08/03/2024
तीन भोजपुरी लोकगीतों की पुनर्रचना.....
इन गीतों को सम्भवत: स्त्रियों ने ही रचा होगा। कितनी भयावह और नृशंस होंगी जीवनस्थितियाँ कि ये गीत रचे गए होंगे......
मुझे बाँझ कहती है सास मेरी
और मेरी ननद ब्रजवासिन पुकारती है
जो लाया ब्याह कर उसने घर से निकाल दिया
वन में
घनघोर वन में अकेली खड़ी हूँ मैं
ऐ बाघिन!
अनंत असह दुख हैं मेरे
खा जाओ मुझे
कर दो मेरी पीड़ा अंत
जाओ] लौट जाओ उस घर
वही है आश्रय तुम्हारा
दुख हों या सुख
मैंने अगर खा लिया तुम्हें तो
बाँझ हो जाऊँगी मैं भी
ऐ नागिन!
डँसो मुझे
विष तुम्हारा अमृत बनेगा मेरे लिए
मुक्ति मिलेगी मुझे
जाओ, लौट जाओ उस घर
वहीं करो तप
तीर्थ वही है तुम्हारा
मैंने अगर डँस लिया तुम्हें
बाँझ हो जाऊँगी मैं भी
ऐ भूमि..!
माँ हो तुम
अपनी गोद दो मुझे
फटो कि समा जाऊँ
छिप जाऊँ तुम्हारे गर्भ में
शरण दो माँ
नहीं बेटी,
लौट जाओ अपने पति के घर
मैं नहीं दे सकती आश्रय
न गोद
न गर्भ
अगर दिया यह सब तुम्हें
बंजर हो जाऊँगी मैं
जाओ, लौट जाओ....
2
मंडप काँप रहा है
वेदी काँप रही है
काँप रही हैं कुश की डंठलें
ब्राह्मण के मंत्र काँपते हैं
काँप रही है पिता की जंघा
जिस बैठाकर मुझे
वे कर रहे हैं दान मेरा
काँप रही हैं दसों दिशाएँ
मैं बाबा बाबा गुहराती रही
एक पुरुष ने सिन्दूर दिया
और मैं परायी हो गई....
भइया भइया पुकारती रही
और वह डोली पर बैठाकर ले गया
किसी ने नहीं सुनी मेरी
तुमने तो जना था अपनी कोख से
तुमने भी नहीं अम्मा
3
चन्द्र-ग्रहण
साँझ में
और
सूर्य-ग्रहण भोर में
पर ऐ मेरी बेटी,
बेटी-ग्रहण
जन्म के समय से
जो मैं जानती
कि तुम पल रही हो कोख में
पी लेती
तीखी मिर्चें पीसकर
मिर्च की झाँस से
मर जाती तुम गर्भ में ही
मिट जाता
गहन संताप यह
ऐ बेटी,
भादो मास की अंधियारी रात
क्यों जनम लिया तुमने
हँसुआ नहीं मिला
छुरी नहीं मिली
सीप काटा गया तुम्हारा नाभिनाल
हर दिशा में खोजते रहे पिता तुम्हारे
पर नहीं मिला वर
अब कैसे करूँ
और किसको करूँ तुम्हें दान...
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