Rajpal & Sons

Rajpal & Sons Founded in 1912, Rajpal and Sons is a 108 year-old publishing house, headquartered in Delhi. In the non-fiction category, our authors include Dr A.P.J.
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Rajpal & Sons is a 112-year old publishing house, with authors like Harivansh Rai Bachchan APJ Abdul Kalam RK Narayan Khushwant Singh Devdutt Pattanaik Patrick Modiano and many more. We are one of the top publishing houses in India, with an active title list of 1,000 titles and 100 new titles being published every year. We publish books in English and Hindi languages, in non-fiction, fiction, clas

sic and contemporary literature, and children categories. Our author list includes winners of the Nobel Prize, Magsaysay Award and Man Asian Literary Prize, and 7 Prime Ministers and Presidents of India. Some of the top literary authors that we have published are Harivansh Rai Bachchan, R.K. Narayan, Mulk Raj Anand, Ruskin Bond, Khushwant Singh, Amritlal Nagar, Mohan Rakesh and Amrita Pritam. Abdul Kalam, Dr Amartya Sen, J Krishnamurti, Dr S Radhakrishan, HH Dalai Lama, Benazir Bhutto and Devdutt Pattanaik. One of the guiding principles of our publishing house is that we aim to publish books that stand the test of time. We derive great satisfaction from the fact that more than 30 of our titles that were first published over 40 years ago, are still in print and selling very well. Due to their longevity, some of these titles are recognized today as evergreen classics of Indian literature. Our sales and marketing network covers the Indian book market, as well as the major global markets such as North America, United Kingdom, Australia and New Zealand. In India, we have a direct selling network with 1000 active booksellers across the length and breadth of the country. For our global distribution, Rajpal and Sons is one of the few Indian publishers to have a distribution and sales agreement with the world’s largest book distributor, Ingram Book Company. In North America and United Kingdom, in addition to Ingram, we sell through a network of local distributors and sellers. Our reach into global markets allows us to sell through retailers like amazon.com, amazon.co.uk, and to public and private libraries across the world that stock books from India.

साहित्य तक पर जयप्रकाश पांडेय द्वारा मनीषा कुलश्रेष्ठ के कहानी संग्रह ॰वन्या॰ की समीक्षापुस्तक यहाँ से मंगायेंhttps://am...
24/04/2024

साहित्य तक पर जयप्रकाश पांडेय द्वारा मनीषा कुलश्रेष्ठ के कहानी संग्रह ॰वन्या॰ की समीक्षा

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Manisha Kulshreshtha Sahitya Tak

'बहुत खूबसूरत है आपका होम स्टे''बहुत पुराना है''आपके पिता ने बनवाया था...''नहीं! एक कहानी है यह घर,आपको मैंने बोला था ना, .....

कुरुक्षेत्र आधुनिक हिंदी साहित्य के सबसे प्रसिद्ध काव्यों में अग्रगण्य है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर द्वारा विरचित इ...
24/04/2024

कुरुक्षेत्र आधुनिक हिंदी साहित्य के सबसे प्रसिद्ध काव्यों में अग्रगण्य है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर द्वारा विरचित इस काव्य के अध्ययन -अन्वेषण हेतु तैयार की गई इस पुस्तक में कविता एवं दिनकर साहित्य के विद्वान विशेषज्ञों ने अपने आलेखों में इसके विभिन्न आयामों की मीमांसा की है। विद्यार्थियों, शोधार्थियों और काव्य विधा में दिलचस्पी रखने वालों के लिए आवश्यक यह पुस्तक बड़े अभाव की पूर्ति करेगी। इस पुस्तक की सम्पादक डॉ. रेणु व्यास राजस्थान विश्वविद्यालय में हिंदी की सहायक आचार्य हैं। दिनकर के साहित्य पर पीएचडी कर चुकीं डॉ. व्यास की अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।

कृति
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24/04/2024

शिरीष खरे के कहानी संग्रह ‘नदी सिंदूरी’ की कहानियाँ जैसे इस बात की याद दिलाती हैं कि हम नदी सभ्यता के लोग हैं। नर्मदा की सहायक नदी ‘सिंदूरी’ के किनारे बसे एक गाँव के जीवन की धड़कन इन कहानियों में सुनाई देती है। निश्चित रूप से शिरीष समकालीन लेखकों में सबसे अलग लिखते हैं।
- वेद प्रकाश सिंह

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राष्ट्रकवि दिनकर की पुण्य स्मृति को नमन💐 #दिनकर  #रामधारी_सिंह_दिनकर
24/04/2024

राष्ट्रकवि दिनकर की पुण्य स्मृति को नमन💐

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विश्व साहित्य के गौरव, अंग्रेजी भाषा के अद्वितीय नाटककार शेक्सपियर का जन्म 26 अप्रैल, 1564 ई. को इंग्लैड के रट्रैटफोर्ड-...
23/04/2024

विश्व साहित्य के गौरव, अंग्रेजी भाषा के अद्वितीय नाटककार शेक्सपियर का जन्म 26 अप्रैल, 1564 ई. को इंग्लैड के रट्रैटफोर्ड-ओँन-एवोन नामक स्थान में हुआ l उनके पिता एक किसान थे और उन्होंने कोई बहुत उच्च शिक्षा भी प्राप्त नहीं की। इसके अतिरिक्त शेक्सपियर के बचपन के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। 1582 ई. में उनका विवाह अपने से आठ वर्ष बडी ऐन हैथवे से हुआ। 1587 ई. में शेक्सपियर जीन की एक नाटक कम्पनी में काम करने लगे। वहाँ उन्होंने अनेक नाटक लिखे जिनसे उन्होंने धन और यश दोनों कमाए। 1616 ई. में उनका स्वर्गवास हुआ। प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार रांगेय राघव ने शेक्सपियर के दस नाटकों का हिन्दी अनुवाद किया है, जो इस सीरीज़ में पाठकों को उपलब्ध कराये जा रहे हैं।

#शेक्सपियर #विश्व_पुस्तक_दिवस #रांगेय_राघव #नाटक

आषाढ़ का एक दिन सन 1958 में प्रकाशित और नाटककार मोहन राकेश द्वारा रचित एक हिन्दी नाटक है। कभी-कभी इस नाटक को हिन्दी नाटक...
23/04/2024

आषाढ़ का एक दिन सन 1958 में प्रकाशित और नाटककार मोहन राकेश द्वारा रचित एक हिन्दी नाटक है। कभी-कभी इस नाटक को हिन्दी नाटक के आधुनिक युग का प्रथम नाटक कहा जाता है। 1959 में इसे वर्ष का सर्वश्रेष्ठ नाटक होने के लिए ‘संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार’ मिला था। कई प्रसिद्ध निर्देशक इसे मंच पर भी ला चुकें हैं। वर्ष 1979 में निर्देशक मणि कौल ने इस नाटक पर आधारित एक फ़िल्म भी बनाई थी, जिसने आगे जाकर साल की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का ‘फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार’ जीता।

वस्तुतः मोहन राकेश के नाटक केवल हिन्दी के नाटक नहीं हैं। वे हिन्दी में लिखे अवश्य गए हैं, किन्तु वे समकालीन भारतीय नाट्य प्रवृत्तियों के उद्योतक हैं। उन्होंने हिन्दी नाटक को पहली बार अखिल भारतीय स्तर ही नहीं प्रदान किया वरन् उसके सदियों के अलग-थलग प्रवाह को विश्व नाटक की एक सामान्य धारा की ओर भी अग्रसर किया। प्रमुख भारतीय निर्देशकों इब्राहिम अलकाजी, ओम शिवपुरी, अरविंद गौड़, श्यामानंद जालान, राम गोपाल बजाज और दिनेन राकेश के नाटकों का निर्देशन कर उनका बहुत ही मनोरहर ढग से मंचन किया। 1971 में निर्देशक मणि कौल ने ‘आषाढ़ का एक दिन’ पर आधारित एक फ़िल्म बनाई, जिसको साल की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का ‘फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार’ दिया गया। मोहन राकेश के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को लेने पर भी आधुनिक मनुष्य के अंतद्वंद और संशयों की ही गाथा कही गई है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ में सफलता और प्रेम में एक को चुनने के द्वन्द से जूझते कालिदास एक रचनाकार और एक आधुनिक मनुष्य के मन की पहेलियों को सामने रखा है। वहीँ प्रेम में टूटकर भी प्रेम को नहीं टूटने देने वाली इस नाटक की नायिका के रूप में हिन्दी साहित्य को एक अविस्मरनीय पात्र मिला है। राकेश के नाटकों को रंगमंच पर मिली शानदार सफलता इस बात का गवाह बनी कि नाटक और रंगमंच के बीच कोई खाई नहीं है। अषाढ़ का माह उत्तर भारत में वर्षा ऋतु का आरंभिक महिना होता है, इसलिए शीर्षक का अर्थ “वर्षा ऋतु का एक दिन” भी लिया जा सकता है।

कथावस्तु

‘आषाढ़ का एक दिन’ की प्रत्यक्ष विषयवस्तु कवि कालिदास के जीवन से संबंधित है। किन्तु मूलत: वह उसके प्रसिद्ध होने के पहले की प्रेयसी का नाटक है- एक सीधी-सादी समर्पित लड़की की नियति का चित्र, जो एक कवि से प्रेम ही नहीं करती, उसे महान् होते भी देखना चाहती है। महान् वह अवश्य बनता है, पर इसका मूल्य मल्लिका अपना सर्वस्व देकर चुकाती है। अंत में कालिदास भी उसे केवल अपनी सहानुभूति दे पाता है, और चुपके से छोड़कर चले जाने के अतिरिक्त उससे कुछ नहीं बन पड़ता। मल्लिका के लिए कालिदास उसके संपूर्ण व्यक्तित्व के, जीवन में, साथ एकाकार सुदूर स्वप्न की भाँति है; कालिदास के लिए मल्लिका उसके प्रेरणादायक परिवेश का एक अत्यन्त जीवंत तत्व मात्र। अनन्यता और आत्मलिप्तता की इस विसदृशता में पर्याप्त नाटकीयता है, और मोहन रोकेश जिस एकाग्रता, तीव्रता और गहराई के साथ उसे खोजने और व्यक्त करने में सफल हुए हैं वह हिन्दी नाटक के लिए सर्वथा अपरिचित है।

इसके साथ ही समकालीन अनुभव और भी कई आयाम इस नाटक में हैं, जो उसे एकाधिक स्तर पर सार्थक और रोचक बनाते हैं। उसका नाटकीय संघर्ष कला और प्रेम, सर्जनशील व्यक्ति और परिवेश, भावना और कर्म, कलाकार और राज्य, आदि कई स्तरों को छूता है। इसी प्रकार काल के आयाम को बड़ी रोचक तीव्रता के साथ प्रस्तुत किया गया है-लगभग एक पात्र के रूप में। मल्लिका और उसके परिवेश की परिणति में तो वह मौजूद है ही, स्वयं कालिदास भी उसके विघटनकारी रूप का अनुभव करता है। अपनी समस्त आत्मलिप्तता के बावजूद उसे लगता है कि अपने परिवेश में टूटकर वह स्वयं भी भीतर कहीं टूट गया है।[२]

किन्तु शायद कालिदास ही इस नाटक का सबसे कमज़ोर अंश है; क्योंकि अंतत: नाटक में उद्घाटित उसका व्यक्तित्व न तो किसी मूल्यवान और सार्थक स्तर पर स्थापित ही हो पाता है, न इतिहास-प्रसिद्ध कवि कालिदास को, और इस प्रकार उसके माध्यम से समस्त भारतीय सर्जनात्मक प्रतिभा को, कोई गहरा विश्वसनीय आयाम ही दे पाता है। नाटक में प्रस्तुत कालिदास बड़ा क्षुद्र और आत्मकेन्द्रित, बल्कि स्वार्थी व्यक्ति है। साथ ही उसके व्यक्तित्व में कोई तत्व ऐसा नहीं दीख पड़ता, जो उसकी महानता का, उसकी असाधारण सर्जनात्मक प्रतिभा का, स्रोत्र समझा जा सके या उसका औचित्य सिद्ध कर सके। राज्य की ओर से सम्मान और निमंत्रण मिलने पर वह नहीं-नहीं करता हुआ भी अंत में उज्जैन चला ही जाता है। कश्मीर का शासक बनने पर गाँव में आकर भी मल्लिका से मिलने नहीं आता; अंत में मल्लिका के जीवन की उतनी करुण, दुखद परिणति देखकर भी उसे छोड़कर कायरतापूर्वक चुपचाप खिसक पड़ना संभव पाता है। ये सभी उसके व्यक्तित्व के ऐसे पक्ष हैं, जो उसको एक अत्यन्त साधारण व्यक्ति के रूप में ही प्रकट करते हैं। निस्संदेह, किसी महान् सर्जनात्मक व्यक्तित्व में महानता और नीचता के दो छोरों का एक साथ अंतर्ग्रथित होना संभव है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास का हीन रूप ही दीख पड़ता है। महानता को छूने वाले सूत्र का छोर कहीं नहीं नज़र आता। लेखक उसके भीतर ऐसे तीव्र विरोधी तत्त्वों का कोई संघर्ष भी नहीं दिखा सकता है, जो इस क्षुद्रता के साथ-साथ उसकी असाधारण सर्जनशीलता को विश्वसनीय बना सके। कालिदास की यह स्थिति नाटक को किसी-किसी हद तक किसी भी गहराई के साथ व्यंजित नहीं होने देती।

विसदृशता के दो अन्य रोचक रूप हैं- मल्लिका की माँ अम्बिका और कालिदास का मामा मातुल। दोनों बुजुर्ग हैं, नाटक के दो प्रमुख तरुण पात्रों के अभिभावक। दोनों ही अपने-अपने प्रतिपालितों से असन्तुष्ट, बल्कि निराश हैं। फिर भी दोनों एक दूसरे से एकदम भिन्न, बल्कि लगभग विपरीत हैं। दोनों के बीच यह भिन्नता संस्कार, जीवनदृष्टि, स्वभाव, व्यवहार, बोलचाल, भाषा आदि अनेक स्तरों पर उकेरी गयी है। इससे मल्लिका और कालिदास दोनों के चरित्र अधिक सूक्ष्म और रोचकता के साथ रूपायित हो सके हैं। ऐसी ही दिलचस्प विसदृशता विक्षेप और कालिदास तथा मल्लिका और प्रियंगुमंजरी के बीच भी रची गयी है। इसी तरह बहुत संयत और प्रभावी ढंग से, व्यंग्य और सूक्ष्म हास्य के साथ, समकालीन स्थितियों की अनुगूंज पैदा की गयी है रंगिणा-संगिणी और अनुस्वार-अनुनासिक की दो जोड़ियों के द्वारा। ये थोड़ी ही देर के लिए आते हैं, पर बड़ी कुशलता से कई बातें व्यंजित कर जाते हैं। वास्तव में ‘आषाढ़ का एक दिन’ की लेखन और प्रदर्शन दोनों ही स्तरों पर व्यापक सफलता का आधार है उसकी बेहद सधी हुई, संयमति और सुचिंतित पात्र-योजना। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि ‘आषाढ़ का एक दिन’ पिछले तीस-बत्तीस वर्षों में भारत की अनेक भाषाओं में, अनेक केन्द्रों में बार-बार खेला गया है और अब भी उसका आकर्षण कुछ कम नहीं हुआ है।

निस्संदेह, हिन्दी नाटक के परिप्रेक्ष्य में और भाववस्तु और रूपबंध दोनों स्तर पर ‘आषाढ़ का एक दिन’ ऐसा पर्याप्त सघन, तीव्र और भावोद्दीप्त लेखन प्रस्तुत करता है, जैसा हिन्दी नाटक में बहुत कम ही हुआ है। उसमें भाव और स्थिति की गहराई में जाने का प्रयास है और पूरा नाटक एक साथ कई स्तरों पर प्रभावकारी है। बिंबों के बड़े प्रभावी नाटकीय प्रयोग के साथ उसमें शब्दों की अपूर्व मितव्ययता भी है और भाषा में ऐसा नाटकीय काव्य है, जो हिंदी नाटकीय गद्य के लिए अभूतपूर्व है। हिन्दी के ढेरों तथा कथित ऐतिहासिक नाटकों से ‘आषाढ़ का एक दिन’ इसलिए मौलिक रूप में भिन्न है कि उसमें अतीत का न तो तथाकथित विवरण है, न पुनरुथानवादी गौरव-गान, और न ही वह द्विजेंद्रलाल राय के नाटकों की शैली में कोई भावुकतापूर्ण अतिनाटकीय स्थितियाँ रचने की कोशिश करता है। उसकी दृष्टि कहीं ज्यादा आधुनिक और सूक्ष्म है, जिसके कारण वह सही अर्थ में आधुनिक हिन्दी नाटक की शुरुआत का सूचक है।

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#मोहन_राकेश #आषाढ़_का_एक_दिन #नाटक #विश्व_पुस्तक_दिवस

पुस्तक के कुछ अंश ‘‘इस औपन्यासिक कृति को लिखते समय प्रयास यह रहा है कि इसके माध्यम से वह सब कुछ कह दिया जाए जो अब तक पवन...
23/04/2024

पुस्तक के कुछ अंश

‘‘इस औपन्यासिक कृति को लिखते समय प्रयास यह रहा है कि इसके माध्यम से वह सब कुछ कह दिया जाए जो अब तक पवनपुत्र हनुमान के संबंध में कहीं-न-कहीं कहा जा चुका है। इस पुस्तक के पढ़ने के बाद हनुमान के संबंध में—कम-से-कम उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के संबंध में—और कुछ पढ़ने को नहीं रह जाए।
इस पुस्तक का लक्ष्य हनुमान के देवत्व की पुनर्स्थापना है। यह सही है कि उनके व्यक्तित्व के बहुत से अविश्वसनीय-से प्रतीत होते पक्षों को विश्वसनीय बनाने का प्रयास किया गया है, पर यह एक सीमा तक ही हुआ है।
लक्ष्य यहां पाठक की तर्कशील बुद्धि को संतुष्ट करना नहीं बल्कि एक पौराणिक पात्र को यथासाध्य पाठकों के समीप लाना और उसके चरित्र के अनुद्घटित पक्षों को उद्घाटित करना है।’’
देश में महाबली हनुमान के मंदिर बिखरे पड़े हैं और सभी भारतीय हनुमान चालीसा का पाठ भी करते हैं परन्तु कितने हैं जो उनके जीवन तथा इतिहास से जरा भी परिचित हैं। यह उपन्यास उनके जीवन को बहुत विस्तार से प्रस्तुत करता है और इसमें वह सब कुछ उपलब्ध है जो हनुमानजी के सम्बन्ध में किसी भी धर्मग्रन्थ में लिखा गया है। अपने विषय का अकेला आदि से अन्त तक पठनीय उपन्यास।

अपनी ओर से

महाभारत में एक उक्ति आती है- जो यहां है वह तो अन्यत्र मिल जाएगा पर जो यहां नहीं है वह कहीं और नहीं मिलेगा—यदिहास्ति तदन्यत्र, यन्नेहास्ति न तत्क्वचित्। कैसे कहूं, पर यही गर्वोक्ति मेरे ध्यान में भी रही है इस औपन्यासिक कृति के प्रणयन के दौरान। प्रयास यह रहा है कि इस कथा के माध्यम से वह सब कुछ कह दिया जाए जो अब तक हनुमान के संबंध में कहीं-न-कहीं कहा जा चुका है, ताकि इस पुस्तक के पढ़ने के बाद हनुमान के संबंध में—और कुछ पढ़ने को नहीं रह जाए। तांत्रिक उपासना—आराधना और पूजा-पाठ की बात छोड़ दें तो इस आत्मकथात्मक आख्यान में वह सब कुछ डाला गया है जो मुझे हनुमान के संबंध में ज्ञात हो सका हैं।

स्वाभाविक है कि इस क्रम में मुझे बहुत-से ग्रंथों और पुस्तकों का अवलोकन करना पड़ा है। वाल्मीकीय रामायण से लेकर तुलसीकृत रामचरितमानस, कंब रामायण (तमिल), अध्यात्म रामायण (संस्कृत तथा मलयालम), कृतिवास रामायण (बंगला), गिरिधर रामायण (गुजराती), मोल्ल रामायण (तेलगू), श्री राम विजय (मराठी), श्री राम चरित पुराणम् (तेलगू), भानुभक्त रामायण (नेपाली), आदि बहुत रामायणों के अलावा मुझे संस्कृत साहित्य के बहुत सारे ग्रंथ जैसे रघुवंश (कालिदास), उत्तरारामचरितम् (भवभूति), हनुमन्नाटक, महावीर चरितम् (भवभूति) आदि का भी सहारा लेना पड़ा है। गीता प्रेस के ‘हनुमान अंक’ ने भी मेरी सहायता की है। इनके अलावा थोड़ी-बहुत जो भी सामग्री जहां कहीं मिली है, मैंने उसे इस ग्रन्थ का उपजीव्य बनाया है। पुराणों में श्रीमद्भागवत, स्कन्द पुराण, शिव पुराण तथा पद्म पुराण से मुझे सहायता लेनी पड़ी है। वेदों को भी मैंने देखा है क्योंकि कई लोगों ने वेदों, विशेषकर ऋग्वेद में भी हनुमान को ढूंढ़ने का प्रयास किया है। पर त्रेता में अवतरित मारुति को अनादि वेदों में ढ़ूंढ़ निकालने का प्रयास मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा, अतः मैंने लिखने के बाद भी वेदों पर आधारित अध्याय को इस पुस्तक से बाहर कर दिया।

वस्तुतः इस पुस्तक को लिखते समय मुझे गोस्वामी जी के ‘नाना पुराण’ निगमागम सम्मतं यत्’ की बात ठीक से समझ में आई है। नाना ग्रन्थ-सम्मत नहीं हो तो ऐसी पुस्तक का महत्त्व नहीं होता।
ऐसी स्थिति में यह तो स्पष्ट है कि हनुमान के संबंध में इस पुस्तक में जो भी है उसका कहीं-न-कहीं कोई-न-कोई आधार अवश्य है। किवदंती भी है तो वह मेरी गढ़ी नहीं है। चूंकि, यह कथा-कृति है शोथ-ग्रन्थ नहीं, अतः सबके लिए फुटनोट देकर कथा-प्रवाह को बाधित और नीरस करना उचित नहीं था वर्ना सारे संदर्भों का उल्लेख सहज था।
स्वीकार करना पड़ेगा कि यह पुस्तक मैंने लिखी नहीं, लिखवाई गई है। आध्यात्मिक-प्रेरणा और निदेश पर आप विश्वास करते हैं, या नहीं मैं कैसे जानूं पर मैं यह मूर्खता (?) करता रहा हूं। ‘पहला सूरज’ के प्रकाशनोपरान्त मेरे प्रकाशक ने जिस पुस्तक की योजना सुझाई, वह थी मैथिली कोकिल विद्यापति पर एक औपन्यासिक कृति। पर उसी रात वह कार्यक्रम परिवर्तित हो गया और हनुमान पर लिखने की बात ठहरी।

पुस्तक के आरम्भ के पूर्व इसका शैली-निर्धारण नहीं हुआ था। लिखने बैठा तो उसी रात आत्मकथात्मक शैली अपनाने की बात हुई। लिखने के क्रम में भी यत्र-तत्र निदेश मिले। किसने किया यह सब कैसे बताऊं ? कैसे कहूं भगवान हनुमान जी हैं इसके पीछे ? मैं तो उन्हें भगवान ही कहता हूं यद्यपि इस पुस्तक में वे अपने को देवता मानने को भी प्रस्तुत नहीं। किसी ने दी हो ये प्रेरणाएं या मेरे अर्द्धचेतन या अवचेतन की ही उपज हों वे, पर मैंने उनका अक्षरशः पालन किया है। ऐसा कर मैंने कोई भूल की, ऐसा मैं मानता नहीं। इससे मेरा काम आसान ही हुआ है।
एक बात समालोचकों के लिए भी। यद्यपि मैंने इस पुस्तक के प्रणयन में आधार कई ग्रन्थों को बनाया है पर भाषा, शिल्प और शैली सर्वत्र मेरी है। मेरा अन्य प्रकार का अध्ययन भी इससे यत्र-तत्र स्थान पा गया है। कथाकृति होने के कारण इसकी बुनावट में कल्पना के ताने-बाने का भी प्रचुर प्रयोग हुआ ही है। जहां कोई संदर्भ में सीधे अथवा थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ लेना पड़ा है वहां पाद-टिप्पणी में उसका स्पष्ट उल्लेख कर दिया गया है, यद्यपि ऐसे अवसर बहुत कम अथवा नगण्य ही हैं।

पुस्तक इस रूप में भी अन्य ग्रन्थों से पृथक् है कि इसमें और कहीं-कहीं अत्याधुनिक अवधारणा को भी महत्त्व दिया गया है। यही कारण है कि युद्ध के देवता होकर भी हनुमान इसमें युद्ध के विरुद्ध बोलते हैं, राष्टों का कृत्रिम सीमाओं को नकारते और साम्प्रदायिक एवं राष्ट्रीय सद्भावनाओं के आधार पर विश्व-मानव की परिकल्पना को पोषित करते प्रतीत होते हैं।
पर यहां एक बात स्पष्ट करनी होगी। सब कुछ होते हुए भी इस पुस्तक का लक्ष्य हनुमान के देवत्व को नकारना नहीं बल्कि उसकी पुर्नस्थापना ही है। यह सही है कि उनके व्यक्तित्व के बहुत से अविश्वसनीय-से प्रतीत होते पक्षों को विश्वसनीय बनाने का प्रयास किया गया है पर यह एक सीमा तक ही हुआ है। हनुमान के अति-मानवीय अथवा दैवी स्वरूप के ऊपर मात्र इसलिए एक मानवीय रूप को आरोपित करने का प्रयास नहीं किया गया है कि वह आधुनिक पाठक की रुचि से अधिक अनुकूल बैठे। लक्ष्य यहां पाठक की तर्क-शील बुद्धि को संतुष्ट करना नहीं बल्कि एक पौराणिक पात्र को यथासाम्य पाठकों के समीप लाना और उसके चरित्र के अनुद्घाटित पक्षों को उद्घाटिक करना है। सामान्य पाठक अगर अपने और इस महान पुराण-पात्र के मध्य दूरी देखता है तो वह स्वाभाविक है क्योंकि इस कृति का लक्ष्य उस दूरी को निःशेष करना नहीं बल्कि उसके माध्यम से देवता के प्रति मनुष्य की श्रद्धा को अक्षुण्ण रखना और उसमें वृद्धि लाना ही है, अनास्थावान इससे निराश होंगे तो हों। मेरा लक्ष्य उनको तुष्ट करना, अपनी पहले की रचनाओं में भी नहीं रहा, इसमें भी नहीं है।

इस उपन्यास में जिन स्थानों का उल्लेख आया है उनमें अधिकांश मेरे देखे हुए हैं। विदेशो में मॉरीशस गया हूं। 1976 के विश्व हिन्दी सम्मेलन के समय यह संयोग बैठा था। देश में पंचवटी, अयोध्या, नासिक, अमरकंटक, प्रयाग, भुवनेश्वर, जगन्नाथपुरी, तिरुपति, सासाराम, हैदराबाद, मुंबई, कलकत्ता, भीमशंकर, औंकालेश्वर, वैष्णो देवी, दिल्ली, नाथद्वार, दरभंगा, वाराणसी आदि अधिकांश कई बार के देखे-सुने हैं। रेल-मंत्रालय दिल्ली में संयुक्त निदेशक (राजभाषा) के रूप में प्रतिनियुक्त रहने से यह सुयोग उपलब्ध हुआ। जिन कुछेक स्थानों पर नहीं गया उसमें संबंधित सूचना स्वभावतः पढ़ी-सुनी है।

अयोध्या तो इतनी बार जाने का सुयोग हुआ कि वह मेरे अन्दर रच-बस गई है। इसका अधिक श्रेय है मेरे बुजुर्ग शुभचिन्तक और महान् हनुमान-भक्त डॉ.यदुवीर सिन्हा को जो रायबहादुरी और दरभंगा के प्रमुख होमियों-मेडिकल कॉलेज का प्रिंसिपली और अपनी अपार संपत्ति छोड़कर सपत्नीक अयोध्या-वास कर रहे हैं। अयोध्या में नजरबाग के सीतारामीय सेवा-सदन में डेरा-डाले डॉ.सिन्हा पर हनुमान जी की असीम अनुकम्पा है।
पुस्तक की पांडुलिपि के टंकन में श्री टंकन में श्री देवेन्द्र चौधरी और श्री अनिल कुमार सिन्हा ने जो विशेष रुचि प्रदर्शित की है, उसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं।
निश्चय ही भगवान हनुमान की अनुकम्पा इस पुस्तक प्रणयन के दौरान रही है। मैं उनके प्रति अपना श्रद्धापूर्ण नमन निवेदित करता हूं।
अब मैं आपके और हनुमान के बीच बहुत देर नहीं रह सकता। ऐसे ही भगवान हनुमान को बहुत व्यवधान पसन्द नहीं। लीजिए, कीजिए आस्वादन इस हनुमान-गाथा का।

-भगवतीशरण मिश्र

पटना
कृष्ण जन्माष्टमी
(19.8.1987)

एक

मलय-पवन वहां नित्य प्रवाहित था। इस गन्ध-वाही वायु का सुखद स्पर्श तन-मन के सारे ताप-संताप का शमन कर प्राणों में सदा एक नव-स्फूर्ति, नवोत्साह का संचार करता रहता। ऋतुपति की सतत उपस्थिति से विकसित कुसुमों और उन पर गुंजायमान भ्रमर-पक्तियों के कारण प्रकृति यहां सदैव श्रंगारित और सौंदर्यपूरित रहती। सलिल-कुंडों का स्फटिक-सा स्वच्छ जल, रक्त-कमल और धवल कुमुदिनी-कुसुमों से सदैव युक्त रहता। सरित-प्रवाहों और सरोवरों के कूल-निर्मित, तपस्वियों और सिद्ध-साधकों के मोहक कुटुजों में निरन्तर सम्पन्न अग्निहोत्र के कारण पूरा परिवेश हविष-गन्ध से गम-गम करता रहता। इन पर्णकुटियों से उठते मंत्रोच्चार और देव-स्तवन के स्वर संपूर्ण प्रदेश को एक अलौकिक प्रवीणता और शुचिता प्रदान करते रहते। कभी-कभी दिख जाते श्वेत श्मश्रुधारी यति-मुनि एवं साधक वैरागी दर्शकों के पापों के क्षय और उनके पुणयोदय का कारण बनते। संपूर्ण क्षेत्र सदा एक स्वर्गिक आभा से संपन्न, एक अलौकिक विलक्षणता से व्याप्त लगता। यह था प्रसिद्ध प्रभास-तीर्थ।

यहां कहीं आस-पास रहते थे वानर-राज केसरी। पर्वत के सुरम्य शिखर पर निर्मित एक भव्य प्रासाद में निवास था वानर-जाति के इस राजा का। पुच्छयुक्त किन्तु बल-बुद्धि-विद्या-सम्पन्न यह जाति नर से किसी भी अर्थ में कम नहीं थी। किन्नर, गंधर्व, वानर— अपने-अपने प्रदेशों में सानन्द निवास करने वाली ये जातियां—बहुत अर्थों में नरों से श्रेष्ठ और समुन्नत थीं। ये उप-देवता की श्रेणी में आती थीं। काम-रूप होती थीं ये और इच्छाधारी। जब जैसा चाहा स्वरूप धर लिया, जब जहां चाहा पहुंच गए।

धन-धान्य से पूर्ण वानर-साम्राज्य के स्वामी महावीर केसरी के दिन सुख-पूर्वक ही कट रहे थे पर एक चिन्ता थी जो उन्हें सदा व्यथित करती रहती। सब कुछ पर सन्तान-सुख से तो वंचित ही थे वह। कौन था उनके पश्चात् यह सब भोगने वाला ? जिस राजा को कोई उत्तराधिकारी नहीं हो उसकी छाया से भी दूर भागते हैं लोग। पापी और भाग्यहीन की ही संज्ञा पाता है निःसन्तान—चाहे वह राजा हो या रंक। यही एक बात थी जो वानर-राज के अन्तर को निरन्तर मथ रही थी।
प्रभास-तीर्थ के पास ही प्रवाहित एक सुरम्य सरित-प्रवाह में वहां तपोरत ऋषि-मुनियों का स्नान-मज्जन सम्पन्न होता और उसी में जल-क्रीड़ा रत रहता ‘‘धवल’’ नाम की मत्त गजराज जिसके दीर्घ दन्त-युगल सदा स्नानार्थियों के भय का कारण रहते। अपने इन तीक्ष्ण किन्तु सशक्त दांतों से वह अनेक ऋषि-मुनियों के प्राण ले चुका था। एक दिन उसकी दृष्टि गई स्नान-रत ऋषि-प्रवर भारद्वाज के ऊपर और वह उनके पीछे ही पड़ गया। ऋषियों के ऋषि, ऋषि-गुरु भरद्वाज प्राणों के भय से सिर पर पैर रख आश्रम की ओर भागे पर वह मस्त मतंग उनके पीछे ही पड़ा रहा। निकट था कि उसके दुर्धर्ष दन्त
ऋषि के कलेवर को चीर रखते कि वानरराज केसरी प्रवास तीर्थ की ओर आ धमके। उन्होंने ‘‘धवल’’ को दांतों से पकड़ा और फिर उन दीर्घ दन्तों को उनके शरीर से अलग कर, उन्हीं द्वारा प्रहार कर उसके प्राण1 ले लिये।
‘‘वरं ब्रूहि’’, प्रसन्न एवं आश्वस्त ऋषि ने कहा था।

‘‘वर क्या मांगना ऋषिवर ? आपका दिया सब कुछ है।’’ वानर-राज ने नत-ग्रीवा निवेदित किया था।
‘‘होगा सब कुछ’’ ऋषि भरद्वाज ने कहा था, ‘‘फिर भी साधुओं के दर्शन व्यर्थ नहीं जाते। मांग लो जो कुछ भी मांगना चाहो। कुछ भी अदेय नहीं है मेरे लिए। ऐसा ही फल है प्रभास-तीर्थ में सम्पन्न मेरी तपस्या का।’’
वानर राज केसरी का मन ढोला था। अगर कुछ भी अदेय नहीं है ऋषि के लिए तो मांग ही लूं एक पुत्र। और जब प्रभास-तीर्थ में ही मांगना है संतान-सुख और वह भी तपः-पूत ऋषि-प्रवर भरद्वाज से तो ऐसा-वैसा पुत्र क्या मांगूं ? मांग ही लूं एक ऐसा सुत जिसके सदृश त्रैलोक्य में न कोई हुआ है, न हो।’’ यह संकल्प आया था केसरी के मन में और उन्होंने अभिव्यक्ति दी थी अपनी आकांक्षा को—‘‘देना हो तो दे दीजिए एक पुत्र प्रभु ! बल, बुद्धि और विद्या के साथ-साथ ईश्वर-भक्ति, साधु-सेवा और सदाचार में जो पांक्तेय हो। समानता नहीं हो जिसकी, स्वर्ग, पाताल, और मर्त्य लोकों तक।’’
‘‘एवमस्तु !’’ प्राण-दान ही मिले थे जिसके हाथों उसे एक पुत्र-मात्र का वरदान देने में ऋषि को कितना समय लगता था भले ही उनके वरदान को सत्य सिद्ध करने के लिए स्वयं शिव को ही क्यों नहीं अपने एक अंश से अवतरित होने को बाध्य होना पड़ा हो ? भले ही एकादश रुद्र को ही क्यों नहीं जाना पड़ा हो केसरी भार्या अंजना के गर्भ में।
‘‘हां अंजना ही नाम था वानर राज की साध्वी पत्नी का जिसने संतान सुख की इच्छा से शिवाराधना में सुखा ही दिया था अपने कोमल गात को।

‘‘ ऊँ नमः शिवाय। ऊँ नमः त्र्यम्बकाय, विश्वनाथाय, महेश्वराय, भूतेशाय’’

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1.धवल नाम ते हस्ती दोघल दशन, दन्ताघाते चिरिया मारित मुनिजन।
भरद्वाज महाऋषि ऋषिर प्रधान, दन्त सारि जाय हस्ती नीते तार प्राण।

-बंगला, कृतिवास रामायण।

की धवनि से गन्धमादन वह पूरा पर्वत प्रदेश पूरित-सा रहता जहां तपोरता अंजना आशुतोष शिव के दर्शनार्थ अन्न-जल का त्याग किए पड़ी थी।
इधर ऋषि ने केसरी को आप्त काम किया और उधर आशुतोष प्रकट हुए अंजना के समक्ष—‘‘मांगों क्या मांगती हो।’’
क्या मांगती अंजना, एक सुत के शिवा ? शिव के लिए भी यह वरदान आसान हो आया था। ऋषि वाक्य को तो सत्य होना ही था, क्या लगा था इन्हें थोड़ा सहयोग देकर सफलता की घड़ी को कुछ समीप सरका देने में !

उस योगिराज शिव ने क्षणार्ध के अपने ध्यान में देख लिया, क्या कुछ नैसर्गिक घट रहा था उसी समय सुदूर स्थित साकेत-नगरी—अयोध्या—में। अंजना को अपने दर्शन से कृतार्थ करते हुए उन्होंने कहा- ‘‘तुम्हें एक अत्यंत पराक्रमी पुत्र उत्पन्न होगा जिसकी गति अंतरिक्ष, पाताल और पृथ्वी तीनों में अबाधित होगी और जिसके समान योद्धा, गुणज्ञ और भगवद्भक्त न तो अब तक त्रैलोक्य में हुआ है न भविष्य में होगा। स्वयं अपने एक अंश से अवतरित हो रहा हूं मैं। रुद्रावतार होगा तुम्हारे आंगन में अंजना। शंकर-सुत की ही संज्ञा पायेगा तुम्हारा तनय। केवल कुछेक दिन यों ही, इसी स्थान पर अंजलि खोले, तपस्यारत रहो।’’ कहकर देवाधिदेव अन्तर्धान हो गए और अंजना ने दूने मनोयोग से मन्त्रोच्चार आरम्भ कर दिया—ऊँ नमः शिवाय, त्र्यम्बकाय, ईशाय, विश्वनाथाय..विश्वेश्वराय....।’’

उधर हो रहा था राजा दशरथ के यहां पुत्रेष्टि यज्ञ। गुरु वशिष्ट ने आयोजित कराया था इसे ऋष्यश्रृंग के पौरिहित्य में—निस्सन्तान सम्राटं का सन्तान-सुख प्रदान कराने के लिए। प्रज्वलित अग्निकुंड से, हाथों में चारु-पात्र लिए स्वयं प्रकट हुए थे अग्निदेव यज्ञ-समाप्ति के काल।
‘‘इसे ग्रहण करो राजन् और वितरित कर दो चरु (खीर) को अपनी रानियों के मध्य। चार प्रतापी पुत्र उत्पन्न होंगे इस प्रसाद के द्वारा।’’ गुरु ने कहा था और उस समय उन्हें भी पता चला कि चार नहीं पांच प्राणियों की उत्पत्ति का कारण बनने जा रहा था वह अग्नि-प्रदत्त दिव्यान्न।
अयोध्यापति ने रत्न जटिल राज-प्रांगण में पक्ति में किया था अपनी तीनों पत्नियों—कौशल्या, कैकेयी, और सुमित्रा—को और रख दी थी उनकी खुली हथेलियों में पड़े द्रोणों में खीर को, उनके-उनके हिस्से के अनुसार। उसी क्षीण आकाश से लपकी थी एक चील और एक झटके में सुमित्रा के करस्थ खीर भरे द्रोण (दोना) को चंचु में दबा उड़ चली थी—प्रभास-तीर्थ की दिशा में।

चील जब ठीक उस स्थान पर पहुंची जहां देवी अंजना अंजली खोले तपस्या रत थीं तो पवन के लिए प्रबल झोंके के कारण चरु-भरा पर्णपुट उसके चंचु से छुट गया और आ गिरा उसकी अंजलि में। ठीक इसी समय प्रकट होकर, पवन-देव वहां बोल पड़े थे—अंजने, आशुतोष की प्रेरणा से ही मैंने यह चरु तुम्हें उपलब्ध कराया है। इसे सदाशिव और पवन का सम्मिलित आशीर्वाद समझकर ग्रहण करो। शिव के वरदान के अनुसार तुम्हारा पुत्र शक्तिशाली और वेद-वेदांग-पारंगत तो होगा ही मेरे प्रसाद से वह मेरे वेग को प्राप्त करेगा। इस चरु के ग्रहण करते ही तुम्हें गर्भाधान होगा और इसे तुम तक पहुंचाने में प्रेरणा बनने के कारण आशुतोष के अंश से उत्पन्न तुम्हारा पुत्र, पवनसुत के नाम से भी विख्यात होगा।’’
प्रसन्न-मन माता अंजना घर लौटी थी। तत्क्षण उनमें गर्भाधान के लक्षण प्रकट हुए और उन्होंने शिव और पुनः पवनदेव के दर्शन की बात अपने केसरी को बताई थी। उप-देवताओं में गर्भाधान के पश्चात् शिशु-जन्म में बहुत काल नहीं लगता। जैसा मेरी माता ने बताया मैं तत्काल ही पैदा हुआ था और जैसा कि उप-देवताओं में अक्सर होता है, मैं यज्ञोपवीत और सुन्दर अधोवस्त्र आदि से वेष्टित उत्पन्न हुआ था।1

चैत्र मास के शुक्ल पक्षीय एकादशी और मंगलवार को जब मैंने प्रथम-प्रथम इस धरित्री का स्पर्श-सुख प्राप्त किया उस क्षण चन्द्रमा-माघा नक्षत्र पर थे।

माता अंजना और पिता केसरी ने मेरे जन्म के उपलक्ष में महोत्सव का आयोजन किया और प्रभास-क्षेत्र के तपस्वियों और सिद्ध-साधकों के यहां घूम-घूम उनके आशीर्वाद-कवच से मुझे मंडित कराया।
अपने जन्म की यह कथा मैंने माता अंजना से ही सुनी थी। इस के कुछ ही दिनों के बाद की एक घटना भी आपको सुना ही दूं। इसके पूर्व एक बात कह देना आवश्यक प्रतीत हो रहा है। मुझे इस बात का अहसास है कि मेरी बहुत-सी बातें आपकों बड़ी विचित्र लगती होंगी और इन पर सहसा विश्वास करने को आपका मन करता भी नहीं होगा। किन्तु आपकी कठिनाई यह है कि आप सब कुछ इस भू-लोक के संदर्भ में ही देखना-परखना चाहते हैं। अब मैं आपको कैसे बताऊं कि जो कुछ आप देख रहे हैं वही सब कुछ नहीं है। केवल इसी भू-लोक पर सब कुछ नहीं घटता, अनेक ऐसे लोकों में भी जो आपके लिए दृष्टिगम्य नहीं हैं या जिन्हें सूक्ष्म लोक कहा जाता है, घटनाएं निरन्तर घटती रहती हैं। भिन्न कम्पन (वाइब्रेशन) युक्त होने से ये लोक और यहां के निवासी आपके लिए दृश्य नहीं होते पर इस आधार पर उनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। इसी लोक में जब कोई वस्तु सामान्य से अधिक कम्पन से युक्त होती है तो इसे आप कहां देख पाते हैं ? केवल एक उदाहरण दूंगा। आजकल आप विद्युत पंखों का प्रयोग करते हैं, उष्णता के निवारण के लिए। वह रुका रहे अथवा धीरे-धीरे चले तो

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1. कल्प भेद से हनुमान के जन्म की कई कहानियां हैं जो वाल्मीकि रामायण से लेकर आनन्द रामायण, शिवपुराण तथा स्कन्दपुराण आदि कई ग्रन्थों में बिखरी पड़ी हैं। यहां मैंने उसी कथा को आधार बनाया है जो मुझे अधिक ग्राह्य और हनुमान के अनुकूल लगी।

दृष्टिगम्य होता है किन्तु वही जब तीव्रतम गति से गतिमान होता है तो कहां देख पाते हैं उसे आप ?
तो उप-देवता, देवता और पितर-प्रेत, किन्नर, गंधर्व तथा अन्य श्रेणियों के लोग आज भी हैं अपने-अपने लोकों में। उनके शरीरों और उनकी गतिविधियों के सूक्ष्म होने के कारण यदि आप उनसे परिचय नहीं प्राप्त कर सकते तो इसका किया ही क्या जा सकता है ?

यहां देवता या उप-देवता या पितर-प्रेत जब आपके कम्पन-क्षेत्र में प्रवेश कर आपको दर्शन होते हैं तो आपमें से कुछ को उनके अस्तित्व का प्रत्यक्ष भान होता है। यदि आप कुछेक ऐसे लोगों में हैं जिन्हें एक या अधिक बार ऐसी सूक्ष्म शक्तियों के दर्शन हुए हैं तो आपके लिए किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं, किन्तु जिन्हें ऐसा अवसर नहीं मिला है, उन्हें तो विश्वास दिलाने का प्रयास-मात्र ही किया जा सकता है।

तो मैं सुनाने जा रहा था सूर्य-भक्षण की उस घटना को जिसका वर्णन आपने भी पढ़ा-सुना होगा।
प्रत्यूष काल था। पूर्व समीर प्रवाहमान हो दिशाओं को उल्लसित कर रहा था। माता अंजना कहीं गई हुई थीं। पिता का भी पता नहीं था। मैं एकाकी, गिरि-महल के उस एकान्त कक्ष में पड़ा था। क्षुधा तीव्र से तीव्रतर होती जाती। अन्ततः जब वह आसह्य हो गई तो मैं कक्ष से बाहर आ गया। फल-जीवी तो मैं था ही। दृष्टि अनायास तरु-शिखरों की ओर गई। आप जानते ही हैं वसन्तारंभ के दिनों अधिकांश वृक्ष पुष्पाच्छादित होते हैं। फलों का प्रायः अभाव होता है। (तरु-शिखरों को फल-विहीन पा मैं घोर निराशा से ग्रस्त हो आया और तभी मेरी दष्टि पूर्व क्षितिज की ओर खिंची। उधर का पूरा गगन-प्रदेश पूर्णतया इंगुरी हो आया था—जैसे कोई पलाश-वन पूरी तरह प्रफुल्लित हो आया हो अथवा कोई विस्तृत वन-प्रान्तर दावाग्निग्रस्त हो गया हो। अद्भुत था यह दृश्य। कुछ देर के लिए मैं अपनी क्षुधा को भूल मैं इस शोभा के अवलोकन में व्यस्त हो गया था कि विचित्र घटा था। क्षितिज के नीचे से एक स्वर्णिम, मंडलाकार वस्तु सरक कर आने लगी थी। अद्भुत था उसका आकर्षण। उसके लाल रंग और उसकी अतिरिक्त कोमलता, कमनीयता ने मुझे शिशु का मन मुग्ध कर दिया। क्या हो सकता था यह, एक सुन्दर फल के सिवा ? मेरे मन ने कल्पना की। मानव-शिशु की आरम्भिक प्रवृत्ति से भी आप पूर्णतया परिचित हैं ही। वह भी हर आकर्षक वस्तु को भोज्य सामग्री ही समझ लेता था और उसे मुंह के हवाले करना शुरू करता है।

इस स्वर्णिम और रस-सिक्त-से प्रतीत होते आकर्षक बिम्ब ने मेरे मुंह में पानी भर दिया और मेरी क्षुधा द्विगुणित-त्रिगुणित हो मुझे व्यथित करने लगी। यह सुमधुर फल प्राप्त हो जाता तो मैं अपनी इस सर्वग्रामी भूख को निःशेष कर पाता, मेरे मन में आया।

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एक चराग़ और एक किताब और एक उम्मीद असासा उस के बाद तो जो कुछ है वो सब अफ़्साना है - इफ़्तिख़ार आरिफ़ असासा - धन-दौलत, पूँ...
23/04/2024

एक चराग़ और एक किताब और एक उम्मीद असासा
उस के बाद तो जो कुछ है वो सब अफ़्साना है
- इफ़्तिख़ार आरिफ़

असासा - धन-दौलत, पूँजी
अफ़्साना - कहानी

विश्व पुस्तक दिवस व विश्व कॉपीराइट दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ💐

23 अप्रैल 1564 को एक ऐसे लेखक ने दुनिया को अलविदा कहा था, जिनकी कृतियों का विश्व की समस्त भाषाओं में अनुवाद हुआ। यह लेखक था शेक्सपीयर। जिसने अपने जीवन काल में करीब 35 नाटक और 200 से अधिक कविताएं लिखीं। साहित्य-जगत में शेक्सपीयर को जो स्थान प्राप्त है उसी को देखते हुए यूनेस्को ने 1995 से और भारत सरकार ने 2001 से इस दिन को विश्व पुस्तक दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की।

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“मानस का हंस” लेखक अमृतलाल नागर का प्रतिष्ठित बृहद उपन्यास है। इसमें पहली बार व्यापक कैनवास पर “रामचरितमानस” के लोकप्रिय...
22/04/2024

“मानस का हंस” लेखक अमृतलाल नागर का प्रतिष्ठित बृहद उपन्यास है। इसमें पहली बार व्यापक कैनवास पर “रामचरितमानस” के लोकप्रिय लेखक गोस्वामी तुलसीदास के जीवन को आधार बनाकर कथा रची गई है, जो विलक्षण के रूप से प्रेरक, ज्ञानवर्धक और पठनीय है। इस उपन्यास में तुलसीदास का जो स्वरूप चित्रित किया गया है, वह एक सहज मानव का रूप है। यही कारण है कि “मानस का हंस” हिन्दी उपन्यासों में ‘क्लासिक’ का सम्मान पा चुका है और हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि माना जाता है। नागर जी ने इसे गहरे अध्ययन और मंथन के पश्चात अपने विशिष्ट लखनवी अन्दाज़ में लिखा है। बृहद होने पर भी यह उपन्यास अपनी रोचकता में अप्रतिम है।

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मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से ‘आवारा मसीहा’ तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषि...
22/04/2024

मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से ‘आवारा मसीहा’ तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार’ तथा ‘ पाब्लो नेरुदा सम्मान’ के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त ‘शरत मेडल’, उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।

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