - हेमचन्द्र बेलवाल
नवसंवत्सरस्य शुभाभिकामनाः - डॉ. राहुल पोखरियाल
सुप्रभातम् - डॉ. लक्ष्मीनारायण पाण्डेय
मृडान्यष्टकम् - डॉ. अरविन्द तिवारी

- प्रीति अज्ञात
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26/04/2024

* "गूंगों के सिवा आज और कौन बोलेगा मेरी जय!"
* "हर क्षण इतिहास बदलने का क्षण होता है।"
- धर्मवीर भारती (अंधायुग)

#हिन्दीसाहित्य #अंधायुग #धर्मवीरभारती #हिन्दीनाटक

23/04/2024

क़िताबें लड़ना, बैर करना नहीं सिखातीं बल्कि जीवन को सकारात्मकता की ओर मोड़ती हैं। ये कहती हैं कि अच्छा पढ़ो, अच्छा लिखो, इस समाज को सुंदर बनाने के लिए काम करो। लोगों में दूरियां बढ़ाने का नहीं बल्कि प्रेम का पाठ सिखातीं हैं क़िताबें। क़िताबें समाज को जोड़ती हैं उसकी उन्नति के लिए कार्य करती हैं।

हमारी भाषा में, हमारे व्यवहार में, हमारी सोच में वो क़िताबें ही बतियाती हैं जिन्होंने हमें मनुष्यता के संस्कार दिए, मानव धर्म सिखाया। क़िताबों ने हमें इस धरती पर रहने का शिष्टाचार सिखाया। जितना पढ़ोगे उतने श्रेष्ठता की ओर बढ़ोगे।
बाबा साहब अंबेडकर ने कहा था कि "पैरों में जूता हो या न हो हाथों में किताब ज़रूर होना चाहिए।"
वेरा नजीरियन (रूसी-अमेरिकी लेखिका) ने कहा है कि "जब भी आप एक अच्छी क़िताब पढ़ते हैं, तो कहीं न कहीं दुनिया में अपने लिए रोशनी का एक नया दरवाजा खुलता है।"

हमारे संस्कार की पाठशाला ये क़िताबें ही रहीं। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि आज भी यदि गलती से हमारा पैर किसी क़िताब को लग जाए तो तुरंत ही उसे मस्तक से लगाकर मान देते हैं। हम भारतीयों के लिए पुस्तक ईश्वर तुल्य हैं।
दुनिया को सुंदर बनाना है तो पढ़ना जरूरी है।
खुशहाली लानी है तो पढ़ना जरूरी है।
- प्रीति अज्ञात
#प्रीतिअज्ञात #विश्वपुस्तकदिवस

परीक्षाएं चल रहीं हैं। यह एक ऐसा समय है जहाँ बच्चे के साथ-साथ उसके माता-पिता भी तनाव में आ जाते हैं। तनाव ‘परिणाम’ का है...
28/03/2024

परीक्षाएं चल रहीं हैं। यह एक ऐसा समय है जहाँ बच्चे के साथ-साथ उसके माता-पिता भी तनाव में आ जाते हैं। तनाव ‘परिणाम’ का है। दसवीं-बारहवीं की परीक्षाओं का तो हमने हौआ ही बना रखा है लेकिन छोटी कक्षाओं की परीक्षा में भी लोग घर, सिर पर उठा लेते हैं। बच्चा, परीक्षा में कैसा प्रदर्शन करेगा! यह सोच मारे चिंता के माँ के गले से खाना नीचे ही नहीं उतर रहा। घर में जैसे अघोषित कर्फ्यू है। आना-जाना सब बंद। खेलना भी नहीं और टीवी का तो प्लग ही उखाड़ रखा है। कहीं गलती से बच्चा मोबाईल में कुछ खेलता दिख गया, फिर तो उसकी खैर नहीं! उस पर यह ताना भी कि ‘बताइए, पढ़ाई के समय जनाब को यह सब सूझा है!’ ‘कुछ दिन अच्छे से पढ़ ले, नाक मत कटा देना! याद है न, इस बार टॉप करना है!

’क्या बच्चों को इतना तनाव देना आवश्यक है? उसे विषय समझ आ गया। पढ़ाई में रुचि रखता है और उसने अच्छे से पढ़ा भी है; क्या इतना पर्याप्त नहीं? प्री-स्कूल, जूनियर स्कूल या किसी भी कक्षा में टॉप करके क्या कर लेगा वह? किस नौकरी में उसे आगे जाकर बताना है कि मैंने कक्षा एक में टॉप किया था! या कि पाँचवीं में ‘बेस्ट स्टूडेंट’ का खिताब जीता था! हाँ, अगर वह अपनी इच्छा और पूरे मन से स्वयं पढ़ता है और टॉप करता है तो उसमें कोई बुराई नहीं, उसके लिए प्रसन्न होना स्वाभाविक है। लेकिन पढ़ाई के लिए उसे दिन-रात कोंचिए मत! उम्र के साथ समझदारी स्वयं आती है और वे पूरी जिम्मेदारी से मेहनत कर आगे बढ़ते हैं। कहीं ऐसा न हो कि उनके शुरुआती जीवन के अठारह वर्ष उन्हें युद्ध मैदान ही लगने लगें, जहाँ हर लड़ाई में उन्हें विजय मुकुट पहनकर ही लौटना है! जीतना उनके लिए इतना जरूरी न बन जाए कि वे हार बर्दाश्त ही न कर सकें। ध्यान रहे; हमें उन्हें अच्छा इंसान बनाना है, चक्रवर्ती सम्राट नहीं!

बच्चों को हारने दीजिए, अपनी भूलों से सीखने दीजिए। ये हार ही है जो उन्हें अनुभव देती है, अहंकार से दूर रखती है, झुकना सिखाती है। वैसे भी सच तो यह है कि यदि घर के लोग दबाव न डालें, तो बच्चों को कोई तनाव कभी होता ही नहीं। आप किसी भी उम्र के बच्चे से बात करके देख लीजिए, परीक्षा के समय भी वह मस्त ही होगा। उसे किसी बात से अंतर नहीं पड़ता। लेकिन उसे गंभीर दिखना पड़ता है क्योंकि माता-पिता की उम्मीद पर खरा उतरना है। माता-पिता पर यह दबाव कि समाज के, परिवार के सामने अपनी नाक ऊँची रखनी है कि लोग उनके बच्चे का उदाहरण दें कि ‘देखो, फलाने के बेटे-बेटी ने कैसे घर का, खानदान का नाम रोशन किया है!’

लेकिन बात इतने पर ही कहाँ रुकती है। डाँटते समय एक पंक्ति और जुड़ जाती है कि ‘….एक तू है, हमारी नाक कटवा दी!’ बस, यही एक वो बात है जिसके कारण हम परीक्षा-परिणामों के दौरान आए दिन बच्चों द्वारा आत्महत्या की खबरें देखते हैं। क्या सचमुच किसी परीक्षा में उत्तीर्ण होना, सर्वोच्च अंक प्राप्त करना, एक बच्चे के जीवन से अधिक महत्वपूर्ण है? क्या एक वर्ष नष्ट होने का अर्थ यह है कि जीवन ही नष्ट कर दिया जाए? पर ऐसा क्यों होता है फिर? बच्चों के मस्तिष्क में आखिर यह बात आई कैसे कि असफल हुए, तो मुँह दिखाने लायक़ ही नहीं रहे! जरा कुरेदकर देखिए, इसकी जड़ में हम ही मिलेंगे! हमारी महत्वाकांक्षाओं की पोटली हमने उन नन्हे, नाजुक कंधों पर लाद रखी है। परीक्षा परिणाम घोषित होते हैं। अखबार कोचिंग सेंटर के टॉप रैंक वाले बच्चों की तस्वीरों से भर जाते हैं क्योंकि व्यवसाय ही ऐसा है कि जितना प्रचार, उतने एडमिशन।

वहीं अंतिम पेज पर कहीं कोने में यह खबर भी छपती है कि ‘निराशा में डूबकर एक छात्र ने ….!’ यह हर बार होता है, बार-बार होता है और हम इसे ईश्वर की मर्ज़ी कह संतोष धर लिया करते हैं। क्या सचमुच इसका कारण यही है?

इस तरह की घटनाओं का एकमात्र कारण है कि हमने अपने बच्चों को असफल होना नहीं सिखाया! हमने उन्हें यह तो बता दिया कि जब कुछ जीतते हैं तो ढोल-बाजे बजते हैं, मिठाई बँटती है, गर्व से सीना चौड़ जाता है, घर-बार खुशियों से झूम उठता है। अखबारों में, टीवी पर चर्चे होते हैं और आप सफल लोगों की श्रेणी में आ जाते हो।

लेकिन यह कौन बताएगा कि हारने के बाद क्या करना है? “अरे! ये तो सीखा ही नहीं हमने! कहाँ जाएं भई? किसी कोने में बैठ सुबकते रहें? सबसे मिलना-जुलना छोड़ दें? अवसाद में डूब जाएं? कहीं से छलांग लगा दें या गले में रस्सी बाँध लटक जाना ही विकल्प है? ओह! नंबर कम आए हैं, तो हम सबके बीच रहने लायक नहीं रहे!” यह डर कैसे आया बच्चों के दिमाग में? निराशा के दौर में उन मासूम दिलों पर न जाने क्या गुजरती होगी!

क्योंकि समाज ने असफलता से डील करना तो कभी सिखाया ही नहीं? उसे किसी दौड़ में पीछे छूट गए लोगों का उपहास उड़ाना ही आया है, उनकी वहाँ पहुँचने तक की यात्रा से किसी को कोई मतलब नहीं। बाज़ार भी बस जीतने के ही गुर सिखाता है। सोशल मीडिया आपको दिन-रात यह बताता है कि ‘कैसे घर बैठे-बैठे घंटों में लखपति बना जाए। दो दिन में नामी लेखक बन जाएं। कैसे आपके घर सात दिनों में होगी धन वर्षा। फलाना काम कर लो, फिर जीत निश्चित है।‘पुस्तकें भी ‘सफलता के सौ मंत्र’, ‘शिखर तक पहुँचने के एक हजार तरीकों’ से भरी पड़ी हैं लेकिन ‘जो न पहुँचे तो क्या ही हो जाएगा?’ यह कोई नहीं समझाना चाहता। क्या एक रास्ता बंद होने से दूसरा नहीं खुल जाएगा? क्या एक प्रयास में अपेक्षित परिणाम न मिलने से दोबारा प्रयास नहीं किया जा सकता? अब तो इतने अधिक विकल्प हैं कि बच्चा अपनी पसंद के किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ सकता है।

अजी वह ढूंढ लेगा अपने रास्ते, आप मार्गदर्शक बन उसके साथ रहिए, वो कभी लड़खड़ाए, गिरे तो यह भरोसा दीजिए कि आप हैं उसे संभालने को। और उसे इस बात का भी विश्वास होना चाहिए कि समाज की तथाकथित इज़्ज़त से कहीं अधिक ऊँची आपके जीवन में उसकी उपस्थिति है। यक़ीन मानिए जब अपने यह भरोसा देते हैं तो हार-जीत का खेल बहुत पीछे छूट जाता है और जीना अच्छा लगने लगता है। और लड़ाई तो जीते जी ही लड़ी जाएगी न! देख लेंगे। सब हो जाएगा।

आप तो बस जीवन की किसी भी परीक्षा में जाते इंसान को गले लगा इतना बता दीजिए कि वह आपके लिए कितना महत्वपूर्ण है, आप उसे कितना प्यार करते हैं और कोई सफलता-असफलता इस नेह बंधन को रत्ती भर भी विचलित नहीं कर सकती।
कई वर्षों से लगातार कह रही हूँ कि सफ़लता को मारिये गोली, पहले असफ़ल होना सीखिए!
- प्रीति अज्ञात https://hastaksher.com/
मार्च 2024, संपादकीय -
https://hastaksher.com/forget-about-success-learn-to-fail-first/
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'हस्ताक्षर' फरवरी-मार्च 2024 अंक में पढ़िए -https://hastaksher.com/संपादकीय:याद है न, इस बार टॉप करना है! - प्रीति अज्ञात...
28/03/2024

'हस्ताक्षर' फरवरी-मार्च 2024 अंक में पढ़िए -
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संपादकीय:
याद है न, इस बार टॉप करना है! - प्रीति अज्ञात

कथा-कुसुम:
पटाक्षेप - मधु
आईडेंटिटी - डाॅ.रानू मुखर्जी
नया सवेरा - सन्दीप तोमर
अपनी ही गिरफ्त में - नमिता सचान सुंदर सेवानिवृत्ति - अरुण कुमार गौड़

कविता-कानन:
दो कविताएँ - चंद्रप्रभा शर्मा
कैसे खेलें होरी - ममता सिंह
इक्कीसवीं सदी का ईश्वर - धर्मपाल महेन्द्र जैन
ये कैसा वसंत है, कविवर? - शैलेन्द्र चौहान

गीत-गंगा:
लोग कहें बेचारी - डॉ. पूनम गुजरानी

व्यंग्य:
पंचर गाड़ी का पंचरनामा - अखतर अली

समसामयिक:
प्रकृति का विस्तार है रंगोत्सव - नीरज कृष्ण

प्रेम वृत्त में:
प्रेम प्रत्येक वस्तु में है - डॉ. प्रणव भारती

यात्रा-वृत्तान्त:
चम्बा की यात्रा - विनय कुमार

आलेख/विमर्श:
भारतीय समाज ,राष्ट्रवाद और उपनिवेशवाद: प्रियप्रवास और भारत भारती - कार्तिक मोहन डोगरा

बातें नई-पुरानी, धरोहर:
गांधीवाद के ध्वजवाहक ‘भारत रत्न’ चौधरी चरण सिंह - नीरज कृष्ण

विशेष:
विदा, सईद भाई! - प्रीति अज्ञात संस्मरण:
मैम! ….मेरी फियांसे - ममता सिंह

साहित्यिक हलचल:
22 वाँ अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन कोलंबो, श्रीलंका में संपन्न - टीम हस्ताक्षर

ख़बरनामा:
संस्कृत बाल कथा पर अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी भाषा विकास तथा एनईपी-2020 के लिए आवश्यक –कुलपति प्रो.वरखेड़ी - डॉ. अरुण कुमार निषाद

पत्र-पत्रिकाएँ:
शब्द घोष - टीम हस्ताक्षर

फ़िल्म समीक्षा:
स्वातन्त्र्य वीर सावरकर को करीब से देखिए - तेजस पूनियां
‘कुसुम का बियाह’ मनभावन लागे - तेजस पूनियां

जयतु संस्कृतम्:
शारदा - डॉ. राजकुमार मिश्र
अम्ब! बिम्बमपि दर्शय! - डॉ. राम विनय सिंह

- प्रीति अज्ञात
https://hastaksher.com/
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'हस्ताक्षर' दिसम्बर-जनवरी 2024 अंक में पढ़िए -https://hastaksher.com/संपादकीय नव वर्ष में क़दम रखते हुए एक चिंतन यात्रा से...
03/01/2024

'हस्ताक्षर' दिसम्बर-जनवरी 2024 अंक में पढ़िए -
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संपादकीय
नव वर्ष में क़दम रखते हुए एक चिंतन यात्रा से भी गुजरते चलें - प्रीति अज्ञात

ग़ज़ल-गाँव
गुलदानों में फूल सजाये - महेश कटारे सुगम
फिर जनवरी - सचिन मेहरोत्रा

कविता-कानन
क्या हुआ, जो नंबर थोड़े कम आए हैं - आनंद शर्मा
सुनो, तुम लिखा करो - ममता सिंह
पूछना मना है - प्रतिभा सुमन शर्मा "रजनीगंधा"

कथा-कुसुम
कनखजूरा - डॉ. पूनम गुजरानी

मूल्यांकन
किलकारी: जीवन यात्रा की सटीक, लयबद्ध एवं प्रेरक प्रस्तुति - प्रीति अज्ञात

जो दिल कहे!
महापुरुष किसी धर्म-जाति के नहीं पूरे राष्ट्र के होते हैं - नीरज कृष्ण

आलेख/विमर्श
समृद्ध संस्कृति का प्रतीक – ऐतिहासिक नगर विदिशा - शैलेन्द्र चौहान
संत साहित्य में अंधविश्वास उन्मूलन: एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण - डॉ. गुरुदत्त राजपूत

बातें नई-पुरानी,धरोहर
वनस्पति में जीवन की खोज - नीरज कृष्ण

प्रेम वृत्त में
प्रेम को कोई भी बंधन स्वीकार नहीं - डॉ. प्रणव भारती

यात्रा-वृत्तान्त
रेत का रोमांच - स्मृति गुप्ता

फ़िल्म जगत
फिल्में, इंसानी भावनाओं को मनोवैज्ञानिक तरीके से बेचने का शुद्ध व्यापार (एनिमल – फ़िल्म प्रक्रिया का मनोवैज्ञानिक पक्ष) - गौरव चौधरी

फ़िल्म समीक्षा
मुल्क से मोहब्बत करना सिखाता ‘डंकी’- तेजस पूनियां
चेहरों पर खुशियां बिखेरती ‘रब्ब दी आवाज़’- - तेजस पूनियां

जयतु संस्कृतम्, संस्कृत
कबीरा इत्थमुवाच सखे - डॉ. लक्ष्मीनारायण पाण्डेय
कालिदास! महाकवे! - डॉ. अरविन्द तिवारी
सुखं मन्ये - डॉ. निरंजन मिश्र
शिशु-शयन-गीतिका (लोरी) - युवराज भट्टराई
- प्रीति अज्ञात
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एस्केलेटर वाले वीडियोज़ पर हँसने से पहले सोचिए!आजकल प्रायः स्वचालित सीढ़ियों (एस्केलेटर) के गलत उपयोग पर बने वीडियो सोशल म...
18/12/2023

एस्केलेटर वाले वीडियोज़ पर हँसने से पहले सोचिए!

आजकल प्रायः स्वचालित सीढ़ियों (एस्केलेटर) के गलत उपयोग पर बने वीडियो सोशल मीडिया में वायरल हो जाते हैं। आपने भी अवश्य ही देखे होंगे। संभवतः उन्हें देखकर हँस भी पड़े हों! कि देखो चढ़ने की बजाय यह व्यक्ति लगातार नीचे आए जा रहा है या कि इसमें इतनी भी बुद्धि नहीं है क्या! कुछ दुर्घटनाओं के साक्षी भी बने होंगे, जहाँ कोई सीढ़ियों से गिर गया और उसे गहरी चोट आई।
विचार कीजिए कि ऐसा क्यों होता है और क्या इन पर हँसना न्यायसंगत है? आज जो किसी का उपहास उड़ा रहे हैं, पहली बार में उन्हें भी तो असुविधा हुई होगी। क्या यह उचित नहीं होगा कि परेशान व्यक्ति पर हँसने के स्थान पर उसकी सहायता ही कर दी जाए और दो मिनट देकर उसे इस तरह से समझा दिया जाए कि वह भविष्य में इनके उपयोग को लेकर सहज हो।

हम ऐसे देश के निवासी हैं जहाँ एक बड़ी आबादी अभी भी अशिक्षित है और जो पढ़े-लिखे हैं उन्हें भी तकनीक के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। आपको स्मरण होगा कि जब देश में कंप्यूटर आए थे, तो जगह-जगह कंप्यूटर शिक्षा केंद्र खोले गए थे। बैंककर्मियों को भी प्रशिक्षित किया गया था। लिफ्ट में भी कभी-कभी लिफ़्टमैन होता है जिसकी सहायता से व्यक्ति लिफ़्ट का उपयोग कर सकता है। लेकिन यह भी सत्य है कि आम नागरिक को एस्केलेटर या लिफ़्ट के उपयोग को लेकर प्रशिक्षित नहीं किया गया है।

हँसने वालों की मानसिकता को देख क्षोभ होता है कि मानवीय संवेदनाओं को क्या होता जा रहा है! एक बार मैं आगरा रेलवे स्टेशन पर ट्रेन से उतर एस्केलेटर की ओर बढ़ रही थी। अंतिम स्टेशन था और लोगों की भारी भीड़ वहाँ पहुँच चुकी थी। तभी जोरों से चिल्लाने की आवाजें सुनाई दीं। दूर से देखा तो एक महिला धक्कामुक्की में एस्केलेटर की सीढ़ियों पर गिर चुकी थी और गोदी में लिए बच्चे को बचाने के लिए उसने साइड वाले सपोर्ट को पकड़ रखा था। गिरने के बाद यह किसी की भी स्वाभाविक प्रतिक्रिया होगी कि वह पकड़ने हेतु कोई सहारा ढूँढे क्योंकि लोग तो लगभग उसको रौंदते हुए आगे बढ़ रहे थे। चूँकि वह सिर के बल गिरी थी और उसने साइड को बहुत कसकर पकड़ रखा था अतः वह लगातार घिसटती जा रही थी। कुछ पल बाद किसी को समझ आया और उसने नीचे से एस्केलेटर को बंद कर दिया। उस महिला और बच्चे की जान तो बच गई लेकिन उन्हें बहुत चोटें आईं। इसके बाद भी लोगों को चैन नहीं और उन पर यह कहते हुए हँसे जा रहे थे कि "कितने मूर्ख लोग हैं! आता नहीं, तो चढ़ क्यों जाते हैं! हमारा समय खराब कर दिया!" और भी कई अपमानजनक शब्द कानों में पड़ रहे थे।
लेकिन क्या इस पूरे घटनाक्रम में उस महिला का कोई दोष है? गँवार कहकर उसका मजाक उड़ाना चाहिए? हर कोई सुविधा चाहता है और यह उसका अधिकार है लेकिन क्या इसके लिए प्रशिक्षण आवश्यक नहीं?

कितना अच्छा हो कि देश के हर गाँव, शहर में लिफ़्ट, एस्केलेटर के उपयोग संबंधी जानकारी देकर देशवासियों को प्रशिक्षित किया जाए जिससे वह इन सुविधाओं का पूरे आत्मविश्वास के साथ लाभ उठा सकें तथा किसी दुर्घटना का शिकार न हों। लोगों को एस्केलेटर के सुरक्षा नियमों एवं उपयोग के लिए सही तरीके से जानकारी प्रदान करें। इसके लिए निम्नलिखित माध्यमों का प्रयोग किया जा सकता है -
1) हर स्थान पर लिफ़्टमैन की तरह, एस्केलेटर मैन भी होना चाहिए। जो न केवल उनकी सहायता करे बल्कि उन्हें उसी समय भविष्य में इसके सही, सुरक्षित उपयोग हेतु प्रशिक्षित भी कर दे।
2) उसी स्थान पर एवं सार्वजनिक स्थानों पर पोस्टर लगाकर भी इसे समझाया जा सकता है।
3) टीवी एवं रेडियो के माध्यम से संदेश प्रसारित किये जा सकते हैं।
4) व्हाट्सएप वीडियो और एस.एम.एस. के द्वारा जन-जन तक जानकारी पहुँचाई जा सकती है।
5) विद्यालयों में प्राथमिक शिक्षण स्तर पर ही एक पाठ इन पर हो जिसमें पूरी संवेदनशीलता के साथ सहायता करने पर भी जोर हो।
6) जानकारी, सरल भाषा में प्रस्तुत की जाए।
7) नियमों का पालन करने एवं इन साधनों का सही और सुरक्षित तरीके से उपयोग करने की भी सलाह हो जिससे दुर्घटना से बचा जा सके। कई बार पूरी जानकारी होते हुए भी लोग एस्केलेटर पर चढ़ते समय लापरवाह रहते हैं और उनके अधिक ढीले कपड़े, साड़ी का पल्लू , जूते के फीतों के फंसने के कारण परेशानी हो जाती है।

सार यह कि एस्केलेटर हो या लिफ़्ट, इनका सही तरीके से उपयोग करने के लिए उचित जानकारी, सुरक्षा संबंधी सावधानी और पूर्ण रूप से सतर्कता की आवश्यकता होती है। साथ ही देशवासियों को भी यह सीखना होगा कि किसी का मजाक उड़ाने की बजाय उसका सहयोग करें एवं उसे तकनीकी रूप से शिक्षित करें।
- प्रीति अज्ञात
राजधानी से प्रकाशित पत्रिका 'प्रखर गूँज साहित्यनामा' के दिसम्बर 2023 अंक में प्रकाशित
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25/11/2023

'हस्ताक्षर' नवम्बर 2023 अंक में पढ़िए -
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संपादकीय
मंज़िलों पे आके लुटते हैं दिलों के कारवाँ - प्रीति अज्ञात

कविता-कानन
अवैध! प्रेम को विदा करते वक़्त - हरदीप सबरवाल
संभव - शुभा मिश्रा

समसामयिक
अमानवीयता के दंश से बेजान होता मानवाधिकार - डॉ. अजय शुक्ला

व्यंग्य
बाय वन डाय टू - धर्मपाल महेन्द्र जैन

आलेख/विमर्श
सफर जासूसी उपन्यासों का - शैलेन्द्र चौहान

यात्रा-वृत्तान्त
मेरी जर्मनी यात्रा - वीरेन्द्र परमार

धरोहर
पद्मविभूषण डॉ. होमी जहांगीर भाभा - नीरज कृष्ण

जो दिल कहे!, बातें नई-पुरानी
भारत की भुखमरी और कुपोषण का बजता ‘डंका’! - नीरज कृष्ण

भाषांतर
मेरे मसीहा! - हसनैन आक़िब

प्रेम वृत्त में
प्रेम ही तो है! - डॉ. प्रणव भारती

बातें कुछ ज़रूरी-सी
सपना जीवन, जीवन सपना - चंद्रप्रभा शर्मा

बातें नई-पुरानी
जीवन में सृजन - निहारिका गौड़

कथा-कुसुम
आदमजात - डाॅ. मधु संधु

पुस्तक परिचय
नैराश्य में प्रत्याशा : एक अनंत फैला आकाश - डॉ. अरुण कुमार निषाद

फ़िल्म समीक्षा
सिनेमा का खाली कनस्तर पिप्पा- तेजस पूनियां

जयतु संस्कृतम्, संस्कृत
लघुकथा - मोती प्रसाद साहू
दीपगायत्री - डॉ. राम विनय सिंह
उलूकस्य नेत्रम् – डॉ. तारेश कुमार
सुप्रभातम् - डॉ. लक्ष्मीनारायण पाण्डेय

गिरा गुर्जरी, ગુજરાતી
કહેવત ગંગા-28 - कल्पना रघु

- प्रीति अज्ञात
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मंज़िलों पे आके लुटते हैं दिलों के कारवाँ हम भारतीय बड़े भावनात्मक लोग हैं। हम सपनों की दुनिया में जीने वाले लोग हैं.....

'हस्ताक्षर' सितंबर 2023 अंक में पढ़िए -https://hastaksher.com/संपादकीयक्षमा: उत्तम समाज की स्थापना के लिए अचूक अवधारणा - ...
23/09/2023

'हस्ताक्षर' सितंबर 2023 अंक में पढ़िए -
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संपादकीय
क्षमा: उत्तम समाज की स्थापना के लिए अचूक अवधारणा - प्रीति अज्ञात

ग़ज़ल-गाँव
सांस लेने को किनारा है ग़ज़ल - महेश कटारे सुगम

गीत-गंगा
अब हृदय का, द्वार प्रतिबंधित रहेगा - इति शिवहरे

व्यंग्य
वाशिंग मशीन हकीकत और अफ़साना - अखतर अली

कथा-कुसुम
कबीरदास - सुशांत सुप्रिय

धरोहर
डॉ. विक्रम साराभाई: भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान का स्वप्नद्रष्टा - नीरज कृष्ण

प्रेम वृत्त में
प्रेम की एक अलग तस्वीर - डॉ. प्रणव भारती

आलेख/विमर्श
इक्कीसवीं शती के प्रवासी हिन्दी उपन्यास में संस्कृति चित्रण - डाॅ. मधु संधु
जहां सुमति तहां संपत्ति नाना : आत्मगत स्वभाव में सात्विक सुमति द्वारा नियम -संयम - डॉ. अजय शुक्ला

मूल्यांकन
स्त्री मुक्ति का पुनराख्यान ‘नदी सपने में थी’ - तेजस पूनियां
दरारों में उगी दूब: दीर्घकालिक प्रभाव रखती कविताएँ - डॉ. जया आनंद

यात्रा-वृत्तान्त
मेरी बेल्जियम यात्रा - वीरेन्द्र परमार

भाषांतर
तिलोत्तमा - अनिमा दास

विशेष
चांद ने अपनी खिड़की खोली - हसनैन आक़िब

जो दिल कहे
धार्मिक उग्रता का हथियार बनती युवा पीढ़ी - नीरज कृष्ण

साहित्यिक हलचल
मधु सोसि ‘मेहुली’ के कहानी संग्रह ‘बेतरतीब बाँस का जंगल’ का लोकार्पण कार्यक्रम सम्पन्न - रीतू जैन

गिरा गुर्जरी, ગુજરાતી
કહેવત ગંગા-26 - कल्पना रघु

जयतु संस्कृतम्, संस्कृत
वायसास्ते - डॉ. राम विनय सिंह
गीतम् - डॉ. शैलेश कुमार तिवारी
कविता - डॉ. राजकुमार मिश्र

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