21/04/2024
मेरा बचपन.........
एक चीज मुझे अचंभित करती है कि आजकल के बच्चों की नाक क्यों नहीं बहती. यह बदलाव ग्लोबल वार्मिग के कारण है या कुछ और इस पर शोध होना चाहिये. हमारे समय तो हम बच्चों की नाक से गुब्बारा फूटा रहता था. ले हतौड़ा, मार फतौड़ा चलता रहता पूरे दिन या बाबाजी वाला योग- अन्दर लो, बाहर लो. सांस अन्दर तो वो भी अन्दर सांस बाहर तो वो भी बाहर. दिन भर सुणुक्क-सुणुक्क का संगीत बजाते रहते थे हम.
स्कूल के दिनों की याद करूं तो सबसे ज्यादा मार भी गुरुजी जी शेम नाक बहने पर ही मिलती थी
कभी आप भी अपना बचपन याद करें तो जरूर इए भी याद होगा जब घर से रोज सुबह स्कूल जाने का मन नही करता था पर जब घर से निकलते तो एक-दो दोस्तों से मिलते ही हमारा मन बदल जाता था. फिर स्कूल जाना अच्छा लगने लगता. शुरुआत यानी पहली दूसरी क्लास में तब पाटी (तख्ती) चलती थी और साथ में चुना (किकारू सफेद मिट्ठी की) की दवात और निगाल की कलम.
तख्ती को गले में लटकाकर दूसरे हाथ में किकारु की दवात लिए नीली कमीज और सफेद सलवार . यही सब पहने हम बहुत खुश होकर चलते थे. हां घर से चलते समय हम अपने दोस्तों को (धाओ) जरूर लगाते- ओ फलाना यदि कोई सहपाठी आगे चले गये तो हम पीछे से धाओ लगाते- ओ ठोले लो ,
साथ-साथ चलने में आनन्द आता. भले रास्ता कम हो या ज्यादा हम जो पाटी लटकाकर चलते उसका दोस्तों से कम्पटीशन होता था कि किसकी पाटी (तख्ती )ज्यादे काली और घुटी है. तब तवे की काली से तख्ती में लेप कर फिर दवाई की शीशी से रघुटाई कर चिकना बनाते थे एक दवात में किकारू डालकर घोलते फिर उल्टी कलम से उसको मिलाते, फैंटते थे. फिर निगाल की कलम से तख्ती पर लिखते थे
कक्षा तीन से कापी और स्याही की दवात चलती थी. स्याही की टिक्की स्वास्तिक या वी कम्पनी की होती थी. कलम की नोक कक्षा एक दो के मुकाबले अब कापी के हिसाब से पतली बनती थी. कापी कैपिटल कम्पनी की अच्छी मानी जाती. एक हल्की क्वालिटी की जो सरकारी राशन की दुकान पर मिलती थी . एक पन्ने पर लिखो तो स्याही अगले पन्ने तक पहुंच कर खराब कर देती. वो सस्ती थी इसलिए खरीद ली जाती थी. कापी के बीच में मोरपंखी नामक पत्ते रखना अनिवार्य था विद्या इसी से आती थी. कापी किताब पर पैर लगने पर मान्यता थी कि विद्या माता नाराज हो जाएगी. हालाकि हर झूठी कसम हम विद्या माता की ही खाते थे. सच्ची कसम अपनी मां बाप की खाते थे. तब विद्या का सही उच्चारण भी हमारे लिए बिध्या माता हुवा करता था.
प्रार्थना करते समय हम लयबद्ध तरीके से समूह में पेन्डुलम की तरह हिला करते थे. प्रार्थना के बाद भारत मेरा देश है और हर भारतवासी हमारे भाई बहन हैं, की प्रतिज्ञा भी रोज लेते थे.
क्लास में नीले रंग की टांट हो न हो हमें फरक नही पड़ता. फिर भी हम पंक्ति में बड़े ठाट से बैठ जाते. जब हम दवात में डोब डालकर कलम छटकाते तो खुद के साथ बगल वाले बच्चे के पेन्ट शर्ट कमीज सलवार पर माडर्न आर्ट बन जाता. पाठ याद न होने पर जमकर कुटाई होती पर ये बात हम घर पर नहीं बताते थे वरना घर पर पिटाई का रिवीजन जरूर हो जाता था.
आजकल बच्चे डाक्टर,आई ए एस, इन्जीनियर, वकील बनने के सपने देखते हैं हम तो केमू के ड्राइवर बनना चाहते थे. हमरा ऐसा कुछ निर्धारती गोल नही था हां एक ख्याल मन में जरुर था मैं बड़े हो कर मास्टर बनना चाहती थी ताकि हमारी जो कुटाई हो रही है मास्टर बनकर हम भी बच्चों को कूटें और हमारा बदला पूरा हो सके.
स्कूल से छुट्टी पर ऐसे भागते घर को मानो पीछे पुलिस पड़ी हो या ओबरे से किसी ने बकरिया एक साथ खोल दी. घर पहुंचने पर कढाई या पतीले में भात रखा या सत्तू वो भी अगर उस में गुड़ हो तो उसे हम चटकार खाते,. होमवर्क नाम की चीज होती नहीं थी तो हम खाते ही खेलने को दौड़ लगा देते.
ऐसा कुछ मेरा अपना बचपन रहा तब पैसों की बहुत हेमियत थी ,
गुरु जी को भगवान का दर्जा था , मासूमियत कूट कूट कर भरी थी ,
आज सब आर्टिफिशल सा हो गया ना बच्चों का बचपन दिख रहा ना उन की जवानी ,
🙏💐