13/06/2024
सिर्फ नसीब वालों को ही इस तरह का मौका मिलता है , जब एक ही करके दो चिराग , दोनों भाई एक साथ पुलिस में भर्ती हो जाते हैं , तब मां बाप की खुशी का ठिकाना नहीं रहता .
राजस्थान की संस्कृति, परिवेश, पहनावा, मारवाड की आन-बान और शान, मरुधर रा धोरा, माटी और महल. आपणीं....
सिर्फ नसीब वालों को ही इस तरह का मौका मिलता है , जब एक ही करके दो चिराग , दोनों भाई एक साथ पुलिस में भर्ती हो जाते हैं , तब मां बाप की खुशी का ठिकाना नहीं रहता .
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भीषण गर्मी -
राजस्थान, भारत का सबसे बड़ा राज्य, अपने मरुस्थलीय भू-भाग और कठोर जलवायु के लिए जाना जाता है। यहां की गर्मी एक चुनौतीपूर्ण अनुभव होती है, खासकर मई और जून के महीनों में जब तापमान अत्यधिक बढ़ जाता है। राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में तापमान 45 डिग्री सेल्सियस से ऊपर चला जाता है, जो आम जनजीवन, वनस्पतियों और जीव-जंतुओं पर गहरा प्रभाव डालता है। इस निबंध में हम राजस्थान में भीषण गर्मी के प्रभाव, कारण, निवारण के उपाय और इसके प्रति समाज की प्रतिक्रिया पर विचार करेंगे।
भीषण गर्मी के कारण
राजस्थान में भीषण गर्मी के कई प्राकृतिक और मानवजनित कारण हैं:
1. भौगोलिक स्थिति: राजस्थान की भौगोलिक स्थिति और थार मरुस्थल की उपस्थिति के कारण यहां गर्मियों में अत्यधिक तापमान होता है। मरुस्थलीय क्षेत्रों में रेतीली भूमि दिन में तेजी से गर्म होती है और रात में तेजी से ठंडी होती है।
2. जलवायु परिवर्तन: वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन ने भी राजस्थान की जलवायु को प्रभावित किया है। औद्योगिक क्रांति के बाद से ग्रीनहाउस गैसों की बढ़ती मात्रा और पर्यावरणीय असंतुलन ने तापमान में वृद्धि की है।
3. वनों की कटाई: वन क्षेत्रों की कमी और शहरीकरण के कारण प्राकृतिक वनों का क्षय हुआ है, जिससे स्थानीय जलवायु पर प्रभाव पड़ा है। वृक्षों की अनुपस्थिति से तापमान नियंत्रित रखने में कठिनाई होती है।
4. जल संसाधनों की कमी: राजस्थान में जल संसाधनों की कमी भी गर्मी को बढ़ाने में योगदान करती है। जल स्रोतों की कमी और सिंचाई की समस्याओं के कारण मिट्टी की नमी में कमी होती है, जो गर्मी को बढ़ावा देती है।
भीषण गर्मी के प्रभाव
1. स्वास्थ्य पर प्रभाव: भीषण गर्मी का सबसे बड़ा प्रभाव लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ता है। हीट स्ट्रोक, डिहाइड्रेशन, थकान और त्वचा संबंधी समस्याएं आम हो जाती हैं। बच्चों और बुजुर्गों के लिए यह स्थिति और भी खतरनाक होती है।
2. कृषि पर प्रभाव: राजस्थान की कृषि भी भीषण गर्मी से प्रभावित होती है। फसलों की पैदावार में कमी आती है, जल संसाधनों की कमी से सिंचाई में समस्या होती है, और भूमि की उर्वरता भी घटती है।
3. पर्यावरण पर प्रभाव: उच्च तापमान से वनस्पतियों और जीव-जंतुओं पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। कई वन्यजीव पानी की तलाश में इधर-उधर भटकते हैं, और पौधों की प्रजातियाँ सूख जाती हैं।
4. आम जनजीवन पर प्रभाव: भीषण गर्मी से जनजीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। लोग दिन के समय घर से बाहर निकलने से बचते हैं, स्कूल और कॉलेज बंद हो जाते हैं, और विभिन्न गतिविधियाँ सीमित हो जाती हैं।
भीषण गर्मी से निपटने के उपाय
1. जल प्रबंधन: जल संरक्षण और कुशल जल प्रबंधन की तकनीकों को अपनाकर इस समस्या से निपटा जा सकता है। वर्षा जल संचयन, जल स्रोतों का संरक्षण और सिंचाई की आधुनिक तकनीकों का उपयोग किया जाना चाहिए।
2. वृक्षारोपण: बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण से न केवल तापमान नियंत्रित करने में मदद मिलती है, बल्कि यह पर्यावरण को भी संतुलित रखता है। वृक्षों की छाया से स्थानीय तापमान कम होता है और जलवायु में सुधार आता है।
3. सौर ऊर्जा का उपयोग: राजस्थान में प्रचुर मात्रा में सौर ऊर्जा उपलब्ध है। सौर ऊर्जा का उपयोग बढ़ाकर पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों पर निर्भरता कम की जा सकती है, जिससे पर्यावरण पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
4. शहरी नियोजन: शहरी क्षेत्रों में हरित क्षेत्रों का विस्तार, जल निकासी की समुचित व्यवस्था, और भवन निर्माण में पर्यावरणीय मानकों का पालन आवश्यक है। इससे शहरी गर्मी द्वीप प्रभाव को कम किया जा सकता है।
5. स्वास्थ्य जागरूकता: लोगों को हीट स्ट्रोक और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं से बचाव के उपायों के बारे में जागरूक किया जाना चाहिए। पानी का पर्याप्त सेवन, हल्के और सूती कपड़े पहनना, और धूप में बाहर न निकलने के निर्देश दिए जाने चाहिए।
समाज की प्रतिक्रिया
भीषण गर्मी के प्रति समाज की प्रतिक्रिया महत्वपूर्ण है। स्थानीय समुदाय, सरकार, और गैर-सरकारी संगठनों का सहयोग इस समस्या से निपटने में सहायक हो सकता है।
1. सरकारी प्रयास: राजस्थान सरकार गर्मी से निपटने के लिए विभिन्न योजनाएं और कार्यक्रम चला रही है। पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए टैंकरों की व्यवस्था, जल संरक्षण योजनाएं, और वृक्षारोपण अभियान चलाए जा रहे हैं।
2. गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका: कई गैर-सरकारी संगठन भी जल संरक्षण, वृक्षारोपण और पर्यावरण जागरूकता कार्यक्रम चला रहे हैं। इनके प्रयासों से स्थानीय समुदाय को गर्मी से निपटने में मदद मिल रही है।
3. समुदाय की पहल: स्थानीय समुदाय भी अपनी पहल से जल संरक्षण, वृक्षारोपण और अन्य उपायों को अपनाकर गर्मी से निपटने में सहयोग कर रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में परंपरागत जल संचयन विधियों का पुनरुद्धार किया जा रहा है।
निष्कर्ष
राजस्थान में भीषण गर्मी एक गंभीर समस्या है, जो जनजीवन, कृषि और पर्यावरण को प्रभावित करती है। इसके प्राकृतिक और मानवजनित कारणों को समझकर, उचित जल प्रबंधन, वृक्षारोपण, और सौर ऊर्जा के उपयोग से इस समस्या का समाधान किया जा सकता है। समाज, सरकार, और गैर-सरकारी संगठनों के संयुक्त प्रयास से राजस्थान में भीषण गर्मी के प्रभाव को कम किया जा सकता है, जिससे लोगों का जीवन अधिक सुरक्षित और स्वस्थ हो सकेगा।
इस प्रकार, राजस्थान की भीषण गर्मी से निपटने के लिए व्यापक और सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता है। यह न केवल वर्तमान बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी आवश्यक है ताकि वे एक संतुलित और स्थिर पर्यावरण में जीवन यापन कर सकें।
#भीषणगर्मी
कुम्हार -
राजस्थान, जो अपनी विविध सांस्कृतिक धरोहर, रंग-बिरंगी परंपराओं और कला रूपों के लिए प्रसिद्ध है, में कुम्हार जाति का एक महत्वपूर्ण स्थान है। कुम्हार जाति, जो मिट्टी के बर्तन बनाने का कार्य करती है, सदियों से राजस्थान की संस्कृति और सामाजिक जीवन का अभिन्न हिस्सा रही है। उनके द्वारा बनाए गए बर्तन न केवल दैनिक उपयोग के लिए आवश्यक होते हैं, बल्कि कई धार्मिक और सांस्कृतिक अवसरों पर भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस निबंध में हम राजस्थान के कुम्हार जाति के इतिहास, उनके पारंपरिक शिल्प, सामाजिक स्थिति और आधुनिक परिप्रेक्ष्य को विस्तार से समझेंगे।
कुम्हार जाति का इतिहास
राजस्थान के कुम्हार जाति का इतिहास अत्यंत पुराना है। इसे हड़प्पा सभ्यता से जोड़ा जा सकता है, जहां मिट्टी के बर्तनों का उपयोग व्यापक रूप से होता था। राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में मिले प्राचीन पुरातात्विक स्थलों पर मिट्टी के बर्तनों के अवशेष इस बात का प्रमाण हैं कि कुम्हार जाति यहां प्राचीन समय से ही मौजूद थी।
मुगल और राजपूत काल के दौरान, राजस्थान में कुम्हारों की कला को प्रोत्साहन मिला। शाही संरक्षण और धार्मिक अनुष्ठानों में मिट्टी के बर्तनों का व्यापक उपयोग होता था। इस प्रकार, कुम्हार जाति न केवल अपने बर्तन बनाने के शिल्प के लिए जानी जाती थी, बल्कि उनकी कला को समाज में सम्मान और मान्यता भी मिली।
पारंपरिक शिल्प
राजस्थान के कुम्हारों का पारंपरिक शिल्प उनकी विशिष्ट पहचान है। मिट्टी के बर्तन बनाने की प्रक्रिया अत्यंत परिश्रम और कौशल की मांग करती है। इस प्रक्रिया के विभिन्न चरणों को विस्तार से समझना महत्वपूर्ण है:
1. मिट्टी का चयन और तैयारी: बर्तनों के लिए उपयुक्त मिट्टी का चयन महत्वपूर्ण होता है। राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग प्रकार की मिट्टी मिलती है, जो बर्तनों की गुणवत्ता और प्रकार को प्रभावित करती है। मिट्टी को पानी में भिगोकर, गूंथकर एकसार किया जाता है।
2. चाक पर घुमाना: कुम्हार अपने पारंपरिक चाक (कुम्हार का पहिया) का उपयोग करते हैं। इस पर मिट्टी को रखकर उसे विभिन्न आकारों में ढाला जाता है। चाक को पैर से घुमाकर गति दी जाती है, जिससे मिट्टी को सही आकार देने में मदद मिलती है।
3. आकार देना: चाक पर घुमाने के बाद, कुम्हार अपने हाथों और कुछ उपकरणों की मदद से मिट्टी को वांछित आकार देते हैं। इसमें बर्तनों, सुराही, कुल्हड़, दीया, और अन्य प्रकार के बर्तन शामिल होते हैं।
4. सूखाना और पकाना: आकार देने के बाद, बर्तनों को खुली हवा में सूखने के लिए रखा जाता है। पूरी तरह सूखने के बाद, इन्हें भट्टी में पकाया जाता है। भट्टी में पकाने से बर्तन कठोर और टिकाऊ बनते हैं।
कुम्हारों के उत्पाद
कुम्हारों द्वारा बनाए गए उत्पादों में विविधता होती है। राजस्थान के कुम्हार विभिन्न प्रकार के बर्तन, मूर्तियाँ, सजावटी वस्तुएं, और धार्मिक अनुष्ठानों के लिए उपयोगी सामग्री बनाते हैं। इनमें शामिल हैं:
1. घरेलू उपयोग के बर्तन: जैसे मटके, सुराही, हांडी, कुल्हड़, थाली, गिलास, और बर्तन। ये बर्तन ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में उपयोग किए जाते हैं।
2. सजावटी वस्तुएं: राजस्थान के कुम्हार सजावटी वस्तुएं भी बनाते हैं, जैसे कि मिट्टी की दीवार पर लगाने वाले टाइल्स, सजावटी मूर्तियाँ, और गहने के बॉक्स।
3. धार्मिक सामग्री: धार्मिक अनुष्ठानों के लिए दीया, कलश, मूर्तियाँ, और अन्य पवित्र बर्तन बनाए जाते हैं। दीवाली, होली, गणेश चतुर्थी और अन्य त्योहारों पर इनका विशेष महत्व होता है।
सामाजिक स्थिति
राजस्थान में कुम्हार जाति की सामाजिक स्थिति ऐतिहासिक और समकालीन परिप्रेक्ष्य दोनों में महत्वपूर्ण है। पारंपरिक रूप से, कुम्हारों को समाज के निम्न वर्ग में रखा गया, लेकिन उनके शिल्प और मेहनत की मान्यता हमेशा रही है। समाज में उनकी स्थिति समय के साथ बदलती रही है, और आधुनिक समय में उनकी कला को एक नई पहचान मिली है।
1. पारंपरिक समाज में स्थिति: पारंपरिक भारतीय समाज में जाति व्यवस्था के अनुसार, कुम्हारों को शूद्र वर्ग में रखा गया। हालांकि, उनके द्वारा बनाए गए बर्तन समाज के हर वर्ग के लिए आवश्यक थे, इसलिए उन्हें एक आवश्यक सेवा प्रदाता के रूप में देखा गया।
2. आधुनिक समाज में स्थिति: आज, कुम्हार जाति की सामाजिक स्थिति में सुधार हुआ है। शिक्षा और आर्थिक अवसरों के विस्तार से कुम्हार जाति के लोग भी मुख्यधारा में आ रहे हैं। उनके शिल्प को कला और सांस्कृतिक धरोहर के रूप में मान्यता मिल रही है।
आर्थिक स्थिति
आर्थिक दृष्टि से, कुम्हार जाति के लोग अपने शिल्प के माध्यम से अपनी आजीविका कमाते हैं। हालांकि, बदलते समय के साथ, उन्हें आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। प्लास्टिक और धातु के बर्तनों की बढ़ती मांग और उत्पादन ने उनके पारंपरिक शिल्प को प्रभावित किया है। लेकिन इसके बावजूद, कुम्हार जाति के लोग अपने शिल्प को जीवित रखने के लिए नए-नए तरीकों का सहारा ले रहे हैं।
1. परंपरागत व्यापार: परंपरागत रूप से, कुम्हार अपने बर्तनों को स्थानीय बाजारों में बेचते थे। ग्रामीण मेलों और त्योहारों के दौरान भी उनकी बिक्री होती थी।
2. आधुनिक विपणन: वर्तमान में, कुम्हार जाति के लोग अपने उत्पादों को आधुनिक विपणन माध्यमों से भी बेच रहे हैं। ऑनलाइन प्लेटफार्मों और हस्तशिल्प मेलों में उनकी भागीदारी बढ़ रही है।
3. सरकारी सहायता: राजस्थान सरकार और अन्य गैर-सरकारी संगठन कुम्हार जाति के शिल्प को प्रोत्साहन देने के लिए विभिन्न योजनाएं और सहायता प्रदान कर रहे हैं। इन योजनाओं के माध्यम से उन्हें वित्तीय सहायता, प्रशिक्षण, और विपणन सुविधाएं मिल रही हैं।
आधुनिक चुनौतियाँ और संभावनाएं
आधुनिक समय में कुम्हार जाति के समक्ष कई चुनौतियाँ हैं, लेकिन साथ ही उनके शिल्प के विकास और प्रोत्साहन की संभावनाएं भी हैं।
1. चुनौतियाँ:
- प्रतिस्पर्धा: प्लास्टिक और धातु के बर्तनों के सस्ते और टिकाऊ विकल्पों ने मिट्टी के बर्तनों की मांग को कम किया है।
- संसाधनों की कमी: उच्च गुणवत्ता वाली मिट्टी और अन्य संसाधनों की कमी ने उनके शिल्प को प्रभावित किया है।
- आधुनिक उपकरणों की अनुपलब्धता: पारंपरिक उपकरणों के साथ काम करना समयसाध्य और श्रमसाध्य होता है, जबकि आधुनिक उपकरणों की लागत अधिक होती है।
2. संभावनाएं:
- पर्यावरण अनुकूल उत्पाद: मिट्टी के बर्तन पर्यावरण के अनुकूल होते हैं, जो प्लास्टिक के बर्तनों की तुलना में अधिक स्वास्थ्यवर्धक और पर्यावरण मित्र होते हैं। इस कारण से इनकी मांग फिर से बढ़ रही है।
- सरकारी समर्थन: राजस्थान सरकार और केंद्र सरकार की विभिन्न योजनाएं और कार्यक्रम कुम्हार जाति के शिल्प को प्रोत्साहित कर रहे हैं।
#कुम्हार
जोधपुर
जैसलमेर
इंडो - पाक बॉर्डर
उदयपुर में
राजस्थान का फलोदी गर्मी के मामले में दूसरे दिन भी 51 डिग्री तापमान
सोने के चक्कर में बर्बाद होते परिवार.... जी हां ! सोने का भाव में आम आदमी की पहुंच से बहुत दूर होता जा चुका है, लेकिन इसके प्रति जो मोह है, वह कई परिवारों को लेकर डूब रहा है, खासकर हमारे समाज में तो यह बहुत ही ज्यादा बीमारी है, लड़के की शादी हो तो पूरी राशि का 70% सिर्फ सोने में चला जाता है और अधिकतर मामलों में लड़का जिस लड़की से शादी करने जाएगा, वह लड़की भी बोलेगी कि मेरे लिए सोना तो इतना आना ही चाहिए।
यदि नहीं बोलेगी तो लाने के लिए मना भी नहीं करेगी सत्य है। (इस सच से दूर कि कर्ज उसके हिस्से में भी आयेगा) , हालांकि इसमें संपन्न परिवार ज्यादा नहीं पिस रहे और वो ज्यादा सोना करवाने की बजाय इन्वेस्टमेंट में विश्वास रखते हैं, लेकिन प्यारे मध्यम परिवारों की कमर टूट रही है, यूं कहे लोग दिखावटी या लड़की-लड़के की डिमांड जो भी हो सोने का शौक परिवारों को बर्बाद कर रहा है, आज समाज को पहल की जरूरत है कि शादी ब्याह में 5-6 तोला यानि पांच नग जो जरूरी हो इतना सोना काफी होना चाहिए, बाकी 20 से 40 तोला सोना करवा लेते हैं।
शादी के बाद बच्चा कमाने बाहर चला जाता है और बच्ची का पिता भी बाहर कमाने चला जाता है फिर बच्ची की मां बच्चे की मां को फोन करती है की में घर अकेला ही हा चोरी का डर है। इसलिए ये गहना आप अपने पास रखो मेरे कहने का मतलब है की पहले डिजाइन दार फोटो भेजते हैं । गहने के लिए बाद में डर भी लगता है। दूसरा कारण अगले 5 साल तक उस राशि का ब्याज भरते हैं और 10 साल में वह कर्ज चुकता होता है, क्योंकि ये आंखों देखा हाल है।
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यह है अपना राजस्थान
राजस्थान के लोग परंपरागत वेशभूषा में अपनी संस्कृति को जीवित रखते हुए राजस्थानी परंपरागत व्यंजन का स्वागत लेते हुए।
Mehrangarh Fort
Jodhpur
342001
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