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मैं अखबार हूँ , मुझसे जुड़े लोग पत्रकार तथा मुझसे जुड़े कार्य को पत्रकारिता कहते है। वही जो लगभग दस से बारह पन्नों का टुकड़ा जिसपर सिवान गोपालगंज कि शान बढ़ती जरूरतों ने मुझे तकनीकी रूप से छापने के लिए तैयार कर दिया था और 15 वी शताब्दी में गुटेनबर्ग ने छापने की मशीन का आविष्कार कर मुझे बेहद सरल और सस्ता बना दिया। इस मशीन द्वारा गुटेनबर्ग धातुओ की अक्षरों का आविष्कार कर संदेशों को छापने में आसानी कर दी। 16 वी शताब्दी के अंत में यूरोप के एक कारोबारी योहन करालुस ने स्ट्रासबर्ग शहर में धनवान कारोबारियों के लिए मुझे उपयोग में लाता था। जिसे वो खुद ही लिख कर उनके पास भेजता था, पर छापने की मशीन आ जाने के बाद सन 1605 से छपाई वाला सन्देश सहित पन्ना उनके पास भेजने लगा था और करालुस ने मेरा नाम बदलकर "रिलेशन" रख दिया। जो विश्व का पहला मुद्रित अखबार माने जाने लगा। मैं देश भ्रमण पर निकल चुका था। हर एक देशों में अपना अलग अलग नाम छोड़ते हुए भारत पंहुचा। मेरे भारत पहुचने से पहले मुझे छापने वाली मशीन करीब 1674 ईस्वी में भारत पहुच चुकी थी पर मैं इसके ठीक 102 वर्ष बाद यानी 1776 ईस्वी में पंहुचा। मुझे भारत में आश्रय देने वाली संस्था थी "ईस्ट इंडिया कंपनी" तथा इसके भूतपूर्व अधिकारी विलेम बॉल्ट्स। उस वक़्त मैं अंग्रेजी भाषा में लोगो से रूबरू होता था पर मेरा क्षेत्र कंपनी तथा सरकार के बीच ही सीमित था। 4 साल बाद 1780 ईस्वी में जेम्स आगस्टस हिक्की ने मुझे एक अलग नाम से प्रकाशित किया। नाम था "बंगाल गजट" . दो पन्ने तथा मुझमे छपी लेख ईस्ट इंडिया कंपनी के वरिष्ठ अधिकारियों की व्यक्तिगत जीवन पर ही होते थे। 1790 ईस्वी तक मेरे और भी कई नाम प्रकाशित हो चुके थे। कुछ जीवित रहे कुछ ओझल भी हो गए। 1819 ईस्वी में राजा राम मोहन रॉय ने बंगाली भाषा में "संवाद कौमुदी" नाम से एक और अखबार प्रकाशित किये। बढती जरूरतों ने मुझे और भी नाम दिया था। 1822 में "मुंबईना समाचार(गुजराती भाषा, साप्ताहिक )" के नाम से प्रकाशित हुआ जो दस वर्ष बाद दैनिक सारणी में परिवर्तित हो गया। 1826 में "उदंत मार्तण्ड ( हिंदी भाषा,साप्ताहिक )" के नाम से लोगो के बीच पंहुचा ,पर पैसो की कमी ने मुझे एक साल में ही लोगो के बीच से हटा दिया । 1830 में राजाराम मोहन रॉय ने "बंगदूत ( हिंदी भाषा, साप्ताहिक )" नाम से मुझे लोगो से परिचित कराया। वैसे मेरा सम्बन्ध बहुभाषीय था जैसे कि बँगला, हिंदी, अंग्रेजी तथा फ़ारसी। मेरे प्रकाशन का केंद्र कोलकाता था। करीब 1833 ईस्वी तक भारत में मेरे 20 नाम अलग अलग हो चुके थे। वही 1850 में 28 तथा , 1953 में 35 नाम हो चुके थे। इस तरह मेरे नाम तो बढे पर नाममात्र ही। मेरी भाषाएँ उस वक़्त बहुत कठिन थी जो आम लोगो के समझ से बिलकुल ही बाहर थी। जिसके वजह से मेरे बहुत सारे नाम लोगो के बीच से समाप्त ही हो गए। नए विचारो सहित हिंदी भाषा में 1846 में राजा शिव प्रसाद ने "वनारस अखबार" के नाम से प्रकाशन शुरू किया लेकिन इसमें भी वही समस्या थी , कठिन शब्द। इस समस्या को ध्यान में रखते हुए भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने 1868 में "कविवच सुधा" नाम से साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया ,लेकिन 1868 से पहले 1854 में "समाचार सुधा वर्षण" नाम से लोगो से रूबरू हो चूका था। अंततः सरल शब्द और आसान भाषा सहित कम खर्च में लोगो के पास पहुचने लगा। लोग मुझे बेहद पसंद करने लगे थे क्योंकि नए-नए विचार , नयी-नयी ज्ञान सहित सामाजिक सुधार से सम्बंधित मूल तथ्यों को पहुचा रहा था।


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