14/11/2020
📿🙏📿
कबीर, दण्डवत् गोविन्द गुरु, बन्दूँ अविजन सोय।
पहले भये प्रणाम तिन, नमो जो आगे होय ।।1।।
कबीर, गुरुको कीजे दण्डवत, कोटि कोटि प्रणाम।
कीट न जानै भृंग को, यों गुरुकरि आप समान ।।2।।
कबीर, गुरु गोविंद कर जानिये, रहिये शब्द समाय।
मिलै तौ दण्डवत् बन्दगी, नहिं पलपल ध्यान लगाय ।।3।।
कबीर, गुरु गोविंद दोनों खड़े, किसके लागों पांय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दिया मिलाय ।।4।।
कबीर, सतगुरु के उपदेश का, सुनिया एक बिचार।
जो सतगुरु मिलता नहीं, जाता यम के द्वार ।।5।।
कबीर, यम द्वारे में दूत सब, करते खैंचा तानि।
उनते कभू न छूटता, फिरता चारों खानि ।।6।।
कबीर, चारि खानि में भरमता, कबहुं न लगता पार।
सो फेरा सब मिटि गया, सतगुरु के उपकार ।।7।।
कबीर, सात समुन्द्र की मसि करूं, लेखनि करूं बनिराय।
धरती का कागद करूं, गुरु गुण लिखा न जाय ।।8।।
कबीर, बलिहारी गुरु आपना, घड़ी घड़ी सौबार।
मानुष तें देवता किया, करत न लागी बार ।।9।।
कबीर, गुरुको मानुष जो गिनै, चरणामृतको पान।
ते नर नरकै जाहिगें, जन्म जन्म होय स्वान ।।10।।
कबीर, गुरु मानुष करि जानते, ते नर कहिये अंध।
होंय दुखी संसार में, आगे यम का फंद ।।11।।
कबीर, ते नर अंध हैं, गुरुको कहते और।
हरि के रूठे ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर ।।12।।
कबीर, कबीरा हरि के रूठते, गुरू के शरणे जाय।
कहै कबीर गुरु रूठते, हरि नहिं होत सहाय ।।13।।
कबीर, गुरु सो ज्ञान जो लीजिये, सीस दीजिये दान।
बहुतक भोंदू बहिगये, राखि जीव अभिमान ।।14।।
कबीर, गुरु समान दाता नहीं, जाचक शिष्य समान।
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्हीं दान ।।15।।
कबीर, तन मन दिया तो भला किया, शिरका जासी भार।
जो कभू कहै मैं दिया, बहुत सहे शिर मार ।।16।।
कबीर, गुरु बड़े हैं गोविन्द से, मन में देख विचार।
हरि सुमरे सो वारि हैं, गुरु सुमरे होय पार ।।17।।
कबीर, ये तन विष की बेलड़ी, गुरु अमृत की खान।
शीश दिए जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ।।18।।
कबीर, सात द्वीप नौ खण्ड में, गुरु से बड़ा ना कोय।
करता करे ना कर सकै, गुरु करे सो होय ।।19।।
कबीर, राम कृष्ण से को बड़ा, तिन्हूं भी गुरु कीन्ह।
तीन लोक के वे धनी, गुरु आगै आधीन ।।20।।
कबीर, हरि सेवा युग चार है, गुरु सेवा पल एक।
तासु पटन्तर ना तुलैं, संतन किया विवेक ।।21।।
।। सत साहेब जी ।।
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#संतरामपालजी