17/05/2023
क़िस्सा छाछरो (पाकिस्तान) के जागीरदार लक्ष्मण सिंह सोढा का ।
क्या बिती है हमारे पुरखों पर ! वो चले आए गजनी से, अमरकोट से, छाछरो से, अपने बसे बसाए शहरों को छोड़कर वो चले आए इस रेतीले थार में । वो लेकर आए सिर्फ आंसु और रुंधे हुए गले और उनके आंसुओं की धार कभी न रुकी क्योंकी उन्हें याद आते थे पिछे छुट गये अपने बसेरे उनकी नस्लें आज भी निहारती है कंटीली तारबंदी के उस पार । कोई महसूस कर सके तो वह जान सकेगा की हमारे ही पुरखों के आंसुओं से भरे हे यह समन्दर । आज सुनिए एक धाट (थरपारकर) के राणा की विरह गाथा।
भारत की सरहद से 60 किलोमीटर दुर पाकिस्तान में सोढा राजपूतों की थरपारकर जिले में 1 लाख 20 हजार बीघा में फैली जागीर है ' छाछरो ' । सोढ़ा राजपूत हमेशा से जंगजू कौम रही है । 1931 छाछरो हवेली के जागीरदार लाल सिंह के यहां जन्म हुआ लक्ष्मण सिंह सोढा का । लक्ष्मण सिंह ने परिपक्व होने से पहले ही भारत विभाजन की त्रासदी देख ली । जवानी में ही उसके लम्बे डीलडोल और सभी धर्मों के प्रति अपनायत के भाव ने उसे इस खितें(क्षेत्र) का हुक्मरान बना दिया । पाकिस्तान की स्थापना के बाद के शुरुआती पन्द्रह वर्ष(1947-62) शान्ति भाईचारे और मोहम्मद अली जिन्ना के सिद्धांतों पर आधारित थे इस दौरान लक्ष्मण सिंह सोढा पाकिस्तान पार्लियामेंट्री के सदस्य और रेलमंत्री और सबसे खूबसूरत संसद सदस्य थे । ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो, बेनजीर भुट्टो हमेशा से सोढ़ा परिवार के बेहद करीबी थे, मगर अरब की तब्लीगी जमात के कारण हवा का रुख पलट रहा था कट्टरपंथी ताकतें इस्लामिक कानूनों की सहारे हावी होती जा रही थी,1965 चुनाव में जब जुल्फीकार अली भुट्टो को गोली मारी गई तब लक्ष्मण सिंह सोढा के चचेरे भाई और पुलिस कर्मी खुमाण सिंह ने ही जुल्फीकार अली भुट्टो को अपने कंधे पर सिविल अस्पताल पहुंचाया । 1965 चुनाव परिणाम ने कट्टरपंथी अयुब खान को पाकिस्तान का वजीरे आजम बना दिया । पाकिस्तान के पुराने आईन (संविधान) को बदलकर नये शरियत कानून लागु किए गए । पुर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) के मुजीबुर्रहमान, अमरकोट के राणा चन्द्र सिंह और छाछरो सामंत लक्ष्मण सिंह ने इसका विरोध किया ।
लक्ष्मण सिंह सोढा को देशद्रोही और पाकिस्तान की गुप्त जानकारी भारत पहुंचाने के जुर्म में जेल भेज दिया, मुजीबुर्रहमान (बांग्लादेश) भी देशद्रोह के जुर्म में जेल भेज दिए गए । भारत देश ने मुजीबुर्रहमान की रिहाई की तो अपील की किन्तु लक्ष्मण सिंह सोढा का नाम तक न लिया । लक्ष्मण सिंह सोढा पुर्व रेल मंत्री को तीन दिन तक बिना पानी के रखा गया, जेल में घनघोर यातनाएं दी गईं, मार्शल लॉ के खात्मे के साथ ही उनकी रिहाई हुई।
जब 1971 भारत और पाकिस्तान में युद्ध शुरू हुआ । जहां एक और भारत ने पुर्वी पाकिस्तान से बांग्लादेश बना दिया वहीं दुसरी तरफ इसके उलट मजबूत पाकिस्तानी सेना भारत के पश्चिम क्षेत्र में बढ़त बनाने लगी । जैसलमेर और बाड़मेर की सीमा पार करने की सुचना प्राप्त होने पर मजबुरन इंदिरा गांधी को जयपुर महाराजा ब्रिगेडियर भवानी सिंह को पश्चिमी मोर्चे की कमान सौंपनी पड़ी ।
हजारों साल से राष्ट्र और धर्म के लिए युद्ध करने वाली कौम का राजा अब खुद युद्ध के मैदान में था ।
जयपुर महाराजा भवानी सिंह ने अपने रिश्तेदार लक्ष्मण सिंह सोढा और बलवंत सिंह बाखासर से मदद मांगी । दोनों अपनी सामंती सेना को हथियार बंद कर युद्ध में शामिल हो गए । पाकिस्तान की आर्मी को उम्मीद थी कि उसका सामना होगा पैसों के खातिर सेना में भर्ती हुए भारतीय फौजीयों से, मगर गफलत के शिकार पठान लम्बे अरसे बाद रजपुतों की बाजुओं की ताकत देखने वाले थे ।
पाकिस्तान आर्मी से ज्यादा उस खितें का जानकार था लक्ष्मण सिंह, वहां के खेजड, वहां के मार्ग, वहां के रेत के समन्दर सबने लक्ष्मण सिंह सोढा का साथ दिया और इसकी बदौलत पाकिस्तान आर्मी के पांव उखड़ने लगे, पाकिस्तान तोपो के चेनसेट उन धोरों में धीमें पड गये, अति उत्साहित ऊंटों पर सवार पठान तोपों से आगे आ निकले और धोरों के शिखर पर से काबिज राजपूतों द्वारा ढ़ेर कर दिए गए । ऊंटों और पठानों के छलनी शव देख पाक आर्मी सैनिक अपनी तोपें रेतीले धोरों में छोड ही भाग छुटे और तब तक ना रूके जब तक सिन्ध का रेगिस्तान खत्म न हुआ ।
लक्ष्मण सिंह सोढा का लश्कर आगे आने वाली पाक सैनिक चौकियों को नेस्तनाबूद कर आगे बढ़ते रहा और जब सिन्ध के निवासियों ने अपने जागिरदार लक्ष्मण सिंह सोढा को सिन्ध की पवित्र जमीन पर देखा तो आंसुओं की धारे बह निकली और सब उस लश्कर के साथ हो लिए और काफिला बढ़ने लगा छाछरो शहर की ओर ।
जैसे ही उधर लक्ष्मण सिंह सोढा की खबर पहुंची तो वहां मौजूदा सैनिक चौकियों से सैनिक भाग छुटे, मस्जिद के मौलवी और बाहरी कट्टरपंथी लोग जो अपनायत को खत्म कर ज़हर घोलते थे वह भी अपने खच्चरों पर सवार होकर अपने आकाओं की ओर रवाना हो गए । लक्ष्मण सिंह सोढा अपने सिंध की प्रजा से आ मिले, परिचित चहरों पर हाथ फैरे गये, बुजुर्गों ने आशिर्वाद की सौगातें दी, बच्चों ने पांव छुकर बंदूकों को निहारा, मगणियार औरतों ने गीत गाया 'म्हारा रायचंद सोढ़ा' और लक्ष्मण सिंह ने भारतीय ध्वज अपने बस्ते से निकाल छाछरो हवेली के ऊपर फहराया ।
पाकिस्तान के आर्मी हुक्मरान को जब छाछरो शहर की शिकस्त का पता चला तो लक्ष्मण सिंह सोढा पर पाकिस्तान में देशद्रोह का मुकदमा और जिन्दा या मुर्दा पर तब के दो लाख का ईनाम घोषित किया गया किन्तु धाट के इस शेर ने एकछत्र छाछरो शहर पर कब्जा जमाए रखा । बिग्रेडियर भवानी सिंह जयपुर और महाराजा गज सिंह जौधपुर की सहायता से एक बस सेवा छाछरो शहर से बाड़मेर के लिए भी शुरू की गई । छाछरो शहर लग रहा था जैसे हमेशा के भारत का अभिन्न अंग बन गया था किन्तु इंदिरा गांधी ने शिमला समझौते में इस शहर को वापस पाकिस्तान को सौंपने का वादा किया ।
ब्रिगेडियर भवानी सिंह और तमाम राजपूत राजाओं ने छाछरो का विलय भारत में करने की भरसक कोशिशे कि किन्तु इंदिरा गांधी का मकसद तो सिर्फ मुजीबुर्रहमान और बांग्लादेश की आजादी ही था वैसे भी हमारी कौम को तो हमेशा ही ठगा गया चाहे 1947 का रियासतों का विलय हो या 1971 का छाछरो विजय ।
भारतीय सेना द्वारा जब छाछरो पाकिस्तान को सौंपने का वक्त आया तब छाछरो का हर एक बाशिंदा सिहर उठा वो समझ नहीं पा रहे थे कि उन्हें क्यों फिर उसी कट्टरपंथी ताकतों के हवाले कीया जा रहा है जिस भारत का ध्वज लेकर उनके बच्चे पिछले छः महीने से रेत पर दौड़ लगा रहे थे, जिस भारत में नौजवान अपना भविष्य देख रहे थे, जिस छाछरो शहर के वीरो ने कुर्बानियां दी, स्वयं छाछरो शहर आंसुओं को रोकें देख रहा था भारत के अदुरदशी नेताओं को ।
छाछरो शहर, खिपरों, सलामकोट और आस पास के 60 हजार हिन्दू परिवार पलायन के लिए तैयार हुए, रातों रात सैकड़ों हिन्दु परिवार ऊंटों, घोड़ों पर सवार हुए, बंदुकें कारतूसों से लोड की गयी, तरवारे कमर पर बांधी गई, मांगणियार मुस्लिम महिलाओं ने विदाई के गीत गाए, मन्दिर का दिया हमेशा के लिए बुझाया गया, उच्ची थलियों को आखिरी बार निहारा गया, खेतों की रेंत को आखिरी बार छुआ गया, लूं की आछटो को गालो पर महसूस किया गया, बच्चों ने उन खेजडों के डालो (शाखों) को हाथ हिलाकर अलविदा कहा जहां वह लटकते थे।
औरतें घुंघट के अन्दर से घरो को देखकर पलू से आंसु पोछती रही, नौजवान रेंत में दबे हुए कारतुसों के खाली खोल को देखकर सोच रहे थे कि भारत देश के लिए भी तो हम अब फुंके हुए कारतुस ही तो हैं और सबसे कठिन बख्त था उन बुजुर्गों के लिए वो धुंधला चुकी आंखों से आकाश को देख रहे थे और उलाहने दे रहे थे ईश्वर को । सबकी आंखें गमगीन थी, इंसान तो छोड़ो वहां के घोड़े और ऊंट भी एक क़दम आगे लेने को तैयार न थे । फिर भी जबरदस्ती उन्हें हांका गया कंपकंपाते हुए पैर रेंत में वही धंस जाना चाहते थे, ऊंट और घोड़े लगाम छुड़ा भाग जाना चाहते थे फिर भी ऐसा कुछ न हुआ, घोड़ों ने टापो से खेह (कम्प) की और ऊंटों ने जमीनें नापी ।
पिछे छुटते गये खेत और खेजड, पुरखो के आसरे और निसाण, खुटो पर बंधे रह गये ढोर और धण । सबसे आगे सवार लक्ष्मण सिंह सोढा आशंकाओं से भरा हुआ आगे चल रहा थावो शायद इन बातों से अनजान था कि जिन्हें वो पराएं देश में ले जा रहा है वहां इन शरणार्थियों को इकेतरिया कहकर चिढ़ाया जाएगा, उन्हें जुल्मी सामंत कहकर पुकारा जाएगा, उन्हें झुठे sc st act लगाकर फंसाया जाएगा ।
भारत आए शरणार्थियों को अलग अलग गांवों में जौधपुर महाराजा गजसिंह और जैसलमेर दरबार की साहयता से बसाया गया । लक्ष्मण सिंह सोढा अब एक जागीरदार से किसान बन गया । पाकिस्तान में ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की सरकार बनने के बाद देशद्रोह के सारे मामले वापस लिए गए, और एक प्रतिनिधिमंडल भेजकर लक्ष्मण सिंह सोढा को वापस आने का न्योता दिया गया किन्तु छाछरो का राणा जानता था कि वो फिर से ठगा जाएगा भारत और पाकिस्तान के दरमियान । उसने न्योते को ठुकरा दिया शायद वह धाट की बजाए थार से मन लगाना अब सीख चुका था ।
Author✍️ -: Takhat Singh