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Lokrang TV dedicated to showcase The Himalayan Cultural Roots in line with its culture, arts and music through our digital platform. We strive to connect with our Urban youth that basically belongs to our Himalayan region. Our creative effort is to use many forms of communication For striking a balance between humor and satire to effectively express our sincere message among the masses. We are a t

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उत्तराखंड की लोक संस्कृति के संरक्षण में रंगकर्मी स्व. ब्रजेंद्र लाल शाह (जन्म 13 अक्टूबर 1928 स्थान - अल्मोड़ा ) का अहम ...
13/10/2023

उत्तराखंड की लोक संस्कृति के संरक्षण में रंगकर्मी स्व. ब्रजेंद्र लाल शाह (जन्म 13 अक्टूबर 1928 स्थान - अल्मोड़ा ) का अहम योगदान रहा है ।
उन्होंने ने पहाड़ की लोक संस्कृति को एक नई पहचान दिलाई। यही नहीं एक नई पीढ़ी को भी तैयार किया। स्व. शाह लोक संगीत को मनोरंजन नहीं बल्कि जन चेतना के वाहक मानते थे। स्व. मोहन उप्रेती और अन्य रंगकर्मियों के साथ मिल कर उन्होंने बेडू पाको बारामासा जैसे लोक गीतों को पुनर्रचित और प्रतिष्ठापित किया है। गांव-गांव जाकर पहाड़ के दो हजार लोकगीतों को संकलित किया। उनके कुमाऊंनी और गढ़वाली रामलीला उल्लेखनीय रही है। वहीं भस्मासुर और तारकासुर नाटक आज भी याद किए जाते हैं।

ऐसे महान रंगकर्मी को उनको उल्लेखनीय कार्यों के लिए हमेशा याद किया जायेगा ( नमन )🙏 ।

24/09/2023

वाह बेहतरीन गायकी !

सभी पशुपालकों को खतड़वा त्यार की बधै !........................................................*** पशुपालकों का पर्व " खत...
17/09/2023

सभी पशुपालकों को खतड़वा त्यार की बधै !........................................................
*** पशुपालकों का पर्व " खतड़ुआ " ***
सौजन्य - जगमोहन रौतेला *** Jagmohan Rautela........................................................
उत्तराखण्ड के कुमाऊँ मण्डल में हर वर्ष अश्विन महीने की संक्रान्ति को " खतड़ुआ " पर्व मनाया जाता है . परम्परागत तौर पर मनाए जाने वाले इस पर्व के दिन पशुपालक अपने पशुओं को भरपेट चारा - घास देते हैं और उनकी विशेष तौर पर देखभाल की जाती है . पर्व से ए्क दिन पहले भादो महीने के अंतिम दिन मसान्त को गॉवों में हर परिवार अपने पशुओं के लिए अगले दिन के चारे की व्यवस्था कर लेते हैं . इस दिन के लिए उस घास - चारे की विशेष व्यवस्था की जाती है , जो पशुओं को विशेष प्रिय होती है . खतड़ुआ के दिन बैलों को हल में भी नहीं जोता जाता है .
अश्विन संक्रान्ति के दिन शाम के समय सूखे हुए घास व पराल से एक पुलता बनाया जाता है . यह पुलता गॉव के सार्वजनिक रास्ते या चारागाह में बनाया जाता है . भाबर व तराई में घर के पास ही खेत में खतड़ुआ का पुतला बनाया जाता है . इसके बाद घर की बुजुर्ग महिला घास की एक मूठ को जलाकर उसे गोठ में ले जाकर पूरे गोठ में घुमाती जाती हैं , लेकिन यह सावधानी बरती जाती है कि किसी तरह से गोठ में रखे घास को आग न लगे .उसके बाद उसे बाहर लाया जाता है और घर के पास मौजूद सब्जी की क्यारी में लगे ककड़ी , कद्दू , तुरई आदि सभी प्रकार की बेल वाली सब्जियों को भी एक तरह की उस मशाल को छुआया जाता है . यह कार्य अधिकतर हर घर की बुजुर्ग महिला करती हैं . इस दौरान वह " निकल भुइया , निकल भुइया , गै की हार , खतड़ की जीत " कहती हुई जाती हैं . और साथ ही यह कामना करती हैं कि घर के किसी पशु को कोई बीमारी न हो , सभी स्वस्थ व ह्रष्ट - पुष्ट रहें , घर में दूध , दही व घी की कमी न हो , साल भर भरपूर धीनाली हो , किसी भी मेहमान को सूखी रोटी न खिलाने पड़े . बुजुर्ग महिला खरीब की फसल के भी खूब होने की कामना करती हैं , क्योंकि इसके बाद ही गॉवों में धान , मडु़आ और दूसरी फसलों की कटाई शुरु होने लगती है .
" निकल भुइया , निकल भुइया " कहते हुए घर की बुजुर्ग महिला एक तरह से पूरे परिवार व गोठ से हर तरह की विपदा से मुक्ति मिलने की कामना अपने परिवार के लिए करती हैं . आग की उस मूठ से बाद में घास के पुतले को जलाया जाता है . कई जगह पुतले के जल जाने पर उसकी राख ( अवशेष ) को सबके माथे पर भी लगाया जाता है . उसके बाद पुलते की राख को घर के पास के किसी गघेरे में फैंकते हुए " गै की जीत , खतड़ की हार , गै पड़ि श्यैल , खतड़ पड़ि भ्योल " ( अर्थात् गाय की जीत हो गयी और खतड़ रूपी सभी बीमारियॉ भाग गई .) कहा जाता है . जब घास के पुलते को आग के हवाले किया जाता है तो पूरा परिवार उसके चारों ओर खड़ा हो जाता है . पुतले के जल जाने पर बुजुर्ग महिला ककड़ी काटकर सभी को देती है , जिसे मिर्च के साथ पिसा हुआ तीखा नमक लगाया खाया जाता है .
इस त्योहार को वर्षा ऋतु की विदाई और शीत ऋतु के आगमन का सूचक भी माना जाता है . अश्विन संक्रान्ति के बाद मौसम में हल्की ठंड बढ़ने लगती है . शीत ऋतु की तैयारी के लिए वर्षा के मौसम के कारण सीलन पकड़ चुके गर्म कपड़ों को भी धूप दिखाने की प्रक्रिया शुरु हो जाती है , ताकि वे सीलन के कारण खराब न हों और जाड़ों में शरीर को भरपूर गर्मी दें . खतड़ुआ के जलते समय उसके चारों ओर खड़े होने को एक तरह से शीत ऋतु के आगमन का सूचक और उसका स्वागत करने के तौर पर देखा जाता है . वैसे भी गर्मी व बरसात के मौसम में कीट - पतंगों व कई तरह की बीमारियों का हमला कुछ ज्यादा ही होता है , इस कारण से शीत को गर्मी व बरसात की अपेक्षा ज्यादा अच्छा माना जाता है . इस मौसम में गर्मा - गर्म खाने का अपना अलग ही आनन्द होता है . कुछ भाषाविद् खतड़ुआ को खतड़ शब्द का अपभ्रंश भी मानते हैं , क्योंकि कुमाउनी में खतड़ या खातड़ पहने जाने वाले कपड़ों को कहते हैं . " खतड़ की जीत " शब्द को भी ठंड के आगमन के तौर पर ही माना जाता है , क्योंकि ठंड में हर तरह के कपड़ों की आवश्यकता अधिक पड़ती है .शरीर में भी अधिक कपड़े पहने जाते हैं . एक तरह से यह भी कह सकते हैं कि ठंड के दिनों हमारे पूरे शरीर व घर में कपड़ों का साम्राज्य होता है . बिना कपड़ों के हम नहीं रह सकते , चाहे दिन हो या रात . इसकी अपेक्षा गर्मी व बरसात में कम कपड़ों से ही काम चल जाता है . इसी वजह से खतड़ुआ को गर्म कपड़ों के आगमन के प्रतीक के तौर पर भी लिया जाता है . कुछ स्थानों में इसे " घास त्यारों " भी कहा जाता है . ***

09/09/2023

उत्तराखंड के लोकगीत । ज्योति उप्रेती, नीरजा उप्रेती | जी 20 दिल्ली शिखर सम्मेलन

07/09/2023

किस्सागोई कार्यक्रम की झलकियां - ईजा स्टूडियो

Well Done ISRO ! सभी भारतीयों को बधाई
23/08/2023

Well Done ISRO ! सभी भारतीयों को बधाई

"गिर्दा" एक श्रधांजलि !जनकवि,रंगकर्मी, लोकगायक, समाज सेवक, और भी जाने किन-किन संज्ञाओं से पुकारे जाते थे वो, नाम था गिरी...
22/08/2023

"गिर्दा" एक श्रधांजलि !जनकवि,रंगकर्मी, लोकगायक, समाज सेवक, और भी जाने किन-किन संज्ञाओं से पुकारे जाते थे वो, नाम था गिरीश चंद्र तिवाड़ी ! लेकिन वो सबके ‘गिर्दा’ थे, हाँ इसी नाम से तो जाने जाते है वो. उनके हर एक अंदाज़ की, उनके व्यक्तित्व की और उनके आंदोलनकारी रूप पर तो खूब चर्चा होती रही है,
"गिर्दा" एक साधारण सा दिखने वाला इंसान, लंबा बदन, कंधे में एक झोला, उसमे कुछ किताबें, कुर्ता, और जाखट इसी रूप में अक्सर देखा जा सकता था उनको ! कभी बीडी जलाये तो कभी कभी लिखते ! उनके चलने, बैठने और बोलने में ठेट पहडीपन झलकता था ! गिर्दा वो एक ऐसा कवि था जिनकी कवितायें कल्पना नहीं होती थी, उनकी कविताओं में वही ब्यक्त होता था जो उन्होंने जिया, जो उन्होंने महसूस किया, इसी लिए तो वो जनकवि कहलाये, उनके लिए लिखना जन सरोकारों के लिए लिखना रहा है,

मुझे उनकी कविता की कुछ पंक्तिया याद आती है

"लिख देने भर से खाली किताबें,
उसको व्यवहार में उतारना जरूरी है।
उनकी स्पष्ट मान्यता रही-मुक्ति चाहते हो
तो आओ जन संघर्षों में कूद पड़ो,
याद रखो बंधन सदियों के अपने आप नहीं टूटेंगे,
तेरे-मेरे गर्दन से जालिम के हाथ नहीं छूटेंगे।"

उन्होंने कवि कहलाने के लिए ये पंक्तिया नहीं लिखी न कोई कवितायें, जब-जब आम जनता का दुःख-दर्द ने उन्हें बेचैन किए तो उन्होंने इसको कविता का रूप दिया, जब-जब उन्हें लोगों को खुश देखा उसमे भी उनकी कविता निकली ! उन्होंने अपनी एक कविता में कहा है :-
"जन से लिया, मन से मंथन किया, फिर जनता को ही लौटा दिया।"
उनकी कविताओं में वो पहाड़ी सरल, निष्कपट ब्यक्तित्व की छाप झलकती है ! चाहे उन्होंने जन आंदोलनों में सड़कों पै गाये गीत हो कवितायें हो उन्होंने जन-जन के हृदय को छुवा है, चाहे वो चिपको आंदोलन रहा हो, नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन हो या उत्तराखंड राज्य की मांग के लिए आन्दोलन, उनको कभी ये महसूस नहीं हुआ की अपनी कविताओं का प्रकाशन किया जाए, उनकी लेखनी की अपनी भाषा थी सरल, सहज, और आम !
गिर्दा बेहद हें सरल ब्यक्तित्व, सही मायने में गर पहाड़ को जिया है तो वो उन्होंने ही, मैंने गिर्दा को जितना पढ़ा सुना जाना उतना कम लगा, उनकी हर कविता में एक दुनिया मिलती है, पहाड़ के लिए उनका सपना दिखता है, उनकी सोच, समझ और उदारता तथा पहाड़ प्रेम बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर देता है !
लोक गयाक, कवि और गीतकार श्री नरेंदर सिंह नेगी जी के अनुसार :- "गिर्दा जनसरोकारों से जुड़ा कवि था, वो सड़कों का गायक था, हमारी तरहा भीड़-भाड़. चकाचौध और स्टूडियो की चार दिवारी में बंद होके गाने वाला नहीं था, वो जब सड़कों पै गाता था तो लोग उसके पीछे पीछे चल देते थे"
"गिर्दा" एक विचार है, एक सोच है, विचार कभी मरते नहीं, सोच कभी मरा नहीं करती, वो हमेशा हम लोगों के दिलो-दिमाग में ज़िंदा रहते है, "गिर्दा" की सोच और विचार भी हमेशा हमारे मन-मस्तिक्ष में छाये रहेंगे, ज़िंदा रहेंगे, हमें उनके दिखाए गए मार्ग में चलने का, उनके आदर्शों को उनके विचारों को अपनाने का संकल्प लेना होगा यही उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी ! सही मायने में कहूँ तो "गिर्दा" के विचारों को पढ़ के ही मुझे नयी ऊर्जा मिली, और जिस दिन में उनके विचारों से प्रभावित हुआ उसी दिन संकल्पित हुआ कि उनके दिखाए आदर्शों पै चलके उत्तराखंड के लिए कुछ करूँ ! उनके उत्तराखंड के लिए देखने गए सपनों को पूरा करना ही हमारा कर्तब्य हो हमारा धेय हो !

लोकरंग टीवी की की और से "गिर्दा" को अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि।

जय माँ धारी देवी चित्र सौजन्य - Uttarakhand Tourism
16/07/2023

जय माँ धारी देवी
चित्र सौजन्य - Uttarakhand Tourism

10/11/2022
13/10/2022

उत्तराखंड के महान रंगकर्मी स्व. ब्रजेन्द्र लाल शाह जी के जन्म दिवस पर उन्हें नमन ।

साथियों,आज मेरा दिल उत्तराखंड की बेटी अंकिता भंडारी की इस निर्मम हत्या से सहम गया है,रसूखवाले इन दरिंदों को शायद सजा भी ...
23/09/2022

साथियों,
आज मेरा दिल उत्तराखंड की बेटी अंकिता भंडारी की इस निर्मम हत्या से सहम गया है,
रसूखवाले इन दरिंदों को शायद सजा भी ना मिले, इस ख्याल से ही मेरा दिल दहल गया है,
रोते दिल की आपको बात बताना चाहता हूँ,
आज पापा की एक परी उड़ गई, सोए हुओं को जगाना चाहता हूँ.

पापा, तुम्हारी परी उड़ गई

पापा मेरे भी तो कुछ सपने थे,
जो मुझको पुरे करने थे,
उन सपनों को ही तो पूरा करने के लिए मैंने अपने घर की चौखट लांघी थी,
तब से पापा रोज आप ढलती शाम को तब तक डरते जब तक मैं वापिस ना आ जाती थी,
देख घर रात होने से पहले ही आ जाना, पापा रोज मुझसे कहते थे,
उनको जानवरों का डर ना था वो तो इंसान रूपी हैवानों से डरते थे,
लेट हो जाती तो घर की चौखट से लगातार सामने रास्ते को तकते थे,
मेरी बिटिया आती होगी, माँ से बातें करते थे,
आज भी मैं ऑफिस से पापा अपने घर को चली थी,
लेकिन मालूम ना था मुझको हैवानों की गंदी नज़र मुझ पर गड़ी थी,
अकेली लाचार पाकर पापा इन रसूखवालों ने मेरी इज्जत तार तार करी थी,
गिड़गिड़ाती रही मैं इनके सामने, छोड़ दो मुझको, जाने दो, लेकिन पापा इन हैवानों ने मेरी एक ना सुनी थी,
जब तक नही देख लेते मुझको मेरे पापा, वो भूखे रहेंगे,
मुझे देखे बगैर वो पूरी रात नही सोयेंगे,
मेरी हर याचनाओं को पापा इन दरिंदों ने ठुकराया,
आपकी बिटिया को इन्होंने नोच नोच कर खाया,
पापा, मत छोड़ना इन हैवानों को,
नही तो ना जाने निगल जायेंगे ये कितनी ही पापा की परियों को,
देखो पापा ये हैवान सत्ता पर काबिज नेता का बेटा है,
इसको बचाने पूरा शासन प्रशासन इसके पीछे बैठा है,
पापा, तुम्हारी परी उड़ गई, और परियों को मत उड़ने देना,
कोशिश करना पापा इन दरिंदों को सजा दिलाने की, और किसी परी को अंकिता भंडारी मत बनने देना,
अंकिता भंडारी मत बनने देना.

साभार - मुकेश सुन्द्रियाल ! Mukesh Sundriyal



हर पहाड़ी के हिस्से का स्वाद-ऊंमी😋😍❤️चित्र सौजन्य - आशी डोभाल---
25/04/2022

हर पहाड़ी के हिस्से का स्वाद-ऊंमी😋😍❤️
चित्र सौजन्य - आशी डोभाल

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खूबसूरत चौपता ।।चित्र सौजन्य - अमित साह नैनीताल
13/04/2022

खूबसूरत चौपता ।।
चित्र सौजन्य - अमित साह नैनीताल

' फूलदेई  '  यानि  पुष्पों  से  भरी  देहरी  !आज  कुमाऊँ  में  फूलदेई  का  त्यौहार  है  l    गेरू से  रंगी  देई  में  चाव...
14/03/2022

' फूलदेई ' यानि पुष्पों से भरी देहरी !
आज कुमाऊँ में फूलदेई का त्यौहार है l
गेरू से रंगी देई में चावल के बिस्वार / आलण द्वारा हाथ से दिये ऐपण और फिर प्योली , बुराँश पुष्पों , चावल रूपी मोतियों से देहरी पूजन !
बच्चे इस त्यौहार में मुख्य भूमिका में आते हैं l

" फूलदेई ! फूलदेई !
छम्मा देई - छम्मा देई
दैणी द्वार
भर - भर भकार "

यहाँ रानी रंग बुराँश है न वासंती रंग प्योली पर टेसू है , कनेर है और सिंगापुर लिली !
दूर से देख लेती हूँ अब बुराँश को मैं !
मित्रों द्वारा भेजी चोपता की तस्वीर है यह , वहाँ यह भू-भाग देहरी क्या पूरे परिवेश को मनभर कर अपने रानी -रंग से सरोबार कर देता है l
इस दिन बेटियों को भेंट यानी ' भिटौली ' दी जाती है और अपने घर आये छोटे - छोटे बच्चे - बच्चियों को गुड़ , चावल , गुलगुले , मिठाई और मुद्रा l
बच्चे देहरी ,घर - द्वार पुष्पों की भाँति खिले रहने और भकार यानी काठ के विशाल ; अनाज रखने वाले बक्सों के वर्ष भर भरे रहने की कामना करते हैं l
फूलदेई ! फूलदेई !!
ला ! ईजा मेरी मेरी गुड़ ' क डई !

आलेख - प्रतिभा अधिकारी
पोस्टर - विनोद गड़िया ।

आजकल की धूप चूख खाने को एकदम सही है।चित्र सौजन्य -  मुकेश कोहली ।
23/02/2022

आजकल की धूप चूख खाने को एकदम सही है।
चित्र सौजन्य - मुकेश कोहली ।



“फ्योंली या फ्यूली ” पहाड़ों में बसंत के लगभग खेतों की मुंडेर पर  पीली सी बेहद खूबसूरत जूही के मानिन्द खिलखिलाती . हंसती ...
22/02/2022

“फ्योंली या फ्यूली ”
पहाड़ों में बसंत के लगभग खेतों की मुंडेर पर पीली सी बेहद खूबसूरत जूही के मानिन्द खिलखिलाती . हंसती . इठलाती . बतियाती “फ्योंली” भला पहाड़ में किसने नहीं देखी होगी। कोई इसे फ्यूली कह कर पुकारता है तो कोई फ्योंली । बहुत कम जीवन है अपनी फ्योंली का ।
“फ्योंली” पहाड़ के एक गांव में अपने गरीब पिता के साथ एक छोटे से झोपड़ी नुमा घर में रहती थी । मां बचपन में ही मर गयी थी । पिता ने बडे़ लाड प्यार से फ्योंली को पाला था । धीरे धीरे फ्यूली बडी होने लगी ।घर के आंगन में खेलती इठलाती फ्यूली देखते देखते तरूणी हो गयी ।उसका रूप सौन्दर्य पूर्णिमा की तरह निखारने लगा । सौन्दर्य ऐसा कि स्वर्ग की अप्सरा तक ईर्षित हो जाय। अपने गांव सखियों में सबकी प्यारी फ्यूली । उसकी आवाज भी कोयल की कुहुक जैसी । लम्बे घने बाल और गाती भी बहुत अच्छा । फ्यूली अपने पिता को बहुत प्यार करती थी । गरीब पिता ने भी बडे लाड प्यार से पाला था अपनी बिटिया को। मां बचपन में ही मर गयी थी पर मां का भी प्यार पिता ने ही दिया ।
एक बार एक राजकुमार आखेट करते करते जंगल से भटकते फ्योंली की झोपडी तक आ पहुंचा । साथ के सारे सिपाही भी जाने कहां भटक गये . भूखा प्यासा राजकुमार जब फ्यूली के छोटे से मिट्टी के घर के दरवाजे पर आया तो फ्यूली के पिता ने यथा शक्ति स्वागत किया फ्यूली ने गांव के पनघट का बांज की जडो से छनकर आया ठंडा जल पिलाया रात घिर गयी थी । घर के एक कोने मे साफ बिस्तर लगा कर राजकुमार के सोने का इंतजाम भी हो गया। भोजन में उस गरीब पिता ने जितना हो सकता व्यवस्था की । फ्यूली ने भी अपने सुन्दर हाथों से मंडुवे की रोटी , गहत की दाल . अपने सगवाडे में उगी राई की सब्जी बना दी । राजकुमार को परोसा गया । इतना स्वादिष्ट भोजन राजकुमार को कभी नहीं लगा । राजकुमार " फ्यूली के रूप, गुण, सहूर, बोली, संस्कार पर मोहित हो गया । सुबह हुयी तो राजकुमार ने विनम्रता से फ्योंली के पिता से कहा मैं आपकी बेटी से विवाह करना चाहता हूँ और अभी ।। आर्द भाव से निवेदन किया । फ्योंली से भी पूछा। फ्योंली अपने गरीब और बूढे पिता को भला यूं ही अकेले कैसे छोड़ती । उसने राजकुमार से कहा समय समय पर आप यदि मुझे मेरे पिता से मिलने आने की आज्ञा दोगे और आने दोगे तो विवाह मंजूर है राजकुमार तैयार हो गया । पिता ने अपने कलेजे के टुकड़े को राजकुमार के साथ विदा किया । सोचा बेटी महलों मे राज करेगी . सुखी रहेगी कोई कमी नहीं रहेगी । हर पिता यही तो चाहता है कि ससुराल में बेटी सुखी रहे। ।विदा होते समय “फ्योंली " पिता के सीने से चिपक कर फुट फूट कर रोयी । फ्यूली को लेकर राजकुमार अपने महल में आया । उसे वस्त्र और आभूषण दिये । राजसी ठाठ बाट में रखा । कोई कमी न रहे सेवक सेविकाऐं सेवा में लगा दी । राजकुमार उससे एक पल भी अपनी आंखों से दूर नहीं रखता । धीरे धीरे समय बीतने लगा । एक महीना हो गया । फ्यूली को पिता की याद सताने लगी। उसने पति राजकुमार से इच्छा जताई कि मुझे पिता के पास जाना है. राजकुमार ने कहा फिर कभी जायेंगे ।अगले महीने फिर अगले महीने का वायदा करते करते महीने बीत गये राजकुमार फ्योंली को उसके पिता के पास नहीं ले गया । महलों की खिडकियों से झांकती दूर पहाड़ी को जब भी फ्योंली देखती तो पिता की याद आ जाती । किसी बूढ़े गरीब को खांसते देखती तो पिता याद आ जाती । फ्यूली की आंखों में टपटप आंसू बहते । धीरे धीरे फ्योंली बीमार होने लगी । पिता से न मिलने की पीडा ने उसे अंदर से तोड कर रख दिया । इतनी बीमार होने लगी कि राजकुमार ने राजमहल क्या दुनिया के वेद्य इलाज के लिए बुला दिये । पर कोई बीमारी नहीं पकड़ पाया । राजकुमार फ्योंली को बहुत प्रेम करता था उसने ऐलान किया कि जो फ्योंली का उपचार करेगा उसे सारी सम्पति दी जायेगी । बहुत इलाज किया पर कुछ नहीं हुआ । फ्योंली दिन प्रति दिन सूखती रही और बिस्तर पर पड़ी-पड़ी रोती रहती । एक दिन फ्यूली को लगा उसकी मृत्यु नजदीक आ गयी है । उसने धीमे से इशारे से अपने पति को कहा मैं अब दुनिया से जाती हूँ आपने मुझें बहुत प्यार दिया इसके लिए आभार । टपटप बहते आंसुओं और कलेजे से निकली आवाज से कहा हो सके तो मेरी लाश को मेरे मायके की खेत की मुंडेर पर गाढ़ देना । क्योंकि अब सुना है पिता भी न रहे। आपने पिता से मिलने का वायदा किया था विवाह के वक्त पर निभाया नहीं । यह कहते कहते फ्योंली पति की बांहों में मर गयी । राजकुमार फूट फूट कर रोया । उसे बहुत पश्चाताप हुआ । फ्योंली की इच्छा अनुसार उसने बड़ी श्रद्धा और सम्मान से फ्यूली को उसके पिता के खेत की मुंडेर पर समाधि दे दी । खूब रोया । पर अपने पिता के खेत मे मौत के बाद ही सही . फ्यूली फिर जी उठी और खिल-खिला उठी व मुस्कुरा उठी । उतनी खूबसूरती से जितनी वह थी । फ्यूंली के फूल के रुप में ।

(नरेन्द्र सिंह नेगी जी का एक प्यारा गीत)
मेरा डांडी कान्ठ्यूं का मुलुक जैल्यु बसंत ऋतु मा जैई,
हैरा बणु मा बुरांशी का फूल जब बणाग लगाणा होला,
भीटा पाखों थैं फ्यूंली का फूल पिंगला रंग मा रंगाणा होला,
लय्या पय्यां ग्वीर्याळ फुलू न होली धरती सजीं देखि ऐई. बसंत ऋतु मा जैई..........

बिन्सिरी देळयूं मा खिल्दा फूल राति गौं गौं गितान्गु का गीत,
चैती का बोल औज्युं का ढोल मेरा रौन्तेळl मुल्कै की रीत,
मस्त बिगरैला बैखु का ठुमका बांदू का लसका देखि ऐई. बसंत ऋतु मा जैई..........

सैणा दमाला अर चैते बयार घस्यारी गीतुन गुन्ज्दी डांडी
खेल्युं मा रंगमत ग्वैर छोरा अटगदा गोर घमणान्दी घांडी
उखी फुंडै होलू खत्युं मेरु बि बचपन उक्रि सकिलि त उक्री क लैयी. बसंत ऋतु मा जैई..........

सौजन्य - सोशल मीडिया।।

क्या कहेंगे ?चित्र सौजन्य -  सोशल मीडिया ।--             #यादों_के_झरोखों_से
19/02/2022

क्या कहेंगे ?
चित्र सौजन्य - सोशल मीडिया ।

--
#यादों_के_झरोखों_से

बँटवारा ...रचना  - शंकरदत्त_जोशी माँ और मेरे बीच कामों का बँटवारा था।माँ घास काटती, मैं सारतामैं ऊखल कूटता, माँ फटकती मै...
17/02/2022

बँटवारा ...
रचना - शंकरदत्त_जोशी

माँ और मेरे बीच
कामों का बँटवारा था।
माँ घास काटती, मैं सारता
मैं ऊखल कूटता, माँ फटकती
मैं सब्जी बनाता, माँ रोटी
घास-पात ईजा का, पानी-पनेर मेरा
सुख मेरे, दर्द उसके !
दूध की मलाई मेरी
अच्छी मिठाई मेरी
पहला हिस्सा मेरा
पहला किस्सा मेरा
सारी जिद मेरी
सारे नखरे मेरे।
वो नकली रोना
हर बात मनवा लेना
बँटवारा माँ से था
माँ होती ही ऐसी है !!

__

16/02/2022

ये सुंदर गीत नेपाल के सुदूरपश्चिमी देउडा संस्कृति पर आधारित है। इस गीत का संगीत आपको झूमने को मजबूर कर देगा ।।
अवश्य सुनिएगा ।।

सौजन्य -
सिंगर - Purnakala BC and Gopal Jang Thapa
YouTube Link:-
https://www.youtube.com/watch?v=mp6ub9DjGjM

  ・・・Here's a treat for you, straight from the heart of Uttarakhand ♥️To know more about pahadi cuisine and the versatil...
13/02/2022


・・・
Here's a treat for you, straight from the heart of Uttarakhand ♥️
To know more about pahadi cuisine and the versatile flavors, head to the link in my bio 🎀🎀
Also it took me 1 whole day to prepare this plate, I would not mind some love in the comments. Let me know what you think of the blog! 💞🌻

हिट रूपा बुरांशी को फूले बनी जुला ।।-
04/02/2022

हिट रूपा बुरांशी को फूले बनी जुला ।।
-

हिट रूपा बुरांशी को फूले बनी जुला ।।

03/02/2022

अंश हूँ केवल तुम्हारा
- केदार जोशी (कवि, साहित्यकार व सामाजिक कार्यकर्ता ! )
YouTube Link :- https://www.youtube.com/watch?v=SsZnSKT5ois

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