Radha udyan

Radha udyan madhav bhoomi

16/08/2023
29/07/2023

सूचना ,,,

18/07/2023

पाकिस्तान और बांग्लादेश में तो मनुवादी नही हैं।
तो वहां दलितों और बौद्धों ने कितनी उन्नति
कर ली, कितने जिंदा बचे हुए हैं...?

03/05/2023

K00282

बच्चे की भावना और भगवान जी द्वारा खिचड़ी खाना
...............

एक ब्राह्मण था जो भगवान को भोग लगाये बिना खुद कभी भी भोजन नहीं करता था।
हर दिन पहले गोपाल जी के लिए खुद प्रसाद बनाता था और भोग लगा कर फिर स्वयं व उसकी पत्नी व एक छोटा बेटा था यह तीनों ही गोपाल जी का प्रसाद पाते थे।
बेटा पिता जी को हर रोज ठाकुर जी की सेवा और उनको भोग आदि लगाने की पूरी क्रिया को बड़े ही मनोयोग से देखता था।
देखता था कि पिताजी किस प्रकार भोग गोपाल जी को निवेदन करते हैं–लाला प्रसाद पाओ और पर्दा लगा कर बाहर आ जाते हैं।
एक दिन ब्राह्मण को किसी काम से शहर की तरफ पत्नी के साथ जाना था सो उसने अपने बेटे से कहा–'आज तुम ठाकुर जी का ख्याल रखना और जैसे भी हो ठाकुर जी को कुछ बना कर खिला देना।'
बेटा बोला–'ठीक है पिता जी मैं जैसा आप कह रहे हैं वेसा ही करूंगा।' माता पिता शहर की तरफ चले गये।
बेटे ने कभी कुछ न बनाया न उसे कुछ बनाना आता है। उसने जल्दी-जल्दी से स्नान आदि करके दाल और चावल मिला कर कुछ कच्ची सब्जी उसमें डाल कर अंगीठी पर बिठा दिया और ठाकुर जी को स्नान करा कर पोशाक आदि बदल कर आरती कर दी, फिर बर्तन से गरम-गरम खिचड़ी निकाली और ठाकुर जी के सामने एक थाली में सजा कर परोस दी और पर्दा लगा दिया।
अब वह कुछ देर बाद बार-बार जाकर पर्दा हटा कर देखता कि गोपाल जी खा रहे हैं या नहीं मगर वह देखता है कि गोपाल जी ने तो उसकी बनाई हुई खिचड़ी को छुआ तक नहीं।
प्रसाद को काफी देर देखने के बाद छोटे से बच्चे को बहुत गुस्सा आया और वह गोपाल जी से बोला–'पिता जी खिलाते हैं सो खा लेते हो क्योंकि वह स्वादिष्ट व्यंजन जो बनाते हैं। आज मैंने बनाया है मुझे खाना बनाना आता नहीं है और मैंने बेकार सा भोजन बनाया है इसलिये नहीं खा रहे हो।'
बालक ने गोपाल जी से काफी विनती की–'आज जैसा भी बना है खा लो मुझे भी भूख लगी है तुम खा लो तो मैं भी प्रसाद पाऊँगा।' मगर गोपाल जी तो उसकी सुन ही नहीं रहे थे।
जब उस बच्चे का धैर्य जबाव दे गया और उससे रहा नहीं गया तो वह बाहर से एक बड़ा सा सोटा लेकर आ गया और जोर-जोर से चिल्लाने लगा–'खाते हो या अभी इस सोटे से लगा दूँ दो-चार।' यह कह कर वह फिर पर्दा लगा कर बाहर जाकर बैठ जाता है कि शायद इस बार गोपाल जी खा लेंगे।
अबकी बार वह फिर झांक कर देखता है कि उसके द्वारा परोसी गई सारी खिचड़ी तो गोपाल जी खा गये है।
अब एक समस्या यह हो गयी कि अब सारी खिचड़ी तो गोपाल जी खा गये अब वह क्या खायेगा व माता पिता को क्या खाने को देगा ?
ऐसा मन में विचार लिए वह थाली में जो थोड़ी बहुत खिचड़ी लगी थी, उसी को किसी तरह से चाट कर खा गया और फिर वहीं पर सो गया।
जब शाम को माता पिता हारे थके घर वापस आये तो उन्होंने बच्चे को उठाकर पूछा–'बेटा आज क्या बनाया था गोपाल जी के लिए ?'
बेटा बोला–'पिता जी मैंने वैसे ही किया जैसे आप हर रोज पूजा सेवा करते हैं मगर आज गोपाल ने मेरी बनाई सारी की सारी खिचड़ी खा ली मैं भी भूखा रह गया।' पिता को अपने बेटे की बात पर विश्वास नहीं हुआ।
फिर पिता ने बेटे से कहा–'हमें बड़ी जोर से भूख लगी है गोपाल जी का भोग प्रसाद हमें भी तो दो हम भी कुछ खा लें सुबह से कुछ खाया भी नहीं है।'
ऐसा सुन कर बच्चा रोते हुए बोला–'पिता जी आज गोपाल ने मेरे लिए भी कुछ नहीं छोड़ा, मैं भी भूखा रह गया कुछ भी नहीं खा पाया। जो थाली में लगा रह गया था वही खाया और मुझे नींद आ गयी और मैं सो गया।'
ब्राह्मण ने और उनकी पत्नी ने पहले तो सोचा कि शायद यह कुछ बना ही नहीं पाया होगा। फिर जब उन्होंने थाली की तरफ देखा तो लगा कि कुछ बनाया तो है मगर शायद खुद ही खा कर सो गया होगा और हमसे झूठ बोल रहा है।
ब्राह्मण ने सोचा–'ऐसा कैसे हो सकता है कि मैं इतने वर्षों से रोजाना नाना प्रकार के व्यंजन बना कर गोपाल जी के सामने रखता हूँ पर गोपाल जी ने कभी भी मेरी थाली से एक तिनका भी नहीं खाया आज पुत्र के हाथ से गोपाल ने खा लिया।'
ब्राह्मण को पुत्र की बात का विश्वास नहीं हुआ और ब्राह्मण ने देखने के लिए पर्दा हटाया तो देखा कि गोपाल के मुख में वह खिचड़ी लगी हुई है। फिर जब पुत्र से पूरी घटना सुनी तो ब्राह्मण खुशी से पागल हो गया कि मैं न सही मैरे पुत्र ने तो साक्षात् गोपाल को पा लिया है।
कथा का आशय यह है कि हमारी जो पूजा-सेवा है भोग-राग है यह सब भाव की है मन में जो भाव रखता है उसे भगवान निश्चय ही किसी न किसी रूप में मिल ही जाते हैं..!!

03/05/2023

K00281

सब को खिलाने वाला राम
घमंडी सेठ जी और पुजारी

किसी नगर में एक सेठ जी रहते थे, उनके घर के नजदीक ही एक मंदिर था। एक रात्रि को पुजारी के कीर्तन की ध्वनि के कारण उन्हें ठीक से नींद नहीं आयी
सुबह उन्होंने पुजारी जी को खूब डाँटा कि - यह सब क्या है?

पुजारी - एकादशी का जागरण कीर्तन चल रहा था...!!

सेठजी - जागरण कीर्तन करते हो, तो क्या हमारी नींद हराम करोगे ? अच्छी नींद के बाद ही व्यक्ति काम करने के लिए तैयार हो पाता है, फिर कमाता है, तब खाता है।

पुजारी - सेठजी ! खिलाता तो वह खिलाने वाला ही है,

सेठजी - कौन खिलाता है ? क्या तुम्हारा भगवान खिलाने आयेगा ?

पुजारी - वही तो खिलाता है,

सेठजी - क्या भगवान खिलाता है ? हम कमाते हैं, तब खाते हैं...

पुजारी - निमित्त होता है तुम्हारा कमाना, और पत्नी का रोटी बनाना, बाकी सब को खिलाने वाला, सब का पालनहार तो वह जगन्नाथ ही है,

सेठजी - क्या पालनहार-पालनहार लगा रखा है ! बाबा आदम के जमाने की बातें करते हो, क्या तुम्हारा पालने वाला एक - एक को आकर खिलाता है ? हम कमाते हैं, तभी तो खाते हैं,

पुजारी - सभी को वही खिलाता है,

सेठजी - हम नहीं खाते उसका दिया...

पुजारी - नहीं खाओ तो मारकर भी खिलाता है,

सेठ - पुजारी जी ! अगर तुम्हारा भगवान मुझे चौबीस घंटों में नहीं खिला पाया तो फिर तुम्हें अपना यह भजन कीर्तन सदा के लिए बंद करना होगा,

पुजारी -मैं जानता हूँ कि तुम्हारी पहुँच बहुत ऊपर तक है, लेकिन उसके हाथ बड़े लम्बे हैं, जब तक वह नहीं चाहता, तब तक किसी का बाल भी बाँका नहीं हो सकता, आजमाकर देख लेना....

पुजारी की निष्ठा परखने के लिये सेठ जी घोर जंगल में चले गये और एक विशालकाय वृक्ष की ऊँची डाल पर ये सोचकर बैठ गये कि अब देखता हूँ, इधर कौन खिलाने आता है ? चौबीस घंटे बीत जायेंगे और पुजारी की हार हो जायेगी। सदा के लिए कीर्तन की झंझट मिट जायेगी...

तभी एक अजनबी आदमी वहाँ आया... उसने उसी वृक्ष के नीचे आराम किया, फिर अपना सामान उठाकर चल दिया, लेकिन अपना एक थैला वहीं भूल गया। भूल गया या छोड़ गया, ये ईश्वर ही जाने....

थोड़ी देर बाद पाँच डकैत वहाँ पहुँचे, उनमें से एक ने अपने सरदार से कहा, - उस्ताद ! यहाँ कोई थैला पड़ा है,

क्या है ? जरा देखो ! खोल कर देखा, तो उसमें गरमा-गरम भोजन से भरा टिफिन था ! उस्ताद भूख लगी है, लगता है यह भोजन भगवान ने हमारे लिए ही भेजा है...

अरे ! तेरा भगवान यहाँ कैसे भोजन भेजेगा ? हम को पकड़ने या फँसाने के लिए किसी शत्रु ने ही जहर-वहर डालकर यह टिफिन यहाँ रखा होगा, अथवा पुलिस का कोई षडयंत्र होगा, इधर - उधर देखो जरा, कौन रखकर गया है... उन्होंने इधर-उधर देखा, लेकिन कोई भी आदमी नहीं दिखा, तब डाकुओं के मुखिया ने जोर से आवाज लगायी, कोई हो तो बताये कि यह थैला यहाँ कौन छोड़ गया है ?

सेठजी ऊपर बैठे-बैठे सोचने लगे कि अगर मैं कुछ बोलूँगा तो ये मेरे ही गले पड़ जायेंगे... वे तो चुप रहे,लेकिन जो सबके हृदय की धड़कनें चलाता है, भक्तवत्सल है, वह अपने भक्त का वचन पूरा किये बिना शान्त नहीं रह सकता...

उसने उन डकैतों को प्रेरित किया उनके मन में प्रेरणा दी कि .. 'ऊपर भी देखो, उन्होंने ऊपर देखा तो वृक्ष की डाल पर एक आदमी बैठा हुआ दिखा, डकैत चिल्लाये - अरे ! नीचे उतर!

सेठजी बोले - मैं नहीं उतरता,

डकैत - क्यों नहीं उतरता, यह भोजन तूने ही रखा होगा.

सेठजी - मैंने नहीं रखा, कोई यात्री अभी यहाँ आया था, वही इसे यहाँ भूलकर चला गया,

डकैत - नीचे उतर! तूने ही रखा होगा जहर मिलाकर, और अब बचने के लिए बहाने बना रहा है, अब तुझे ही यह भोजन खाना पड़ेगा....

सेठजी - मैं नीचे नहीं उतरूँगा और खाना तो मैं कतई नहीं खाऊँगा,

डकैत - पक्का तूने खाने में जहर मिलाया है, अब नीचे उतर और ये तो तुझे खाना ही होगा,

सेठजी - मैं नहीं खाऊँगा, नीचे भी नहीं उतरूँगा,

अरे कैसे नहीं उतरेगा, सरदार ने एक आदमी को हुक्म दिया इसको जबरदस्ती नीचे उतारो... डकैत ने सेठ को पकड़कर नीचे उतारा...

डकैत - ले खाना खा!

सेठ जी - मैं नहीं खाऊँगा,

उस्ताद ने चटाक से उसके मुँह पर तमाचा जड़ दिया... सेठ को पुजारी जी की बात याद आ गयी कि - नहीं खाओगे तो, मारकर भी खिलायेगा....

सेठ फिर भी बोला - मैं नहीं खाऊँगा...

डकैत - अरे कैसे नहीं खायेगा ! इसकी नाक दबाओ और मुँह खोलो, डकैतों ने सेठ की नाक दबायी, मुँह खुलवाया और जबरदस्ती खिलाने लगे, वे नहीं खा रहे थे, तो डकैत उन्हें पीटने लगे...

तब सेठ जी ने सोचा कि ये पाँच हैं और मैं अकेला हूँ, नहीं खाऊँगा तो ये मेरी हड्डी पसली एक कर देंगे, इसलिए

चुपचाप खाने लगे और मन-ही-मन कहा - मान गये मेरे बाप ! मार कर भी खिलाता है!

डकैतों के रूप में आकर खिला, चाहे भक्तों के रूप में आकर खिला लेकिन खिलाने वाला तो तू ही है, आपने पुजारी की बात सत्य साबित कर दिखायी....

सेठजी के मन में भक्ति की धारा फूट पड़ी...उनको मार-पीट कर ... डकैत वहाँ से चले गये, तो सेठजी भागे और पुजारी जी के पास आकर बोले -

पुजारी जी ! मान गये आपकी बात... कि नहीं खायें तो वह मार कर भी खिलाता है....!!!

सार - सत्य यही है कि परमात्मा ही जगत की व्यवस्था का कुशल संचालन करते हैं । अतः परमात्मा पर विश्वास ही नहीं, बल्कि दृढ़ विश्वास होना चाहिए।

03/05/2023

K00280

माता पिता का कर्ज
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"कहाँ जा रही है ,बहू ?"..स्कूटर की चाबी उठाती हुई पृथा से सास ने पूछा।
"मम्मी की तरफ जा रही थी अम्माजी।”
"अभी परसों ही तो गई थी !"
"हाँ पर आज पापा की तबियत ठीक नहीं है, उन्हें डॉ को दिखाने ले जाना है।"
"ऊहं! ये तो रोज का हो गया है ,एक फोन आया और ये चल दी। बहाना चाहिए पीहर जाने का!" सास ने जाते जाते पृथा को सुनाते हुए कहा.."हम तो पछता गए भई बिना भाई की बहन से शादी करके। सोचा था ,चलो बिना भाई की बहन है ,तो क्या हुआ कोई तो इसे भी ब्याहेगा"

"अरे !जब लड़की के बिना काम ही नही चल रहा, तो ब्याह ही क्यूं किया"..ये सुनकर पृथा के तन बदन में आग लग गई ,दरवाज़े से ही लौट आई और बोली , "ये सब तो आप लोगो को पहले ही से पता था ना आम्मा जी ,कि मेरे भाई नहीं हैं, और माफ करना इसमें एहसान की क्या बात हुई ,आपको भी तो पढ़ी लिखी कमाऊ बहू मिली हैं ।"

"लो ! अब तो ये अपनी नौकरी औऱ पैसों की भी धौंस दिखाने लगी।"
"अजी सुनते हैं ,देवू के पिताजी" सास बहू की खटपट सुनकर बाहर से आते हुए ससुर जी को देखकर सास बोली।
"पिताजी मेरा ये मतलब नहीं था ,अम्माजी ने बात ही ऐसी की, कि मेरे भी मुँह से भी निकल गया " पृथा ने स्पष्ट किया।
ससुर जी ने कुछ नहीं कहा और अखबार पढ़ने लगे
"लो! कुछ नहीं कहा, लड़के को पैदा करो, रात रात भर जागो, टट्टी पेशाब देखो, पोतड़े धोओ, पढ़ाओ लिखाओ" शादी करो और बहुओं से ये सब सुनो।"

"कोई लिहाज ही नहीं रहा छोटे बड़े का ", सास ने आखिरी अस्त्र फेंका ओर पल्लू से आँखें पोंछने लगी बात बढ़ती देख देवाशीष बाहर आ गया, “ये सब क्या हो रहा है अम्मा।"

"अपनी चहेती से ही पूछ ले।"
"तुम अंदर चलो" लगभग खीचते हुए वह पृथा को कमरे में ले गया,
"ये सब क्या है! पृथा..अब ये रोज की बात हो गई है।"
"मैंने क्या किया है देव बात अम्मा जी ने ही शुरू की है। "
"क्या उन्हें नही पता था कि मेरे कोई भाई नहीं है ? इसलिए मुझे तो अपने मम्मी पापा को संभालना ही पड़ेगा ," पृथा ने रूआंसी होकर कहा..!

"वो सब ठीक है, पर वो मेरी माँ हैं, बड़ी मुश्किल से पाला है उन्होंने मुझे। माता पिता का कर्ज उनकी सेवा से ही उतारा जा सकता है, सेवा न सही तुम उनसे जरा अदब से बात किया करो।”

"अच्छा !" "बाहर हुई सारी बातचीत में तुम्हें मेरी बेअदबी कहाँ नजर आई..उन्हें ये नौकरी वाली बात नहीं कहनी चाहिए थी..हो सकता है मेरे बात करने का तरीका गलत हो पर बात सही है देव और माफ करना..ये सब त्याग उन्होंने तुम्हारे लिए किया है मेरे लिए नहीं ..अगर उन्हें मेरा सम्मान ओर समर्पण चाहिए तो मुझे भी थोड़ी इज्जत देनी होगी..स्कूटर की चाबी ओर पर्स उठाते हुए वो बोली।

"अब कहाँ जा रही हो ", कमरे से बाहर जाती हुई पृथा से देवाशीष ने पूछा.. “जिन्होंने मेरे पोतड़े धोए हैं ,
उन्होंने भी हमें बहुत कष्ट से पाला है उनका कर्ज उतारने " पृथा ने व्यंग्य मिश्रित गर्व से ऊँची आवाज में कहा और स्कूटर स्टार्ट कर चल दी..!!
पुत्र हो अथवा पुत्री परंतु माता-पिता का जो कर्ज समझे वही श्रेष्ठ है

03/05/2023

K00279

धर्मरक्षक राजा चक्ववेण
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कहानियां प्रेरणा देने के लिए होती है
यह सत्य घटना है परंतु आज की कसौटी पर इस प्रकार की घटनाओं को नहीं परखना चाहिए
काल परिस्थिति के अनुसार कहानियों से प्रेरणा लेना चाहिए कुतर्क में नहीं फंसना चाहिए

एक राजा थे।उनका नाम था चक्ववेण।वह बड़े ही धर्मात्मा थे। राजा जनता से जो भी कर लेते थे सब जनहित में ही खर्च करते थे उस धन से अपना कोई कार्य नहीं करते थे।अपने जीविकोपार्जन हेतु राजा और रानी दोनोँ खेती किया करते थे। उसी से जो पैदावार हो जाता उसी से अपनी गृहस्थी चलाते,अपना जीवन निर्वाह करते थे। राजा-रानी होकर भी साधारण से वस्त्र और साधारण सात्विक भोजन करते थे।
एक दिन नगर में कोई उत्सव था तो राज्य की तमाम महिलाएं बहुत अच्छे-अच्छे वस्त्र और बेशकीमती गहने धारण किये हुए आई और जब रानी को साधारण वस्त्रों में देखा तो कहने लगी कि आप तो हमारी मालकिन हो और इतने साधरण वस्त्रों में बिना गहनों के जबकि आपको तो हम लोगों से अच्छे वस्त्रों और गहनों में होना चाहिए। यह बात रानी के कोमल हृदय को छू गई और रात में जब राजा रनिवास में आये तो रानी ने सारी बात बताते हुए कहा कि आज तो हमारी बहुत फजीहत बेइज्जती हुई। सारी बात सुनने के बाद राजा ने कहा क्या करूँ मैं खेती करता हूँ जितना कमाई होती है घर गृहस्थी में ही खर्च हो जाता है।क्या करूँ? प्रजा से आया धन मैं उन्हीं पर खर्च कर देता हूँ,फिर भी आप परेशान न हों,मैं आपके लिए गहनों की ब्यवस्था कर दूंगा। तुम धैर्य रखो।
दूसरे दिन राजा ने अपने एक आदमी को बुलाया और कहा कि तुम लंकापति रावण के पास जाओ और कहो कि राजा चक्रवेणु ने आपसे कर मांगा है और उससे सोना ले आओ। वह व्यक्ति रावण के दरबार मे गया और अपना मन्तब्य बताया इस पर रावण अट्टहास करते हुए बोला - अब भी कितने मूर्ख लोग भरे पड़े है।मेरे घर देवता पानी भरते हैं और मैं कर दूंगा। उस व्यक्ति ने कहा कि कर तो आप को अब देना ही पड़ेगा।अगर स्वयं दे दो तो ठीक है।इस पर रावण क्रोधित होकर बोला कि ऐसा कहने की तेरी हिम्मत कैसे हुई। जा चला जा यहां से,
रात में रावण मन्दोदरी से मिला तो यह कहानी बताई मन्दोदरी पूर्णरूपेण एक पतिव्रता स्त्री थीँ।यह सुनकर उनको चिन्ता हुई और पूँछी कि फिर आपने कर दिया या नहीं ? तो रावण ने कहा तुम पागल हो मैं रावण हूँ,क्या तुम मेरी महिमा को जानती नहीं। क्या रावण कर देगा। इस पर मन्दोदरी ने कहा कि महाराज आप कर दे दो वरना इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा। मन्दोदरी राजा चक्रवेणु के प्रभाव को जानती थी क्योंकि वह एक पतिव्रता स्त्री थी। रावण नहीं माना।जब सुबह उठकर रावण जाने लगा तो मन्दोदरी ने कहा कि महाराज आप थोड़ी देर ठहरो मैं आपको एक तमाशा दिखाती हूँ। रावण ठहर गया। मन्दोदरी प्रतिदिन छत पर कबूतरों को दाना डाला क़रतीं थी।उस दिन भी डाली और जब कबूतर दाना चुगने लगे तो बोलीं कि अगर तुम सब एक भी दाना चुगे तो तुम्हें महाराजाधिराज रावण की दुहाई है,कसम है। रानी की इस बात का कबूतरों पर कोई असर नहीं हुआ और वह दाना चुगते रहे। मन्दोदरी ने रावण से कहा कि देख लिया न आपका प्रभाव। रावण ने कहा तू कैसी पागल है पक्षी क्या समझें कि क्या है रावण का प्रभाव तो मन्दोदरी ने कहा कि ठीक है अब दिखाती हूँ आपको फिर उसने कबूतरों से कहा कि अब एक भी दाना चुना तो राजा चक्रवेणु की दुहाई है। सारे कबूतर तुरन्त दाना चुगना बन्द कर दिया। केवल एक कबूतरी ने दाना चुना तो उसका सिर फट गया,क्योंकि वह बहरी थी सुन नही पाई थी। रावण ने कहा कि ये तो तेरा कोई जादू है ,मैं नही मानता इसे। और ये कहता हुआ वहां से चला गया।

रावण दरबार मे जाकर गद्दी पर बैठ गया तभी राजा चक्रवेणु का वही व्यक्ति पुनः दरबार मे आकर पूंछा की आपने मेरी बात पर रात में विचार किया या नहीं। आपको कर रूप में सोना देना पड़ेगा। रावण हंसकर बोला कि कैसे आदमी हो तुम देवता हमारे यहां पानी भरते है और हम कर देंगे। तब उस ब्यक्ति ने कहा कि यठीक है आप हमारे साथ थोड़ी देर के लिए समुद्र के किनारे चलिये।रावण किसी से डरता ही नही था सो कहा चलो और उसके साथ चला गया। उसने समुद्र के किनारे पहुंचकर लंका की आकृति बना दी और जैसे चार दरवाजे लंका में थे वैसे दरवाजे बना दिये और रावण से पूंछा की लंका ऐसी ही है न ? तो रावण ने कहा हाँ ऐसी ही है तो ? तुम तो बड़े कारीगर हो। वह आदमी बोला कि अब आप ध्यान से देखें - महाराज चक्रवेणु की दुहाई है " ऐसा कहकर उसने अपना हाथ मारा और एक दरवाजे को गिरा दिया। इधर बालू से बनी लंका का एक एक हिस्सा बिखरा उधर असली लंका का भी वही हिस्सा बिखर गया। अब वह आदमी बोला कि कर देते हो या नहीं? नहीं तो मैं अभी हाथ मारकर सारी लंका बिखेरता हूँ। रावण डर गया और बोला हल्ला मत कर ! तेरे को जितना चाहिए चुपचाप लेकर चला जा। रावण उस ब्यक्ति को ले जाकर कर के रूप में बहुत सारा सोना दे दिया।

रावण से कर लेकर वह आदमी राजा चक्रवेणु के पास पहुंचा और उनके सामने सारा सोना रख दिया चक्ववेण ने वह सोना रानी के सामने रख दिया कि जितना चाहिए उतने गहने बनवा लो। रानी ने पूंछा कि इतना सोना कहाँ से लाये ? राजा चक्ववेण ने कहा कि यह रावण के यहां से कर रूप में मिला है। रानी को बड़ा भारी आश्चर्य हुआ कि रावण ने कर कैसे दे दिया? रानी ने कर लाने वाले आदमी को बुलाया और पूंछा कि कर कैसे लाये तो उस ब्यक्ति ने सारी कथा सुना दी। कथा सुनकर रानी चकरा गई और बोली कि - 👉मेरे असली गहना तो मेरे पतिदेव जी हैं !! दूसरा गहना मुझे नहीं चाहिए। गहनों की शोभा पति के कारण ही है। पति के बिना गहनों की क्या शोभा ? जिनका इतना प्रभाव है कि रावण भी भयभीत होता है।उनसे बढ़कर गहना मेरे लिए और हो ही नहीं सकता। रानी ने उस आदमी से कहा कि जाओ यह सब सोना रावण को लौटा दो और कहो कि महाराज चक्ववेण तुम्हारा कर स्वीकार नहीं करते।
कथासार - मनुष्य को देखादेखी न पाप,न पुण्य करना चाहिए और सात्विक रूप से सत्यता की शास्त्रोक्त विधि से कमाई हुई दौलत में ही सन्तोष करना चाहिए। दूसरे को देखकर मन को बढ़ावा या पश्चाताप नहीं करना चाहिए। धर्म मे बहुत बड़ी शक्ति आज भी है। करके देखिए !! निश्चित शांति मिलेगी।आवश्यकताओं को कम कर दीजिए जो आवश्यक-आवश्यकता है उतना ही खर्च करिये शेष परोपकार में लगाइए।भगवान तो हमारे इन्हीं कार्यो की प्रतीक्षा में बैठे हैं,मुक्ति का द्वार खोले,किन्तु यदि हम स्वयं नरकगामी बनना चाहें तो भगवान का क्या दोष..?

03/05/2023

K00278

गांव जीत गया
शहर हार गया
महेश और सरला

महेश के घर आते ही बेटे ने बताया कि वर्मा अंकल आर्टिगा गाड़ी ले आये हैं। पत्नी ने चाय का कप पकड़ाया और बोली पूरे 13 लाख की गाड़ी खरीदी और वो भी कैश में। महेश हाँ हूँ करता रहा। आखिर पत्नी का धैर्य जवाब दे गया, हम लोग भी अपनी एक गाड़ी ले लेते हैं, तुम मोटर साईकल से दफ्तर जाते हो क्या अच्छा लगता है कि सभी लोग गाड़ी से आएं और तुम बाइक चलाते हुए वहाँ पहुंचो, कितना खराब लगता है। तुम्हे न लगे पर मुझे तो लगता है।

देखो घर की किश्त और बाल बच्चों के पढ़ाई लिखाई के बाद इतना नही बचता कि गाड़ी लें। फिर आगे भी बहुत खर्चे हैं। महेश धीरे से बोला।

बाकी लोग भी तो कमाते हैं, सभी अपना शौक पूरा करते हैं, तुमसे कम तनखा पाने वाले लोग भी स्कोर्पियो से चलते हैं, तुम जाने कहाँ पैसे फेंक कर आते हो। पत्नी तमतमाई।*

अरे भई सारा पैसा तो तुम्हारे हाथ मे ही दे देता हूँ, अब तुम जानो कहाँ खर्च होता है। महेश ने कहा।

मैं कुछ नही जानती, तुम गाँव की जमीन बेंच दो ,यही तो समय है जब घूम घाम लें हम भी ज़िंदगी जी लें। मरने के बाद क्या जमीन लेकर जाओगे। क्या करेंगे उसका। मैं कह रही कल गाँव जाकर सौदा तय करके आओ बस्स। पत्नी ने निर्णय सुना दिया।

अच्छा ठीक है पर तुम भी साथ चलोगी। महेश बोला । पत्नी खुशी खुशी मान गयी और शाम को सारे मुहल्ले में खबर फैल गयी कि सरला जल्द ही गाड़ी लेने वाली है।

सुबह महेश और सरला गाँव पहुँचे। गाँव में भाई का परिवार था। चाचा को आते देख बच्चे दौड़ पड़े। बच्चों ने उन्हें खेत पर ही रुकने को बोला, चाचा माँ आ रही है। तब तक महेश की भाभी लोटे में पानी लेकर वहाँ आईं और दोनों के जूड़ उतारने के बाद बोलीं लल्ला अब घर चलो।

बहुत दिन बाद वे लोग गाँव आये थे, कच्चा घर एक तरफ गिर गया था। एक छप्पर में दो गायें बंधीं थीं। बच्चों ने आस पास फुलवारी बना रखी थी, थोड़ी सब्जी भी लगा रखी थी। सरला को उस जगह की सुगंध ने मोह लिया। भाभी ने अंदर बुलाया पर वह बोली यहीं बैठेंगे। वहीं रखी खटिया पर बैठ गयी। महेश के भाई कथा कहते थे। एक बालक भाग कर उन्हें बुलाने गया। उस समय वह राम और भरत का संवाद सुना रहे थे। बालक ने कान में कुछ कहा, उनकी आंख से झर झर आँसू गिरने लगे, कण्ठ अवरुद्ध हो गया। जजमानों से क्षमा मांगते बोले, आज भरत वन से आया है राम की नगरी। श्रोता गण समझ नही सके कि महाराज आज यह उल्टी बात क्यों कह रहे। नरेश पंडित अपना झोला उठाये नारायण को विश्राम दिया और घर को चल दिये।

महेश ने जैसे ही भैया को देखा दौड़ पड़ा, पंडित जी के हाथ से झोला छूट गया, भाई को अँकवार में भर लिए। दोनो भाइयों को इस तरह लिपट कर रोते देखना सरला के लिए अनोखा था। उसकी भी आंखे नम हो गयीं। भाव के बादल किसी भी सूखी धरती को हरा भरा कर देते हैं। वह उठी और जेठ के पैर छुए, पंडित जी के मांगल्य और वात्सल्य शब्दों को सुनकर वह अन्तस तक भरती गयी।

दो पैक्ड कमरे में रहने की अभ्यस्त आंखें सामने की हरियाली और निर्दोष हवा से सिर हिलाती नीम, आम और पीपल को देखकर सम्मोहित सी हो रहीं थीं। लेकिन आर्टिगा का चित्र बार बार उस सम्मोहन को तोड़ रहा था। वह खेतों को देखती तो उसकी कीमत का अनुमान लगाने बैठ जाती।

दोपहर में खाने के बाद पण्डित जी नित्य मानस पढ़ कर बच्चों को सुनाते थे। आज घर के सदस्यों में दो सदस्य और बढ़ गए थे। अयोध्याकांड चल रहा था। मन्थरा कैकेयी को समझा रही थी, भरत को राज कैसे मिल सकता है। पाठ के दौरान सरला असहज होती जाती जैसे किसी ने उसकी चोरी पकड़ ली हो। पाठ खत्म हुआ। पोथी रख कर पण्डित जी गाँव देहात की समसामयिक बातें सुनाने लगे। सरला को इसमें बड़ा रस आता था।

उसने पूछा कि क्या सभी खेतों में फसल उगाई जाती है? पण्डित जी ने सिर हिलाते हुए कहा कि एक हिस्सा परती पड़ा है। सरला को लगा बात बन गयी, उसने कहा क्यों न उसे बेंच कर हम कच्चे घर को पक्का कर लें। पण्डित जी अचकचा गए। बोले बहू, यह दूसरी गाय देख रही, दूध नही देती पर हम इसकी सेवा कर रहे हैं। इसे कसाई को नही दे सकते। तुम्हे पता है, इस परती खेत में हमारे पुरखों का जांगर लगा है। यह विरासत है, विरासत को कभी खरीदा और बेंचा थोड़े जाता है। विरासत को संभालते हुए हम लोगों की कितनी पीढ़ियाँ खप गयीं। कितने बलिदानों के बाद आज भी हमने अपनी मही माता को बचा कर रखा है। तमाम लोगों ने खेत बेंच दिए, उनकी पीढ़ियाँ अब मनरेगा में मजूरी कर रही हैं या शहर के महासमुन्दर में कहीं विलीन हो गए।

तुम अपनी जमीन पर बैठी हो, इन खेतों की रानी हो। इन खेतों की सेवा ठीक से हो तो देखो कैसे माता मिट्टी से सोना देती है। शहर में जो हर लगा है बेटा वो सब कुछ हरने पर तुला है, सम्बन्ध, भाव, प्रेम, खेत, मिट्टी, पानी हवा सब कुछ। आज तुम लोग आए तो लगा मेरा गाँव शहर को पटखनी देकर आ गया।

शहर को जीतने नही देना बेटा। शहर की जीत आदमी को मशीन बना देता है। हम लोग रामायण पढ़ने वाले लोग हैं जहाँ भगवान राम सोने की लंका को जीतने के बाद भी उसे तज कर वापस अजोध्या ही आते है, अपनी माटी को स्वर्ग से भी बढ़कर मानते हैं।

तब तक अंदर से भाभी आयीं और उसे अंदर ले गईं। कच्चे घर का तापमान ठंडा था। उसकी मिट्टी की दीवारों से उठती खुशबू सरला को अच्छी लग रही थी। भाभी ने एक गहनों की पोटली सरला के सामने रख दी और बोलीं, मुझे लल्ला ने बता दिया था, इसे ले लो और देखो इससे कार आ जाये तो ठीक नही तो हम इनसे कहेंगे कि खेत बेंच दें।

सरला मुस्कुराई, विरासत को कभी बेंचा नही जाता भाभी। मैं बड़ों की संगति से दूर रही न इसलिए मैं विरासत को कभी समझ नही पाई। अब यहीं इसी खेत से सोना उपजाएँगे और फिर गाड़ी खरीदकर आप दोनों को तीरथ पर ले जायेंगे, कहते हुए सरला रो पड़ी, क्षमा करना भाभी। दोनो बहने रोने लगीं। बरसों बरस की कालिख धुल गयी।

अगले दिन जब महेश और सरला जाने को हुए तो उसने अपने पति से कहा, सुनो मैंने कुछ पैसे गाड़ी के डाउन पेमेंट के लिए जमा किये थे उससे परती पड़े खेत पर अच्छे से खेती करवाइए। अगली बार उसी फसल से हम एक छोटी सी कार लेंगे और भैया भाभी के साथ हरिद्वार चलेंगे``` ।

शहर हार गया, जाने कितने बरस बाद गाँव अपनी विरासत को मिले इस मान पर गर्वित हो उठा था

03/05/2023

K00277

नारद जी और सेमर का वृक्ष............

एक बार महर्षि नारद ज्ञान का प्रचार करते हुए किसी सघन बन में जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने एक बहुत बड़ा घनी छाया वाला सेमर का वृक्ष देखा और उसकी छाया में विश्राम करने के लिए ठहर गये।

नारदजी को उसकी शीतल छाया में आराम करके बड़ा आनन्द हुआ, वे उसके वैभव की भूरि भूरि प्रशंसा करने लगे।

उन्होंने उससे पूछा कि.. “वृक्ष राज तुम्हारा इतना बड़ा वैभव किस प्रकार सुस्थिर रहता है? पवन तुम्हें गिराती क्यों नहीं?”

सेमर के वृक्ष ने हंसते हुए ऋषि के प्रश्न का उत्तर दिया कि- “भगवान्! बेचारे पवन की कोई सामर्थ्य नहीं कि वह मेरा बाल भी बाँका कर सके। वह मुझे किसी प्रकार गिरा नहीं सकता।”

नारदजी को लगा कि सेमर का वृक्ष अभिमान के नशे में ऐसे वचन बोल रहा है। उन्हें यह उचित प्रतीत न हुआ और झुँझलाते हुए सुरलोक को चले गये।

सुरपुर में जाकर नारदजी ने पवन से कहा.. ‘अमुक वृक्ष अभिमान पूर्वक दर्प वचन बोलता हुआ आपकी निन्दा करता है, सो उसका अभिमान दूर करना चाहिए।‘

पवन को अपनी निन्दा करने वाले पर बहुत क्रोध आया और वह उस वृक्ष को उखाड़ फेंकने के लिए बड़े प्रबल प्रवाह के साथ आँधी तूफान की तरह चल दिया।

सेमर का वृक्ष बड़ा तपस्वी परोपकारी और ज्ञानी था, उसे भावी संकट की पूर्व सूचना मिल गई। वृक्ष ने अपने बचने का उपाय तुरन्त ही कर लिया। उसने अपने सारे पत्ते झाड़ डाले और ठूंठ की तरह खड़ा हो गया। पवन आया उसने बहुत प्रयत्न किया पर ढूँठ का कुछ भी बिगाड़ न सका। अन्ततः उसे निराश होकर लौट जाना पड़ा।

कुछ दिन पश्चात् नारदजी उस वृक्ष का परिणाम देखने के लिए उसी बन में फिर पहुँचे, पर वहाँ उन्होंने देखा कि वृक्ष ज्यों का त्यों हरा भरा खड़ा है। नारदजी को इस पर बड़ा आश्चर्य हुआ।

उन्होंने सेमर से पूछा- “पवन ने सारी शक्ति के साथ तुम्हें उखाड़ने की चेष्टा की थी पर तुम तो अभी तक ज्यों के त्यों खड़े हुए हो, इसका क्या रहस्य है?”

वृक्ष ने नारदजी को प्रणाम किया और नम्रता पूर्वक निवेदन किया- “ऋषिराज! मेरे पास इतना वैभव है पर मैं इसके मोह में बँधा हुआ नहीं हूँ। संसार की सेवा के लिए इतने पत्तों को धारण किये हुए हूँ, परन्तु जब जरूरत समझता हूँ इस सारे वैभव को बिना किसी हिचकिचाहट के त्याग देता हूँ और ठूँठ बन जाता हूँ। मुझे वैभव का गर्व नहीं था वरन् अपने ठूँठ होने का अभिमान था इसीलिए मैंने पवन की अपेक्षा अपनी सामर्थ्य को अधिक बताया था। आप देख रहे हैं कि उसी निर्लिप्त कर्मयोग के कारण मैं पवन की प्रचंड टक्कर सहता हुआ भी यथा पूर्व खड़ा हुआ हूँ।“

नारदजी समझ गये मोह माया को हटाकर बड़े से बड़े संकट को हराया जा सकता है

अभिमान करें घमंड नहीं

03/05/2023

K00276

बेटी का मैडल
आईपीएस बनकर पिता का सम्मान

एक घर में एक बेटी ने जनम लिया, जन्म होते ही माँ का स्वर्गवास हो गया। बाप ने बेटी को गले से लगा लिया।

रिश्तेदारों ने लड़की के जन्म से ही ताने मारने शुरू कर दिए, कि पैदा होते ही माँ को खा गयी मनहूस पर बाप ने कुछ नहीं कहा।

बेटी का पालन पोषण शुरू किया, खेत में काम करता और बेटी को भी खेत ले जाता, काम भी करता और बच्ची को संभालता भी।

रिश्तेदारों ने बहुत समझाया के दूसरा विवाह कर लो पर बाप ने किसी की नहीं सुनी और पूरा ध्यान बेटी की ओर रखा।

बेटी बड़ी हुई स्कूल गयी फिर कॉलेज। हर क्लास में फर्स्ट आयी। बाप बहुत खुश होता लोग बधाइयाँ देते।
बेटी अपने बाप के साथ खेत में काम भी करवाती, फसल भी अच्छी होने लगी।
रिश्तेदार ये सब देख कर चिढ़ गए। जो उसको मनहूस कहते थे वो सब चिढ़ने लग गए।

लड़की एक दिन पढ़ लिख कर पुलिस की परीक्षा में पास होकर आईपीएस बन गयी।

एक दिन किसी मंत्री ने उसको सम्मानित करने का फैसला लिया और समागम का बंदोबस्त करने के आदेश दिए। समागम उनके ही गाँव में रखा गया। मंत्री ने समागम में लोगों को समझाया के बेटा बेटी में फर्क नही करना चाहिए, बेटी भी वो सब कर सकती है जो बेटा कर सकता है।

भाषण के बाद मंत्री ने लड़की को स्टेज पर बुलाया और कुछ कहने को कहा। लड़की ने माइक पकड़ा और कहा-
मैं आज जो भी हूँ अपने बाबुल (पिता) की वजह से हूँ जो लोगो के ताने सह कर भी मुझे यहाँ तक ले आये।

मेरे पालन पोषण के लिए दिन रात एक कर दिया। मैंने माँ नहीं देखी और न ही कभी पिता से कहा के माँ कैसी थी, क्योकि अगर मैं पूछती तो बाप को लगता के शायद मेरे पालन पोषण में कोई कमी रह गयी। मेरे लिये मेरे पिता से बढ़ कर कुछ नहीं ।

बाप सामने लोगो में बैठ कर आँसू बहा रहा था। बेटी की भी बोलते बोलते आँखे भर आयी।उसने मंत्री से पिता को स्टेज पर बुलाने की अनुमति ली। बाप स्टेज पर आया और बेटी को गले लगाकर बोला-
रोती क्यों है बेटी तू तो मेरा शेर पुत्तर है
तू ही कमजोर पड़ गया तो मेरा क्या होगा मैंने तुझको सारी उम्र हँसते देखना है।

बाप बेटी का प्यार देखकर सब की आँखे नम हो गयी।
मंत्री ने बेटी के गले में सोने का मेडल डाला।
लड़की ने मैडल उतार कर बाप के गले में डाल दिया।
मंत्री ने बोला ‘ये क्या किया !’ तो लड़की बोली ‘मैडल को उसकी सही जगह पहुँचा दिया। इसके असली हक़दार मेरे पिता जी हैं।’
समागम में तालियाँ बज उठी...!

03/05/2023

K00275

तस्लीमा नसरीन
लज्जा उपन्यास

तस्लीमा नसरीन को अपने उपन्यास जो सत्य घटनाओं पर आधारित जिस 'लज्जा' उपन्यास के कारण अपने वतन से निर्वासित होना पड़ा, उसका यह अंश जरूर पढ़ें,.......
क्योंकि हम सभी को भूलने की बहुत आदत है
...........
इसके बाद भी आपको लोग कहते हुए मिल जाएंगे कि यह शांतिप्रिय धर्म है.............

बेटियों के बलात्कारियों से जब माँ ने कहा "अब्दुल अली, एक-एक करके करो,,, नहीं तो वो मर जाएंगी "।

यह सच्ची घटना घटित हुई थी 8 अक्टूबर 2001 को बांग्लादेश में।

अनिल चंद्र और उनका परिवार 2 बेटियों 14 वर्षीय पूर्णिमा व 6 वर्षीय छोटी बेटी के साथ बांग्लादेश के सिराजगंज में रहता था। उनके पास जीने, खाने और रहने के लिए पर्याप्त जमीन थी।

बस एक गलती उनसे हो गयी, और ये गलती थी कि एक हिंदू होकर 14 साल व 6 साल की बेटी के साथ बांग्लादेश में रहना। एक क़ाफिर के पास इतनी जमीन कैसे रह सकती है..? यही सवाल था बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा ज़िया की पार्टी से सम्बंधित कुछ उन्मादी लोगों का ।

8 अक्टूबर के दिन..

अब्दुल अली, अल्ताफ हुसैन, हुसैन अली, अब्दुर रउफ, यासीन अली, लिटन शेख और 5 अन्य लोगों ने अनिल चंद्र के घर पर धावा बोल दिया । अनिल चंद्र को मारकर डंडो से बाँध दिया और उनको काफ़िर कहकर गालियां देने लगे ।

इसके बाद ये शैतान माँ के सामने ही उस 14 साल की निर्दोष बच्ची पर टूट पड़े और उस वक्त जो शब्द उस बेबस व लाचार मां के मुँह से निकले वो पूरी इंसानियत को झंकझोर देने वाले थे ।

अपनी बेटी के साथ होते इस अत्याचार को देखकर उसने कहा था, "अब्दुल अली,, एक एक करके करो, नहीं तो वो मर जाएगी, वो सिर्फ 14 साल की है।"

वो यहीं नहीं रुके,,उन माँ बाप के सामने उनकी छोटी 6 वर्षीय बेटी का भी सभी ने मिलकर बलात्कार किया .... उनलोगों को वहीं मरने के लिए छोडकर जाते जाते आस पड़ौस के लोगों को धमकी देकर गए कि कोई इनकी मदद नहीं करे ।

ये पूरी घटना बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन ने भी अपनी किताब “लज्जा” में लिखी, जिसके बाद से उनको अपना ही देश छोड़ना पड़ा। ये पूरी घटना हैवानियत से भरी है, परन्तु आज तक भारत में किसी बुद्धिजीवी ने इसके खिलाफ बोलने की हैसियत तक नहीं दिखाई है । न ही किसी मीडिया हाउस ने इसपर कोई कार्यक्रम करने की हिम्मत जुटाई है।

ये होता है किसी इस्लामिक देश में हिन्दू या कोई अन्य अल्पसंख्यक होने का परिणाम । चाहे वो बांग्लादेश हो या पाकिस्तान।

पता नहीं कितनी पूर्णिमाओं की ऐसी आहुति दी गयी होगी बांग्लादेश में हिंदुओं की जनसँख्या को 22 प्रतिशत से 8 प्रतिशत और पाकिस्तान में 15 प्रतिशत से 1 प्रतिशत पहुँचाने में।

और हिंदुस्तान में जावेद अख्तर, आमिर खान, नसीरुद्दीन शाह व हामिद अंसारी जैसे हरामखोर लोग कहते है कि हमें डर लगता है,,, जहाँ उनकी आबादी आज़ादी के बाद से लगातार बढ़ रही है ।

अगर आप भी सेक्युलर हिंदु (स्वघोषित बुद्धिजीवी) हैं और आपको भी लगता है कि भारत में अल्पसंख्यक (जो वास्तव मे अल्प संख्यक,10% से कम नहीं है) सुरक्षित नहीं हैं,, तो कभी बांग्लादेश या पाकिस्तान की किसी पूर्णिमा को इन्टरनेट पर ढूंढ कर देखिये !!!

मूर्खतापूर्ण ढंग से केवल संविधान की दुहाई देते हुए रूदाली रूदन करने की बजाय इन लोगों के बारे में बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर की राय भी पढियेगा।

इसके बाद भी आपको समझ में ना आए

*मर्जी आपकी !

फिर भी आप नहीं सुधरे तो भगवान भी आपको नहीं बचा सकता

29/04/2023

K00274

हाई क्लास सोसायटी और संस्कार
कल्लू हलवाई

वर्मा जी को जैसे ही बेटी ने फोन पर बताया, कि वो उनसे मिलने के लिए आ रही है, तो वर्मा जी तुरंत ही कल्लू हलवाई की दुकान पर पहुँचे, और कल्लू से बोले, “बिटिया आ रही हैँ पूरे एक साल बाद ! ए रे कल्लू , ज़रा वही गर्मागरम गुलाब जामुन दे दे एक किलो !”

हाँ जी वर्मा जी ,हम जानते हैँ हमारी बिटिया को गुलाब जामुन कितने पसंद हैँ ! तुम नहीं भी ले ज़ाते तो अपने नाती को देखते ही घर भिजवा देता !

तभी वर्मा जी के मित्र शर्मा जी कल्लू की दुकान पर आ गए,
“भई अब तो लोग वो डिब्बा बंद बड़ी ब्रांड के गुलाब जामुन खाने लगे हैँ ,ये क्या तुम अभी भी वही कल्लू हलवाई के मैले काले हाथों से बने गुलाब जामुन पर ही टिके हुए हो ! अपने जैसे मध्यमवर्गीय परिवार में ब्याह दिया हैँ क्या अंजू बिटिया को ?”
दो साल बाद दिल्ली से लौटे पड़ोसी शर्मा जी बोले !

“नहीं यार शर्मा ,वो बात नहीं हैं पर अंजू बिटिया को हमारे कल्लू के हाथ के बने गुलाब जामुन ही पसंद हैँ ! उसकी ससुराल भी जाता हूँ तो पैक करवा के ले जाता हूँ ,नहीं तो क्लास लगा देगी बिटिया !” वर्मा जी हँसते हुए बोले !

तुम लोग मिडल क्लास ही रहोगे ! जमाना कितना बदल गया हैँ ! मेरी बेटी तो सड़क पर पैर भी नहीं रखती ! इतने रईस खानदान में ब्याहा हैँ उसे ! हर चीज एक फ़ोन पर हाजिर होती हैँ ! शर्मा जी मजाक उड़ाते हुए बोले !

वर्मा जी कुछ बोलने ही वाले थे की तभी एक बड़ी सी कार आकर रुकी ! उसमें से वर्मा जी की बिटिया ,आर्मी ऑफिसर की यूनीफोर्म पहने दामाद जी उतरे !

दामाद जी ने वर्मा जी, शर्मा जी और कल्लू हलवाई के पैर छूये ! कल्लू हलवाई शर्म से सिकुड़ गए !

“अरे आप इतने बड़े ओहदे पर ,हम नौकरों के पैर छूकर क्यूँ पाप चढ़ा रहे हैँ ! कल्लू अपने अंगोछे से आँसू पोंछते हुए बोले !”

“अरे आप इतने बड़े हैँ ,हमारे पिता समान हैँ ! अंजू आपको काका बोलती हैँ तो मेरे भी काका हुए ना आप !”

फिर वर्मा जी से मुखातिव होकर कहा, कि “हमें पता था पापा आप यहीं मिलेंगे ,तभी आप दिख गए ! लाइए काका गुलाब जामुन दीजिये मेरे ! सभी लोग खड़े-खड़े ही गुलाब जामुन का लुत्फ उठाने लगे !

शर्मा जी से गुलाब जामुन ना गटके ज़ा रहे थे ,ना बाहर निकाले जा रहे थे !! जिस बड़ी कार के सपने शर्मा जी देखते थे ,आज वो उनके सामने खड़ी उन्हे मुँह जो चिढ़ा रही थी l

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