नाम :- संदीप शुक्ला
पिता :- श्री द्वारिकानाथ शुक्ला ( कैप्टन, भारतीय सेना)
जन्म :- जिला रायबरेली
वर्तमान पता :- रायबरेली
जाति :- शुक्ला (ब्राह्मण)
योग्यता :- मास्टर ऑफ साइंस ( केमेस्ट्री)
मोबाइल नं :- 7800574575
भाषा:- अवधी भाषा
पत्नी:- नेहा शुक्ला
बेटी :- दृष्टि,श्रष्टि
भाई :- सुधीर शुक्ला
बहन:- शिल्पा मिश्रा
माँ:- मीना शुक्ला
प्रेम और आँसू की पहचान भले ही अलग
अलग हो किन्तु दोनों का.... गोत्र
एक ही है
� *" हृदय "..!!* �
रचनाएँ:-
मुख्य रचना
बछरावां की गलियन मा आँखी चार होईगे,
राजेश की जलेबिन से हमका प्यार होईगा।
बड़ी बिल्डिंग ई बछरावां के शान है,
अशोक के समोसा हमार जान है।
नेतन के वादा हिया बस आश्वाशन है,
मुंशी चंद्रिका प्रशाद के शिक्षा संस्थान कर रहे नाम रोशन है।
शुकुल अउ मिशिर मा खायेम बहुत खर्चा है,
चंदर चाट के बहुतै दूर तक चर्चा है।
मोहब्बत के नाम पा दयानंद डिग्री कालेज वाली गली है,
जहाँ की मोहब्बत बस दुइ साल चली है।
चूरूवा चौराहा मा पवनपुत्र विराजमान है,
सब्जी मंडी मा बैठे शनि जी कृपानिधान है।
चिकित्सा के नाम पा हिया खाली पेरासिटामोल है,
बुद्धु सेठ के दुकान जड़ी बूटी का मॉल है।
राजाराम यादव के लस्सी मा है शुद्वता का दावा,
जे कउ पिया कबो भूलि न पावा।
स्टेटस मा मॉडल लिखि कै समझत अभिनेता है,
बछरावां चौराहा की होर्डिगन मा लटके युवा नेता है।
कबो मिले समय तो हिया आयो जरूर,
तेजा के बतासा है बहुतै मशहूर।
हम कम लिखेन तुम जादा समझ्यो हमय जज्बात,
बछरावां का हम कबो भूलि न पाब।
स्वरचित
संदीप शुक्ला
पहली :-
पन्द्रह अगस्त का दिन कहता - आज़ादी अभी अधूरी है
सपने सच होने बाक़ी हैं, राखी की शपथ न पूरी है
जिनकी लाशों पर पग धर कर आजादी भारत में आई
वे अब तक हैं खानाबदोश ग़म की काली बदली छाई
कलकत्ते के फुटपाथों पर जो आंधी-पानी सहते हैं
उनसे पूछो, पन्द्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं
हिन्दू के नाते उनका दुख सुनते यदि तुम्हें लाज आती
तो सीमा के उस पार चलो सभ्यता जहाँ कुचली जाती
इंसान जहाँ बेचा जाता, ईमान ख़रीदा जाता है
इस्लाम सिसकियाँ भरता है,डालर मन में मुस्काता है
भूखों को गोली नंगों को हथियार पिन्हाए जाते हैं
सूखे कण्ठों से जेहादी नारे लगवाए जाते हैं
लाहौर, कराची, ढाका पर मातम की है काली छाया
पख़्तूनों पर, गिलगित पर है ग़मगीन ग़ुलामी का साया
बस इसीलिए तो कहता हूँ आज़ादी अभी अधूरी है
कैसे उल्लास मनाऊँ मैं? थोड़े दिन की मजबूरी है
दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुनः अखंड बनाएँगे
गिलगित से गारो पर्वत तक आजादी पर्व मनाएँगे
उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से कमर कसें बलिदान करें
जो पाया उसमें खो न जाएँ, जो खोया उसका ध्यान करें
दूसरी:-
अंतिम यात्रा का खूबसुरत वर्णन..
था मैं नींद में और.
मुझे इतना सजाया जा रहा था,
बड़े प्यार से
मुझे नहलाया जा रहा था,
ना जाने
था वो कौन सा अजब खेल
मेरे घर में,
बच्चो की तरह मुझे
कंधे पर उठाया जा रहा था,
था पास मेरा हर अपना
उस वक़्त,
फिर भी मैं हर किसी के
मन से भुलाया जा रहा था,
जो कभी देखते
भी न थे मोहब्बत की निगाहों से,
उनके दिल से भी प्यार मुझ
पर लुटाया जा रहा था,
मालूम नही क्यों
हैरान था हर कोई मुझे
सोते हुए देख कर,
जोर-जोर से रोकर मुझे
जगाया जा रहा था,
काँप उठी
मेरी रूह वो मंज़र
देख कर,
जहाँ मुझे हमेशा के
लिए सुलाया जा रहा था,
मोहब्बत की
इन्तहा थी जिन दिलों में
मेरे लिए,
उन्हीं दिलों के हाथों,
आज मैं जलाया जा रहा था!!!
इस दुनिया मे कोई किसी का हमदर्द नहीं होता,
लाश को शमशान में रखकर अपने लोग ही पुछ्ते हैं।
"और कितना वक़्त लगेगा"
तीसरी:-
मैं दो हूं, दो से हूं, दो ही हूं,
मैं ही द्वैत हूं,
अद्वैत भ्रम से भरा है,
क्योंकि,
जहां अद्वैत है, वहां "मैं" हूं ही नहीं,
इसलिए,
मैं सदैव दो में रहता हूं।
एक दूसरे को साधते हुए,
एक दूसरे को बांधते हुए,
एक दूसरे में उलझते हुए।
ब्रम्ह और माया मैं हूं,
नर और मादा मैं हूं,
धन और ऋण मैं हूं,
आकाश और पाताल मैं हूं,
दिन और रात मैं हूं,
भूत और भविष्य में हूं,
और,
जिस वर्तमान में तुम हो,
वही तो स्वप्न है...
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चौथी:-
���::::::::पत्नियाँ पहनती है ,
अपने पक्के प्रेम के लिए,
कच्चे कांच की चूड़ियाँ
जिनको पहनने उतारने में ,
कितनी ही बार उनके हाथ ज़ख्मी भी हो जाते हैं,
मगर फ़िर बेहद खुशी से खरीदती हैं वो,
रंग बिरंगी कच्चे कांच की चूड़ियाँ,
जो बेहद ज़रूरी हैं ,
उनके प्रेम को साबित करने के लिये,
पत्नियां पहनती हैं ,
अपनी निष्ठा साबित करने के लिये मंगलसूत्र,
भरती हैं सिर के अंतिम छोर तक,
लाल चटख सिंदूर की रेखा,
जो साबित करता है कि,
जितनी लंबी ये लाल रेखा होगी,
पति पत्नी का साथ भी उतनी दूर तक जाएगा,
मेंहदी भी काढ़ती है हथेली पर,
तो उसके बूटों में भी कही लिखवा लेती है,
पति का पूरा नाम,
देह पर गुदवा लेती है ,
पति के नाम का गुदना,
जो साबित करता है ,
कि अब ये बपौती है अपने पति की,
जिसकी देह पर पति का मालिकाना हक़ है,
पायल ,बिछुआ,महावर, चटख लिबास ,
ये सब साबित करते हैं ,
पत्नी के अगाध प्रेम को,
इस पर भी वो रखती है ढेरों व्रत उपवास,
बांधती हैं मन्नतों के धागे ,
सर पटकती है पीर फकीर की चौखटों पर,
सिर्फ अपने पक्के प्रेम की ,
विश्वसनीयता को साबित करने के लिए
पूरी ज़िंदगी निकल जाती है,
इस दैहिक पवित्रता को साबित करने में,
मगर फिर भी हार जाती हैं,
मगर फिर भी आरोपित होती हैं
क्योंकि सारे दैहिक प्रमाण,
दैहिक पवित्रता को साबित करने के लिए,
पर मन की पवित्रता को साबित करने का ,
कोई प्रमाण नही होता,क्योंकि,
प्रेम साबित करने का नही,
महसूस करने का विषय है,
और इसीलिए प्रेमिकाए
,नही पहनती कच्चे कांच की चूड़ियां,
नही खींचती सिर के आखिरी छोर तक ,
कोई लाल रेखा,
नही रखती कोई व्रत उपवास,
नही साबित करती अपनी दैहिक पवित्रता,
बस आह भर कर हौले से कहती है,कि
मैं तुमसे बहुत प्रेम करती हूँ,
और प्रेमी उस प्रेम को ,
उसके कहन से ज्यादा,
उसकी काजल से भरी आंखों में महसूस कर,
उसे चिपका लेता है अपने सीने से,
और दोनों महसूस करते हैं ,
उस अद्भुत प्रेम को,
जिसे प्रमाण की कोई आवश्यकता नही होती::::::::::���
पांचवी :-
बेटियाँ चावल उछाल
बिना पलटे,
महावर लगे कदमों से विदा हो जाती हैं ।�
छोड़ जाती है बुक शेल्फ में,
कवर पर अपना नाम लिखी किताबें ।
दीवार पर टंगी खूबसूरत आइल पेंटिंग के एक कोने पर लिखा अपना नाम ।
खामोशी से नर्म एहसासों की निशानियां,
छोड़ जाती है ......
बेटियाँ विदा हो जाती हैं ।��
रसोई में नए फैशन की क्राकरी खरीद,
अपने पसंद की सलीके से बैठक सजा,
अलमारियों में आउट डेटेड ड्रेस छोड़,
तमाम नयी खरीदादारी सूटकेस में ले,
मन आँगन की तुलसी में दबा जाती हैं ...
बेटियाँ विदा हो जाती हैं।�
सूने सूने कमरों में उनका स्पर्श,
पूजा घर की रंगोली में उंगलियों की महक,
बिरहन दीवारों पर बचपन की निशानियाँ,
घर आँगन पनीली आँखों में भर,
महावर लगे पैरों से दहलीज़ लांघ जाती है...
बेटियाँ चावल उछाल विदा हो जाती हैं ।�
एल्बम में अपनी मुस्कुराती तस्वीरें ,
कुछ धूल लगे मैडल और कप ,
आँगन में गेंदे की क्यारियाँ उसकी निशानी,
गुड़ियों को पहनाकर एक साड़ी पुरानी,
उदास खिलौने आले में औंधे मुँह लुढ़के,
घर भर में वीरानी घोल जाती हैं ....
बेटियाँ चावल उछाल विदा हो जाती हैं।�
टी वी पर शादी की सी डी देखते देखते,
पापा हट जाते जब जब विदाई आती है।
सारा बचपन अपने तकिये के अंदर दबा,
जिम्मेदारी की चुनर ओढ़ चली जाती हैं ।
बेटियाँ चावल उछाल बिना पलटे विदा हो जाती हैं ।.....बस यही एक ऐसा पौधा है ..जो बीस पच्चीस साल का होकर भी दूसरे आंगन मे जा के फिर उस आंगन का होकर खुशबू, छांव , फल , सकून और हरियाली देता है ...ये तुलसी से कम योग्य नहीं .....ये भी पूजने योग्य है ...
जी हां ये बेटिया पूजने योग्य है।�����
बड़े भाग्य वाले होते है वो जिनकी बेटियां होती है।
छटवीं:-
जनहित की रामायण - 49
गणित सरल है ।
भिखारियत अटल है ।।
किसान को सही दाम नहीं ।
मजदूर को सही काम नहीं ।।
पीठ पे बोझ लादे पढ़े लिखे ।
दुचाकी सवार मजदूर हर ओर दिखे ।।
पेंशनरों की घटी ब्याज की आय ।
मंहगाई सर चढ़ती ही जाय ।।
घटत पर किराये की आमद ।
किरायेदार कराये खुशामद ।।
भरोसेदार को जमा देने पे रोक ।
बैंक में डूबती रकम हर रोज़ ।।
गरीब, मध्यम और उच्च मध्यम ।
हरेक की आमद दिन दिन होती कम ।।
चंद चहीते ही बनाये जा रहे अति श्रीमंत ।
जनकल्याण कारी नीति का निकट अंत ।।
चारो स्तंभ जर्जराहट के शिकार ।
सभी भूले अपने अपने अधिकार ।।
अस्मत की रक्षा के पड़े लाले ।
दूभर है जीने के जरुरी निवाले ।।
हे राम, तेरे देश में रावणों की भरमार ।
अब नहीं तो आखिर कब लोगे अवतार ।।