17/02/2024
राम ! राम !! राम !!! राम !!!!
*विषय: प्रेम रस ।*
प्रवचन के कुछ भाव, इस प्रवचन का ऑडियो भिजवाया जा रहा है । इन भावों को समझने के लिए इस प्रवचन को जरूर सुनना चाहिए ।
*हमारे परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज जी की वाणी बहुत विलक्षण है, दिव्य (परम वचन) है, श्री स्वामी जी महाराज जी की वाणी सुनने से हृदय में प्रकाश आता है, इसलिए प्रतिदिन जरूर सुननी चाहिए ।*
परम श्रद्धेय स्वामी जी महाराज जी कह रहे हैं कि देखो ! एक विनाशी है, एक अविनाशी है । दो तत्व हैं । यह संसार जितना देखने में आता है, यह सब विनाशी है । इसका तात्पर्य क्या है कि हमारी चीज नहीं है । हम परमात्मा के अंश हैं, और अविनाशी हैं ।
*ईश्वर अंश जीव अबिनाशी ।*
और ये (संसार) विनाशी है, ये प्रकृति का है और प्रकृति का कार्य है । और परिवर्तनशील है । महाप्रलय में भी इसमें क्रिया होती रहती है । जैसे हम सोते हैं, तो क्रिया होती रहती है । ऐसे महाप्रलय में भी क्रिया बंद नहीं होती । जैसे हम सोते हैं तो सोने में भी क्रिया होती है । जैसे जल्दी उठा दे तो कहते हैं कि मेरे को कच्ची नींद में उठा दिया । तो सोने में भी क्रिया होती है । ऐसे ही प्रलय, महाप्रलय में भी क्रिया होती रहती है ।
स्वयं
*ईश्वर अंश जीव अबिनाशी ।*
*चेतन अमल सहज सुख राशि ।।*
और समाधि भी कारण शरीर में है । आत्मा स्वाभाविक है, बदलता नहीं है । समाधि में भी दो अवस्था हैं । समाधि और व्युत्थान । परंतु स्वयं सत्तारूप होने से सत् रूप है । इसका (स्वयं का) शरीर से अलग अनुभव होगा तो भी पहले से ही अलग है । जैसे आप मकान में बैठे हो, तो मकान से अलग हो । ऐसे आप शरीर में बैठे हो, तो भी शरीर से अलग हो । शरीर विकारी है । आप नित्य, शरीर अनित्य है, विकारी है । आप निर्विकार हैं । आप निर्विकार हैं - तो आप परमात्मा के अंश हैं । परा प्रकृति चेतन है और अपरा प्रकृति जड़ है । हम परमात्मा के साथ अभेद रहते हैं, तो परमात्मा के साथ एक रहते हो । और परमात्मा के दास बनते हैं, तो दो हो जाते हैं । तो वह द्वैत, अद्वैत से भी सुंदर है । इस वास्ते परमात्मा से विमुख होते हैं, तो जड़ता होती है । और यहां परमात्मा को जान लेते हैं, तो फिर प्रेम होता है । पहले प्रेम होता है, उसमें अज्ञान रहता है और बोध होने के बाद प्रेम होता है, वह विशेष आनंददायक होता है । वह प्रेम बढ़ता रहता है । उस प्रेम में मस्ती रहती है । ज्ञान में अखंड आनंद रहता है और भक्ति में प्रेम बढ़ता है । यह जो प्रेम बढ़ता है, इसका नाम ही रास है, रासलीला है ।
सुख के जोड़े में दु:ख है । और रास होता है उसमें रस होता है । वह रस अलग होता है । परमात्मा की प्राप्ति होने पर जड़ का रस नहीं रहता है । परमात्मा मीठे लगते हैं । इस प्रकार दो मार्ग हैं - ज्ञान और प्रेम । ज्ञान में सूक्ष्म अहम रहता है । प्रेम में नहीं रहता । अभ्यांतर मल रहता है, वह प्रेम में नहीं रहता । एक प्रियता । वह प्रियता भगवान् को भी प्यारी लगती है । तो ऐसा प्रेम होता है, वह बढ़ता है । भगवान् प्यारे लगते हैं । प्यारे लगते ही रहते हैं । तो शांति होती है । वह अपने स्वरूप में स्थित है । इस वास्ते ज्ञान में अखंड रस है । प्रेम में अनंत रस होता है । संसार का संबंध रहेगा नहीं और परमात्मा का संबंध कभी मिटेगा नहीं । संसार के साथ में दु:ख होता है । प्रेम का संबंध है, वह अत्यंत विलक्षण है । प्रतिक्षण वर्धमान है । संसार का प्रेम दु:ख में परिणित होता है । भगवान् के वियोग में भी रोना होता है । पर उसमें भी प्रेम होता है । संसार के दु:ख में रोने में आंसू गर्म होते हैं । भगवान् के प्रेम के आंसू ठंडे होते हैं ।
परमात्मा की तरफ एक लालसा होती है, तो प्रेम बढ़ता है । इस वास्ते ज्ञान में अखंड रस है और प्रेम में अनंत रस होता है । जैसे कृष्ण पक्ष का चंद्रमा घटता रहता है । शुक्लपक्ष का चंद्रमा बढ़ता रहता है । ऐसे ही संसार का सुख घटता रहता है । और भगवान् का आनंद बढ़ता है । असीम आनंद, अचल आनंद, अनंत आनंद, पूर्ण आनंद । आनंद ही आनंद, आनंद ही आनंद । गोस्वामी जी महाराज ने सबके बाद विनय पत्रिका लिखी । बालक मां के पास संकोच नहीं करता और पिता से डरता है । बालक मां से कहता है कि पिताजी से कह देना । (ऐसे तुलसी दास जी कहते हैं - सीता मां से कि राम जी को बोलना) कि आपकी दासी का दास कहलाता है और आपके नाम से पेट भरता है । आप मेरी बात रामजी द्रवित हो तो कहना कि तुलसीदास है । फिर मैं आपके नाथ के गुण गाऊंगा । तो मां को भी घूस (रिश्वत) देते हैं । विदुरानी जी ने प्रेम में भगवान् को केले का छिलका दे दिया और गिरी फेंक दी । भगवान् को उसमें ही आनंद आने लग गया । तो विदुर जी ने कहा कि क्या कर रही है । फिर हाथ धोकर, केला धोकर, केले की गिरी दी । तो भगवान् बोले विदुर जी इसमें वह आनंद नहीं है ।