22/08/2020
*युद्ध इंसान से उसका इंसान छीन लेता है*
*©विवेक*
युद्ध है ही क्या? विकल्प या संकल्प! क्या सरहद पर मरना बहादुरी का काम है? बस चंद मेडल, खूबसूरत मॉन्यूमेंट-कब्रों और चंद पल के संस्मरण के लिए अपने दुश्मनों को मारना क्या गर्व महसूस कराता है? एक-दूसरे पर बंदूक ताने, खून से लीपे-पुते, दर्द-वेदना से कहराते हुए, नींद-चैन को ताक पर रखे, मधुर पंछियों के मधुर गीतों से दूर, तनाव लिए एयर-ड्रोम एयर-क्राफ्ट के हवाई हमले करते हुए और बचने की कोशिश में कठोर ग्रेनाइट की चट्टानों को कुरेचते, खोदते हुए, कटीली झाड़ियों से भरा सुरंग में छिपने जाते हुए, फिर बंदूक में कांपते हुए गोली टटोलते हुए निशाना साधना और दुश्मनों का मरना और बचना तय करना, एक-दूसरे की सीमा में घुसपैठ करना, कातिलाना हमला करना और बचना। नाजियों द्वारा उनके यहूदी कैदियों को मारकर गिनने की तरह अपने दुश्मनों को अज्ञात नागरिकों-सा सांख्यिकीय नंबर से सूचित करना, आधार कार्ड की तरह टोल-मटोल कर ना हिलने-डुलने पर आत्म संतुष्टि के लिए पुनः गोलियों से छलनी करना, महाभारत के कुरुक्षेत्र की तरह रक्त की नदियाँ बहाना जिससे ख़ुद की भी प्यास तक नहीं बुझ सकती, एक दूसरे पर बारिश की बूंदों की तरह बम-बारूद बरसाना जिससे नवनिर्मित हरी घास के भी प्रफुल्लित होने की संभावना नहीं होती।
क्या यह बहादुरी और प्रतिष्ठा कि बात है? नहीं ऐसा तो मुझे नहीं लगता। यह अवश्य पूर्ण रूप से कायरता और नीचता दिखाता है। क्या हमारे दुश्मन भी हमारे बारे में ऐसा सब कुछ नहीं सोचते होंगे? अवश्य सोचेंगे आखिरकार वे भी तो अपने सरहद पर लड़ कर ख़ुद को बहादुर और गर्व का अनुभव होंगे, जबकि दोनों का नर्क में जाना तय है और आखरी मुलाकात नर्क में ही होगी और ईश्वर दोनों से पूछेंगे क्या तुमने महाभारत से कुछ नहीं सीखा युद्ध की परिणति क्या होती है? उसके बाद भी तुमने बम-बारूद न्यूक्लियर-रिएक्टर परमाणु बनाए, वह भी युद्ध के लिए दो-दो बार परमाणु बरसाए की नई फ़सल उगेगी, पर क्या हुआ लाखों-करोड़ों लोग बेघर हुए, अपाहिज विकलांग हुए, कई जेनरेशन तबाह हो गए फिर भी कुछ नहीं सीखे। प्रथम विश्व युद्ध से मन नहीं भरा तो आत्मविश्वास के लिए दूसरा विश्व युद्ध किया, क्या अब तुम्हें एक दूसरे के हाथों मर-कर आत्म संतुष्टि मिली, क्या तुम्हारे देश में शांति हुई, भ्रष्टाचार मिटी, हर किसी को रोटी कपड़ा मकान की उत्तम ज़रूरत मुकम्मल हुई, जवाब है नहीं, तो आखिरकार युद्ध क्यों किए, क्या सोचे ईश्वर तुम्हें स्वर्ग दिखाएगा, आओ देखो ये सभी तुम्हारे युद्ध के पूर्वजों को, देखो कैसे अपनी पाप की सजा काट रहे हैं। तुम क्या सोचे सरहद के लोगों के आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे, नहीं असल में तुम अपने सरहद के राजाओ या नेताओं, मिनिस्टरों के आजादी के अंदर अपनी गुलामी से लड़ रहे थे। इन्हें देखो, इसने ही आमेर किले में रखे दुनिया के सबसे बड़े चक्के के तोप जयबाण से सिर्फ़ एक बार गोला फेंका और उसकी भयावहता देखकर सभी कांप गए थे। शायद इन्हें पश्चाताप हुआ होगा भी, उसने फिर दोबारा उपयोग नहीं की, फिर भी अभी तक नरक की सजा काट रहे हैं और तुम तो गलती पर गलती किए जा रहे हो, पश्चाताप तो दूर की बात है। मैं चाहता हूँ मेरी आंखों ने वहाँ जो देखा है, उसे दुनिया में और कोई कभी ना देखें, उस तबाही के मंज़र को याद कर आज भी मैं थर्रा जाता हूँ, कचोट खाने लगती है। उस कैंपस में मौत वाले गैस-चेंबर्सौं को काफ़ी इंजीनियरों द्वारा बनाया गया था, मुझे अफ़सोस है कि बुद्धिजीवी शिक्षक बनकर काबिल और कुशल डॉक्टर की तरह हमारे विजय गाथा को (एक दूसरे की देशों में) इंजेक्शन में भरकर वहाँ के बच्चों को युद्ध का ज़हर दे रहे हैं। प्रशिक्षित नर्सें बच्चों को मारने में सहायक बन रही थीं, वकील हमारे बहादुरों की वकालत कर पैसा ऐंठ रहें है।
युद्ध में मैं प्रबुद्ध राक्षस, कुशल मनोरोगी और काबिल पागल बन चुका था, उससे तो बेहतर किसी बाद बाढ़ पीड़ित का राहत दल-कर्मी या गोताखोर बन लोगों की जान बचाने में बहादुरी दिखाते हुए मरते तो मुझे थोड़ी चैन मिली होती, मुझे अफ़सोस है कि महाभारत के युद्ध के परिणाम से कुछ नहीं सीखा, सम्राट अशोक ने कलिंग में हुई हानि का एहसास होते ही कभी युद्ध ना करने का संकल्प लिया और बुध विचारक बन गया। शांति अमन से सम्राट बनना स्वीकार किया फिर उसने युद्ध की अपेक्षा शांति अमन से ही बेहतरी से शासन किया और जनता द्वारा पूजा भी गया। फिर भी हम लोगों ने कुछ नहीं सीखा कि युद्ध की परिणति क्या होगी?
प्रश्न और अफसोस, वाणी की स्वतंत्रता नहीं, बल्कि विश्व-बंधुत्व के लिए है, बुद्धि के अजीर्ण से पीड़ित उन लोगों से है? आख़िर हमने किस नैतिकता कि निरीक्षण कर तुम्हें अपना शत्रु माना, क्या तुम्हारे हमारे ऊपर चढ़ाई का आईडिया तुम्हारा था या असामाजिक बुरे तत्वों का था? क्या यह हद दर्जे की नाइंसाफी नहीं है? हम में से अधिकांश पात्र बेकार कारणों की मूर्खतापूर्ण खोज में युद्ध कर मौत के घाट उतरे, जैसे अधिकांश ने एक व्यर्थ की विवाद पर जान गवायाँ। हमने एक बार भी नहीं सोचा कि तुम्हारी सरकार भी बिल्कुल मेरी तरह होगी, क्या सरहदवासी और उनके मालिक (मंत्री) तुम्हारे परिवार को वह सभी इज्जत, मुआवजा दे पाएगी भी या नहीं?
देखो-देखो इन जुलूस-वादियों, नारे-बाजों, कैंडल-मार्चौं को, क्या सच में हम लोगों से ज़्यादा ग़म, गुस्से और आक्रोश के कठिन दौर से गुजर रहे हैं या अपने अंदर छुपे भड़ास या डिप्रेशन को दूर भगाने के लिए चिल्ला रहे हैं। क्या ये सभी वाकई में हमारे लिए लड़ रहे हैं, अगर लड़ भी रहे हैं तो क्या इससे कोई फ़र्क़ पड़ने वाला है। हाँ बच्चे मैं समझ सकता हूँ तुम्हारे इस दर्द को जो अभी भी ताज़ा ज़ख़्म है, मैं यहाँ 14-18, 39-45, 65, 71, 99 सभी युद्धों को देख रह हूँ, अब तो ऐसा लगता है मेरी संवेदनाएँ भी कठुआ गई है, मन में नई चिंता उभर रही है कि कहीं मुक्त बाज़ार संस्कृति तो नहीं इन संवेदना पर कब्जा कर लिया है।
कोई किसी को संसाधन के तौर पर उपयोग करना चाह रहा है तो, कोई संसाधन का उपयोग कर रहा, कोई इकोनामिक कॉरिडोर तो, कोई सागर पर प्रभुत्व करना चाह रहा, तो कोई परंपरागत शत्रुऔं से निबटने के लिए तो, कोई अपनी टेरीटरी बढ़ा़ने के लिए तो, कोई अपना प्रभुत्व सबो पर क़ायम करने के लिए युद्ध करवा रहा। असल में युद्ध करने वाला बुरा होता है या करवाने वाला। युद्ध करवाने वाला कोई व्यक्ति विशेष नहीं होता है, बल्कि कोई व्यक्तिपरक सोच या आईडिया होता है। यह विचारधाराएँ ही है जो सभी युद्धों का कारण है, तुम्हें क्या लगता है, क्या तुम्हारे देश बुरे थे या तुम्हारे लोग बुरे थे जो मेरे हाथों मारे गए। नहीं-नहीं तुम्हारी आईडियोलॉजी के वज़ह से तुम मारे गए। हर कोई अपने आईडियोलॉजी को सर्वश्रेष्ठ ठहराने के लिए युद्ध करते या कराते हैं। तुम्हें क्या लगता है, हम अपने देश के लिए लड़ते हैं, ऐसा कर देश की सेवा कर रहे हैं। नहीं-नहीं हम असल में अपने आईडियोलॉजी के लिए लड़ते हैं और ऐसा कर अपने देश के बुरे लोगों को अन्य देशों के बुरे लोगों से बचाते हैं। कहीं तुमने सुना है कि एक बुरे लोग शहीद हुए हैं या कोई मंत्री शहीद हुए हैं, नहीं ना, असल में गलतफहमियाँ की हवा से अपनी हीन भावना सहलाने वाले लोग ही युद्ध का कारण है। अगर युद्ध करना उचित होता तो हम एक दूसरे पर युद्ध का दोष क्यों मढ़ते, क्यों इस दोष को किसी एक्स वाई जेड, abc, 123 संगठन द्वारा ठहराकर अपना बचाव करते। क्या युद्ध ही उचितथा, क्या समझौतावादी माता मर चुकी थी। युद्ध इंसान से उसका इंसान छीन लेता है। युद्ध तो युद्ध है उसका स्वभाव ही उग्र है, उस आग की तरह जिसकी कोई सरहद नहीं होती। युद्ध में जिन्हें मारा, चाहे वह सिपाही ही क्यों ना हो, वे थे अच्छे इंसान ही, हमने इंसान को दुश्मन समझ कर (मान कर) मारा जो, डी के चार अक्षर ड्रेस ड्रिल, डिसिप्लिन, ड्यूटी पकड़ युद्ध लड़ते हैं, आख़िर मरने और मारनेवाले तो एक ही अद्वौत थे, कोई द्वौत तो है नहीं इसमें।