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किस्सा खिलाड़ी का कहानी  #सचिन कीकिसी गीतकार का कथन है कि अगर आपको अपने जीवन में एक समझदार पत्नी मिल गयी तो आप इस संसार ...
07/03/2024

किस्सा खिलाड़ी का
कहानी #सचिन की

किसी गीतकार का कथन है कि अगर आपको अपने जीवन में एक समझदार पत्नी मिल गयी तो आप इस संसार के सबसे खुशकिस्मत और समृद्ध व्यक्ति हैं।

सचिन के जीवन में अंजलि मेहता वही थीं, सचिन पूरा करियर खेलते रहे, सचिन पर आने वाली तमाम जिम्मेदारियों को भी अंजलि ने झेल लिया। इसके लिए अंजली ने न केवल अपना निजी करियर दांव पर लगाया बल्कि सचिन को उनका करियर बनाने में पूरी मदद की।

सचिन तो इतने शर्मीले थे कि अपने विवाह की बात भी अपने माता पिता से नही कर सके, यह काम भी अंजलि ने ही किया।

लेकिन सचिन इतने भ्रातप्रेमी थे कि उन्होंने एक बात सबसे पहले कही कि आपको मेरे परिवार में आने से पहले अजीत भाई की सहमति बहुत जरूरी है.. बिना उनकी सहमति के आपका आना सम्भव नही, सचिन ने सबसे पहले अपने बड़े भाई अजित से मिलवाया। अजित ने हाँ की तब अंजलि से उनकी बात आगे बढ़ी..

सचिन कहते हैं कि उन्होंने कभी किसी लड़की को डेट नही किया। क्योंकि जीवन में क्रिकेट इतना पहले आ गया कि जवानी उसी क्रिकेट में खपी.. और अंजलि भी सही वक्त पर आ गयी थीं।

सचिन की डेटिंग भी इस तरह चली कि बाहरी दुनिया को कुछ पता नही चला, बहुत दिनों तक उनके घर वालों को भी नही पता था.. छः छः महीने बाद फोन पर बात होती थी, ऐसा भी नही था कि वो सचिन के ग्लैमर के पीछे पागल थीं, अंजलि को क्रिकेट पसन्द भी नही था, और वो उस वक्त सचिन की हैसियत से हजारो गुना ज्यादा ऊपर थीं..
उनके पिता ब्रिज के नैशनल चैंपियन रह चुके थे।

लेकिन उनको आने वाले वक्त की आहट तो थी ही.. एक सोलह सत्रह साल का लड़का जिसके बारे में अखबारों में खबरें नाच रहीं थी, जिसके बारे में लोग बात करना शुरू कर दिए थे..

जब उनकी भाभी को शक हुआ तो सचिन ने एक बार अंजलि को घर बुलाया था लेकिन वो रिपोर्टर बनकर आईं थीं।
कुछ दिन बाद सचिन ने अपने बड़े भाई को अंजलि के बारे में बताया।

सचिन ने पांच साल डेट करके
21वें जन्मदिन के दिन अंजलि से इंगेजमेंट कर ली। और बाद में वही उनकी अर्धांगिनी बनी।

सचिन कहते हैं कि मुझे क्या पता कि परिवारिक जिमीदरियाँ क्या होती हैं.. माता पिता के पीछे लगना क्या होता है, उनकी सेवा क्या होता है.. सारा और अर्जुन की पालन पोषण कैसे हुआ?

सचिन कहते हैं एक बार मुझे याद आया कि अर्जुन अब मेरी लंबाई के बराबर हो गया था।

मैं अपने जीवन में इतना कुछ अचीव कर पाया उसके पीछे अंजलि थीं, आज सचिन हूँ तो अंजलि की वजह से हूँ..
मुझको क्या पता पब्लिक लाइफ क्या होती है, बीच पर बैठकर नारियल पानी पीना क्या होता है, और पत्नी के साथ गोलगप्पे खाना क्या होता है, इन सबका त्याग अंजलि ने मेरे लिया किया था।

कहानी सिनेमा की अनकही कहानी रवि किशन कीकुछ दिन पहले रिलीज हुई नेटफ्लिक्स की मामला लीगल है का किरदार बीडी त्यागी, किसी भी...
06/03/2024

कहानी सिनेमा की
अनकही कहानी रवि किशन की

कुछ दिन पहले रिलीज हुई नेटफ्लिक्स की मामला लीगल है का किरदार बीडी त्यागी, किसी भी एक्टर के लिए सपने की तरह है। इस किरदार में इतने शेड है, इतने उतार चढ़ाव है,इतनी गहराई है कि एक्टर ऐसे रोल के लिए एक दूसरे से कुश्ती करने में भी ऐतराज नहीं करेंगे। पर इस रोल तक आने के लिए रवि किशन को बहुत कुश्ती लड़नी पड़ी, वक्त से, हालात से, और अपने गलत चुनावों से।

करीब 32 साल पहले रवि किशन के पिताजी अपने बेटे की हरकतों से तंग आ चुके थे, गुरबत में भी एक इज्जतदार जिंदगी जीने वाले शुक्ला जी को बिलकुल पसंद नहीं था कि उनका लड़का ढोल की आवाज सुनते ही घर से बाहर निकल कर नाचने लगे। किसकी शादी किसकी बरात, किसकी मय्यत, किसकी रैली है, रवि किशन को बस ढोल सुनाई देता था, जैसे उन्ही के नाचने के लिए नियति और प्रकृति ने मिलकर ढोल का इंतजाम किया है। एक कलाकार था अंदर, जो नही जानता था कि इस एनर्जी का सही इस्तेमाल कैसे करे। फिर एक मौका मिला, रामलीला में सीता बनने का। पिता जी को पसंद नही था, रवि किशन पिताजी से छुपकर रोल करने लगे, सोचा कि बाद में देखा जाएगा। पर दिक्कत ये थी कि पहले पिता जी ने देख लिया। बहुत मारे, मारते मारते घर लेकर आए, उस दिन रवि के पिताजी रवि को इतना मारना चाहते थे कि गांव वालो के सामने मिसाल बन जाए। मां को डर लगा, रवि को बुलाया, उसे पांच सौ रुपए देकर कहा कि यहां से भाग जाओ वरना जान नही बचेगी।

रवि को नही पता था, कि उस वक्त वो पिता से बचने के लिए भागे थे, या स्टार बनने के लिए, पर पिता से कोई शिकायत नहीं थी, मन में प्यार था सम्मान था, और रवि किशन पहुंचे मुंबई। वो मुंबई, जहा के स्टेशन पर रोज एक सपना उतरता है, और अगले हफ्ते खाली पेट दम तोड़ देता है। रवि किशन पहुंचे तो किसी तरह से छत और रोटी के जुगाड़ में लग गए। इस दौरान जो भी काम मिला करते रहे, सपना था अमिताभ बनने का मिथुन बनने का, पर काम में छोटा बड़ा नही देखा। इसके फायदे भी हुए और नुकसान भी, फायदा ये कि हुनर तराशा जा रहा था, नुकसान ये की हुनर दिखाने का मौका नही मिल रहा था। कही एडिटिंग टेबल पर झूल जाए तो कभी बीच शूटिंग में पता चले की अब वो हिस्सा नहीं है वो फिल्म का।

पर गांव दिहात के आदमी के साथ दिक्कत ये होती है कि वो खेती के लिए बारिश का इंतजार तो करता है, दुआए भी करता है, पर उसकी खेती मौसम या प्रकृति की मोहताज नहीं होती, भगवान साथ दे दे तो अच्छा, नही देंगे तो इतनी ताकत है कि प्रकृति के स्वभाव के विपरीत जाकर फसल उगाकर दिखा दे।
रवि किशन मुंबई आए थे तो भाषा, से लेकर हर चीज पर उन्हे काम करना था। किया उन्होंने, ऐसी फिल्मों के लिए भी दिन रात मेहनत रिहर्सल करते रहे, जिनके बारे में उन्हे अच्छे से पता था कि रोल कट जायेगा। बीच बीच में कुछ फिल्मों के जरिए लोगो की निगाह में चढ़े पर इतने के लिए तो घर से भागे नही थे। फिर डीडी मेट्रो पर एक सीरियल मिला, हैलो इंस्पेक्टर, इस सीरियल की मदद से रवि किशन पहले लोगो के घर में घुसे फिर दिल में। इतना तो साबित कर दिया था कि ये एक्टर किसी भी तरह का रोल कर सकता है, पर इस एक्टर को रोल देना दर्शको के जिम्मे था नही।

फिर 2003 में रिलीज हुई तेरे नाम,ओरिजिनल और सही आंच पर भुना गया कबीर सिंह। रवि किशन को उस रोल के लिए कई अवॉर्ड के लिए नॉमिनेट किया गया था। उसी दौरान भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री फिर से पनपना शुरू हो रही थी। भोजपुरी फिल्मों ने रवि किशन को स्टार का दर्जा दिया। उसी दौरान बिग बॉस वालो की तरफ से ऑफर आया, बिग बॉस में ज्यादातर टूटेले फटेले आइटम आते थे उस वक्त, पर रवि के पास काम था पहले से, शायद उसी काम के बोझ से भागने के लिए रवि ने बिग बॉस का ऑफर ले लिया। वहा पर उनकी बोली भाषा, और अंदाज ने उन्हे गांव शहर के हर घर का हिस्सा बना दिया। अब लोग रवि किशन को पहचानते थे, जानते थे, उनसे जिंदगी झंड बा डायलॉग बोलने के लिए जिद करते। पर बात फिर भी वही घूम फिर कर आ गई थी कि स्टारडम तो चाहिए था पर काम की वजह से,किरदार की वजह से, ऐसे किरदार जो लोगो को ये भूलने पर मजबूर कर दे कि यही रवि किशन है।

बिग बॉस से फायदा ये हुआ कि लोगो की नजर पड़ी, और छोटे लेकिन अहम किरदार मिलने लगे। रवि ने अपनी मेहनत से उस किरदार को बड़ा किया, श्याम बेनेगल, मणिरत्नम जैसे डायरेक्टर की फिल्मों का हिस्सा बने। फिर हेरा फेरी में तोतला सेठ के बेटे के किरदार के डायलॉग , "क्या खुसुल फुसुल" "बीस लात दे" ने इंटरनेट का चहेता बना दिया। फिर यू हुआ कि रवि किशन रिलवेंट हो गए, मतलब सब जानते थे, सबको पता था कि रवि किशन कौन है, कोई सोलो हिट तो नही थी, पर ज्यादातर हिट फिल्मों के फैन रवि के निभाए किरदार गुनगुनाने लगे थे। फिर साउथ में एंट्री हुई, वहा और अच्छे रोल मिले, ज्यादा एक्सपोजर मिला, और उसी दौरान राजनीति में कदम रख दिया, पहला चुनाव अपने घर में बुरी तरह हारे। रवि अब तक हर तरह के रोल कर चुके थे, पर नाम उतना नही बन पा रहा था जितनी मेहनत लग रही थी। ये कुछ ऐसा था कि जिस फिल्म में रवि किशन पचासा मारे, उस फिल्म में किसी और के शतक की चर्चा ज्यादा होने लगे। रवि को शिकायत नही थी क्युकी यही ढंग है सिनेमा का, रवि को बस उम्मीद थी कि एक मौका तो आयेगा कभी न कभी जब पावर प्ले भी हम खेलेंगे और स्लॉग ओवर में भी।

फिर राजनीति की दूसरी पारी शुरू हुई, चुनाव जीता सांसद बने। अब पैसा, फेम और पावर तीनों था साथ में। लोगो को लगा कि अब रवि किशन नेता बन गए है, अब सिनेमा छोड़ देंगे, कुछ को लगा कि एक नेता के लिए अभिनय को मैनेज करना मुश्किल होगा। पर जिस लड़के ने पिताजी की मार के बाद भी एक्टिंग नही छोड़ी, नाचना नही छोड़ा, वो किसी और चीज के डर या लालच से क्या ही एक्टिंग छोड़ता। हा बस अब की बार फर्क ये था रवि को समझ आया कि वो चुन सकते है, अब वो ऐसे रोल कर सकते है जो सिनेमा के उनके तीस साल के अनुभव के साथ न्याय कर सके। रवि ने फिर से सर्वाइवल का खेल चालू रखा, खामोशी से छोटे छोटे किरदार करते रहे, साल की किसी न किसी बड़ी फिल्म में वो दिख ही जाते।

फिर आया साल 2024 नेता रवि किशन का नही, अभिनेता रवि किशन का साल। लोअर ऑर्डर में कम गेंद और मुश्किल सिचुएशन में खेलने वाले लड़के को एक डायरेक्टर ने ओपनिंग थमा दी। मतलब तब तक खेलना है, जब तक ओवर न खत्म हो जाए, आउट तो वो किसी रोल में हुए नही थे आज तक। फिल्म की शुरुआत से आखिर तक, सिर्फ और सिर्फ बीडी त्यागी। ऐसा किरदार, जो एक महत्वाकांक्षी इंसान है, पर अपनी महत्वाकांक्षाओं की दौड़ में भी वो इंसान बना हुआ है। उसके तरीके उसके इरादे को लेकर दर्शक श्योर नही है,पर उन्हे ये किरदार सही लग रहा है। पूरी सीरीज में रवि किशन बैटिंग करते रहे, एक प्रेसिडेंट, वकील, बॉस, बेटे, बाप, इस किरदार में जो जो मौका मिला रवि किशन हर मौके को बचपन में बजने वाले ढोल की आवाज समझकर खुलकर नाचते रहे।

फिर दूसरी फिल्म आई लापता लेडिस,मालूम चला कि रवि किशन ने ऑडिशन के जरिए इस फिल्म में आमिर खान को रिप्लेस किया। फिल्म रिलीज हुई, फिल्म की तारीफ हुई और रवि किशन की भी। साल भर मीडिया और लोगो के बीच में गंभीर चेहरे के साथ नजर आने वाले रवि किशन, जो इस वक्त यूपी के सबसे ताकतवर राजनैतिक नामो में गिने जाते है, वो अपनी खुशी नही छिपा पा रहा है अपने चेहरे से, ऐसा जैसे किसी बच्चे ने सालो पहले कोई खिलौना देखा था, और लंबे इंतजार के बाद उसने अपनी मेहनत से वो खिलौना हासिल कर लिया। रवि किशन को देखकर ये बात आप समझ सकते है कि एक कलाकार, अपनी जिंदगी में कुछ भी बन जाए, कुछ भी हासिल कर ले, उसे भूख सिर्फ कला की रहती है, वो व्हीलचेयर पर एक्टिंग करेगा, दवाओ के सहारे एक्शन सीन करेगा, पर उसे करने दो, उसे किरदार निभाने दो, उसे लोगो को एंटरटेन करने दो, क्युकी रवि किशन 32 साल पहले अपने घर से न तो संसद बनने के लिए भागे थे, ना ही स्टार, वो बस ऐसे किरदार निभाने निकले थे, जिनके लिए उन्हें याद रखा जाए, ऐसे किरदार जो उसके जाने के बाद भी लोगो को गुदगुदाते रहे, रुलाते रहे, याद आते रहे।ऐसे बहुत से एक्टर है इंडस्ट्री के जिन्हे दशक बीत गए, जिन्होंने कुछ गलत नही किया है अपने करियर में,सब जानते भी है, बस उनका वक्त नहीं आया है, उनकी झोली में अभी बीडी त्यागी जैसा किरदार नही आया है, जो जितना बेहतरीन हो उतना मशहूर भी हो जाए, पर वो डिजर्व करते है, आज नही कल, रवि किशन को तरह उन्हे भी एक मौका मिलेगा पावर प्ले में खेलने का, तब तक विकेट बचाए रखो, टुक टूक करते रहो, जब चांस मिलेगा तब डाउन द ग्राउंड खेलेंगे।

विंध्य सत्ता समाचार पत्र को जिला एवं तहसील लेवल पर एजेंसी देना है केवल पत्रकारिता मे रूचि रखने वाले संपर्क करे।
24/02/2024

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27/01/2024

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अभी न पढ़ा तो फिर कब पढ़ेंगे अखबारअयोध्या विशेष : हर दिन खास।  े_राम  #सबके_राम               Shri Ram Janmbhoomi Teerth K...
22/01/2024

अभी न पढ़ा तो फिर कब पढ़ेंगे अखबार
अयोध्या विशेष : हर दिन खास।
े_राम #सबके_राम

Shri Ram Janmbhoomi Teerth Kshetra

13/12/2023

मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव एवं उपमुख्यमंत्री शपथ ग्रहण का समारोह
हुआ संपन्न।
खबर विस्तार देखने के लिए कमेंट बॉक्स को देखें।

13/12/2023

उप मुख्यमंत्री राजेंद्र शुक्ल ने शपथ ली।
खबर देखें कमेंट बॉक्स में।

विजयी भारत!अहमदाबाद, नरेंद्र मोदी स्टेडियम में भारत की शानदार जीत ..इस ऐतिहासिक विजय पर समस्त खिलाड़ियों एवं देशवासियों ...
15/10/2023

विजयी भारत!

अहमदाबाद, नरेंद्र मोदी स्टेडियम में भारत की शानदार जीत ..

इस ऐतिहासिक विजय पर समस्त खिलाड़ियों एवं देशवासियों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।

रीवा जिले के गुढ़ से कपिध्वज  सिंह, मऊगंज से सुखेंद्र सिंह बन्ना, त्योंथर से  रमा शंकर सिंह पटेल, मनगंवा से बबिता साकेत,...
15/10/2023

रीवा जिले के गुढ़ से कपिध्वज सिंह, मऊगंज से सुखेंद्र सिंह बन्ना, त्योंथर से रमा शंकर सिंह पटेल, मनगंवा से बबिता साकेत, सीधी के चुरहट से अजय सिंह राहुल, सिहावल से कमलेश्वर पटेल, सतना के चित्रकूट से नीलांशु, सतना से सिद्धार्थ कुशवाहा डब्बू, कांग्रेस प्रत्याशियों की पहली सूची हुई जारी।144 सीटों पर हुई घोषणा,, रीवा, सेमरिया, सिरमौर, देवतालाब अगले सूची में हो सकती है घोषित।

कांग्रेस ने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलांगना विधानसभा चुनाव के लिए अपने उम्मीदवारों की पहली लिस्ट जारी कर दी है. मध्य प्रदेश के पूर्व सीएम कमलनाथ छिंदवाड़ा से चुनाव लड़ेंगे. वहीं दिग्विजय सिंह के बेटे जयवर्धन सिंह राघोगढ़ से ही चुनावी मैदान में होंगे

नवरात्रि के पहले दिन कांग्रेस ने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलांगना विधानसभा चुनाव के लिए अपने उम्मीदवारों की पहली लिस्ट जारी कर दी है। इस पहली सूची में 144 विधानसभा सीटों पर प्रत्याशियों की घोषणा कर दी गई है। जिसमें रीवा जिले के गुढ़ विधानसभा से कपिध्वज सिंह, मऊगंज से सुखेंद्र सिंह बन्ना, त्योंथर से रमा शंकर सिंह पटेल एवं मनगंवा से बबिता साकेत पर पार्टी ने भरोसा जताया है। जबकि रीवा विधानसभा, सेमरिया विधानसभा, सिरमौर विधानसभा, देवतालाब विधानसभा सीट के प्रत्याशियों के नामों की घोषणा अगले सूची में हो सकती है। बता दें कि रीवा जिले में इस बार सेमरिया विधानसभा हाट सीट मानी जा रही है, जिस पर दो भाजपा नेता विधायक केपी त्रिपाठी और पूर्व विधायक अभय मिश्रा के बीच टिकट को लेकर खींचतान मची हुई है। सेमरिया विधानसभा से अभी कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने भी अपने प्रत्याशियों की घोषणा नहीं की है।

वन्दे वांच्छितलाभाय चंद्रार्धकृतशेखराम्‌ ।वृषारूढ़ां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्‌ ॥मां दुर्गा को सर्वप्रथम शैलपुत्री के...
15/10/2023

वन्दे वांच्छितलाभाय चंद्रार्धकृतशेखराम्‌ ।
वृषारूढ़ां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्‌ ॥

मां दुर्गा को सर्वप्रथम शैलपुत्री के रूप में पूजा जाता है। हिमालय के वहां पुत्री के रूप में जन्म लेने के कारण उनका नामकरण हुआ शैलपुत्री। इनका वाहन वृषभ है, इसलिए यह देवी वृषारूढ़ा के नाम से भी जानी जाती हैं। इस देवी ने दाएं हाथ में त्रिशूल धारण कर रखा है और बाएं हाथ में कमल सुशोभित है। यही देवी प्रथम दुर्गा हैं। ये ही सती के नाम से भी जानी जाती हैं। उनकी एक अत्यंत मार्मिक कहानी है।


एक बार जब प्रजापति ने यज्ञ किया तो इसमें सारे देवताओं को निमंत्रित किया, भगवान शंकर को नहीं। सती यज्ञ में जाने के लिए विकल हो उठीं। शंकरजी ने कहा कि सारे देवताओं को निमंत्रित किया गया है, उन्हें नहीं।

सती का प्रबल आग्रह देखकर शंकरजी ने उन्हें यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी। सती जब घर पहुंचीं तो सिर्फ मां ने ही उन्हें स्नेह दिया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव थे। भगवान शंकर के प्रति भी तिरस्कार का भाव है। दक्ष ने भी उनके प्रति अपमानजनक वचन कहे। इससे सती को दुख पहुंचा। वे अपने पति का यह अपमान न सह सकीं और योगाग्नि द्वारा अपने को जलाकर भस्म कर लिया। इस दारुण दुःख से व्यथित होकर शंकर भगवान ने उस यज्ञ का विध्वंस करा दिया। यही सती अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्मीं और शैलपुत्री कहलाईं।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार पार्वती और हेमवती भी इसी देवी के अन्य नाम हैं। मां शैलपुत्री का विवाह भी भगवान शंकर से हुआ। मां शैलपुत्री शिवजी की अर्द्धांगिनी बनीं। इनका महत्व और शक्ति अनंत है।

दिल्ली क्राइम रिपोर्ट्स:-दिल्ली में अपराध के शुरुआती दिनों की कहानी, वो मामले जिनकी शिकायत दर्ज की गई थी. क्या थीं दिल्ल...
15/07/2023

दिल्ली क्राइम रिपोर्ट्स:-

दिल्ली में अपराध के शुरुआती दिनों की कहानी, वो मामले जिनकी शिकायत दर्ज की गई थी. क्या थीं दिल्ली में अपराध की दर्ज वारदातें? ये मामले लगभग 150 साल पुराने हैं.

19वीं सदी के पुलिस रिकॉर्ड ने उठाया दिल्ली में अपराध के शुरुआती दिनों से पर्दा

वो जनवरी 1876 की एक सर्द रात थी. दो थके-हारे मुसाफ़िरों ने दिल्ली के सब्ज़ी मंडी इलाक़े में रहने वाले मुहम्मद ख़ान के घर का दरवाज़ा खटखटाया.

भूल-भुलैया जैसी संकरी गलियों वाला दिल्ली का सब्ज़ी मंडी इलाक़ा उस वक़्त कारोबार के लिहाज़ से ख़ूब फल-फूल रहा था. उन मुसाफ़िरों ने मुहम्मद ख़ान से पूछा कि क्या वो उनके यहां रात गुज़ार सकते हैं.

मुहम्मद ख़ान ने फ़राख़दिली दिखाते हुए दोनों मेहमानों को अपने कमरे में सोने की इजाज़त दे दी.

लेकिन, जब अगली सुबह मुहम्मद ख़ान सोकर उठे तो हैरान रह गए. उनके यहां रात में ठहरे दोनों मुसाफ़िर ग़ायब थे.
उनके साथ साथ वो बिस्तर भी लापता थे, जो मुहम्मद ख़ान ने उन दोनों को रात गुज़ारने के लिए दिया था. मुहम्मद ख़ान को एहसास हुआ कि वो ऐसी लूट का शिकार हुए हैं, जिससे शायद कभी किसी और का वास्ता नहीं पड़ा था.

उस वारदात को हुए क़रीब 150 साल गुज़र चुके हैं. 1876 में मुहम्मद ख़ान के साथ जो कुछ हुआ, वो दिल्ली में जुर्म की उन शुरुआती घटनाओं में से एक है, जिसकी पुलिस से शिकायत की गई थी.

अभी पिछले महीने दिल्ली पुलिस की वेबसाइट पर ये रिकॉर्ड अपलोड किए गए हैं.

दिल्ली पुलिस के इन पुराने रिकॉर्ड्स में हमें ऐसे ही 29 और मामलों की जानकारी मिलती है, जिन्हें दिल्ली के पांच प्रमुख पुलिस थानों-सब्ज़ी मंडी, मेहरौली, कोतवाली, सदर बाज़ार और नांगलोई- में 1861 से 1900 के शुरुआती वर्षों में दर्ज किया गया था.

मुहम्मद ख़ान की शिकायत पर पुलिस ने दोनों मुजरिमों को गिरफ़्तार करके उन्हें चोरी के जुर्म में तीन महीने के लिए जेल भेजा था.

ये शिकायत मूल रूप में उर्दू की बेहद कठिन कही जाने वाली शिकस्ता लिपि में दर्ज की गई थी. इसमें अरबी और फ़ारसी के शब्द भी इस्तेमाल किए गए थे.

इन सभी एफ़आईआर को दिल्ली पुलिस के असिस्टेंट कमिश्नर राजेंद्र सिंह कलकल की अगुवाई वाली एक टीम ने अनुवाद करके जमा किया है. राजेंद्र सिंह ख़ुद हर एक मामले की तफ़्सील बयान करते हैं.

राजेंद्र सिंह कलकल ने कहा कि पुलिस के ये दस्तावेज़ मानो उनसे ‘बातें करते थे’ क्योंकि, इनमें दिल्ली के उस दौर के लोगों की ज़िंदगी की दिलचस्प झलकियां देखने को मिलती हैं.

वो दिल्ली जिसे कई बार लूटा गया, जीता गया और बनाया बिगाड़ा गया. वो कहते हैं कि, ‘दिल्ली पुलिस की ये फाइलें, गुज़रे हुए वक़्त में ही नहीं, आज के दौर में भी झांकने का एक झरोखा हैं.’

इनमें से ज़्यादातर शिकायतें चोरी के छोटे मोटे जुर्मों की हैं. जैसे कि संतरों, चादरों या आइसक्रीम की चोरी. और, इन शिकायतों में हँसाने वाला एक हल्कापन है.

एक शिकायत लोगों के एक गिरोह की है, जिसने एक गड़रिये पर हमला बोला था. गिरोह के सदस्यों ने गड़रिए से मार-पीट की, और वो उसकी 110 बकरियां भी छीन ले गए; एक आदमी ऐसा था, जिसने एक चादर लगभग चुरा ही ली थी, लेकिन वो चादर चुराकर बस ‘40 क़दम चला होगा कि पकड़ा गया’; एक अफ़सोसनाक मामला टाट के बोरों की हिफ़ाज़त करने वाले दर्शन का है.

ठगों ने उस बेचारे को बुरी तरह मारा-पीटा और फिर उसकी रज़ाई और जूतों के जोड़े में सिर्फ़ एक जूता छीनकर भाग गए.
कलाकार और इतिहासकार महमूद फ़ारूक़ी कहते हैं कि उस वक़्त अगर कोई गंभीर अपराध नहीं होता था, तो शायद इसकी एक वजह ये भी रही होगी कि लोग अंग्रेज़ों से बहुत डरते थे. 1857 के विद्रोह के बाद से अंग्रेज़ बहुत सख़्ती से राज कर रहे थे.

उस विद्रोह के बाद औरतों, बच्चों और मर्दों को बेरहमी से क़त्ल कर दिया गया था. बहुत से लोगों को हमेशा के लिए दिल्ली छोड़ने पर मजबूर किया गया और उन्हें दिल्ली शहर के आस-पास के ग्रामीण इलाक़ों में जाकर बसना पड़ा.

जहाँ उन्होंने अपनी ज़िंदगी का बाक़ी वक़्त बड़ी ग़ुरबत में गुज़ारा.

उनमें से कुछ एक जो शहर की चारदीवारी के भीतर बचे रह गए थे, उन्हें हमेशा गोली मार दिए जाने या सूली पर चढ़ा दिए जाने के ख़ौफ़ के साए में ज़िंदगी बितानी पड़ी.

महमूद फ़ारूक़ी कहते हैं कि, ‘वो दौर नरसंहार का था. लोगों पर इस क़दर ज़ुल्म ढाए गए. इतना डराया गया कि वो बरसों तक उस सदमे से उबर नहीं सके थे.’

महमूद फ़ारूक़ी ये भी कहते हैं कि कोलकाता (पहले कलकत्ता) जैसे दूसरे शहरों में जहाँ आधुनिक पुलिस व्यवस्था पहले ही आकार ले चुकी थी. वहीं, दिल्ली मुग़ल दौर में स्थापित की गई पुलिस की ‘पुरानी’ और अनूठी व्यवस्था पर ही चलती रही थी.

इसकी वजह ये थी कि उस व्यवस्था को जड़ से ख़त्म करना और उसकी जगह नई व्यस्था लागू करना मुश्किल था. वो कहते हैं कि, ‘इसीलिए, दस्तावेज़ों में गड़बड़ी होना या उनमें आधी अधूरी जानकारी होने की बात से इनकार नहीं किया जा सकता है.’
ये रिकॉर्ड जो दिल्ली पुलिस के म्यूज़ियम में रखे हैं, उनके बारे में पिछले साल ही पता चला था. म्यूज़ियम में रखी पुरानी चीज़ों पर रिसर्च करने और उनके रख-रखाव का ज़िम्मा एसीपी राजेंद्र सिंह कलकल के पास ही था.

वो कहते हैं कि उन्हें ये दस्तावेज़ तब मिले, जब वो एक दिन पुराने ग़र्द भरे दस्तावेज़ों को खंगाल रहे थे. वो बताते हैं कि, ‘मैंने देखा कि सैकड़ों गुमनाम एफआईआर वहाँ पड़ी हैं. जब मैंने उन्हें पढ़ा तो मुझे एहसास हुआ कि पिछले 200 बरस में एफआईआर के फॉर्मैट (प्रारूप) में कोई बदलाव ही नहीं आया था.’

राजेंद्र सिंह कलकल कहते हैं कि वो इन सीधे-सादे जुर्मों की दास्तान पढ़कर हैरान रह गए थे. एक दौर ऐसा भी था जब सिगार, पायजामे या संतरों जैसी चीज़ें चोरी करना ‘सबसे बुरे क़िस्म का अपराध माना जाता था.’

लेकिन, पुलिस से हल्के फुल्के अपराधों की शिकायतें की गई थीं, तो इसका ये मतलब नहीं है कि उस दौर में गंभीर अपराध हो ही नहीं रहे थे.

राजेंद्र सिंह कलकल को आशंका है कि दिल्ली में हत्या का पहला मामला शायद 1861 में ही दर्ज हुआ होगा. क्योंकि, ये वही साल था, जब अंग्रेज़ों ने इंडियन पुलिस एक्ट बनाकर पुलिस की एक संगठित व्यवस्था की स्थापना की थी.

वो कहते हैं कि, ‘हमारे रिसर्च का मक़सद क़त्ल के मामलों की तलाश करना तो नहीं था. लेकिन, मुझे पक्का यक़ीन है कि कहीं न कहीं इसके दस्तावेज़ भी मौजूद होंगे.’

बहुत से मामलों में केस का नतीजा ‘पता नहीं लग सका’ के तौर पर दर्ज है. इसका मतलब है कि मुजरिम कभी पकड़ा नहीं जा सका. लेकिन, मुहम्मद ख़ान जैसे कई और मामलों में जुर्म करने वाले को फ़ौरन सज़ा दी गई, जैसे कि कोड़े लगाना, छड़ी से पिटाई करना और कुछ हफ़्तों से लेकर कई महीनों तक क़ैद की सज़ा देना.
ऐसा ही एक अपराध सन् 1897 में शहर की सबसे शानदार इमारत, यानी 233 कमरों वाले इंपीरियल होटल में हुआ था. होटल के एक रसोइए को ‘अंग्रेज़ी में लिखी शिकायती चिट्ठी’ के साथसब्ज़ी मंडी पुलिस थाने भेजा गया था.

इस चिट्ठी में शिकायत ये की गई थी कि चोरों के एक गिरोह ने अकल्पनीय मज़ाक़ किया था. वो होटल के एक कमरे से शराब की एक बोतल और सिगार का एक पैकेट चुरा ले गए थे. होटल ने इन चोरो को पकड़ने के लिए दस रुपए के भारी इनाम का एलान भी किया था. लेकिन, चोरी की ये गुत्थी अनसुलझी ही रह गई, और चोर कभी पकड़े नहीं जा सके।

इमरजेंसी रपट- ४इमरजेंसी लागू हुए तीन दिन बीत चुके है। अब आप खुदाई रिपोर्टर की एक विशेष रपट पढ़िए। इस रपट की मुख्य किरदार...
29/06/2023

इमरजेंसी रपट- ४

इमरजेंसी लागू हुए तीन दिन बीत चुके है। अब आप खुदाई रिपोर्टर की एक विशेष रपट पढ़िए। इस रपट की मुख्य किरदार है रुखसाना सुल्ताना।

संजय ने नसबंदी का प्रोग्राम सबसे पहले दिल्ली में लांच किया था - उस के बाद उन राज्यों में जहां कांग्रेस की सरकार थी। इस कार्यक्रम को लागू करवाने के लिए चार लोगो की टीम गठित की गयी -गवर्नर किशन चंद , नविन चावला , विद्याबेन शाह और रुखसाना सुल्ताना। सुल्ताना खुशवंत सिंह के भतीजे को तलाक दे चुकी थी - फिल्म लाइन से जुडी बेगम पारा की भतीजी थी। इत्र में नहायी , आँखों पर हमेशा धूप चश्मा चढ़ाये रुखसाना सुल्ताना संजय गाँधी की सबसे बड़ी फैन थी और वो किसी को भाव ना देती। सुल्ताना का काम एक बुटीक चलाना था और यही उसकी क्वालिफिकेशन थी। अमृता सिंह की माँ , सैफ की सास और सारा अली खान की नानी। बड़े बड़े नेता सुल्ताना के समक्ष मेमने नज़र आते थे। अब एक नज़र संजय गाँधी पर - सितम्बर 1976 , जब ये नसबंदी कार्यक्रम लांच हुआ था - उस समय संजय की आयु तीस थी - ना वो सांसद थे , ना किसी सरकारी नौकरी पर और ना कोई व्यापार - लेकिन ओहदा सबसे बड़ा। इतना बड़ा कि इंदिरा ने नसबंदी का काम संजय के हवाले कर दिया और किसी ने चू तक ना की।

सबसे पहले शुरुआत हुई दिल्ली की जामा मस्जिद के रिहाशी इलाको से , जहां विद्याबेन और सुल्ताना ने काम शुरू किया - कैंप लगाए - दोनों मरदाना और जनाना नसबंदी के। शुरू में किसी ने ध्यान ना दिया । सुल्ताना इत्र छिड़कती वहां की गलियों में घूमती और खवातीनो से दरख़्वास्त्र करती। पहले दिन १९ लोग , दुसरे दिन जीरो , तीसरे दिन तीन लोग कैंप में आये। संजय ने पैसा और वालंटियर बढ़ाये , खुद कैंप में बैठे तब भी २४ से ज्यादा लोग ना आये। अब तक प्रोग्राम स्वचछा से चल रहा था - कोई जोर जबरजस्ती नहीं थी। इनाम बढ़ाया गया -७५ रुपैये , एक टिन घी का और दो दिन की काम से छुट्टी। अब संजय ने dig पुलिस को बुलाया और लोगो को आने के किये कहा । ऊपर से सरकार ने भी १६ अप्रैल को आबादी दिवस घोषित कर दिया - सब कोंग्रेसी नेता इसी सुर में बयान देने लगे थे। अब इन सब के चलते रोज तीन सौ से ऊपर लोग कैंप में आने लगे थे। कुछ जगह ट्रांजिस्टर भी बाँट रहे थे ताकि ज्यादा लोग आये। अब ये प्रोग्राम up , mp , राजश्थान , बिहार , हरयाणा , ओरिसा , पंजाब , हिमाचल राज्यों में भी शुरू किया गया । दिल्ली का ट्रैक रिकॉर्ड ४१ प्रतिशत था और बाकी राज्य १६ प्रतिशत टारगेट पर चल रहे थे । संजय गाँधी खुद डेली सुबह रिपोर्ट लेते थे - टारगेट कितना मीट हुआ है । दिल्ली में उस एक साल में उतनी नसबंदी हो गयी जो पिछले दस साल में नहीं हुई थी। लेकिन अभी सैलाब आना बाकी था।

जब सब मुख्य मंत्री अपनी अपनी रिपोर्ट देते तो उन सबको आपस में तुलना करवा कर जलील किया जाता। इस तरह से हरियाणा - जहां बंसीलाल थे ने दमदार गति पकड़ी। राजस्थान भी पीछे ना था। अखबारों में साफ़ इंस्ट्रक्शन थे - कोई बुरी खबर ना छापी जाए। बल्कि बढ़िया खबर प्रिंट होती - कैसे अपनी ख़ुशी से लोग नसबंदी करवा रहे है - ऑस्ट्रेलियाई डॉक्टर की थीसिस छपती कि नसबंदी के बाद काम इच्छा और बढ़ जाती है आदि आदि। २ मौलवी के साथ भी संजय की फोटो छापी गयी जिन्होंने नसबंदी करवाई थी , ईसाई आर्चबिशप की भी अपील जारी हुई। अक्टूबर का महीना गजब का निकला - चाईबासा बिहार में एक डॉक्टर ने रिकॉर्ड ९२ नसबंदी करि एक दिन में ; गुजरात में दस हज़ार ऑपरेशन हुए पूरे महीने में ; भालकी कर्नाटक में बारह घंटे में दो हज़ार ऑपरेशन। आगरा में दो हज़ार भिखारियों को पकड़ा गया और १८०० को तुरंत ऑपरेट कर दिया गया एक दिन में ही। सुल्ताना ने दिल्ली में अलग ही कहर ढा रखा था - छह कैंप वो चला रही थी - सबसे ज्यादा कुख्यात था दोजना हाउस कैंप - जिसे कबाड़ी बाजार वाले स्पॉन्सर कर रहे थे। दोजोना हाउस कैंप रोज सुबह दस बजे खुलता , चाय पिलाई जाती , दोपहर खाना मिलता , पूरे दिन गाने बजते - आओ नसबंदी करवाए। इनाम में ट्रांजिस्टर , डालडा और घडिया बांटी जाती। इस कैंप में छह बिस्तर थे और डॉक्टर के टीम के हेड थे - डॉक्टर निरोध बनेर्जी। जी हां नाम सही पढ़ा आपने - निरोध ! इस दोजोना हाउस में ही सबसे ज्यादा बर्बरता हुई थी और इस कैंप को सँभालने के लिए राजस्थान के पेशेवर अपराधियों को जिम्मेदारी दी गयी थी।

सुल्ताना ने संजय के तमाम काण्डो में अपनी प्रजेंस दी थी- कोई काम ऐसा ना था जिस में ये ना हो। मर्दमार लेडी की अम्मा अपनी बेटी से कम ना थी। संजय के एक तरफ़ सोनी दूसरी तरफ़ सुल्ताना। देखने वालों को महात्मा गांधी याद आ जाते थे।

आपातकाल के कुछ चर्चित नारे ::

नसबंदी के तीन दलाल - इंदिरा ,संजय और बंसीलाल ;

संजय की मम्मी बड़ी निकम्मी ;

ज़मीन गयी चकबंदी में , मकान गया हदबंदी में , दरवज्जे पर खड़ी औरत चिल्लाये - मेरा मरद गया नसबंदी में !

खुलासे तो और भी अनेक है - किंतु इतना लंबा पढ़ेगा कौन।

चुनांचे इस रपट को इधरीच ख़त्म करते है।

 #दीपावली  #मुहूर्त  #सूर्यग्रहण  #धनतेरस धनतेरस,दीपावली,सूर्यग्रहण में मुहूर्त निर्णय। विशेष उपाय अगले पोस्ट द्वारा बता...
20/10/2022

#दीपावली
#मुहूर्त
#सूर्यग्रहण
#धनतेरस
धनतेरस,दीपावली,सूर्यग्रहण में मुहूर्त निर्णय।
विशेष उपाय अगले पोस्ट द्वारा बताई जाएगी तो पेज से जुड़े रहें।

पीडब्ल्यूडी के अस्थाई कर्मचारी ने किया शासकीय स्टोर रूम  (गैंग हट) पर किया अवैध कब्जा।रीवा। गोविन्दगढ़पीडब्ल्यूडी विभाग म...
27/08/2022

पीडब्ल्यूडी के अस्थाई कर्मचारी ने किया शासकीय स्टोर रूम (गैंग हट) पर किया अवैध कब्जा।

रीवा। गोविन्दगढ़
पीडब्ल्यूडी विभाग में कुशल कारीगर रूप में कार्यरत रामदरश शुक्ला पिता हीरामणि शुक्ला द्वारा खुलेआम शासकीय स्टोर रूम (गैंग हट) में अवैध रूप से कब्जा कर शासकीय जमीन को अपने नाम करवाने का खेल-खेला जा रहा है। जैसे कि इसके द्वारा विद्युत विभाग से लाइट कनेक्शन ले लिया गया इसके द्वारा नगर परिषद गोविंदगढ़ से नल कनेक्शन ले लिया गया है।
आश्चर्यजनक बात यह है कि
जिन अधिकारियों की अनदेखी के चलते यह हालात हैं कि वह अपने पूरे परिवार पत्नी, पिता, भाई, चाचा बच्चों के सभी के नाम मतदाता सूची में जुड़वाते हुए, सभी लोगों द्वारा शासकीय स्टोर रूम (गैंग हट) को आवास बना लिया हैं और अवैध रूप से रह रहे हैं। जबकि हकीकत में लोक निर्माण विभाग में पदस्थ अस्थायी कर्मचारी की इतनी हैसियत नहीं होती कि वह बगैर किसी संरक्षण के इतना सब कुछ कर ले और सरकारी संपत्ति को अवैध रूप से कूटरचना कर अपने नाम कराने की कोशिश की जा रही है। पूर्व में भी गोविन्दगढ़ में कृषि कार्य हेतु शासकीय कार्यालय को ग्राम सेवक के पुत्र द्वारा ऐसी घटना को अंजाम दे चुका हैं जिसकी जाँच नहीं हो सकी।

हैरानी इस बात की है कि यह सारा खेल स्थानीय प्रशासन से लेकर पीडब्ल्यूडी के अधिकारियों की नजर में है, लेकिन कार्रवाई करने की जहमत कोई नहीं उठा रहा।
इनका कहना है कि:-
मुझे नहीं पता कि गोविन्दगढ़ में विभाग का शासकीय स्टोर रूम (गैंग हट) की क्या स्थिति है और किसके द्वारा आवास हेतु आवंटन किया गया है मैं इसकी जानकारी एकत्रित करने के बाद आवश्यक कार्रवाई जरूर करूंगा।
के. के. पाण्डेय, एसडीओ पीडब्ल्यूडी

15/08/2021
हम यमुना प्रसाद शास्त्री को क्यों याद करें!पुण्यस्मरण/जयराम शुक्लहर साल 20 जून की तारीख मुझे एक महामानव का स्मरण दिलाती ...
20/06/2021

हम यमुना प्रसाद शास्त्री को क्यों याद करें!
पुण्यस्मरण/जयराम शुक्ल

हर साल 20 जून की तारीख मुझे एक महामानव का स्मरण दिलाती है। यह तारीख सरकारी कलेंडरों में नहीं मिलेगी। यह तो लाखों-लाख विंध्यवासियों के ह्रदय के पंचाग में दर्ज है। उस महामानव का नाम है यमुना प्रसाद शास्त्री।

जो प्रशस्ति आईंस्टीन ने महात्मा गाँधी के लिए व्यक्त की थी हूबहू वही शास्त्री जी में चरितार्थ होती है- "आने वाली पीढ़ी शायद ही इस बात पर यकीन करे कि भारत में हाड़-मांस का ऐसा भी कोई सख्स था, जिसकी अहिंसक हुंकार से सत्ताएं हिल जाया करती थी।"

आज जब करोना की विपदा में पढ़े लिखे युवा और श्रमिक रोजगार की तलाश में मारे मारे फिर रहे हैं। शास्त्री जी ऐसे मौके पर जमीन आसमान एक कर चुके होते..और आखिरी व्यक्ति की व्यवस्था होने तक अन्न जल त्याग चुके होते।

गांधी के बाद सत्याग्रह की ताकत को शास्त्री जी ने परिभाषित किया। उन्होंने भले ही आठ बाई आठ की कोठरी में सारी उम्र काटी हो लेकिन उनका विचार वैश्विक था। अपनी झोपड़ी का नाम ही उन्होंने "वसुधैव कुटुम्बकम" रखा था।

चीन की हरकतों पर वे आज किसी भी नेता से ज्यादा मुखर होते। नेपाल के सत्ताधीशों को भारत विरोध पर कड़ी नसीहत दे रहे होते। और बताते कि जिस भारत के साथ उनका रोटी-बेटी का संबंध है चीन के कहने पर उस भारत से रिश्ता तोड़ने पर कुछ हाँसिल होने वाला नहीं।

कम लोगों को पता होगा कि 75 में नेपाल में लगी इमरजेंसी के दरम्यान गिरजा प्रसाद कोयराला परिवार ने शास्त्री जी के गाँव सूरा(रीवा) में आश्रय लिया हुआ था। प्रकाश कोयराला महीनों सूरा में ही भूमगत रहे।

शास्त्रीजी अमेरिका में एक अस्वेतों की हत्या और नस्लीय घटनाओं पर चुप नहीं बैठते, वे इस घटना पर पद्मधर पार्क में अनशनरत होते।

शास्त्री जी के लिए सच्चे अर्थों में ही विश्व एक परिवार की भाँति था। जैसे रीवा जिले का जड़कुड़, सरगुजा का झगराखाँड़, वैसे ही लतीन अमेरिका और अफ्रीका के देश।

सार्वजनिक जीवन में अजीब सी विचार शून्यता छाई है..। आज के नेताओं के बरक्स आने वाली पीढ़ी जब शास्त्रीजी के बारे में सुनेगी तो उसे कोरी गप्पकथा लगेगी। क्योंकि वह देख रही है कि अब मंत्रिमंडल में जगह पाना लाटरी के खुल जाने जैसी भाग्यशाली घटना है।

शास्त्रीजी ऐसे पद ठेंगे पर रखते थे। 67 में मध्यप्रदेश के संविद सरकार में व 89 में चंद्रशेखर के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार में उन्हें मंत्री बनने के अवसर मिले थे..। लेकिन शास्त्रीजी कुर्ता झाड़कर पतली गली से किन्हीं शोषितों के उदय की लड़ाई लड़ने निकल लिए।

शास्त्रीजी शोषितोदय नाम का अखबार निकालते थे जिसके वे संपादक, प्रकाशक सभी कुछ थे। सार्वजनिक जीवन को इतनी व्यापक समग्रता के साथ जीने वाले शास्त्रीजी विरले व्यक्ति थे। वे राजनीति की अंंधी कोठरी में ताउम्र रोशनदान बनकर उजाला फैलाते रहे।

शास्त्रीजी के व्यक्तित्व व कृतित्व को किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता। कांग्रेसनीत यूपीए सरकार के तमाम घपलों घोटालों के बावजूद जिन अच्छे कामों के लिए जाना जाएगा, उन सभी को शास्त्रीजी ने पार्लियामेंट में बहुत पहले ही अशासकीय संकल्पों के जरिए प्रस्तुत कर चुके थे।

राइट टु इनफारमेशन, राइड टू फूड, राइट टू वर्क, राइट टु एजुकेशन, इन सबकी मौलिक अवधारणा शास्त्री जी की ही थी। शास्त्रीजी 77 में लोकसभा के लिए चुने गए। यह दुनिया के लिए बड़ी खबर थी। एक रंक ने राजा को हरा दिया।

उनकी नेत्रहीनता को लेकर भी तमाम चर्चाएं होती रहीं। अच्छी भी और बुरी भी। लेकिन मेरे जैसे बहुत से लोग कल भी मानते थे और आज भी याद करते हैं कि शास्त्री जी जैसी दिव्य दृष्टि सभी राजनेताओं को मिले।

शास्त्री जी लोकतांत्रिक समाजवाद के पक्षधर रहे। आचार्य नरेन्द्र देव के वे सच्चे अनुयायी या यों कहें सच्चे उत्तराधिकारी थे। उन्हें सत्ता सुख के दो मौके आए। 77 में और फिर 89 में।

77 में तो वे प्रदेश की सत्ता की राजनीति के नियंता ही थे। जैसे चाहा वैसे प्रदेश की सरकार चली। पहली बार विधायक बने उनके कई साथी अनुयायी केबिनेट में पहुंचे, पर शास्त्रीजी स्वयं सत्ता से निर्लिप्त रहे। यहां तक कि उन्होंने विधायक व सांसद को मिलने वाली पेंशन भी त्याग दी थी।

विधायक व सांसदों की तनख्वाह,सुविधाएं बढ़ाने का उन्होंने हर बार विरोध किया..। वे कहते थे- लोकतांत्रिक देश में गरीब जनता के चुने हुए प्रतिनिधि को राजे-रजवाड़े जैसा नहीं रहना चाहिए। जैसे देश का आखिरी व्यक्ति अभावों में जीता है वैसे ही निर्वाचित प्रतिनिधियों को भी जीने की आदत डालनी चाहिए।

चंद्रशेखर, मधु लिमए, दण्डवते, रामकृष्ण हेगड़े और सुरेन्द्र मोहन उन नेताओं में थे जिनके प्रति शास्त्री के हृदय में अपार सम्मान था। वे लोग भी शास्त्री से असीम स्नेह रखते थे।

दलितों-पीड़ितों और आदिवासियों के लिए आन्दोलन का कोई न कोई मुद्दा वे ढूंढ ही लेते थे। आन्दोलन का समापन शास्त्री जी के अनशन के साथ होता था।

एक बार सुरेन्द्र मोहन जी ने कहा-शास्त्रीजी, बायपास हो चुकी है, एसीटोन जाने लगता है, अब तो अपनी देह का ख्याल रखते हुए ये ‘वार्षिक कार्यक्रम’ न किया करिए।

शास्त्री जी उस वक्त तो चुप रहे और संतरे का जूस पीकर अनशन त्याग दिया। बाद में मैने सुरेन्द्र मोहन जी की नसीहत का ध्यान दिलाया तो लगभग डाटते हुए बोले -मेरे अनशन से अगर पांच भूखे परिवारों तक इमदाद पहुंच जाती है और उनका चूल्हा जलता है तो ऐसा अनशन साल में एक बार नहीं, कई-कई बार करूंगा। मैने कब चिन्ता की कि कोई मेरा अनशन तुड़वाने आए।

दरअसल शासन-प्रशासन शास्त्री जी के अनशन की घोषणा के साथ ही सक्रिय हो जाता था और हर पंचायतों तक राशन और मजूरों के लिए काम के इस्टीमेट बनने शुरु हो जाते थे।

शास्त्री जी बेबसों, निर्धनों और मुसीबत जदा लोगों के लिए स्वमेव एक राहत थे। राजनीति में गांधी के बाद शास्त्री ही ऐसे दुर्लभ हठयोगी थे कि उन्होंने जो ठान लिया सो ठान लिया। इस बात की कतई चिंता नहीं कि साथ में कितने लोग चल रहे हैं।

झगराखाड़ कोयलरी के मजदूरों के लिए उन्होंने ‘दिल्ली’ मार्च किया। पैदल ही सरगुजा से दिल्ली की ओर चल पड़े। रास्ते में केन्द्र सरकार का दूत पत्र के साथ पहुंचा कि मांगे मान ली गईं।
अस्वस्थता के बावजूद आखिरी दिनों में सिंगरौली से भोपाल के लिए कूंच कर दिया। मुद्दा था सिंगरौली के एक गरीब परिवार के साथ दबंगों का अत्याचार।

आज नेताओं के साथ वक्त गुजारने वाले टहलुए देखते ही अरबपति बन जाते हैं, इसके उलट शास्त्री जी का कबीराना अन्दाजा था ‘जो घर फूके आपना, चले हमारे साथ’ घर फूंककर शास्त्री जी का हाथ पकड़ने वालों की कभी कमी नहीं रही।

शास्त्रीजी जनता जनार्दन के कुशलक्षेम की खातिर हमेशा खुद के लिए कष्ट का अआह्वान करते थे। सच्चे अर्थों में वे हुतात्मा थे। न वे कभी मौत से डरे और न देंह से मोह पाला। उनका सर्वस्व मातृभूमि और मानवता के लिए अर्पित था। शास्त्री जी की स्मृतियों को नमन।

सम्पर्क सूत्र -8225812813

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