Suabojh,Puranpur,PBT

Suabojh,Puranpur,PBT प्रधान मंत्री आदर्श ग्राम सुआबोझ प्रधान मंत्री आर्दश ग्राम सुआबोझ
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*आज दिनांक 28 नवम्बर 2024 को अर्जक संघ का त्योहार शक्ति दिवस है। आज महान दार्शनिक, सत्य शोधक समाज के संस्थापक, समाज सुधा...
27/11/2024

*आज दिनांक 28 नवम्बर 2024 को अर्जक संघ का त्योहार शक्ति दिवस है। आज महान दार्शनिक, सत्य शोधक समाज के संस्थापक, समाज सुधारक और लेखक महामना ज्योति राव फूले का 135 वां यश:कायी दिवस है। फूले जी का जन्म पुणे ( महाराष्ट्र ) में 11 अप्रैल 1827 को एवं निधन 28 नवम्बर 1890 को हुआ था। फूले साहब स्त्री और शूद्र शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने बालिकाओं और शूद्रों के लिए पहला विद्यालय खोला। वे किसानों एवं और कमेरों की दुर्दशा का कारण अशिक्षा को मानते थे। उन्होंने लिखा है...*

*विद्या बिना मति ग‌ई, मति बिना नीति ।* *नीति बिना गति गई, गति बिना वित्त ।*
*वित्त बिना शूद्र ग‌ए, इतना अनर्थ एक अविद्या ने किए ‌।*

*फूले साहब ने श्रमश्रील लोगों में ज्ञान रूपी शक्ति का संचार किया। कृतज्ञ अर्जक संघ ने महामना ज्योति राव फूले जी के यश:कायी दिवस को शक्ति दिवस के रूप में अपने त्योहारों में सम्मिलित किया है। शक्ति दिवस के अवसर पर महामना ज्योति राव फूले जी को श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए हमारा कोटि-कोटि नमन। जय अर्जक ।।*

आज दिनाँक 16/11/2024 को वीरांगना ऊदा देवी पासी जी के शहीदी दिवस के अवसर पर अम्बेडकर ग्राम सुआबोझ, विकास खण्ड पूरनपुर, जि...
16/11/2024

आज दिनाँक 16/11/2024 को वीरांगना ऊदा देवी पासी जी के शहीदी दिवस के अवसर पर अम्बेडकर ग्राम सुआबोझ, विकास खण्ड पूरनपुर, जिला पीलीभीत में श्री महानंद आर्य जी (अवकाश प्राप्त प्रधानाध्यापक) एवं श्री जगत वीर आर्य (दुग्ध निरीक्षक) के द्वारा अपराहन 3:00 बजे शैक्षिक गोष्ठी का आयोजन किया गया।
गोष्ठी में वीरांगना ऊदा देवी पासी जी एवं अन्य वीरांगनाओं के गौरवशाली जीवन पर प्रकाश डाला गया। साथ ही अशिक्षा के कारण समाज में व्याप्त कुरीतियों, नशाखोरी, भ्रष्टाचार आदि पर चर्चा की गई, गोष्ठी में लगभग 125 छात्र-छात्राओं, एक दर्जन ग्राम वाशियों के अतिरिक्त श्री पुष्पेन्द्र भार्गव (प्रवक्ता राजकीय इ.का. बहराइच), श्रीमती निम्मी सरोज (प्रवक्ता बालिका इ. का. लखीमपुर खीरी), श्री संजय कुमार भार्गव (शोधछात्र इलाहाबाद वि.वि.), श्री अंकित सिंह (अभियंता), श्री कुल वीर आर्य (लेखाकार), श्री राम दीन सरोज, कु. महिमा सिंह, श्री क्षितिज आर्य आदि ने प्रतिभाग किया।
कार्यक्रम की अध्यक्षता श्री कर्मवीर आर्य जी (अवकाश प्राप्त प्रधानाध्यापक) एवं संचालन श्री महानंद आर्य जी ने किया..

10/08/2024
जैसे विचार,  वैसे कर्म। और जैसे कर्म, वैसी इज़्ज़त ।।
23/07/2024

जैसे विचार, वैसे कर्म।
और जैसे कर्म, वैसी इज़्ज़त ।।

Big shout out to my newest top fans! 💎 Sonu Pasi
10/03/2024

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दुनिया में बहुत सारी भाषाएं हैं लेकिन सबसे अच्छी भाषा, अपनी "मातृभाषा" होती है। समझने में आसान और समझाने में भी आसान।।
21/02/2024

दुनिया में बहुत सारी भाषाएं हैं लेकिन सबसे अच्छी भाषा, अपनी "मातृभाषा" होती है। समझने में आसान और समझाने में भी आसान।।

*🌹नमस्कार🙏आज पुनः अपने  गौरवशाली इतिहास को जानने का प्रयास करते हैं.."क्रान्ति ज्योति राष्ट्रमाता सावित्रीबाई फुले जी" क...
03/02/2024

*🌹नमस्कार🙏आज पुनः अपने गौरवशाली इतिहास को जानने का प्रयास करते हैं.."क्रान्ति ज्योति राष्ट्रमाता सावित्रीबाई फुले जी" की अमर कहानी।*

*सरस्वती को ज्ञान की देवी कहने वाले जानें कि वास्तव में कौन है विद्या की असली देवी..❓*

*भारत में कुछ लोग विद्या की देवी सरस्वती को मानते है जिसकी पूजा करने से भारत में कोई भी महिला ने विद्या ग्रहण नही कर सकी।*

*जबकि:-*
*भारत में कुछ जागरुक लोग विद्या की देवी माता सावित्री बाई फूले को मानते है। जिन्होंने धूर्त लोगों के लाखों विरोध के बावजूद "सबसे पहले तो स्वयं विद्या ग्रहण की और भारत की प्रथम अध्यापिका" बनी तथा अनेकों स्कूलों की स्थापना भी की।*
*उनकी प्रेरणा पाकर भारत की करोड़ों महिलायें विद्या ग्रहण कर चुकी हैं और आज भी कर रही हैं।*

*विद्या ग्रहण करने से ही भारत में बहुत सी महिलाएं प्रोफेसर, डॉक्टर, इंजीनियर, जज और आई. ए.एस. बन पाई हैं।*

*विद्या का कमाल तो देखिये कि जब से महिलाएं विद्या ग्रहण करने लगी हैं, तब से वे भारत में मुख्यमंत्री, राज्यपाल व प्रधानमंत्री जैसे पदों पर विराजमान हो चुकी हैं।*

*माता सावित्रीबाई फुले (जन्म 03/01/1830) बच्चों को पढ़ाने के लिए जब अपने घर से स्कूल जाती थी, तो दो साड़ियां अपने थैले में रखकर ले जाती थीं...क्योंकि एक साड़ी को धूर्त लोग कीचड़ मार-मार कर गंदा कर देते थे। तो माता सावित्री बाई फुले स्कूल में पहुंचकर दूसरी साड़ी बदल लेती थीं।*

*माता सावित्री बाई फुले ने धूर्तो द्वारा किया जाने वाला अपमान सहना तो मंजूर किया। किंतु उन्होंने पढ़ाई का रास्ता नहीं छोड़ा।*

*ऐसी विपरीत और कठिन परिस्थितियों में भी माता सावित्री बाई फुले ने अपने स्वाभिमान को कभी किसी के हाथों बिकने नहीं दिया।*

*इसीलिए तो हम उनको 🌹राष्ट्रमाता/विद्या की देवी🙏कहते हैं।*

*जय सावित्री बाई फुले,*
*जय ज्योतिबा फुले,*
*जय संविधान, जय विज्ञान*
*जय मूलनिवासी।।*

जन्मदिवस श्री गुरु गोविंद सिंह जी/ पौषशुक्ल सप्तमी विक्रमी संवत् 1723 तदनुसार 22 दिसम्बर 1666 इस वर्ष 17 जनवरी 2024.  सि...
17/01/2024

जन्मदिवस श्री गुरु गोविंद सिंह जी/ पौषशुक्ल सप्तमी विक्रमी संवत् 1723 तदनुसार 22 दिसम्बर 1666 इस वर्ष 17 जनवरी 2024.
सिखों के दसवें गुरु गुरु गोबिंद सिंह जी, जिन्होंने खालसा पंथ की नींव रखी।
गुरु गोबिंद सिंह का जन्म पौषशुक्ल सप्तमी विक्रमी संवत् 1723 तदनुसार 22 दिसम्बर 1666 पटना साहिब में हुआ था। उनका बचपन का नाम गोविंद राय था। पटना में जिस स्थान पर गुरु गोविंद सिंह का जन्म हुआ, वह जगह अब पटना साहिब के नाम से जानी जाती है। पिता गुरु तेग बहादुर की मृत्यु के बाद 11 नवंबर 1675 को वे गुरु बने, तब उनकी उम्र केवल 9 साल थी। उनके पिता की मृत्यु भी सामान्य ढंग से नहीं, बल्कि औरंगजेब के धर्म-परिवर्तन की मुहिम को रोकते हुए हुई।
असल में औरंगजेब तब हिंदुओं का जबरन धर्म परिवर्तन करवा रहा था। सताए हुए लोग गुरु तेग बहादुर के पास फरियाद लेकर पहुंचे, तब विरोध करने पर औरंगजेब ने दिल्ली के चांदनी चौक में गुरु तेग बहादुर का सिर कटवा दिया था। इसके तुरंत बाद ही उनके बेटे यानी गुरु गोबिंद सिंह ने जिम्मेदारी ली। इसके बाद से उन्होंने अपना पूरा जीवन लोगों की सेवा करते हुए और सच्चाई की राह पर चलते हुए ही गुजार दिया।
गुरु गोबिंद सिंह जी ने गुरु प्रथा को समाप्त किया और गुरु ग्रंथ साहिब को सर्वोच्च बताया जिसके बाद से ही ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब की पूजा की जाने लगी और गुरु प्रथा खत्म हो गई। ये सिख समाज में काफी बड़ा पड़ाव माना जाता है। साथ ही गोबिंद सिंह जी ने खालसा वाणी - "वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतह" भी दी। खालसा पंथ की की रक्षा के लिए गुरु गोबिंद सिंह जी मुगलों और उनके सहयोगियों से कई बार लड़े।
गुरु गोबिंद सिंह जी का नेतृत्व सिख समुदाय के इतिहास में बहुत कुछ नया ले कर आया, जिनमें से एक खालसा पंथ की स्थापना मानी जाती है। खालसा पंथ की स्थापना गुरु गोबिन्द सिंह जी ने 1699 को बैसाखी वाले दिन आनंदपुर साहिब में की। इस दिन उन्होंने पांच प्यारों को अमृतपान करवा कर खालसा बनाया और फिर उन पांच प्यारों के हाथों से खुद भी अमृतपान किया।
उन्होंने खालसा को पांच सिद्धांत दिए, जिन्हें 5 ककार कहा जाता है. पांच ककार का मतलब 'क' शब्द से शुरू होने वाली उन 5 चीजों से है, जिन्हें गुरु गोबिंद सिंह के सिद्धांतों के अनुसार सभी खालसा सिखों को धारण करना होता है। गुरु गोविंद सिंह ने सिखों के लिए पांच चीजें अनिवार्य की थीं- 'केश', 'कड़ा', 'कृपाण', 'कंघा' और 'कच्छा'. इनके बिना खालसा वेश पूरा नहीं माना जाता।
केवल 9 साल की उम्र में दुनिया के सबसे ताकतवर समुदायों में से एक की कमान संभालने वाले गुरु गोबिंद सिंह केवल वीर ही नहीं थे, बल्कि वे भाषाओं के जानकार और अच्छे लेखक भी थे। उन्हें संस्कृत, फारसी, पंजाबी और अरबी भाषाओं का ज्ञान था। उन्होंने कई ग्रंथों की रचना की, जो सिख समुदाय में आज भी चाव से पढ़े जाते हैं।
बिचित्र नाटक को उनकी आत्मकथा माना जाता है, हालांकि इसमें आत्मकथा से ज्यादा उस समय और हालातों का जिक्र है, साथ ही साथ मुश्किल से पार पाने के तरीके भी बताए गए हैं। उन्हें विद्वानों की बड़ी समझ थी और कहा जाता है कि उनके दरबार में हमेशा पचासों लेखक और कवि रहा करते थे। यही कारण है कि गुरु गोबिंद सिंह को संत सिपाही भी कहा जाता है।
धर्म की रक्षा के लिए गुरु गोबिंद सिंह ने अपने पूरे परिवार का एक-एक करके बलिदान कर दिया था। इसके बाद उन्हें सरबंसदानी' (सर्ववंशदानी) भी कहा जाने लगा। इसके अलावा लोग उन्हें कई नामों से पुकारते थे, जैसे कलगीधर, दशमेश और बाजांवाले। औरंगजेब की मौत के बाद डरे हुए नवाब वजीत खां ने धोखे से गुरु गोबिंद सिंह की हत्या करवा दी। ये 7 अक्टूबर 1708 की बात मानी जाती है। गुरु गोबिंद सिंह जी के जाने के बाद भी उनकी बातें खालसा पंथ और पांच ककार के तौर पर सिखों के साथ चलती हैं।।

हमेशा की तरह 21/12/2023को  फिर सुआबोझ के "युवक मंगल दल" ने एक और सराहनीय कार्य किया...दल के सदस्यों एवं अन्य युवाओं ने आ...
22/12/2023

हमेशा की तरह 21/12/2023को फिर सुआबोझ के "युवक मंगल दल" ने एक और सराहनीय कार्य किया...दल के सदस्यों एवं अन्य युवाओं ने आपस में आर्थिक सहयोग एवं श्रमदान कर गांव के मुख्य चौराहे(वीर शिरोमणि महाराजा बिजली पासी चौराहा) पर स्थित क्षतिग्रस्त बिजली पोल की मरम्मत की। इस अवसर पर सर्वश्री दिलेराम आर्य जी, जगत वीर आर्य, अशोक, दिवाकर(जुगनू), ललित (मिस्त्री), डा.रोविन वर्मा, स्वामी दयाल, विपिन, मनोज, धर्मेन्द्र, उमेन्द्र, उमेश, भरत वीर पासवान आदि सहित कई युवा उपस्थित रहे। उक्त कार्य की सभ्रांत व्यक्तियों द्वारा की सराहना भी की गई।।

*वीरांगना ऊदा देवी के इस गौरवशाली शहीदी दिवस के अवसर पर हमारे हमारे जिले पीलीभीत में कई जगह वीरांगना ऊदा देवी सहित अन्य ...
16/11/2023

*वीरांगना ऊदा देवी के इस गौरवशाली शहीदी दिवस के अवसर पर हमारे हमारे जिले पीलीभीत में कई जगह वीरांगना ऊदा देवी सहित अन्य वीर पुरुषों एवं वीरांगनाओं को भी याद करते हुए सादर श्रद्धा सुमन अर्पित किए गए।*

*🌹हमारे गांव सुआबोझ, विकासखंड पूरनपुर (पीलीभीत) में स्कूली बच्चों द्वारा प्रभात फेरी निकाली गई एवं श्री महानंद आर्य (अवकाश प्राप्त मुख्य अध्यापक) द्वारा स्कूली बच्चों को स्टेशनरी वितरित की गई। गांव के इस कार्यक्रम में श्री जगत वीर आर्य (दुग्ध निरीक्षक) श्री इतवारी लाल (फिटर चीनी मिल पूरनपुर), श्री मुकेश कुमार जी (सहायक अध्यापक), श्री कुलवीर आर्य (संचालक CSC सुआबोझ), डॉ. रोबिन वर्मा द्वारा कार्यक्रम को संबोधित करते हुए विशेष सहयोग किया गया। ग्राम स्तर पर हुए इस कार्यक्रम में तमाम ग्राम वासियों द्वारा बढ़ चढ़कर प्रतिभाग किया गया। साथ यह भी निर्णय लिया गया कि देश के पुरुष/वीरांगनाओं की जयंती एवं पुण्यतिथि को ग्राम स्तर पर मनाया जाएगा जिससे अधिक से अधिक लोगों को देश की विभूतियों के बारे में जानकारी प्राप्त हो सके।🌹*

*वीरांगना ऊदा देवी के बारे में भारतीय इतिहासकारों ने बहुत कम, अंग्रेज अधिकारियों और पत्रकारों जनने ज्यादा लिखा। लंदन के अखबारों में खबरें और रिपोर्ट आदि प्रकाशित हुए। यहां तक कि कार्ल मार्क्स ने भी उनकी वीरता के बारे में चर्चा की।*
*आजादी की लड़ाई में समाज के सभी वर्गों और जातियों के लोग थे। इसके बावजूद इतिहास में उन्हीं लोगों के नाम दर्ज किया गया, जो समाज के अगड़े वर्ग से आते थे। उदाहरण के तौर पर हम आजाद हिन्द फौज को देख सकते हैं, जिसमें हजारों स्वतंत्रता सेनानी मारे गये। परंतु तीन-चार बड़े नामों के अलावा शेष के बारे में कोई नहीं जानता। इससे पहले जब 1857 का संघर्ष हुआ तब भी यही हुआ था। लोगों को मंगल पांडे के बारे में बताया जाता है। पक्षपातपूर्ण तरीके से लिखे गए इतिहास में प्रमाणों के बावजूद यह नहीं बताया गया कि भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम 1857 में मंगल पांडे ने नहीं, 1771 में तिलका मांझी ने शुरु किया था। बाद में 1855 में सिदो-कान्हू ने संताल विद्रोह को आगे बढ़ाया। यह हूल विद्रोह था।*
*इसी कड़ी में हम 1857 के स्वतंत्रता आन्दोलन की नायिका ऊदा देवी पासी को देख सकते हैं। उन्होंने 32 ब्रिटिश सैनिकों को मार गिराया और अंतत: वीरगति को प्राप्त हुई। उनकी वीरता का ब्रिटिश अधिकारियों पर इतना जबरदस्त असर रहा कि ऊदा देवी की वीरता के बारे भारतीय इतिहासकारों से अधिक ब्रिटिश पत्रकारों और अधिकारियों ने लिखा है।*
*कहना ना होगा कि उन्हें वह यश और सम्मान नहीं मिला जिसकी वह हकदार थीं। शायद इसलिए कि वह किसी राजघराने या सामंती परिवार में नहीं, बल्कि एक गरीब दलित परिवार में पैदा हुई थीं और एक मामूली सैनिक थीं।*
*भारत में यूरोपियों का आगमन व्यापारियों के रूप में हुआ किंतु दो शताब्दियों के भीतर यूरोपियों में से अंग्रेज सशक्त होकर उभरे और विभिन्न रूढ़ियों में बंधा तथा जाति-पाति में बिखरा भारतीय समाज इन अंग्रेजों का सामना नहीं कर पाया और दासता की एक लम्बी दास्तां का प्रारम्भ हुआ. वीरांगना उदा देवी ने अप्रतिम वीरता का परिचय देते हुए ऐसे प्रतिमान स्थापित किए, जो इतिहास में विरले ही दिखाई पड़ते हैं।*
*ऊदा देवी का जन्म लखनऊ के समीप स्थित उजिरावां गांव में पासी परिवार में हुआ था. हिंदू समाज में पासी जाति भी निम्न व अछूत ही समझी जाती रही है. पासी जाति की सामान्य समाज से अलग क्षेत्र में बस्ती होती थी. इन बस्तियों में द्विज लोग प्रायः नहीं जाया करते थे. पासी समाज सीमित स्तर पर हस्तकलाओं द्वारा अपना जीवन यापन करता था अथवा कृषक मजदूर के रूप में भी कार्य किया करता था. जब जीवनयापन के स्रोत सीमित हों और आस्तित्व की रक्षा प्रमुख चुनौती होती है तो वीरता और आत्मस्वाभिमान स्वतः ही आ जाता है. पासी जाति भी इसका अपवाद नहीं थी. यह जाति वीर और लड़ाकू जाति के रूप में भी जानी जाती थी. इसी वातावरण में उदा देवी का पालन-पोषण हुआ. जिसे इतिहास की रचना करनी होती है, उसमें कार्यकलाप औरों से न चाहते हुए भी अलग हो ही जाते हैं. उदा बचपन से ही निर्भीक स्वभाव की थी. बिना किसी झिझक के घने जंगलों में अपनी टोली के साथ खेलने चली जाती थी. खेल भी क्या थे, पेड़ पर चढ़ना, छुपना और घर लौटते समय जंगल से फल और लकड़ियां एकत्रित करके लाना।*
*जैसे-जैसे उदा बड़ी होती गई, वैसे-वैसे वह अपने हमउम्रों का नेतृत्व करने लगी. सही बात कहने में तो उदा पलभर की भी देर नहीं करती थी. अपनी टोली की रक्षा के लिए तो वह खुद की भी परवाह नहीं करती थी. खेल-खेल में ही तीर चलाना, बिजली की तेजी से भागना उदा के लिए सामान्य बात थी।*
*किशोरावस्था में प्रवेश करते-करते उदा में गम्भीरता का समावेश होने लगा. पढ़ना-लिखना उस समय असामान्य सी बात थी अतः उदा भी इससे दूर रही किंतु परिस्थितियों ने उसे शीघ्र निर्णय लेने वाली, साहसी, दृढ़ निश्चयी और कठोर हृदय वाला बना दिया था।*
*1857 में भारतीयों ने अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता का बिगुल बजा दिया. इस समय अवध की राजधानी लखनऊ थी और वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल और उनके अल्पवयस्क पुत्र बिरजिस कादिर ने अवध की सत्ता पर अपना दावा ठोंक दिया।*
*अवध की सेना में एक टुकड़ी पासी सैनिकों की भी थी. इस पासी टुकड़ी में बहादुर युवक मक्का पासी भी था. मक्का पासी का विवाह उदा से हुआ था. जब बेगम हजरत महल ने अपनी महिला टुकड़ी का विस्तार किया तब उदा की जिद और उत्साह देखकर मक्का पासी ने उदा को भी सेना में शामिल होने की इजाजत दे दी. शीघ्र ही उदा अपनी टुकड़ी में नेतृत्वकर्ता के रुप में उभरने लगी।*
*देशी रियासतों पर अंग्रेजों के बढ़ते हस्तक्षेप के मद्देनज़र जब वाजिद अली शाह ने महल की रक्षा के उद्देश्य से स्त्रियों का एक सुरक्षा दस्ता बनाया तो उसके एक सदस्य के रूप में ऊदा देवी को भी नियुक्त किया। अपनी बहादुरी और तुरंत निर्णय लेने की उनकी क्षमता से नवाब की बेगम और देश के प्रथम स्वाधीनता संग्राम की नायिकाओं में एक बेगम हजरत महल बहुत प्रभावित हुईं। नियुक्ति के कुछ ही दिनों बाद में ऊदा देवी को बेगम हज़रत महल की महिला सेना की टुकड़ी का कमांडर बना दिया गया।*
*महिला दस्ते के कमांडर के रूप में ऊदा देवी ने देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जिस अदम्य साहस, दूरदर्शिता और शौर्य का परिचय दिया था, उससे खुद अंग्रेज सेना भी चकित रह गई थी। ऊदा देवी की वीरता पर उस दौर में कई लोकगीत गाए जाते थे। इनमें एक गीत था –*
*“कोई उनको हब्शी कहता, कोई कहता नीच अछूत,*
*अबला कोई उन्हें बतलाए, कोई कहे उन्हें मजबूत।”*
*जब 10 मई 1857 को मेरठ के सिपाहियों द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध छेड़ा गया संघर्ष तेजी से पूरे उत्तर भारत में फैलने लगा था तब लखनऊ के क़स्बा चिनहट के निकट इस्माईलगंज में हेनरी लारेंस के नेतृत्व में ईस्ट इंडिया कम्पनी की फौज की मौलवी अहमदउल्लाह शाह की अगुवाई में संगठित विद्रोही सेना से ऐतिहासिक लड़ाई हुई। चिनहट की इस ऐतिहासिक लड़ाई में विद्रोही सेना की विजय तथा हेनरी लारेंस की फौज का मैदान छोड़कर भाग खड़ा होना प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक थी। देश को गौरवान्वित करने वाली और स्वाधीनता सेनानियों का मनोबल बढ़ाने वाली इस लड़ाई में सैकड़ों दूसरे सैनिकों के साथ मक्का पासी की भी शहादत हुई थी। ऊदा देवी ने अपने पति की लाश पर उनकी शहादत का बदला लेने की कसम खाई थी। मक्का पासी के बलिदान का प्रतिशोध लेने का वह अवसर ऊदा देवी को मिला चिनहट के महासंग्राम की अगली कड़ी सिकंदर बाग़ की लड़ाई में।*
*अंग्रेजों की सेना चिनहट की पराजय का बदला लेने की तैयारी कर रही थी। उन्हें पता चला कि लगभग दो हजार विद्रोही सैनिकों ने लखनऊ के सिकंदर बाग में शरण ले रखी है। 16 नवंबर 1857 को कोलिन कैम्पबेल के नेतृत्व में अंग्रेज सैनिकों ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत सिकंदर बाग़ की उस समय घेराबंदी की, जब विद्रोही सैनिक या तो सो रहे थे या बिल्कुल ही असावधान थे। ऊदा के नेतृत्व में वाजिद शाह की स्त्री सेना की टुकड़ी भी हमले के वक्त इसी बाग में थी। असावधान सैनिकों की बेरहमी से हत्या करते हुए अंग्रेज सैनिक तेजी से आगे बढ़ रहे थे। हजारों विद्रोही सैनिक मारे जा चुके थे। पराजय सामने नजर आ रही थी। मैदान के एक हिस्से में महिला टुकड़ी के साथ मौजूद ऊदा देवी ने पराजय निकट देखकर पुरुषों के कपडे पहन लिए। हाथों में बंदूक और कंधों पर भरपूर गोला-बारूद लेकर वह पीपल के एक ऊंचे पेड़ पर चढ़ गयी।*
*ब्रिटिश सैनिकों को मैदान के उस हिस्से में आता देख ऊदा देवी ने उनपर फायरिंग शुरू कर दी। पेड़ की डालियों और पत्तों के पीछे छिपकर उसने हमलावर ब्रिटिश सैनिकों को सिकंदर बाग़ के उस हिस्से में तब तक प्रवेश नहीं करने दिया था जबतक उनका गोला-बारूद खत्म नहीं हो गया। ऊदा देवी ने अकेले ब्रिटिश सेना के दो बड़े अफसरों कूपर और लैम्सडन सहित 32 अंग्रेज़ सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था। गोलियां खत्म होने के बाद ब्रिटिश सैनिकों ने पेड़ को घेरकर उनपर अंधाधुंध फायरिंग की। कोई उपाय न देख जब वह पेड़ से नीचे उतरने लगी तो उन्हें गोलियों से छलनी कर दिया गया।*
*लाल रंग की कसी हुई जैकेट और पैंट पहने ऊदा देवी की लाश जब पेड़ से ज़मीन पर गिरी तो उसका जैकेट खुल गया। कैम्पबेल यह देखकर हैरान रह गया कि वीरगति प्राप्त वह बहादुर सैनिक कोई पुरुष नहीं, एक महिला थी। कहा जाता है कि ऊदा देवी की स्तब्ध कर देने वाली वीरता से अभिभूत होकर कैम्पबेल ने हैट उतारकर उन्हें सलामी और श्रद्धांजलि दी थी।*
*ऊदा देवी के शौर्य, साहस और शहादत पर भारतीय इतिहासकारों ने बहुत कम, अंग्रेज अधिकारियों और पत्रकारों ने ज्यादा लिखा। ब्रिटिश सार्जेण्ट फ़ॉर्ब्स मिशेल ने अपने एक संस्मरण में बिना नाम लिए सिकंदर बाग में पीपल के एक बड़े पेड़ के ऊपर बैठी एक ऐसी स्त्री का उल्लेख किया है जो अंग्रेजी सेना के बत्तीस से ज्यादा सिपाहियों और अफसरों को मार गिराने के बाद शहीद हुई थी। लंदन टाइम्स के तत्कालीन संवाददाता विलियम हावर्ड रसेल ने लड़ाई का जो डिस्पैच लंदन भेजा उसमें उसने पुरुष वेश में एक स्त्री द्वारा पीपल के पेड़ से फायरिंग कर अंग्रेजी सेना को भारी क्षति पहुंचाने का उल्लेख प्रमुखता से किया गया था। लंदन के कई दूसरे अखबारों ने भी ऊदा की वीरता पर लेख प्रकाशित किए थे। संभवतः लंदन टाइम्स में छपी खबरों के आधार पर ही कार्ल मार्क्स ने भी अपनी टिप्पणी में इस घटना को समुचित स्थान दिया।*
Ashish Kumar Shobha Rovin Verma Jagat Vir Arya Kumar Sanu Pasi D.K. Saroj Pasi Pasi Samaj Suabojh,Puranpur,PBT Santoshkumar Saroj APNA PURANPUR💪हमारा पूरनपुर Apna pilibhit Dharmendra Singh Kul Veer Pasi Little Artistic

हमारे गाँव " Suabojh,Puranpur,PBT " के लिए बहुत गर्व की बात है, राकेश कुमार वर्मा (रोविन) जी के सुपुत्र शौर्य वर्मा का ज...
21/07/2023

हमारे गाँव " Suabojh,Puranpur,PBT " के लिए बहुत गर्व की बात है, राकेश कुमार वर्मा (रोविन) जी के सुपुत्र शौर्य वर्मा का जवाहर नवोदय विद्यालय में चयन हुआ है।
हम आपके उज्ज्वल भविष्य की कामना करते है।
Shobha Rovin Verma Shobha Rovin Verma Rakesh Verma Rovin Ashish Kumar Kul Veer Pasi Jawahar Navodaya Vidyalaya Pilibhit

🕉️🚩🔱10 जून भारत विजय उत्सव🔱🚩🕉️================================The Battle Of Bahraich 1034.⚔⚔🚩===========================...
09/06/2023

🕉️🚩🔱10 जून भारत विजय उत्सव🔱🚩🕉️
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The Battle Of Bahraich 1034.⚔⚔🚩
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सन् 1001 ई . से लेकर सन् 1025 ई . तक महमूद गजनवी ने भारतवर्ष को लूटने की दृष्टि से 17 बार यहां पर आक्रमण किया तथा मथुरा , कन्नौज व सोमनाथ के अति समृद्ध मंदिरों को लूटने में सफल रहा। सोमनाथ की लड़ाई में उसके साथ उसके भांजे सैय्यद सालार मसूद गाजी ने भी भाग लिया था। 1030 ई. में महमूद गजनवी की मृत्यु के बाद उत्तर भारत में इस्लाम का विस्तार करने की जिम्मेदारी मसूद गाजी ने अपने कंधों पर ले ली, लेकिन 10 जून, 1034 ई. को बहराइच की लड़ाई में वहां के शासक महाराजा सुहेलदेव पासी के हाथों वह डेढ़ लाख की जे़हादी सेना के साथ मारा गया। इस्लामी सेना की इस पराजय के बाद भारतीय शूरवीरों का ऐसा आतंक विश्व में व्याप्त हो गया कि उसके बाद आने वाले 150 वर्षों तक किसी भी आक्रमणकारी को भारतवर्ष पर आक्रमण करने का साहस ही नहीं हुआ।

ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार श्रावस्ती नरेश राजा प्रसेनजित ने बहराइच राज्य की स्थापना की थी, इन्हीं महाराजा प्रसेनजित को माघ माह की बसंत पंचमी के दिन सन् 990 ई . को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई , जिनका नाम सुहेलदेव रखा गया। अवध गजेटियर के अनुसार इनका शासन काल सन्‌ 1027 ई. से सन् 1077 ई. तक स्वीकार किया गया है। वे जाति के पासी थे। महाराजा सुहेलदेव पासी का साम्राज्य पूर्व में गोरखपुर तक, तथा पश्चिम में सीतापुर तक फैला हुआ था। गोंडा, बहराइच, लखनऊ , बाराबंकी, उन्नाव व लखीमपुर इस राज्य की सीमा के अंतर्गत समाहित थे। इन सभी जिलों में महाराजा सुहेलदेव पासी के सहयोगी पासी राजा राज्य करते थे, जिनकी संख्या लगभग 21 थी। सैय्यद सालार मसूद गाजी की पहली जंग लखनऊ की धरती पर कदम रखते ही लखनऊ कसमंडी के राजपासी राजा कंस से लड़नी पड़ी। इस भयंकर युद्ध में राजपासी राजा कंस ने गाजी के दो भतीजे, सैय्यद हातिम और सैय्यद खातिम को युद्ध में परास्त कर उसे गरम तेल में तड़पा तड़पा कर मार डाला, जिनकी मजारें आज भी कसमंडी में बनी हुई हैं, जहां आस-पास बीसो बीघे में कब्रिस्तान है; जो उस युद्ध की गवाह हैं। यह पासी बाहुल्य क्षेत्र है। दूसरे युद्ध में राजा कंस वीरगति को प्राप्त होते है। अंत में इस युद्ध की सारी जिम्मेदारी पासी राजा सुहेलदेव पर होती है। राजा सुहेलदेव जी का युद्ध बहराइच में चितौरा झील के किनारे पर होता है, जहां पासी राजा सुहेलदेव के हाथों सैय्यद सालार मसूद गाजी का अन्त होता है। विदेशियों के आक्रमण को महाराजा सुहेलदेव पासी ने 150 वर्षों के लिए नेस्तनाबूत कर दिया। ऐसे महान शक्तिशाली महाप्रतापी राजा सुहेलदेव पासी जी का विजय दिवस 10 जून को हर वर्ष संपूर्ण देशवासी बड़ी धूम धाम से मनाते हैं।

*आदिवासी जननायक बिरसा मुंडा जी के 123वे स्मृति दिवस (9 जून 1900) पर बहुजन जागरूकता मिशन की और से शत् शत् नमन एवं विनम्र ...
09/06/2023

*आदिवासी जननायक बिरसा मुंडा जी के 123वे स्मृति दिवस (9 जून 1900) पर बहुजन जागरूकता मिशन की और से शत् शत् नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि*
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*देश की आजादी में अमूल्य योगदान देने वाले बिरसा मुंडा से जुड़ी सभी महत्वपूर्ण जानकारी आपके साथ सांझा करेंगे। जैसे कि बिरसा कौन थे, इनका जन्म कब हुआ था और उन्होंने भारत के आजादी के लिए अंग्रेजो के खिलाफ किस तरह लड़ाई लड़ी? इसके अलावा हम आपको और भी जानकारी इनके बारे में देंगे जो आपके लिए खास हो। तो अगर आप मुंडा के बारे में जानना चाहते हैं तो इस आर्टिकल को अंत तक जरूर पढ़ें।*
*नाम बिरसा मुंडा, पिता का नाम सुगुना मुंडा, माता का नाम करनी मुंडा, जन्मदिन 15 नवंबर 1875, जन्म स्थल झारखंड, धर्म आदिवासी, राष्ट्रीयता भारतीय*

*परिवार*
*मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को हुआ था। इनका जन्म छोटानागपुर यानी कि झारखंड में एक सीमांत किसान के घर हुआ था, अर्थात इनका जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था।*

*बिरसा को आदिवासियों को संगठित करके अंग्रेजों का विद्रोह करने के आरोप में अंग्रेजी सरकार ने गिरफ्तार कर लिया और 2 साल की सजा सुना दी थी। अगर बात करें उनके परिवार के बारे में तो इनके पिता का नाम सुगुना मुंडा वहीं इनकी माता का नाम करनी मुंडा था।*

*प्रारंभिक जीवन*
*बिरसा मुंडा जी का जन्म होने से पहले से ही भारत पर अंग्रेजों का कब्जा था और अंग्रेज हर भारतीय पर जुल्म ढा रहे थे। देश के अन्य भागों के समान ही बिरसा के क्षेत्र में भी अंग्रेजों का ही राज था और सारे आदिवासी उस समय अंग्रेजों को सता रहे थे।*

*इस स्थिति को देखते हुए बिरसा को काफी बुरा लगता है, वह अक्सर यह कहते थे कि अंग्रेज हमारे ऊपर राज करें हमें इससे कोई दिक्कत नहीं है लेकिन अंग्रेज हमें सताए नहीं। अंग्रेज सभी भारतीयों को खूब सता रहे थे और कहीं-कहीं तो ऐसा हो रहा था कि अंग्रेज भारतीयों से जबरदस्ती मजदूरी करवा कर पैसे भी नहीं देते थे।*

*मुंडा शुरू से ही सोच रहे थे कि वह इन अंग्रेजों का विरोध जरूर करेंगे। इसके साथ ही 1894 में जब महामारी फैली थी तो बिरसा लोगों की खूब सेवा कर रहे थे क्योंकि वह एक समाजसेवी भी थे।*

*बिरसा मुंडा का नेतृत्व*
*1 अक्टूबर 1814 को बिरसा ने अपने सारे मुंडा भाइयों को लेकर के अंग्रेजो के खिलाफ लगान माफ करने का विद्रोह किया। क्योंकि जिस वर्ष खेती अच्छी होती थी उस वर्ष लगान देने में किसानों को कोई दिक्कत नहीं आती थी लेकिन जिस वक्त फसल अच्छी नहीं होती थी उस वक्त किसानों को लगान देने में बहुत कठिनाई होती थी और लगान ना देने पर अंग्रेज गरीबों को मारा भी करते थे।*

*इसलिए बिरसा ने अपने सारे मुंडा भाइयों को लेकर अंग्रेजों के खिलाफ एक विद्रोह क्या। यह विद्रोह 1895 तक चला लेकिन 1895 में अंग्रेजी सरकार के सैनिको द्वारा बिरसा को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें जेल में डाल दिया गया।*

*मुंडा को हजारीबाग के एक जेल में डाला गया था और उन्हें 2 साल की सजा सुनाई गई थी। बिरसा के गिरफ्तार होने के बाद भी मुंडा भाइयों की विद्रोह पर कोई असर नहीं पड़ा और उनका विद्रोह जारी रहा।*
*हालाकी बिरसा के जेल में जाने के बाद अच्छा वेतन नहीं होने की वजह से यह विरोध असफल रहा। लेकिन इसके बाद बिरसा मुंडा ने अन्य कई सारे विद्रोह किए जिसमें कुछ विरोध सफल हुए और कुछ असफल रहे।*

*बिरसा मुंडा द्वारा किया गया विद्रोह और विद्रोहियों का अंत –1897 से लेकर 1900 तक मुंडा और अंग्रेजों के बीच कई लड़ाइयां हुई। जिनमें कुछ लड़ाईयों में मुंडा भाइयों को जीत मिली तो कुछ लड़ाई में अंग्रेजों को।*

*इन 3 सालों में बिरसा से समस्त अंग्रेजी सरकार हील गई थी। इन लोगों ने अंग्रेजी सरकार की नाक में दम कर के रख दिया था। अगस्त 1897 में बिरसा के साथ उनके साथियों ने मिलकर अंग्रेजी पुलिस थाने में धावा बोल दिया 1898 में भी बिरसा की सेना और अंग्रेजी सेना में घनघोर लड़ाई हुई जिसमें अंग्रेजी सेना हार गई लेकिन उसमें बिरसा के सैनिकों के साथ-साथ कई मुंडा लोगों को गिरफ्तार किया गया।*

*जनवरी 1900 में डोंबरी पहाड़ी पर अंग्रेजी सैनिको व मुंडा के सैनिकों के बीच कड़ा संघर्ष हुआ। जिसमें कई आदिवासी महिलाओं और बच्चों की जान गई। उस समय बिरसा मुंडा अपने सारे शिष्यों को विद्रोह के बारे में बता रहे थे तभी अचानक अंग्रेजी सैनिकों द्वारा धावा बोल दिया गया।*

*अंग्रेजी सरकार ने बिरसा के कई शिष्यों को गिरफ्तार किया और फिर उसी वर्ष 3 फरवरी के दिन स्वयं बिरसा मुंडा भी अंग्रेजी सरकार के हाथ लग गए और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें रांची के कारागार में रखा गया। रांची के कारागार में सजा काटते वक्त ही उन्हें हैजा हो गया और इसी वर्ष 9 जून को उन्होंने रांची जेल में अपनी सांसे ली.*

*आज भी बिहार, ओडिशा, झारखंड और पश्चिम बंगाल के लोग बिरसा को भगवान की तरफ पूजते हैं और उन्होंने वहां पर बिरसा मुंडा की एक बड़ी प्रतिमा रांची में भी लगाई हुई है। बिरसा की समाधि रांची में डिस्टलरी पुल के नीचे स्थित है। रांची में इनके नाम से एक केंद्रीय कारागार और 1 विधानसभा क्षेत्र भी है।*

*इनके सम्मान में ही 15 नवंबर 2000 को झारखंड राज्य को बिहार से अलग किया गया था। 10 नवंबर 2021 को भारत सरकार द्वारा यह घोषणा की गई थी कि अब हर 15 नवंबर को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाया जाएगा।*

*आज मुंडा हमारे बीच तो नहीं है लेकिन बिरसा मुंडा द्वारा किए गए कार्य और उनके द्वारा हुई आज भी हमारे लिए प्रेरक बने हुए है। हम सब लोगों को मुंडा से सीख लेनी चाहिए और उनके बताए गए रास्तों पर चलना चाहिए। बिरसा भले ही आज नहीं है लेकिन उनका नाम और उनके संस्कार आज भी अमर है।*

*बिरसा मुंडा की मृत्यु (Birsa Munda Death)*
*3 मार्च 1900 के दिन बिरसा मुंडा को आदिवासी लड़ाकों की गुरिल्ला सेना के साथ मकोपाई वन में ब्रिटिश सैनिकों ने अपनी पकड़ में ले लिया. 9 जून 1900 को रांची स्थित कारागृह में महज 25 वर्ष की आयु में बिरसा की मृत्यु हो गई, जहाँ उन्हें बंद कर लिया गया था.*
*अंग्रेजी हुकुमत ने यह ऐलान किया कि हैजे की बिमारी के चलते इनकी मृत्यु हुई हैं, जबकि इनके शरीर पर बिमारी के ऐसे कोई लक्षण भी नहीं थे. जहर देकर इनके जीवन को समाप्त करने की अपवाहे भी जोरों पर थी.*

*भारत के आदिवासी नेताओं में बिरसा मुंडा का नाम विशेष रूप से लिया जाता हैं. अपने लोगों के अधिकारों के लिए लड़कर जान देने वाले इस क्रांतिकारी के सम्मान में आज देशभर में कई संस्थान बने हुए हैं.*

*इनके नाम पर ‘बिरसा इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी’, ‘बिरसा कृषि विश्वविद्यालय’, ‘बिरसा मुंडा एथलेटिक्स स्टेडियम’ और ‘बिरसा मुंडा एयरपोर्ट’ आदि संस्थानों के नाम हैं।*

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