Chandi Ki Hansuli

Chandi Ki Hansuli Novel The novel born through the pain of weaker section of our society, in frame of Chandi ki Hansuli (silver ornament).

In short we may say that this novel representing to the Aam aadmi (general people)

आज २३ अप्रैल २०२४,विश्व पुस्तक एवं कापीराइट दिवस इस सुअवसर पर मालवा पुस्तकालय संघ, इंदौर द्वारा सम्मान
23/04/2024

आज २३ अप्रैल २०२४,विश्व पुस्तक एवं कापीराइट दिवस इस सुअवसर पर मालवा पुस्तकालय संघ, इंदौर द्वारा सम्मान

*इंदौर के श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति में आयोजन:* श्रोता संवाद में पुस्तक चर्चा के साथ रचनाकारों ने किया रचनापाठ h...
11/02/2024

*इंदौर के श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति में आयोजन:* श्रोता संवाद में पुस्तक चर्चा के साथ रचनाकारों ने किया रचनापाठ
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!! अनुभूति का लोकार्पण !!मेरी कविताओं का नया संकलन “अनुभूति ” स्ट्रिंग पब्लिकेशन, रुड़की (उत्तराखण्ड) से छप कर वैसे तो त...
08/02/2024

!! अनुभूति का लोकार्पण !!

मेरी कविताओं का नया संकलन “अनुभूति ” स्ट्रिंग पब्लिकेशन, रुड़की (उत्तराखण्ड) से छप कर वैसे तो तीस जनवरी 2024 को हमारे पास आ गया था । पुस्तक के लोकार्पण के लिए मुझे मुख्य अतिथि नन्ही परी तामरा जी का इंतजार था। वह इंतजार पूरा हो गया। बंगलौर से तामराजी (नातिन) पधार गयी। तामराजी के मुख्य आतिथ्य एवं श्रीमती मनोरमा भारती (पत्नीश्री) के करकमलों से पुस्तक अनुभूति का लोकार्पण आज दिनांक आठ फरवरी २०२४ को घर के टैरेस गार्डन में सम्पन्न हुआ। इस पुस्तक लोकार्पण में अतिथिगण-श्री सुरेश पुष्पगाथन, चित्रकार(दमाद) एवं चित्रकार बेटी शशि भारती सहित परिवार के सदस्यगण उपस्थित थे। इस ख़ुशी को आप सभी मित्रों के साथ साझा कर रहा हूं।यह मेरा पहला काव्य संग्रह है और सात उपन्यास,दो लघुकथा संग्रह,एक कहानी संग्रह सहित ग्यारहवीं पुस्तक है। शीघ्र ही कहानी संग्रह -बहुतै नाच नचायौ प्रकाश्य है। विश्वास है कि पूर्व की भांति इस पुस्तक को भी आप सबका स्नेह प्राप्त होगा।

Training on microfinance at जन शिक्षण संस्थान,नन्दा नगर NISBUD(GOI) Indore, on 06/02/2024.
06/02/2024

Training on microfinance at जन शिक्षण संस्थान,नन्दा नगर NISBUD(GOI) Indore, on 06/02/2024.

26/01/2024

आओ गणतंत्र दिवस पर करें
खुद से पक्का वादा,
प्राण जाए भले पर ना तोड़ेंगे वादा
भारत के लोकतंत्र को और मजबूत बनायेंगे
बेसहारा और हाशिए के लोगों को अधिकार दिलायेंगे
जाति-धर्म और मजहब के भेद मिटायेंगे,
संविधान के मूल्यों पर बलि-बलि जायेंगे
हम भारतीय,सीना तानकर तिरंगा फहरायेंगे।
:::: गणतंत्र दिवस की हार्दिक मंगलकामनाएं::::

नन्दलाल भारती
लेखक एवं साफ्ट स्किल प्रशिक्षक
इंदौर

Training on Entrepreneurship at NISBUD(GOI) Indore, on 23/01/2024.
23/01/2024

Training on Entrepreneurship at NISBUD(GOI) Indore, on 23/01/2024.

20/01/2024
20/01/2024

मौत का इंतजार करता आदमी/नन्दलाल भारती

ये वक्त के बदलाव का चोट है
या
अपने ही लहू की नीयत की खोट
मौत का इंतजार करता आदमी
कलेजा थामें,ढो रहा है, दर्द
वह भी पैदा हुआ था एक दिन
मां-बाप की मन्नतों के बाद
छ: दिन सोहर गाये गये थे
बदलते वक्त में मौत का इंतजार कर रहे ,
आदमी का हुआ था ,
आज के युवाओं की तरह जन्म।
अरमान थे,होना भी चाहिए
औलाद आंख ठेहुना बनेगी
नाती पोतों के सुख का आनंद मिलेगा
उम्मीद में इसी उसने सब लगा दिया था
औलाद के भविष्य पर दाव
जीतकर भी वह हार चुका है
हारे हुए जुआरी की तरह,
पास कुछ नहीं है उसके,जीने के लिए
दौलत औलाद पर लगा दिया
सम्पत्ति पर कब्जा हो गया अपनों का
उम्र ने शरीर को दीमक की तरह खाकर
काठ का पुतला बना दिया है
नहीं बचा है अब कुछ पास उसके
जीने का सहारा, निराश्रित आश्रम के अलावा
काट रहा निराश्रित जीवन वह
कई अपने जैसों थके हारे बूढ़े-बूढियों के साथ
मौत के इंतजार में निराश्रित आश्रम में
पितृ पर्वत के पास, नहीं बची है कोई आस
कई सवाल खड़ा करता है
मौत का इंतजार यह ।
क्यों बहू के पत्नी के हाथों अपहृत
या
विदेश की चकाचौंध में कर रहे युवा
बूढ़े मां-बाप का परित्याग ।
समस्या गम्भीर सवाल बड़ा है
मरना तो सब का निश्चित है
निराश्रित हो या आश्रित
मड़ई में हो कच्चा-पक्का घर,महल
या निराश्रित आश्रम
मौत तो होगी पर आश्रित को
निराश्रित की मौत,
रिरिक कर,मौत का इंतजार कर कर
ये अत्याचार और नाइंसाफी है
बुजुर्गो के मान और सम्मान के लिए
सवाल का जबाब तलाशना होगा ?
संयुक्त परिवार का विकल्प अपनाना होगा
कर सके अन्तिम यात्रा बूढ़ा आदमी
सकूं के उड़नखटोले पर अपनो के बीच से सकूं से
ना कि निराश्रित आश्रम में
मौत का इंतजार कर रहे आदमी की तरह।
नन्दलाल भारती
२०/०१/२०२४

18/01/2024

बूढ़ा आदमी/नन्दलाल भारती

बूढ़ा आदमी गंवाया जिसने उम्र
घर-परिवार को जमीं से आसमां तक पहुंचाने में
क्या चाहिए उस बूढ़े आदमी को नई पीढ़ी से ?
शायद कुछ नहीं, बूढ़े आदमी के पास,
देने के लिए तो बहुत कुछ है,
कांपते हाथों, लड़खड़ाते पांव से भी
वह खींच लाना चाहता है,
दुनिया भर की खुशियां
संजोयी पीढ़ी की झोली में डालने के लिए
हाथ भी उठाता है प्रार्थना में
खुद के लिए नहीं अपनों के लिए
यही है बूढ़े होते आदमी की फ़िक्र अपनों के लिए
अपने दुश्मन बड़े सकूं की रोटी भी देना चाहते
बूढ़ा आदमी बस देना जानता है
उसके हाथ में उम्र का अधिकार होता तो
बांट देता अपनों के बीच उम्र भी
जरूरत पड़ने पर खुद का
निकाल कर कलेजा रख देना चाहता है
अपनों के हाथ पर
वाह रे अपनों का परायापन
बूढ़े आदमी के पैरूख हारते
आंख की रोशनी में अंधेरा आते ही
घूंटनो के शरीर का बोझ उठाने से इंकार करते ही
छोड़ देते हैं सड़क पर,
निराश्रित का ठप्पा माथे पर ठोक कर
अपनी ही जहां से थके आदमी पहुंच रहे हैं
वृद्धाश्रम या निराश्रित आश्रम
बेघरबार होकर
भला हो आश्रम चलाने वाले
धरती के महामानवों का
दे देते हैं वो सम्मान जिसे बूढ़े आदमी को,
उम्मीद थी अपने पाले पैसे, अपने से
अपनों से निराश्रित होकर
आश्रम रख रहा है ख्याल
कर रहा हर जरूरी इंतजाम
लाचार बूढ़ों की बढ़ रही तादाद आश्रम में एक
करना था जो सगे अपनों को
उम्र के आखिरी पड़ाव पर बूढ़े आदमी
जी रहे आश्रम मौत के लिए
दुर्भाग्य है उन दुश्मन बने अपनों का
दुआये जो बरसनी थी अपनों के लिए
वही बरस रही है अब आश्रम और
आश्रम के सेवकों के लिए।
नन्दलाल भारती
१८/०१/२०२४

(यह रचना निराश्रित आश्रम के बुजुर्गो से मिलने के बाद लिखी गई है, लिखते समय भी पलकें गीली हैं)

आज नई दुनिया के शब्द संसार में हिन्दी परिवार के सम्मानीय सदस्य एवँ प्रसिद्ध साहित्यकार श्री नन्दलाल भारती । अभिनदंन समस्...
23/11/2023

आज नई दुनिया के शब्द संसार में हिन्दी परिवार के सम्मानीय सदस्य एवँ प्रसिद्ध साहित्यकार श्री नन्दलाल भारती । अभिनदंन समस्त हिन्दी परिवार की ओर से। 💐💐💐💐💐एस.मोहन्ती, सचिव, हिन्दी परिवार, इंदौर ‌।

22/11/2023

जीवन की अमर दास्तान/नन्दलाल भारती

ना कह पगले दिल की दास्तान
गढ़ता रह तू अपनी पहचान
जमाने के लोग,
कहां अपने होते हैं
मतलबवश साथ होते हैं
बस सकूं को गले लगा
ना तुम्हारी तरफ हाथ बढ़ने वाला
तू जिन्दा है तेजाब के दरिया के जीवन में
यह कम नहीं है,
भले ही कोई अपना , तेरा तिरस्कार करें
तू बिती बिसार उसूल पर खड़े रहना
ना कर किसी अपने से अब उम्मीद
क्या मिला तुम्हें, तुम्हारी जहां में
कर दिया त्याग जीवन का उद्देश्य अपने
सजा अपनों के सपने,
ना थामने को तैयार अंगुली
बढ़ती उम्र में, चिंता का बोझ बढ़ा अपना
बची हुई उम्र का सींच सपना,
क्या हाथ लगा सोचना फुर्सत में
हुआ तो है नाउम्मीद अभी तक
खुद पर यकीन कर
खुद पर कर विश्वास
खुद से कर प्यार अब
यही करा देगा पार मझधार
भूला दे सब
माया की नगरी है
माया के बाजार में रंग बदल लेते हैं सभी
दर्द अपना खुद पीया कर
मौज में जीया कर
जिन्दा रहने की दवाई है यही
ना कह पगले दिल की दास्तान
कुछ काम कर नेक, गढ़ दे पहचान अपनी
विश्वास तोड़ने वाले, खंजर उतारने वाले
कर ले कबूल अपनी गुनाहो को एक दिन
जहां में तू रहे या ना रहे बची रहे तेरी पहचान
यही होगी तुम्हारे जीवन की अमर दास्तान।
नन्दलाल भारती
२२/११/२०२३

16/11/2023

अधूरी कविता/नन्दलाल भारती

उम्र रोज बढ़ती है, बढ़ रही है
नेक नया नित करने को कहती है
मेरी भी उम्र बढ़ रही है
बढ़ती हुई उम्र
जीने को दिल खोलकर कहती है
हमने भी जीया है दर्द में ही सही
सीया है सपने अपने, अपनों के भी
जी लिया मैंने अब तक
उतनी अब उम्र नहीं होगी
मैंने कोशिशें की है बहुत
कामयाब भी हुआ हूं
दर्द के पहाड़ पर सम्भल कर
आंखों में चमक दिया है
निजी स्वार्थ को त्याग कर
वहीं आंखें अब हमें ही घूरने लगी है
डर तो लगता है
मन कहता है डर मत पगले
अब तक अपनों के लिए जीया
अब तो खुद के लिए और दूसरों के लिए जी ले
बढ़ती उम्र डरने की बात नहीं है
जिन्हें माना था अपना
मोह पालकर ठीक तो किया
मोह के बदले तुम्हें क्या मिला
तुम मानते हो जितना जी लिए
उतनी उम्र तुम्हारी नहीं है शेष
त्याग दो रोष
शुरू कर दो जीवन की दूसरी पारी
गैरों के लिए बिना किसी मोह के
यहां तुम्हें मिलेगा
मान सम्मान और खुशी
किसी रोते हुए उदास चेहरे के आंसू
पोंछकर तो देख लो ।
नन्दलाल भारती
१६/११/२०२३

युद्धरत् (उपन्यास) लेखक: नन्दलाल भारती,प्रकाशक: इंडिया नेटबुक्स (ए डिवीजन आफ सेल्सनेट सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड) मोबाइल:...
08/11/2023

युद्धरत् (उपन्यास) लेखक: नन्दलाल भारती,प्रकाशक: इंडिया नेटबुक्स (ए डिवीजन आफ सेल्सनेट सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड) मोबाइल: 919873561826

04/11/2023

पिता होना बड़ी जिम्मेदारी/नन्द लाल भारती

पिता होना बड़ी जिम्मेदारी,
सौभाग्य और खुशी की सौगात भी,
दर्द भी पिता की राह में कम नहीं
सपने सजाने, अंगुलियां जमाने,
पसीने में गीली बनियाइन निचोड़ने
जूते से झांकते अंगूठे को झांकते हुए
एहसास नहीं होता,जूता फटने का,
पिता पीठ पर टांगें बढ़ता है
गृहस्थी के सफर पर पूरा कुनबा,
बच्चों की हर जरुरत का पूर्वानुमान
हो जाता है पिता को,
खुश हो जाता है
बच्चे को सजा संवरा देखकर
बच्चे के सुखद भविष्य का सपना बुनता है
अपनी जरूरतो को ताख में रख देता है पिता
बच्चों की तरक्की में
अपनी तरक्की देखता है पिता
एक सपने सच हो जाते हैं
बहुत खुश होता है पिता
दुःख, दर्द और मुश्किलें सब भूल जाती हैं
ठीक रहता है सब कुछ तो,
भोगे हुए दर्द को धरती का सुख मान लेता है पिता
विपरीत होते ही, खुद को बेजान मान लेता है पिता
बदलते वक्त में जब बेगाना होने लगते हैं अपने
सांस टंगने लगी है महसूस करने लगता है पिता
कई बार तो करवटें बदलते,
तकिया गीली कर लेता है,
अश्रुधार से पिता,
वह अपनी ही छत के नीचे डरा हुआ रहता है पिता
उम्मीद तो पिता को भी होती है
उम्मीद की आक्सीजन से कब तक
चलेगा सोचता है पिता,
अपनों की दूरी मौत लगने लगती है,
आंसू में आंसू मिलाते हैं माता -पिता
एक दिन थके हारे माता पिता
ढूंढने निकल पड़ते हैं वृ़ध्दाश्रम का रास्ता,
या,
अपने ही दिखा देते हैं वृ़ध्दाश्रम का रास्ता
यकीन नहीं तो कर लीजिए
वृ़ध्दाश्रम जाकर तहकीकात
बहुत हुआ नहीं खुले अब वृ़ध्दाश्रम
ना ढूंढे, बूढ़े मां बाप वृ़ध्दाश्रम का पता
नवजवानों माता -पिता का करो आदर-सम्मान
भारत देश की महान परम्परा
संयुक्त परिवार ....का बढ़ाओ मान।
नन्द लाल भारती
०४/११/२०२३

28/10/2023

दूसरों की खुशियां खाने वाले नरपिशाच/ नन्दलाल भारती

कहावत है
सच भी है एकदम खरे सोने की तरह
सौ टका श्रीमान,
कुछ लोग खाने के इतने शौकीन होते हैं
कि
वे दूसरों की खुशियां खा जाते हैं,
ऐसे लोग भी होते हैं
इसी दुनिया में अपने आसपास भी
मैंने तो देखा है
दूसरों की खुशियां चरते हुए नरपिशाचों को
समाज से श्रम की मण्डी तक
ये शैतान इतने निडर होते हैं
कि
दूसरों की खुशियों की बाट लगा देते हैं
जीना मुश्किल कर देते हैं
समाज में रुप बदल बदल खा रहे हैं
श्रम की मण्डी के वातानुकूलित कक्ष में भी बैठकर
खा रहे हैं,खाये जा रहें हैं बस
सावन के भैंसें की तरह
कुछ तो इतने ढीठ होते हैं कि,
गैरों की शोषितों -पीड़ितों की,
खुशियां खाने में इनको मजा आता है
मुखौटे बदल बदल कर
सावन के भैंसें की तरह,
कुछ बहुरूपिए लोमड़ीनुमा
खाल बदलने में माहिर होते हैं
दूसरों की खुशियां खाये जा रहे हैं
कुछ धोबी के नील पात्र में रंगे सियार की तरह गुर्राते हैं
कमजोर, मेहनतकश,शोषित की खुशियां हड़प जाते हैं
कुछ कोबरा की तरह फुफकारते हैं
ऐसे खुशियां खाऊं नरपिशाचों से आपका पाला पड़ा होगा श्रीमान,
गांव देहात, शहर,और श्रम की मण्डी में
वातानुकूलित दफ्तरों में बैठे कुछ अफसर के चोला ओढ़े शैतानों से भी
समझते हैं वो, संस्था उनकी वज़ह से चल रही हैं
विदा होने पर कौड़ी के तीन हो जाते हैं
ऐसे खाऊ लोग,
किन किन का नाम लूं
आप भी कई खाऊं खलनायको को जानते होंगे
मैं तो जानता हूं
कुछ तो मेरे सपने खा गए श्रीमान
चरित्रावली पर कालिख पोत दी कुछ ने
एक गब्बर शैतान ने चरित्रावली में वेरी लेजी आफिसर लिखकर,
कर दिया खुशियों का दहन
मानो या न मानो श्रीमान
आज भी जीवित हैं,
दूसरों की खुशियां खाने वाले नरपिशाच।
नन्दलाल भारती
२८/१०/२०२३

27/10/2023

खबर/नन्दलाल भारती
खबर,खबर ही तो है,
सच होगी खबर,
अखबार में छपी है,
बुजुर्ग मां की लाश ,
घर में पड़ी-पड़ी सड़ गई है
बेटा डालर कमाने विदेश में है
बीबी बच्चे भी होंगे साथ में
मां की खैर कौन लेगा ?
अकेली मां तड़प -तड़पकर मर गई
मर कर सड़ भी गई,
बेटा को मां याद न आई
वही बेटा जो जय माता दी के जयकारे
गला फाड़ फाड़ कर लगाते नहीं थकते
उन्हें अपनी ही मां की खबर नहीं होती
ये कैसा वक्त आ गया है ?
बुजुर्गो का हाल,अपना नहीं ले रहा है,
क्या होगा बुढ़े मां बाप का ?
कौन उठाएगा जिम्मेदारी ?
बड़ा सवाल है ?
खबर तो अखबार में छपती रहेगी
अखबार का काम है छापना और जगाना
दूसरी खबर भी है बहू ने ससुर को मारा चाकू
बहुये हथियार उठाने लगी हैं
ये कैसे संस्कार दिए हैं मां बाप ने
जिस डाल पर बैठी है
वहीं काटने लगी है बहू
ये बहुये हिंसक क्यों होने लगी है ?
विचारणीय प्रश्न है ?
क्या यह जबाब तो नहीं
शीघ्र सम्पत्ति पर कब्जा
हिंसा में बेटा भी तो बराबर का हिस्सेदार होगा
बाप की सम्पत्ति का मालिक पहले वहीं होगा
माताओं -पिताओ के लिए,
विपत्ति का काल हो गया है आजकल
बुजुर्गो का आश्रय वृद्धाश्रम हो गया है,
ऐसी खबरें बहुत रुलाती है
जब कहती है बहू
बूढ़ा -बूढी के लिए रोटी थापने आयीं हूं क्या?
ऐसे हादशे के शिकार बुजुर्ग
तड़प-तड़प कर मर जाते है,
आंसू दबाये -दबाये
सम्भल जाओ नव जवानों,
उम्र कहां ठहरती है
एक दिन ऐसी खबर और न छपे
कर लो बन्दोबस्त
कब कौन कर दे चहारदीवारी में बंद ?
खुद उड़ जाये पंख लगाकर
कब कौन उतार दे खंजर ?
कब कौन छीन ले थाली ?
कब कौन हलक में हाथ डालकर ?
नोंच ले गुर्दा
ये खबर ही नहीं, हकीकत हो सकती है
समझ गये तो ठीक,
अखबार पढ़ाते हैं खबर,
आंख खोलने के लिए
समझे बाबू जी
अभी नहीं तो समझ लेना बाबू जी
कहीं ऐसी खबर न छपे फिर
खबर है अखबार में तो सच भी होगी।

नन्दलाल भारती
२७/१०/२०२३

कविता: अर्थ पूर्ण जीवनसोच रहा हूं, परमात्मा मेरे लिए सोच रहा होगा  कुछ विशेष औरअभी जो कुछ है कम नहीं है,तीन जुन की रोटी,...
21/10/2023

कविता: अर्थ पूर्ण जीवन

सोच रहा हूं, परमात्मा मेरे लिए
सोच रहा होगा कुछ विशेष
और
अभी जो कुछ है कम नहीं है,
तीन जुन की रोटी, रहने के लिए मकान
हंसता खेलता परिवार और बहुत कुछ
खास बात ये भी है कि
मेरे दो पैर हैं सही सलामत,
तन्दूरुस्त शरीर का भार उठाने के लिए,
कितनों के पास यह भी सुख नहीं है
कुछ तो पहिया धकियाते हुए भी
खुशी की रेवड़ी बांटते, मुस्कराते हैं
दुःखी दुनिया में खुश रहते हैं,
जितना अपना है, उतने में
मांगते हैं प्रकृति या कहें परमात्मा से
विश्वास भी करते हैं
और पाने की अनुभूति भी
यही सफलता और खुशी का राज
मैं भी यही सोचता हूं,
खुशी और अर्थ पूर्ण जीवन
हम जान गये हैं,
सफलता सन्तुष्ट नहीं कर सकती
मैं तलाश कर रहा हूं सन्तुष्टि
मैं जी सकू अर्थ पूर्ण जीवन
यही मेरे लिए मायने रखता है
और हम दुनिया के लिए
यही सोच रहा हूं , परमात्मा भी सोच रहा होगा
मैं जो समझता हूं वह है अर्थ पूर्ण जीवन
मैं मानता हूं मिल सकता है,नामुमकिन नहीं
विकसित करना होगा ऊंची सोच
वसुधैव कुटुम्बकम की भावना
मानवीय समानता-सदभावना
करना होगा जगत कल्याण की कामना
अर्थ पूर्ण जीवन के लिए जरूरी है
सच्चे संन्यासी की तरह सोच
मुझे भी अर्थपूर्ण जीवन जीने के लिए
संन्यासी की तरह सोचना होगा
सच मैं सोच रहा हूं
परमात्मा कुछ खास
सोच रहा होगा मेरे लिए।

नन्दलाल भारती
२१/१०/२०२३

16/10/2023

कविता: जीवन बचाओ।
मेरा घर अब मेरा ही नहीं रहा
अब कुछ पंक्षियो का,
बसेरा भी हो गया है
मेरा घर,
यह अपना गांव का,
पैतृक माटी का महल तो नहीं है
जिस माटी के महल के,
स्थायी निवासी गौरैया हुआ करती थी
मुंडेर पर भांति -भांति के परिंदे ,
जश्न मनाया करते थे,
अगवारे -पिछवारे के पेड़-पौधों पर
लगे फल-फूल खाकर
कौवे का बोलना पाती हुआ करता था तब
मेहमान के आने की पूर्व सूचना
अ-लिखित थी
सच भी हो जाता था।
गांवों की पहचान माटी के घर
माटी में मिल चुके हैं
ईंट- पत्थरों के दो-तीन या अधिक तलों के,
बिल्डिंग खड़े होने लगे हैं,
बचे -खुचे माटी के घर ढह रहे हैं
या घरों में,
लटके ताले सड़ रहे हैं।
खुशी की बात है
गांव की खूशबू अभी बाकी है
खेत की सोंधी गमक अभी ताजी है
पेड़ -पौधे बंसवारी भी सांस भर रही है,
शहर जैसे हालात तो नहीं है
शहर की एक बस्ती में हजारों मकान हैं
पेड़ नदारद, कौवा और परिन्दो को
जगह कहां ?
हवा में धूल -धुआं और जहरीली गैसें
भरी पड़ी है
शहर में एक अच्छी शुरुआत हो चुकी है
गमलों में जंगल पनपने लगे हैं छतों पर
और मेरी छत पर भी
पत्नी और बेटे ने बना दिया है
बगीचा और सब्जियों की क्यारी भी
छत पर ही,
लगने लगे हैं फल-फूल सब्जियां भी
परिन्दो को मिलने लगा है
भोजन -पानी और ठांव भी
मैं भी खोज लेता हूं
गांव के पेड़ -पौधो जैसा सकूं
और
आत्मतृप्ति का सुख भी।
काश ऐसी ही हरियाली से सज जाती
शहर की सभी छतें भी
बहुत कुछ कम हो जाता प्रदूषण
हवा में बढ़ जाती आक्सीजन
हो जाता छत और हरियाली का उद्गम
नई और पुरानी पीढ़ी का संगम
निखर जाता पर्यावरण
बढ़ जाता जीवन,
आओ अच्छी उम्र की लालसा रखने वालों
पेड़ -पौधे लगाओ,
जमीं नहीं हिस्से तो छत पर उगाओ
पर्यावरण बचाओ, खुद का जीवन बचाओ।
नन्दलाल भारती
१६/१०/२०२३

12/10/2023

कविता: मान
अरे अमानुष ना कत्ल कर सपनों का
ना झराझर आंसू थे, आदमी को
हाशिए का मान कर,
वफादार को यतीन न मान
ना कंधे पर मरते सपनों का बोझ डाल
क्या ले गया कौन ?
याद कर राजा महाराजा,
भगवान माना जिन्हें वे क्या ले गये
कौन क्या ले जा पायेगा ?
तू यह भी जानता है
कफ़न में जेब नहीं होती
गर होती भी तो क्या होता ?
राख मिल जायेगा
ना कर बरखुर्दार घमण्ड इतना
एक दिन राख हो जायेगा
याद रख अमानुष ये सत्ता अस्थाई है
तुम्हारी नहीं रहेगी सदा
तुम से भी छिन जाएगी
तू भी चला जायेगा यहां से
रिरकते हुए एक दिन,
ना कर नेह कोई बात नहीं
जहर तो मत बो,
हाशिए का आदमी जान कर
अग्नि परीक्षा बार-बार
और फिर
बेगुनाह को दण्ड तो न दे
जातीय बैरी मानकर
गर आदमी है
खुद को मानता है मन से
बस इतना कर फर्ज पर फ़ना हो
आदमियत का मान रख कर।
नन्दलाल भारती

07/10/2023

कविता : धूल
रिश्ते पर धूल जमी हो तो
धूल उड़ा दो यारों
दुनिया में ग़म और हैं हजारों
आदमी हो,बस आदमियत की,
बात किया करो
जहां जानती है,
वक्त के रथ पर सवार हैं सब
उम्र गुजर जायेगी
गयी गुजर तो फिर ना आयेगी
गर जिन्दा रहना है तो
कोई व्यसन मुक्त शौक पाल लो
आदमी का सम्मान किया करो
दिल की अपने सुना करो
दिमाग को दुरुस्त रखा करो
रिश्ते को चाट रही
धूल को झाड़-फूंक दो यारों
जिन्दा रहने के लिए सांस जरुरी है
दूर तक जाने के लिए
रिश्ते पर जमीं धूल नहीं प्यारे
साफ-पाक रिश्ते जरुरी है।
नन्दलाल भारती

21/09/2023

बुध्द का ज्ञान

बुध्द का ज्ञान, दुनिया में महान
मिटा दिया जगत का अज्ञान
जग मान गया अब,
मानव -मानव सब एक समान
अप्पो दीपो भव बना वरदान।
कर अप्पो दीपो का ध्यान
उतर गया गहराई जो,
हुआ देव सम्मान,
जीवन की सच्चाई बुध्द का ज्ञान।
धरा पर उजियारा,
बढ़ा मैत्री भाव प्यारा
बह चला बुध्द ज्ञान बसंत निरन्तर
शीतलता बिछी जैसे चांद धरती पर।
ये है बुध्द ज्ञान,
अप्पो दीपो भव का वरदान
समभाव,सदभाव, शिक्षा जागरुकता
और विकास पेशा पूजा कर्म महान,
अप्पो दीपो भव से पाया जग ज्ञान ।
नर-नारी में ना भेद कोई
रंग भेद-जाति भेद पाप समान
समानता का उद्घोष,
अप्पो दीपो भव से आया भान
दया करो बुद्ध भगवान।
कब आओगे अब
दुनिया को है इंतजार
ना विसार सकेगी उपकार
शान्ति -समता -सदभावना में
जगत का कल्याण
अप्पो दीपो भव बन गया वरदान।
नन्दलाल भारती

19/09/2023

कविता:विकास
बहुत धधक चुकी है
नफ़रत की ज्वाला
उठना चाहिए हाथ अब,
सद्कल्याण के लिए
बढ़ते रहना चाहिए आगे -आगे
सदभाव का बसंत उठ रहा है मन में
लाना चाहिए उसे उत्थान के रूप में
निकल पड़ना चाहिए अब
आदमियत के विकास की ओर
बिना किसी भेद की गठरी छाती पर लादे
तभी तो ध्वज फहरायेंगे आदमियत का,
नफ़रत के जंगल जो खड़े हो गए हैं
उखाड़ फेंक देना चाहिए
जंगल की हर विषैली पौध को
रोप देना चाहिए ,
आदमी से आदमी की मोहब्बत की पौध,
जहां से उत्सर्जित होता रहे
मानवीय समानता का सोंधापन
यही असली मानव कल्याण
आदमी होने के दायित्व का सार भी
उद्वेलित किया जो बुध्द को
आज भी हृदय को तृप्त करते है
सदभाव के राह चलने की जरुरत है,
आज के आदमी को,
सुवासित सभ्यता और
मानवीय रिश्तों के विकास के लिए।
नन्दलाल भारती

18/09/2023

कविता: एक और दिन
अरमानों के जंगल में,
बढ़ने लगे हैं हादसे,
उम्मीदों पर नहीं लगा है
कोई ग्रहण,
लेकिन बार -बार मन करता है
हर ग्रहण को छांट दूं
सामाजिक हो चाहे आर्थिक
या दूसरा कोई
मन की गहराई में दबे
अरमानों को पूरा कर लूं
सुलगते सवाल का जबाब ढूंढ लूं
कर लूं तमाम मीठी कड़वी बातें
ना कर सका जो अब तक,
वेदना, संवेदना की बातें
अटकी रहती है कण्ठ में जो
आदमी की बेरुखी को देखकर
सुलगते सवाल पूछते हैं
अरमानों का क्या होगा?
तरासता रहता हूं
अभिव्यक्ति का रास्ता
तोड़ सकूं सारा मौन एक दिन
पा लूं तरक्की के रास्ते
बिना किसी रुकावट के,
इन्हीं सोचों के भंवर में,
डूबता उतिरियाता कट जाता है
जिन्दगी का एक और दिन।
नन्दलाल भारती

16/09/2023

कविता :तलाश
तलाश है मुझे ऐसे गोंद की
मेरी आंख खुली तब से
भर सके जो मानव निर्मित दरारें
मिट जाये दरारें,हो जाये शंखनाद
मानव उत्थान का
दरारों ने खिलने नहीं दिया है
मानवीय एकता का पुष्प
वक्त है विज्ञान का
अब हर सच्चाई को जांचा जाने लगा है
मेरी तलाश पूरी होगी
उम्मीद है मुझे
अभी तक पूरी नहीं हुई है जो
हाशिए पर बैठा,
भयाक्रांत निहार रहा हूं
मैं भी समझ गया हूं
नफ़रत से सजी दरारों के रहस्य को
ये दरारें प्रतिबंध है़,सीमा रेखा हैं
मजहब, जाति-धर्म या कूटनीति के
यही तो हैं दरारें जिन्हें,
मानवीय रिश्तों के गोंद से जोड़ा जाना चाहिए
सच जिस दिन मानवीय चमन में
मानवता का बसंत जा गया ना
उस दिन पूरी हो जायेगी मेरी तलाश
और लग जायेगा
मेरी उम्मीदों को पंख भी।
नन्दलाल भारती

15/09/2023

कविता: इंतजार
मैं सचमुच घबराने लगा हूं
अपनों की भीड़ में,
पराया हो गया हूं
सदियों से प्यासा हूं
ना गंगा सी निर्मलता पाता हूं
चाहतों के बाद भी,ठहर गया हूं
सचमुच मैं घबरा गया हूं
आज के दौर से,
बेखबर तो नहीं हूं
खबर मैं भी रखता हूं
अपनों की भीड़ में भी भयभीत हूं
लोगों के पूर्वाग्रह से आहत हूं
ठहरना फिदरत में नहीं मेरी
पर ठहर गया हूं
शायद भेद भरी दुनिया में,
मेरा अस्तित्व भाता नहीं
बेचैन दर्पण निहारता हूं
कहीं किसी कोने से उम्मीद पा सकूं
नहीं पाता हूं दुर्भाग्यवश
आज स्वतन्त्र देश में परतन्त्र हूं
क्योंकि आदिम जातीय रिवाजों का
कैदी होकर रह गया हूं
तरक्की के रास्ते,
विषमताओं के चक्रव्यूह से,
अवरोधित हैं आज भी
दिल पुकारता है
दीवार तोड़ दूं पर हार जाता हूं
जीवन में हर मोड़ पर जंग है
जीतना चाहता हूं हर जंग
हार और जख्म से बेखबर,
उठ जाता हूं
क्योंकि हारने का शौक नहीं
जीवन में बदलाव चाहता हूं
इसीलिए कल की इंतजार में,
आज ही खुश हो जाता हूं।
नन्दलाल भारती

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