Spiritualdiscussionwithprashant

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30/10/2024

शारीरिक स्थिरता से मानसिक स्थिरता में प्रवेश एवं मानसिक शक्ति का विकास -

जैसा कि पिछले लेख में आप सभी ने जाना कि किस प्रकार ध्यान का अभ्यास शुरू किया जाए और कैसे इसमे आगे बढ़ा जाए।जब आपकी शारीरिक स्थिरता बनने लगे और मन विचारशून्य होना शुरू हो उस समय आप सभी को प्रातः सूर्योदय के समय कुछ समय सूर्य के समक्ष एक प्रक्रिया से गुजरना है।

आईय जानते है -

स्थिरता से सूर्योदय के समय ऐसे स्थान पर बैठें जहाँ सूर्य उगते हुए दिखें कुछ देर तक सूर्य को इस स्थिति में देखें उगते हुए एवं धीरे धीरे स्वांस ले और बाहर निकाले अनुभव करें कि आपके अंदर आपके नाक से दिव्य प्राण ऊर्जा आपके अंदर धीरे धीरे प्रवाहित हो रही है जो पूरे शरीर मे फैल रही है और धीरे धीरे स्वास बाहर निकालते समय महसूस करें कि अंदर के सभी नकारात्मक,सभी दुख/ईर्ष्या/द्वेष/अहंकार रूपी दूषित ऊर्जाएं बाहर निकल रही है।अपने आपको आनन्दित और हल्का महसूस करें जैसे कोई भार अंदर से निकल रहा हो। यह सब प्रक्रिया करते समय स्थिर और रीढ़ की हड्डी सीधी करके बैठें।
स्वांस लेना और बाहर छोड़ना इसे एक क्रिया मानी जायेगी ऐसा कम से कम 21 बार करें।

अब आंखें बंद कर लें आपने दाहिने तरफ के नाक को दबाएं एवं बाएं तरफ के नाक से धीरे धीरे स्वांस लें इस स्वांस के साथ प्रातः की सूर्य की किरणों का प्रवेश बाए तरफ के नाक से अंदर जाते हुए सजग रूप से महसूस करें।स्वास लेते समय 6 सेकेंड में पूरी तरह स्वांस भर लें और दोनो नाकों को बंद करके स्वांस को 24 सेकेंड के लिए रोक दें इस स्थिति में अनुभव करें कि आपके अंदर यह ऊर्जा का भंडार आपके सभी नाड़ी,सभी शरीर के अवयवों को ऊर्जा से भर रहा है आपके मस्तिष्क को ज्यादा सजग और तीव्र कर रहा है फिर 24 सेकेंड स्वांस रोकने के बाद दाहिने नाक से 12 सेकेंड में धीरे धीरे पूरी स्वांस बाहर निकाल दें इस निकलती हुई स्वास के साथ सम्पूर्ण नकारात्मक भाव वाली सभी ऊर्जाएं जिससे आपका आत्मविश्वास कमजोर होता है उसे बाहर निकलता हुआ महसूस करें।अब दाहिने नाक से स्वांस लें ,स्वास रोके,और स्वास को बाहर निकाले ठीक जैसे आपने ऊपर किया है उसी प्रकार।
बाए से स्वांस लेना ,रोकना,दाहिने नाक से बाहर निकलना पुनः दाहिने से स्वांस लेना,रोकना, और बाएं से बाहर निकालना यह एक क्रिया हुई ऐसी आपको 15 क्रियाएं करनी है।

इसके बाद शांत,आनन्दित,ऊर्जा से भरे हुए स्वयं को शांत मन से स्थिरता के साथ ध्यान में बैठे रहने दें और कम से कम 21 बार नीचे दिए गए सूर्य गायत्री मन का मन ही मन जप करें।

ॐ आदित्याय विदमहे दिवाकराय धीमहि तन्नो सूर्यः प्रचोदयत।।

जिन्हें किसी भी प्रकार की स्वांस की परेशानी हो अथवा हृदय के मरीज हो वे स्वांस रोकने की प्रक्रिया न करें।केवल स्वांस एक तरफ से लें और दूसरी तरफ से बाहर निकाले ऊपर बताये गयी प्रक्रिया अनुसार।

यह अद्भुत शक्ति का आपके अंदर संचार करता है ।इससे निम्न परिवर्तन आपके अंदर आते है -

★ आपके अंदर चेतना का विस्तार होता है।
★ पहले से ज्यादा सजग होते जाते हैं।
★ यादाश्त तेज होती जाती है और मंद बुद्धि स्वस्थ्य होने शुरू ही जाती है।
★ दिमाग ज्यादा विश्लेषण करने योग्य हो जाता है और जल्दी थकता नही।
★ आध्यात्मिक स्तर पर जो सजगता आपको चाहिये वो प्राप्त होती है।
★ भय का नाश और आत्मविश्वास की वृद्धि।
★ किसी भी प्रकार की डिप्रेशन, अनिद्रा,एंजायटी और अन्य बहुत से परेशानियों में आराम मिलता है।
★ इंट्यूशन शक्ति बढ़ती जाती है जिससे किसी भी परिस्तिथि, व्यक्ति एवं घटनाओं के प्रति ज्यादा सजग होने शुरू हो जाते है।

अन्य अनेको अनुभव है जो व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है।

आपको बता दु एक सन्यासी दुर्लभ योगी द्वारा यह क्रिया का अभ्यास किया जाता था जिनका नाम मैं यहां नही लूंगा और वे अपने योग बल के लिए काशी में काफी प्रसिद्ध थे।

ऐसे अन्य जानकारियों हेतु टेलीग्राम चैनल से जुड़कर लाभ ले सकते हैं

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22/10/2024

ध्यान की शक्ति एवं शक्तिशाली प्रयोग -

यह लेख लिखने के पीछे का उद्देश्य सामान्यतः ध्यान के लिए सभी को प्रेरित करना है जिससे ध्यान की विशेष स्थिति में सजगता के साथ अपने आस पास की उन ऊर्जाओं का उपयोग किया जा सके जो जाने अनजाने हर समय हमारे आस पास कार्यरत है लेकिन उनको अपनी मानसिक शक्ति से एक विशेष दिशा देकर हम अपने जीवन मे मूलभूत परिवर्तन कैसे ला सकते हैं।

आज हर जगह आध्यात्मिकता पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है अलग अलग जगहों पर इन विषयो पर शोध खोज भी किये जा रहे है।जब भी बात आध्यात्म की आती है तो ध्यान - योग हमेशा से इसका मूल केंद्र रहा है।ध्यान असल मे एक अवस्था है जो आपके अंदर सहज ही घटित हो जाता है और आपको एक ऐसी अवस्था मे ले जाता है जहां आप उस आनंद की अनुभवातीत अवस्था से जुड़ जाते है जिसके लिए आध्यात्मिक यात्रा शुरू की गई थी।लेकिन यह सब बातें ध्यान की उच्च अवस्था की है जहां पर आप किसी भी प्रकार की भौतिक भावनाओ से उठ जाते है।
अब इस स्थिति में पहुचने के पहले वह सभी लोग जो भौतिक जंजाल में फंसे हुए है जगह जगह अपने भविष्य को लेके चिंता व्यक्त करते है और वर्तमान में भी कई प्रकार की परेशानियों से गुजर रहे है उन्हें अपने वर्तमान भौतिक स्थितियों को ठीक करने की आवश्यकता रहती है ताकि वो निश्चिन्त हो कर आध्यात्मिक यात्रा को कर सकें।
समाज के सभी मूल कर्तव्यों को निभाते हुए ध्यान योग में आगे बढ़ने हेतु यह आवश्यक हो जाता है कि जीवन मे वर्तमान संघर्ष कम हो जिससे मन प्रसन्नता और एकाग्रता से अपने ध्यान यात्रा को आगे बढ़ा सकें।

ध्यान की शुरुआती अभ्यास में और ध्यान को उपलब्ध हो जाने की यात्रा के बीच मे जब अभ्यास और अनुशासन के बल पर एक साधक आगे बढ़ रहा होता है तो उस समय मानसिक एकाग्रता बढ़ती जाती है और इसके साथ ही उसकी सूक्ष्म मानसिक शक्ति भी बढ़ती है,यही वो समय होता है ध्यान में विभिन्न प्रयोगों के द्वारा ब्रह्मांड के उन भौतिक शक्तियों का प्रयोग किया जा सकता है।अपने मानसिक तरंगों के माध्यम से मंथन करके सृष्टि से अपने अनुरूप अवस्थाओं को अपने जीवन मे प्रकट कर सके इसके लिए आगे आप सभी के जीवन को बदल देने वाले कुछ मूल जानकारी दी जा रही है।आशा है यह लेख और इसमें दिए गए प्रयोग आप सभी के जीवन को बदलने में सहायक होंगे और अपनी भौतिक परिस्तिथियों को अनुकूल बनाते हुए ध्यान की उस अवस्था मे पहुचेंगे जहाँ कुछ शेष नही रह जाता।

क्रमशः

आप सब नीचे दिए गए टेलीग्राम चैनल से जुड़ कर अनेकों आध्यात्मिक लेख प्राप्त कर सकते है एवं अपने ज्ञान में वृद्धि कर सकते है

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20/10/2024

बहुत पूर्व में मैने यह साधना प्रकाशित की थी जैसे अन्य साधनाएं प्रकाशित करता हु।
माता लक्ष्मी की साधना जैसा आप सब जानते है कि अदभुत आर्थिक परिवर्तन देखने को मिलता है लेकिन थोड़ा समय लगता है परिस्थितियों में बदलाव आने में।
लेकिन यह एक ऐसी साधना है जिसे जिन साधकों ने किया उन्हें बहुत कम समय में उत्तम परिणाम प्राप्त हुए एवं सहज रूप में उनके आर्थिक मामलों में सफलता प्राप्त हुई।अतः नीचे प्रकाशित करना उचित समझा।

माँ लक्ष्मी अदभुत साधना -

मन्त्र मंत्र हेतु आप नीचे दिए गए टेलीग्राम लिंक पर जुड़ सकते है

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यह अत्यंत प्रभावी मन्त्र है।

नित्य 3,6 या 15 माला जपना है

माला - सनस्कारित लाल हकीक

जो गुरु दीक्षित है एवं हमारे द्वारा पारंपारिक गुरु मंत्र धारण किया है उन्हे इस मंत्र दीक्षा की आवश्यकता नहीं मार्गदर्शन लेके साधना प्रारंभ कर सकते है।जिन्होंने गुरु दीक्षा नहीं लीं है उन्हें इस मंत्र की दीक्षा लेना आवश्यक है।

1.5 लाख तक जप करना है चाहे जितने भी दिन लग जाये।

आसन - लाल

शुद्ध देसी घी का दीपक जलेगा।

किसी भी शुभ मुहूर्त से शुरू करें।
ध्यान आवश्यक।।

दशांश हवन। - आम की लकड़ी,खैर की लकड़ी,नव ग्रह की लकड़ी,कमलगट्टा, घी,शहद।

3 या 8 कोने का हवनकुंड।

दीपावली की रात्रि से प्रारंभ कर सकते है अथवा अन्य विशेष मुहूर्तों से।
मुहूर्तों हेतु मार्गदर्शन ले कर करें।

साधना में प्रयोग होने वाली सामग्री समय से मंगा कर साधना की तैयारी कर सकते हैं।

आनंद शिव

जप दान साधना -ऐसा कोई लेख पहली बार है जो मैं आप सभी के लिए लिख रहा हु।आध्यात्म में प्रेरित सभी साधक/साधिकाओं हेतु यह बहु...
13/10/2024

जप दान साधना -

ऐसा कोई लेख पहली बार है जो मैं आप सभी के लिए लिख रहा हु।आध्यात्म में प्रेरित सभी साधक/साधिकाओं हेतु यह बहुत आवश्यक लेख है अतः अवश्य पढ़ें।
जैसा की हम सब जानते है हमारा जन्म किसी न किसी पूर्व की वासना,कर्म भोग हेतु होता है और वर्तमान यात्रा के दौरान भी हम ढेर सारे अच्छे बुरे कर्म करते रहते हैं।इसी दौरान यदि अनुत्तर शिव की असीम कृपा हो जाए तो व्यक्ति आध्यात्म के मार्ग पर यात्रा शुरू कर देता है।अपने नित्य कर्मो के दौरान हम अनेकों ऐसे जाने अंजाने कृत्य करते है जो हमारे चारो तरफ एक संघटित दोष का निर्माण करता है।
जैसे ईर्ष्या,लालच,जाने अंजाने अपमान करना किसी का,छोटे छोटे जीव जंतु एवं अन्य जीवों का अपमान दुर्दशा कर देना,किसी नकारात्मक ऊर्जा के क्षेत्र से प्रभावित होना,कुंडली में व्याप्त ग्राहिक दोष, चक्रों का दूषित हो जाना एवं अनेकों ऐसे कारण होते है जिसमे आप किसी एक दोष का चुनाव करके उसे ठीक करने जाते है लेकिन प्रभाव दिखता ही नही क्योंकि संघटित दोष के प्रभाव में रहते है।योगी जन योग साधना के ताप से इसका क्षय करते है और चक्रों/नाड़ियों को स्वस्थ्य करके शुद्ध चेतन अवस्था में पहुंचते है जहां तमाम सिद्धियां तो बिन चाहे ही प्राप्त हो जाती हैं।मांत्रिक साधना से शुद्ध परम शक्ति के अनुग्रह से भी ऐसी संघटित दोष ऊर्जा का क्षय होता है।

लेकिन क्या आप जानते है एक और ऐसी सहज क्रिया है जिससे सभी प्रकार के संघटित दोषों से राहत मिलती है और आपकी चेतना शुद्ध होना शुरू होती है वो क्रिया नीचे बताई जा रही है जो अत्यंत सहज है और आपके अंदर करुणा भाव पैदा करता है ,आपके भाव को शुद्ध करता है और आपके कई दोषों का क्षय करता है।

इसे कहते हैं जप दान

क्या करें जप दान में -सप्ताह में किसी भी एक दिन समय निकाल कर आसन पर बैठें जिस भी इष्ट को मानते हो या जो भी जप पाठ करते हो उसके पूर्व ध्यान में बैठें और मन ही मन प्रार्थना करते हुए संकल्प करें।

अभी तक जिस भी जीव जंतु प्राणी को मेरे द्वारा कष्ट पहुंचा हो अथवा किसी भी जीव को मुझसे हानि पहुंची हो तो यह जप/पाठ मै उनकी शांति के लिए कर रहा हो हे सम्पूर्ण ब्रह्मांड के स्वामी कृपया स्वीकार करें।

चाहे तो कुछ शब्द इसमें और भी जोड़ सकते है जैसे मेरे मन की सभी ग्लानि,सभी शत्रुता,सभी प्रकार के द्वेष की शांति हेतु

इस प्रकार से जितना जप अथवा पाठ कर सकते हैं करें इसके पश्चात पुनः ध्यान की स्थिति में बैठ कर अपने द्वारा किए गए जप/पाठ को अर्पित करें गुरु मंडल को अथवा इष्ट को।

पूर्णतः शांति,हल्केपन और अनेकों दोषों के ताप से राहत मिलनी शुरू हो जाएगी और बहुत से बिगड़े कार्य बनने शुरू हो जायेंगे।

टेलीग्राम पर बने इस समूह से जुड़ कर अनेकों विषयों पर जानकारी प्राप्त कर सकते हैं

टेलीग्राम लिंक - https://t.me/prash0702

आनंद शिव

कुंडलिनी शक्ति जटिल योग साधना(13 क्रियाएं 130 दिन का अभ्यास साधना पूर्णतः जीवनी ऊर्जाओं में आश्चर्यजनक परिवर्तन)-मेरे पा...
26/09/2024

कुंडलिनी शक्ति जटिल योग साधना

(13 क्रियाएं 130 दिन का अभ्यास साधना पूर्णतः जीवनी ऊर्जाओं में आश्चर्यजनक परिवर्तन)-

मेरे पास अनेकों ऐसे लोगो को मेसेज आए हैं जो कुंडलिनी योग एवं चक्र साधनाओं हेतु इतने उत्साहित रहते है की उन्होंने कई जगहों पर लाखो रुपए दे कर कोर्स ज्वाइन कर रखा है लेकिन निराश ही रहे अतः जिन लोगो ने भी हमारे द्वारा कराए गए 21 दिवसीय ध्यान,नक्षत्र ध्यान इत्यादि अभ्यास किए उन्हे पता है की जो भी यौगिक क्रियाएं हमारे द्वारा प्रदत्त सिखाया जाता है वे कितने प्रभाव डालने वाले रहते है और लगातार व्यक्ति लंबे समय तक अभ्यास करें तो वो कितना सक्षम हो सकता है अनेकों शक्तियों को अपने अंदर जागृत करके उनसे विभिन्न कल्याणकारी कार्यो को करने हेतु।

13 विभिन्न अभ्यास दिए जायेंगे प्रति अभ्यास 10 दिन तक करना है एवं एक एक क्रम जुड़ता जायेगा इस प्रकार 130 दिन का अभ्यास जो आपके पूरे व्यक्तित्व को बदल कर रख देगा।

इन अभ्यासों से आपके अंदर जागृत होती शक्तियों को और कैसे विस्तार कर सकें एवं योग बल से किस प्रकार अनेकों प्रकार की हीलिंग,टेलीपैथी,और अन्य गुप्त प्रक्रियाएं कर सकेंगे ये सब इस समूह के सेशन में समझाया जायेगा।

सर्वप्रथम यह समझना जरूरी है की अपने आंतरिक शक्तियों को जागृत करने के लिए कड़े एवं नियमित अभ्यास की आवश्यकता होती है।इसके बाद व्यक्ति तंत्र के किसी भी साधना में आता है तो उसे अन्य कोई तैयारी नही करनी पड़ती वह किसी भी शक्ति को प्रत्यक्ष करने में सक्षम होता है।

अतः यदि आप सब ऐसे किसी सेशन से जुड़ कर यह सब सीखना चाह रहे थे और अभी तक नही सिख पाए तो आप सब को जीवन के कुछ माह अवश्य ऐसे अभ्यासों को देना चाहिए फिर आप आगे स्वयं तय कर सकते है की क्या करना है।इस अभ्यास का पहला बैच बनाया जा रहा है जिसमे सीमित लोगो को जोड़ कर आगे लेके चला जाएगा आवश्यकता लगी एवं लोगो में उत्साह देखा गया तब आगे दूसरे बैच के लिए विचार बनाया जायेगा।

जो भी जुड़ने के ईक्षुक होंगे वे जुड़ सकते है यह बिलकुल भी निःशुल्क नही रखा जायेगा क्योंकि निःशुल्क दिया गया अत्यंत दुर्लभ और महत्वपूर्ण ज्ञान भी किसी काम का नही रह जाता जब व्यक्ति उसे अपने जीवन में नही उतारता। जब व्यक्ति किसी चीज को सीखने हेतु उसका शुल्क जमा करता है तब वह पूर्ण लगन से उसका अभ्यास करता है एवं अभ्यास से अनुभव होते ही उसे फिर कुछ कहने की जरूरत नहीं होती वह स्वयं उत्साह से अभ्यास करने लगता है।

जो भी जुड़ने के इक्षुक होंगे वे आज से ही जुड़ने हेतु जानकारी ले सकते हैं डायरेक्ट मैसेज करके।

एक वीडियो सेशन उन्हे निःशुल्क रूप से दिया जाएगा जिससे वे अनुमान लगा सकें की उन्हें जुड़ना है अथवा नहीं।

'शिवो भूत्वा शिवं यजेत'

शिव बनकर ही शिव की पूजा करनी चाहिए.

मनुष्य योनि में जन्म लिया जीव अनेकों यात्राओं को करता हुआ सतत अपनी यात्रा करता रहता है।आत्मा अनेकों जन्मों के बोझों को लेकर ढोती रहती है इस तलाश में की शायद कोई जन्म ऐसा हो जब उसे ये पता चल जाए की उसकी यात्रा और यात्राओं में बढ़ती जा रही आत्मिक बोझ कब खत्म होगी।जीव की यही आत्मिक प्यास फिर एक समय बाद उसे अब इन आत्मिक बोझों को हटाने और आनंद की यात्रा करने के लिए अंदर से प्रेरित करना शुरू करता है लेकिन पुनः जीव भौतिक भाग दौड़ में इतना फसा होता है की पुनः अपनी आत्मिक आवाज को इग्नोर करके आगे बढ़ जाता हैं।पुनः यात्रा,पुनः नया बोझ,पुनः आत्म ग्लानि और आत्मा संकुचित होती जाती है दिन पे दिन आत्मा का विस्तार न हो कर संकुचन होना उसे तैयार करता है निम्न योनि की यात्रा करने के लिए क्योंकि चेतना का विस्तार ऊपर की यात्रा कराता है जबकि संकुचन निम्न योनि की यात्रा पर ले जाता है।आप जितना अपने अंदर आंतरिक यात्रा करेंगे आपके लिए आत्मिक विस्तार उतना ही सहज होगा।आंतरिक स्थिरता,धैर्य आपके अंदर विनम्रता और आनंद का भाव पैदा करती है जिससे आपके अंदर कल्याणार्थ शक्तियों का उदय होता है।कल्याणार्थ शक्तियों के उदय होने से व्यक्ति सिद्ध योगी के भांति सृष्टि के विभिन्न योजनाओं का हिस्सा बन जाता है और संकल्प मात्र से सभी अनुकूल परिवर्तन करने योग्य बन जाता है।जिसे आम भाषा में कुंडलिनी का जागना कहते हैं।
हमारा यौगिक क्रियाओं का प्रशिक्षण व्यक्तित्व को पशुत्व से देवत्व की तरफ बढ़ाने का मार्ग प्रशस्त करता है और व्यक्ति की आंतरिक शक्तियों के सभी संभावनाओं का उदय होता है।

इस प्रकार के यौगिक क्रिया के सेशन बहुत कम ही लिए जा पाते है समय के अभाव में लेकिन जब भी इस प्रकार के प्रशिक्षण कार्यक्रम हो तो अवश्य इनका अभ्यास करना चाहिए इससे आप तो आगे बढ़ते ही है आपके द्वारा ऊर्जा हस्तांतरण (एनर्जी एक्सचेंज) हेतु जो भी शुल्क लिया जाता है वो भी सद्कार्यों में ही लगाया जाता है जो की आपके सभी आयामों को नई दिशा देता है।
लोग साधनाएं करते है लेकिन अनुभव न होने पर परेशान होते है,भौतिक स्थितियां नही सुधरती तो घबराते है,शक्ति का प्रत्यक्षीकरण नही होता अथवा सिद्धि प्राप्त नहीं होती तो परेशान होते हैं लेकिन ये नही समझते की उन्होंने बिना किसी यौगिक क्रिया किए बिना तप किए सीधे मंत्र जाप शुरू किया है जैसे जैसे जप बढ़ता है पहले उनके पूर्व कर्म के नकारात्मक ऊर्जाएं भस्म होती है जितना जप और स्थिरता बढ़ती जाती है उतने ही धीरे धीरे पूर्व पाप कर्म कटते है और जब पूर्णतः ये कटते है तभी आपको प्रत्यक्ष दर्शन एवं वो प्राप्त होता है जो दुर्लभ है और अत्यंत कृपा होने पर प्राप्त होता है।लेकिन हमेशा ध्यान रखें मंत्र जप से धीरे धीरे पूर्व पाप कर्म भस्म होते है लेकिन यदि कोई व्यक्ति हठ योग एवं योग की विभिन्न गुरु मार्गदर्शीत क्रियाओं का अभ्यास करता है तो उससे पैदा होने वाली योग ऊर्जा का ताप अत्यधिक होता है जो आपके पूर्व पाप कर्मों को बहुत तीव्रता से भस्म करता है और यही कारण है जब एक योगी मंत्र अभ्यास/साधना करता है तो उसमे पहले से ही निहित अनुशासन और योग बल से उसके द्वारा पूजित शक्ति तुरंत उसपे अपना अनुग्रह करती है।यह रहस्य बहुत गहरा है और इसका ज्ञान साधक को बहुत बाद में प्राप्त होता है यह जटिल विषय है जिसके बारे में लिखा जाए तो कई किताबे कम पड़ेंगी फिर भी मैंने यहा कम शब्दो मे बहुत कुछ बताने की कोशिश की है।

अतः आप सभी को योग क्रिया के इस 130 दिन अभ्यास वाले सेशन में जुड़ कर अवश्य अभ्यास करना चाहिए।

शिव

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स्वामी विवेकानंद जी द्वारा बताया गया एक अद्भुत योग क्रियाआत्मानुभूति - योगस्वामी विवेकानन्द जी ने विज्ञानमय कोश की साधना...
24/09/2024

स्वामी विवेकानंद जी द्वारा बताया गया एक अद्भुत योग क्रिया

आत्मानुभूति - योग

स्वामी विवेकानन्द जी ने विज्ञानमय कोश की साधना के लिए "आत्मानुभूति" की विधि बताई है। उनके अमेरिकन शिष्य रामाचरक ने इस विधि को 'मेन्टल डेवलपमेण्ट' नामक पुस्तक में विस्तारपूर्वक लिखा है।

१- किसी शान्त या एकान्त स्थान में जाइये। निर्जन, कोलाहल रहित स्थान इस साधना के लिए चुनना चाहिए। इस प्रकार का एक स्थान घर का स्वच्छ हवादार कमरा भी हो सकता है और नदी तट अथवा उपवन भी। हाथ मुँह धोकर साधना के लिए बैठना चाहिए। आराम कुर्सी पर अथवा दीवार, वृक्ष या मसनद के सहारे बैठकर भी यह साधना भली प्रकार होती है ।

सुविधापूर्वक बैठ जाइये, तीन लम्बे-लम्बे श्वास लीजिए। पेट में भरी हुई वायु को पूर्ण रूप से बाहर निकालना और फेफड़ों में पूरी हवा भरना एक पूरा श्वास कहलाता है। तीन पूरे श्वास लेने से हृदय और फुफ्फुस की भी उसी प्रकार एक धार्मिक शुद्धि होती है जैसे स्नान करने, हाथ-पाँव धोकर बैठने से शरीर की शुद्धि होती है।

तीन पूरे साँस लेने के बाद शरीर को शिथिल कीजिए और हर अंग में से खिंचकर प्राणशक्ति हृदय में एकत्रित हो रही है, ऐसा ध्यान कीजिए। हाथ, पाँव आदि सभी अंग-प्रत्यंग शिथिल, ढीले, निर्जीव, निष्याण हो गये हैं, ऐसी भावना करनी चाहिए। "मस्तिष्क से सब विचारधाराएँ और कल्पनाएँ शान्त हो गयीं हैं और समस्त शरीर के अन्दर एक शान्त नीला आकाश व्याप्त हो रहा है।" ऐसी शान्त, शिथिल अवस्था को प्राप्त करने के लिए कुछ दिन लगातार प्रयत्न करना पड़ता है। अभ्यास से कुछ दिन में अधिक शिथिलता एवं शांति अनुभव होती जाती है।

शरीर भली प्रकार शिथिल हो जान पर हृदय स्थान में एकत्रित अँगूठे के बराबर, शुभ, श्वेत ज्योति-स्वरूप, प्राण शक्ति का ध्यान करना चाहिए। "अजर, अमर, शुद्ध, बुद्ध, चेतन, पवित्र ईश्वरीय अंश आत्मा मैं हूँ। मेरा वास्तविक स्वरूप यही है, मैं सत्, चित्त, आनन्द-स्वरूप आत्मा हूँ।" उस ज्योति के कल्पना नेत्रों से दर्शन करते हुए उपर्युक्त भावनाएँ मन में रखनी चाहिए ।

२- उपर्युक्त शिथिलासन के साथ आत्मदर्शन करने की साधना इस योग में प्रथम साधना है। जब यह साधना भली प्रकार अभ्यास में आ जाए, तो आगे की सीढ़ी पर पैर रखना चाहिए। दूसरी भूमिका में साधना का अभ्यास नीचे दिया जाता है।

३- ऊपर लिखी हुई शिथिलावस्था में अखिल आकाश में नील वर्ण आकाश का ध्यान कीजिए । उस आकाश में बहुत ऊपर सूर्य के समान ज्योति-स्वरूप आत्मा को अवस्थित देखिये । "मैं ही यह प्रकाशवान् आत्मा हूँ" - ऐसा निश्चत संकल्प कीजिए। अपने शरीर को नीचे भूतल पर निस्पन्द अवस्था में पड़ा हुआ देखिये, उसके अंग-प्रत्यंगों का निरीक्षण एवं परीक्षण कीजिए। यह हर एक कल-पुर्जा मेरा औजार है, मेरा वस्त्र है। यह यन्त्र मेरी इच्छानुसार क्रिया करने के लिए प्राप्त हुआ है। इस बात को बार-बार मन में दुहराइये। इस निस्पन्द शरीर में खोपड़ी का ढक्कन उठाकर ध्यानावस्था से मन और बुद्धि को दो सेवक शक्तियों के रूप में देखिये । वे दोनों हाथ बाँधे आपकी इच्छानुसार कार्य करने के लिए नतमस्तक खड़े हैं। इस शरीर और मन बुद्धि को देखकर प्रसन्न होइए कि इच्छानुसार कार्य करने के लिए यह मुझे प्राप्त हुए हैं। मैं उनका उपयोग सच्चे आत्म-स्वार्थ के लिए ही करूँगा, यह भावनायें बराबर उस ध्यानावस्था में आपके मन में गूँजती रहनी चाहिए ।

४- जब दूसरी भूमिका का ध्यान भली प्रकार होने लगे, तो तीसरी भूमिका का ध्यान कीजिए

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22/09/2024

अब आते है तन्मात्रा साधना के पांचवी कड़ी पर जो है

स्पर्श - साधना

१- बर्फ या कोई अन्य शीतल वस्तु शरीर पर एक मिनट लगा कर फिर उसे उठाये और दो मिनट तक अनुभव करें कि वह ठण्डक मिल रही है। सह्य उष्णता का गरम किया हुआ पत्थर का टुकड़ा शरीर से स्पर्श कराकर उसकी अनुभूति कायम रहने की भावना कीजिए। पंखा झलकर हवा करना, चिकना काँच का गोला या रुई की गेंद त्वचा पर स्पर्श करके फिर उस स्पर्श का ध्यान रखना भी इस प्रकार का अभ्यास है। बुश से रगड़ना, लोहे का गोला उठाना, जैसे अभ्यासों से इसी प्रकार की ध्यान भावना की जा सकती है।

२- किसी समतल भूमि पर एक बहुत ही मुलायम गद्दा बिछाकर उस पर चित्त लेटे रहिये, कुछ देर तक

उसकी कोमलता का स्पर्श सुख अनुभव करते रहिये, इसके बाद बिना गद्दा के कठोर जमीन या तख्त पर लेट जाइये। कठोर भूमि पर पड़े रहकर कोमल गद्दे के स्पर्श की भावना कीजिए, फिर पलटकर गद्दे पर आ जाइये और कठोर भूमि की कल्पना कीजिए। इस प्रकार भिन्न परिस्थिति में भिन्न वातावरण की भावना से तितिक्षा की सिद्धि मिलती है। स्पर्श- साधना की सफलता से शारीरिक कष्टों को हँसते-हँसते सहने की शक्ति पैदा होती है।

स्पर्श- साधना से तितिक्षा की सिद्धि मिलती है। सर्दी, गर्मी, वर्षा, चोट, फोड़ा, दर्द आदि से जो शरीर को कष्ट होते हैं, उनका कारण त्वचा में जल की तरह फैले हुए ज्ञान-तन्तु ही हैं। यह ज्ञान तन्तु छोटे से आघात, कष्ट या अनुभव को मस्तिष्क तक पहुँचाते हैं, तदनुसार मस्तिष्क को पीड़ा का भान होने लगता है। कोकीन का इन्जेक्शन लगाकर इन ज्ञान तन्तुओं को शिथिल कर दिया जाय, तो आपरेशन करने में भी उस स्थान पर पीड़ा नहीं होती है। कोकीन इन्जेक्शन तो शरीर को पीछे से हानि भी पहुँचाता है पर स्पर्श साधना द्वारा प्राप्त हुई 'ज्ञान-तन्तु नियन्त्रण शक्ति' किसी प्रकार की हानि पहुँचाना तो दूर उल्टी नाड़ी संस्थान के अनेक विकारों को दूर करने में सफल होती है, साथ ही शारीरिक पीड़ाओं का भान भी नहीं होने देती । ज्ञान-तन्तु भीष्म पितामह उत्तरायण सूर्य आने की प्रतीक्षा में कई महीने बाणों से छिदे हुए पड़े रहे थे। तिल-तिल शरीर में बाण लगे थे; फिर भी कष्ट से चिल्लाना तो दूर वे उपस्थित लोगों को बड़े ही गूढ़ विषयों का उपदेश देते रहे। ऐसा करना उनके लिए तभी सम्भव हो सका; जब उन्हें तितिक्षा की सिद्धि थी, अन्यथा हजारों बाणों में छिदा होना तो दूर एक सुई या काँटा लग जाने पर लोग होश- हवास भूल जाते हैं।

स्पर्श-साधना से चित्त की वृत्तियाँ एकाग्र होती हैं। मन को वश में करने से जो लाभ मिलते हैं, उनके अतिरिक्त तितिक्षा की सिद्धि भी साथ में हो जाती है; जिससे कर्मयोग एवं प्रकृति प्रवाह से शरीर को होने वाले कष्टों को भोगने से साधक बच जाता है।

मन को आज्ञानुवर्ती, नियन्त्रित, अनुशासित बनाना जीवन को सफल बनाने की अत्यंत महत्त्वपूर्ण समस्या है। अपना दृष्टिकोण चाहे आध्यात्मिक हो, चाहे भौतिक, चाहे अपनी प्रवृत्तियाँ परमार्थ की ओर हों या स्वार्थ की ओर, मन का नियन्त्रण हर स्थिति में आवश्यक है। उच्छृंखल, चञ्चल या अव्यवस्थित मन से न लोक न परलोक, कुछ भी नहीं मिल सकता। मनोनिग्रह प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है।

मानसिक अव्यवस्था दूर करके मनोबल प्राप्त करने के लिए इस प्रकार जो साधनायें बताई गई हैं, वे बड़ी उपयोगी, सरल एवं सर्व सुलभ हैं। ध्यान, त्राटक, जप एवं तन्मात्रा साधना से मन की चञ्चलता दूर होती है, साथ ही चमत्कारी सिद्धियाँ भी मिलती हैं। इस प्रकार पाश्चात्य योगियों की मैस्मरेजम के तरीके से की गई मनः साधनाओं की अपेक्षा भारतीय विधि की योग पद्धति से की गई साधना, द्विगुणित लाभदायक होती है।

वश में किया हुआ मन सबसे बड़ा मित्र है, वह सांसारिक और आत्मिक दोनों ही प्रकार के अनेक ऐसे अ‌द्भुत उपहार निरन्तर प्रदान करता रहता है, जिन्हें पाकर मानव जीवन धन्य हो जाता है। सुरलोक में ऐसा कल्पवृक्ष बताया गया है, जिसके नीचे बैठकर मनचाही कामनायें पूरी हो जाती हैं। मृत्युलोक में, वश में किया हुआ मन ही कल्पवृक्ष है। यह परम सौभाग्य जिसे प्राप्त हो गया, उसे अनन्त ऐश्वर्य का आधिपत्य ही प्राप्त हो गया समझिये ।

अनियन्त्रित मन अनेक विपत्तियों की जड़ है। अग्नि जहाँ रखी जायेगी, उसी स्थान को जलायेगी। जिस देह में असंयत मन रहेगा, उसमें नित नई विपत्तियाँ, कठिनाइयाँ, आपदायें, बुराइयाँ बरसती रहेंगी। इसलिए अध्यात्म विद्या के विद्वानों ने मन को वश में करने की साधना को बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना है।
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20/09/2024

अब आते है तन्मात्रा साधना के चौथे कड़ी पर जिसका नाम है

गन्ध साधना

नासिका के अग्र भाग पर त्राटक करना इस साधना में आवश्यक है। दोनों नेत्रों से एक साथ नासिका के अग्र भाग पर त्राटक नहीं हो सकता। इसलिए एक मिनट दाहिनी ओर तथा एक मिनट बायीं ओर करना उचित है। दाहिने नेत्र को प्रधानता देकर उससे नाक के दाहिने हिस्से को और फिर बायें नेत्र को प्रधानता देकर बायें हिस्से को गम्भीर दृष्टि से देखना चाहिए। आरम्भ एक-एक मिनट से करके अन्त में पाँच-पाँच मिनट तक बढ़ाया जा सकता है। इस त्राटक में नासिका की सूक्ष्म शक्तियाँ जाग्रत् होती हैं। इस त्राटक के बाद कोई सुगन्धित तथा सुन्दर पुष्प लीजिए। उसे नासिका के समीप ले जाकर एक मिनट तक धीरे-धीरे सूँघिये और उसी गन्ध का भली प्रकार स्मरण कीजिए। इसके बाद फूल को फेंक दीजिए और बिना फूल के ही उस गन्ध को दो मिनट तक स्मरण कीजिए। इसके बाद दूसरा फूल लेकर फिर इसी क्रम की पुनरावृत्ति कीजिए। पाँच फूलों पर पन्द्रह मिनट प्रयोग करना चाहिए। स्मरण रहे कम-से-कम एक सप्ताह तक एक ही फूल का प्रयोग होना चाहिए। इसी प्रकार रस साधना में एक फल का एक सप्ताह तक प्रयोग होना चाहिए। कोई भी सुन्दर पुष्प गन्ध-साधना के लिए लिया जा सकता है। भिन्न पुष्पों के भिन्न गुण हैं। गुलाब-प्रेमोत्पादक, चमेली-बुद्धिवर्धक, गेंदा- उत्साह बढ़ाने वाला, चम्पा- सौन्दर्यदायक, कन्नेर- उष्ण, सूर्यमुखी- ओजवर्धक है। प्रत्येक पुष्प में कुछ सूक्ष्म गुण होते हैं। जिस पुष्प को सामने रखकर उसका ध्यान किया जायेगा, उसी के सूक्ष्म गुण अपने में बढ़ेंगे।

हवन, गन्ध-योग से सम्बन्धित है। किन्हीं पदार्थों की सूक्ष्म प्राण-शक्ति को प्राप्त करने के लिए उनसे विधि पूर्वक हवन किया जाता है। जिससे उनका स्थूल रूप तो जल जाता है, पर सूक्ष्म रूप से वायु के साथ चारों ओर फैलकर निकटस्थ लोगों की प्राण-शक्ति में अभिवृद्धि करता है। सुगन्धित वातावरण में अनुकूल प्राण की मात्रा अधिक होती है, इससे उसे नासिका द्वारा प्राप्त करते हुए अन्तःकरण प्रसन्न होता है।

गन्ध- साधना से मन की एकाग्रता के अतिरिक्त भविष्य का आभास करने की शक्ति बढ़ती है। सूर्य स्वर (दायाँ) और चन्द्र स्वर (बायाँ) सिद्ध हो जाने पर साधक अच्छा भविष्य- ज्ञाता हो सकता है। नासिका द्वारा साधा जाने वाला स्वर-योग भी गन्ध-साधना की एक शाखा है।

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19/09/2024

अब आते है तन्मात्रा साधना के तीसरे कड़ी पर जिसका नाम है

रस साधना

जो फल आपको सबसे स्वादिष्ट लगता हो, उसे इस साधना के लिए लीजिए। जैसे आपको कलमी आम अधिक रुचिकर है, तो उसके छोटे-छोटे पाँच टुकड़े कीजिए। एक टुकड़ा जिह्वा के अग्र भाग पर एक मिनट तक रखा रहने दें और उसके स्वाद का स्मरण इस प्रकार करें कि बिना आम के भी आम का स्वाद जिह्वा को होता रहे। दो मिनट में वह अनुभव शिथिल होने लगेगा, फिर दूसरा टुकड़ा जीभ पर रखिये और पूर्ववत् उसे फेंककर आम के स्वाद का अनुभव कीजिए। इस प्रकार पाँच बार करने में पन्द्रह मिनट लगते हैं।

धीरे-धीरे जिह्वा पर कोई वस्तु रखने का समय कम करना चाहिए और बिना किसी वस्तु के रस के अनुभव करने का समय बढ़ाना चाहिए। कुछ समय पश्चात् बिना किसी वस्तु को जीभ पर रखे भी केवल भावना मात्र से इच्छित वस्तु का पर्याप्त समय तक रसास्वादन किया जा सकता है। 1 शरीर के लिए जिन रसों की आवश्यकता है, वे पर्याप्त मात्रा में आकाश में भ्रमण करते रहते हैं । संसार में

जितने पदार्थ हैं उनका कुछ अंश वायु में, कुछ तरल रूप में और कुछ ठोस आकृति में रहता है। अन्न को हम ठोस आकृति में ही देखते हैं। भूमि में, जल में वह परमाणु रूप से रहता है और आकाश में अन्न का वायु अंश उड़ता रहता है। साधना की सिद्धि हो जाने पर आकाश में उड़ते फिरने वाले अन्नों को मनोबल द्वारा, संकल्प शक्ति के आकर्षण द्वारा खींचकर उदरस्थ किया जा सकता है। प्राचीन काल में ऋषि लोग दीर्घकाल तक बिना अन्न, जल के तपस्यायें करते थे। वे इस सिद्धि द्वारा आकाश में से ही अभीष्ट आहार प्राप्त कर लेते थे, इसलिए बिना अन्न, जल के भी उनका काम चलता था । इस साधना का साधक बहुमूल्य पौष्टिक पदार्थों, औषधियों एवं स्वादिष्ट रसों का उपभोग अपने साधना बल द्वारा ही कर सकता है तथा दूसरों के लिए वह वस्तुयें आकाश में उत्पन्न करके इस तरह दे सकता है, मानों किसी के द्वारा कहीं से मँगाकर दी हों।इन साधनाओं के उच्च स्थिति पर जा कर ही ये सभी संभावनाएं जागृत होती हैं अतः ये लंबे अभ्यास एवं साधना तप से ही होता है।

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रूप साधनाअपने इष्टदेव का जो सबसे सुन्दर चित्र या प्रतिमा मिले, उसे लीजिये। एकान्त स्थान में ऐसी जगह बैठिये जहाँ पर्याप्त...
18/09/2024

रूप साधना

अपने इष्टदेव का जो सबसे सुन्दर चित्र या प्रतिमा मिले, उसे लीजिये। एकान्त स्थान में ऐसी जगह बैठिये जहाँ पर्याप्त प्रकाश हो, इस चित्र या प्रतिमा के अंग-प्रत्यंगों को मनोयोग पूर्वक देखिये, इसके सौन्दर्य एवं विशेषताओं को खूब बारीकी के साथ देखिये, एक मिनट इस प्रकार देखने के बाद नेत्रों को बन्द कर लीजिये, अब उस चित्र के रूप का ध्यान कीजिए और जो बारीकियाँ, विशेषताएँ अथवा सुन्दरताएँ चित्र में देखीं थीं, उन सबको कल्पनाशक्ति द्वारा ध्यान के चित्र में आरोपित कीजिए। फिर नेत्र खोल लीजिए और उस छबि को देखिए, ध्यान के साथ-साथ ॐ मन्त्र जपते रहिए। इस प्रकार बार-बार करने से वह रूप मन में बस जायेगा। उसका दिव्य नेत्रों से दर्शन करते हुए बड़ा आनन्द आयेगा। धीरे-धीरे इस चित्र की मुखाकृति बदलती मालूम देगी, हँसती मुस्कुराती, नाराज होती, उपेक्षा करती हुई भावभंगी दिखाई देगी। यह प्रतिमा स्वप्न में अथवा जाग्रत् अवस्था में, नेत्रों के सामने आयेगी और कभी ऐसा अवसर आ सकता है, जिसे प्रत्यक्ष साक्षात्कार कहा जा सके। आरम्भ में यह साक्षात्कार धुँधला होता है। फिर धीरे-धीरे ध्यान सिद्ध होने से वह छबि अधिक स्पष्ट होने लगती है। पहले दिव्य दर्शन ध्यान क्षेत्र में ही रहता है, फिर प्रत्यक्ष परिलक्षित होने लगता है।

२- किसी मनुष्य के रूप का ध्यान, जिन भावनाओं के साथ, प्रबल मनोयोगपूर्वक किया जायेगा, उन भावनाओं के अनुरूप उस व्यक्ति पर प्रभाव पड़ेगा। किसी के विचारों को बदलने, द्वेष मिटाने, मधुर सम्बन्ध उत्पन्न करने, बुरी आदतें छुड़ाने, आशीर्वाद या शाप से लाभ हानि पहुँचाने आदि के प्रयोग इस साधना के आधार पर होते हैं। तान्त्रिक लोग विशेष कर्मकाण्डों एवं मन्त्रों द्वारा किसी मनुष्य का रूप आकर्षण करके उसे रोगी, पागल एवं वशवर्ती करते देखे गये हैं।

३-छाया पुरुष की सिद्धि भी रूप-साधना का एक अंग है। शुद्ध शरीर और शुद्ध वस्त्रों से, बिना भोजन किये मनुष्य की लम्बाई के दर्पण के सामने खड़े होकर अपनी आकृति ध्यानपूर्वक देखिये। थोड़ी देर बाद नेत्र बन्द कर लीजिए और उस दर्पण की आकृति का ध्यान कीजिए। अपनी छबि आपको दृष्टिगोचर होने लगेगी, कई व्यक्ति दर्पण की अपेक्षा स्वच्छ पानी में, तिल के तेल या पिघले हुए घृत में अपनी छबि देखकर उसका ध्यान करते हैं। दर्पण की साधना-शांतिदायक, तेल की संहारक और घृत की उत्पादक होती है। सूर्य और चन्द्रमा जब मध्य आकाश में ऐसे स्थान पर हों कि उनके प्रकाश में खड़े होने पर अपनी छाया ३ ॥ हाथ रहे, उस समय अपनी छाया पर भी उस प्रकार साधन कल्याणकारक माना गया है।

दर्पण, जल, तेल, घृत आदि में मुखाकृति स्पष्ट दीखती है और नेत्र बन्द करके वैसा ही ध्यान हो जाता है। सूर्य, चन्द्र की ओर पीठ करके खड़े होने से अपनी छाया सामने आती है। उसे खुले नेत्रों से भली प्रकार देखने के उपरान्त आँखें बन्द करके उसकी छाया का ध्यान करते हैं। कुछ दिनों के नियमित अभ्यास से उस छाया में
अपनी आकृति भी दिखाई देने लगती है।

कुछ काल निरन्तर इस छाया-साधना को करते रहा जाए, तो अपनी आकृति की एक अलग सत्ता बन जाती है और उसमें अपने संकल्प एवं प्राण का सम्मिश्रण होते जाने से वह एक स्वतंत्र चेतना का प्राणी बन जाता है। उसके अस्तित्व को 'अपना जीवित भूत' कह सकते हैं। आरम्भिक अवस्था में यह आकाश में उड़ता या अपने आस-पास फिरता दिखाई देता है। फिर उस पर जब अपना नियंत्रण हो जाता है तो आज्ञानुसार प्रकट होता तथा आचरण करता है। जिनका प्राण निर्बल है उनका यह मानस-पुत्र (छाया पुरुष) भी निर्बल होगा और अपना रूप दिखाने के अतिरिक्त और कुछ विशेष कार्य न कर सकेगा। पर जिनका प्राण प्रबल होता है उनका छाया-पुरुष, दूसरे अदृश्य शरीर की भाँति कार्य करता है। एक स्थूल और दूसरी सूक्ष्म देह, दो प्रकट देहें पाकर साधक बहुत से महत्त्वपूर्ण लाभ प्राप्त कर लेता है। साथ ही रूप-साधना द्वारा मन का वश में होना तथा एकाग्र होना तो प्रत्यक्ष लाभ है ही।

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*भगवती स्वधा देवी : समस्त पितरों को तृप्त और सद्गति इनकी कृपा से ही होता है इनका नाम स्मरण मात्र से पितृ गण प्रसन्न हो ज...
17/09/2024

*भगवती स्वधा देवी : समस्त पितरों को तृप्त और सद्गति इनकी कृपा से ही होता है इनका नाम स्मरण मात्र से पितृ गण प्रसन्न हो जाते है भगवती आद्या शक्ति का ये स्वरूप पितुगणों की मूल ऊर्जा है। ये पितृलोक की रानी हैं।

स्वधा स्तोत्र –
।। ब्रह्मोवाच ।।
स्वधोच्चारणमात्रेण तीर्थस्नायी भवेन्नर:।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो वाजपेयफलं लभेत्।।1।।
अर्थ: ब्रह्मा जी बोले – ‘स्वधा’ शब्द के उच्चारण से मानव तीर्थ स्नायी हो जाता है। वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर वाजपेय यज्ञ के फल का अधिकारी हो जाता है।

स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं यदि वारत्रयं स्मरेत्।
श्राद्धस्य फलमाप्नोति कालस्य तर्पणस्य च।।2।।
अर्थ: स्वधा, स्वधा, स्वधा – इस प्रकार यदि तीन बार स्मरण किया जाए तो श्राद्ध, काल और तर्पण के फल पुरुष को प्राप्त हो जाते हैं.

श्राद्धकाले स्वधास्तोत्रं य: श्रृणोति समाहित:।
लभेच्छ्राद्धशतानां च पुण्यमेव न संशय:।।3।।
अर्थ: श्राद्ध के अवसर पर जो पुरुष सावधान होकर स्वधा देवी के स्तोत्र का श्रवण करता है, वह सौ श्राद्धों का पुण्य पा लेता है, इसमें संशय नहीं है।

स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं त्रिसन्ध्यं य: पठेन्नर:।
प्रियां विनीतां स लभेत्साध्वीं पुत्रं गुणान्वितम्।।4।।
अर्थ: जो मानव स्वधा, स्वधा, स्वधा – इस पवित्र नाम का त्रिकाल सन्ध्या समय पाठ करता है, उसे विनीत, पतिव्रता एवं प्रिय पत्नी प्राप्त होती है तथा सद्गुण संपन्न पुत्र का लाभ होता है।

पितृणां प्राणतुल्या त्वं द्विजजीवनरूपिणी।
श्राद्धाधिष्ठातृदेवी च श्राद्धादीनां फलप्रदा।।5।।
अर्थ: देवि! तुम पितरों के लिए प्राणतुल्य और ब्राह्मणों के लिए जीवनस्वरूपिणी हो. तुम्हें श्राद्ध की अधिष्ठात्री देवी कहा गया है। तुम्हारी ही कृपा से श्राद्ध और तर्पण आदि के फल मिलते हैं.

बहिर्गच्छ मन्मनस: पितृणां तुष्टिहेतवे।
सम्प्रीतये द्विजातीनां गृहिणां वृद्धिहेतवे।।6।।
अर्थ: तुम पितरों की तुष्टि, द्विजातियों की प्रीति तथा गृहस्थों की अभिवृद्धि के लिए मुझ ब्रह्मा के मन से निकलकर बाहर जाओ.

नित्या त्वं नित्यस्वरूपासि गुणरूपासि सुव्रते।
आविर्भावस्तिरोभाव: सृष्टौ च प्रलये तव।।7।।
अर्थ: सुव्रते! तुम नित्य हो, तुम्हारा विग्रह नित्य और गुणमय है। तुम सृष्टि के समय प्रकट होती हो और प्रलयकाल में तुम्हारा तिरोभाव हो जाता है।

ऊँ स्वस्तिश्च नम: स्वाहा स्वधा त्वं दक्षिणा तथा।
निरूपिताश्चतुर्वेदे षट् प्रशस्ताश्च कर्मिणाम्।।8।।
अर्थ: तुम ऊँ, नम:, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा एवं दक्षिणा हो. चारों वेदों द्वारा तुम्हारे इन छ: स्वरूपों का निरूपण किया गया है, कर्मकाण्डी लोगों में इन छहों की मान्यता है।

पुरासीस्त्वं स्वधागोपी गोलोके राधिकासखी।
धृतोरसि स्वधात्मानं कृतं तेन स्वधा स्मृता।।9।।
अर्थ: हे देवि! तुम पहले गोलोक में ‘स्वधा’ नाम की गोपी थी और राधिका की सखी थी, भगवान कृष्ण ने अपने वक्ष: स्थल पर तुम्हें धारण किया इसी कारण तुम ‘स्वधा’ नाम से जानी गई.

इत्येवमुक्त्वा स ब्रह्मा ब्रह्मलोके च संसदि।
तस्थौ च सहसा सद्य: स्वधा साविर्बभूव ह।।10।।
अर्थ: इस प्रकार देवी स्वधा की महिमा गाकर ब्रह्मा जी अपनी सभा में विराजमान हो गए. इतने में सहसा भगवती स्वधा उनके सामने प्रकट हो गई.

तदा पितृभ्य: प्रददौ तामेव कमलाननाम्।
तां सम्प्राप्य ययुस्ते च पितरश्च प्रहर्षिता:।।11।।
अर्थ: तब पितामह ने उन कमलनयनी देवी को पितरों के प्रति समर्पण कर दिया. उन देवी की प्राप्ति से पितर अत्यन्त प्रसन्न होकर अपने लोक को चले गए.

स्वधास्तोत्रमिदं पुण्यं य: श्रृणोति समाहित:।
स स्नात: सर्वतीर्थेषु वेदपाठफलं लभेत्।।12।।
अर्थ: यह भगवती स्वधा का पुनीत स्तोत्र है। जो पुरुष समाहित चित्त से इस स्तोत्र का श्रवण करता है, उसने मानो सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान कर लिया और वह वेद पाठ का फल प्राप्त कर लेता है।

।।इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे ब्रह्माकृतं स्वधास्तोत्रं सम्पूर्णम्।।

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