मज़दूर बिगुल Mazdoor Bigul

मज़दूर बिगुल Mazdoor Bigul मज़दूरों का मासिक अख़बार Workers' monthly newspaper
https://www.mazdoorbigul.net/
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‘मज़दूर बिगुल’ का स्वरूप, उद्देश्‍य और जिम्मेदारियां
‘मज़दूर बिगुल’ व्‍यापक मेहनतकश आबादी के बीच क्रान्तिकारी राजनीतिक शिक्षक और प्रचारक का काम करता है। यह मज़दूरों के बीच क्रान्तिकारी वैज्ञानिक विचारधारा का प्रचार करेगा और सच्‍ची सर्वहारा संस्‍कृति का प्रचार करेगा। यह दुनिया की क्रान्तियों के इतिहास और शिक्षाओं से, अपने देश के वर्ग संघर्षों और मज़दूर आन्‍दोलन के इतिहास और सबक से मज़दूर वर्ग को पर

िचित करायेगा तथा तमाम पूंजीवादी अफवाहों-कुप्रचारों का भण्‍डाफोड़ करेगा।

मज़दूर बिगुल’ भारतीय क्रान्ति के स्‍वरूप, रास्‍ते और समस्‍याओं के बारे में क्रान्तिकारी कम्‍युनिस्‍टों के बीच जारी बहसों को नियमित रूप से छापेगा और ‘बिगुल’ देश और दुनिया की राजनीतिक घटनाओं और आर्थिक स्थितियों के सही विश्‍लेषण से मज़दूर वर्ग को शिक्षित करने का काम करेगा।
स्‍वयं ऐसी बहसें लगातार चलायेगा ताकि मज़दूरों की राजनीतिक शिक्षा हो तथा वे सही लाइन की सोच-समझ से लैस होकर क्रान्तिकारी पार्टी के बनने की प्रक्रिया में शामिल हो सकें और व्‍यवहार में सही लाइन के सत्‍यापन का आधार तैयार हो।

‘मज़दूर बिगुल’ मज़दूर वर्ग के बीच राजनीतिक प्रचार और शिक्षा की कार्रवाई चलाते हुए सर्वहारा क्रान्ति के ऐतिहासिक मिशन से उसे परिचित करायेगा, उसे आर्थिक संघर्षों के साथ ही राजनीतिक अधिकारों के लिए भी लड़ना सिखायेग, दुअन्‍नी-चवन्‍नीवादी भूजाछोर ”कम्‍युनिस्‍टों” और पूंजीवादी पार्टियों के दुमछल्‍ले या व्‍यक्तिवादी-अराजकतावादी ट्रेडयूनियनों से आगाह करते हुए उसे हर तरह के अर्थवाद और सुधारवाद से लड़ना सिखायेगा तथा उसे सच्‍ची क्रान्तिकारी चेतना से लैस करेगा। यह सर्वहारा की कतारों से क्रान्तिकारी भरती के काम में सहयोगी बनेगा।
‘मज़दूर बिगुल’ मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी शिक्षक, प्रचारक और आह्वानकर्ता के अतिरिक्‍त क्रान्तिकारी संगठनकर्ता और आन्‍दोलनकर्ता की भी भूमिका निभायेगा।

बजा बिगुल मेहनतकश जागचिंगारी से लगेगी आग!✊आज 13 दिसम्बर (2024) गुड़गाँव (हरियाणा) में सेक्टर 37 के औद्योगिक क्षेत्र में ...
13/12/2024

बजा बिगुल मेहनतकश जाग
चिंगारी से लगेगी आग!✊

आज 13 दिसम्बर (2024) गुड़गाँव (हरियाणा) में सेक्टर 37 के औद्योगिक क्षेत्र में मज़दूर बिगुल अख़बार का वितरण अभियान चलाया गया। यहाँ से गारमेंट एक्सपोर्ट के अलावा विभिन्न सेक्टर के मज़दूर काम पर जाने के लिए गुज़रते हैं। मज़दूरों को ‘मज़दूर बिगुल’ अख़बार जैसे राजनीतिक अख़बार पढ़ने की ज़रूरत के बारे में बताया गया। आज मज़दूरों को देश, दुनिया और समाज की प्रमुख घटनाओं को मज़दूर वर्गीय नज़रिये से समझने की ज़रूरत है, क्योंकि मैनस्ट्रीम मीडिया सत्ता की गोद में बैठ चुका है, जिसे देश की मेहनतकश-मज़दूर आबादी से कोई लेना देना नहीं है। यही मेहनतकश-मज़दूर आबादी पूरे समाज के लिए हर तरह की सम्पदा जैसे सूई से लेकर जहाज़ और सड़क से लेकर संसद का निर्माण करती है। लेकिन फिर भी उसकी रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरी नहीं होती है। उसे न्यूनतम वेतन, स्थायी रोज़गार, कार्यस्थल पर सुरक्षा और सम्मानपूर्वक बेहतर जीवन मुहैया नहीं हो पा रहा है। तब इसके बुनियादी कारणों को समझने की बेहद ज़रूरत है। मज़दूर बिगुल इसी मक़सद से निकाला जा रहा है। साथ ही यह अन्याय, शोषण, लूट और दमन के ख़िलाफ़ संघर्ष का रास्ता बताता है। मज़दूरों ने अख़बार लिये और अपने सम्पर्क भी दिये।

दिल्ली के खजूरी इलाके में बिगुल अख़बार का अभियान चलाया गया। बजा बिगुल मेहनतकश जाग, चिंगारी से लगेगी आग!बीते 11 दिसम्बर क...
13/12/2024

दिल्ली के खजूरी इलाके में बिगुल अख़बार का अभियान चलाया गया।

बजा बिगुल मेहनतकश जाग, चिंगारी से लगेगी आग!

बीते 11 दिसम्बर को खजूरी के सी-ब्लॉक, गली नम्बर- 2 में मज़दूर बिगुल अख़बार का अभियान ' बिगुल मज़दूर दस्ता' के सदस्यों द्वारा चलाया गया। सुबह के समय काम पर जाते लोगों, गली में रहने वाले नौजवानों, महिलाओं और बुजुर्गों के बीच दस्ता के सदस्यों बिगुल अख़बार के बारे में बताया कि यह अन्य अख़बारों से कैसे अलग है। इसके साथ ही बताया कि आज मीडिया से लेकर तमाम सूचना तंत्रों का चरित्र तेज़ी से बदला है, वह मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के पक्ष में लगातार उसका प्रचार-प्रसार करने में लगी हुई है। इसलिए आज यह और भी ज़रूरी बन जाता है कि हम जनता के बीच ऐसी वैकल्पिक सामग्री लेकर जाए जिससे वह आज की पूँजीवादी व्यवस्था की सच्चाई से अवगत हो पायें, कि कैसे अलग-अलग झण्डे की चुनावबाज पार्टियाँ जो असल में पूँजीपतियों की ही नुमाइंदगी करती है वह जनता को सही मायने में बर्बादी के सिवा कुछ नहीं दे सकती है।

इलाके के कई नौजवानों, महिलाओं, काम-काजी लोगों ने बिगुल अख़बार लिया ।

आज सुबह-सुबह 'बिगुल मज़दूर दस्ता', उत्तराखंड  द्वारा औद्योगिक क्षेत्र सिडकुल, हरिद्वार में मज़दूर वर्ग की आवाज़ बुलन्द कर...
12/12/2024

आज सुबह-सुबह 'बिगुल मज़दूर दस्ता', उत्तराखंड द्वारा औद्योगिक क्षेत्र सिडकुल, हरिद्वार में मज़दूर वर्ग की आवाज़ बुलन्द करने वाला अख़बार 'मज़दूर बिगुल' की हाॅकिंग की गयी। आज मेहनतकश अवाम बेतहाशा बढ़ती महँगाई के बोझ तले कराह रही है। लोगों को काम मिलना भी मुश्किल होता जा रहा है। कुछ नौजवान मज़दूरों ने बताया कि उनकी धार्मिक और जातीय पहचान के कारण भी उनको काम मिलने में बहुत दिक्कतें होती हैं। उत्तराखंड में न्यूनतम वेतन भी बहुत कम है, जिस कारण लोग अपनी न्यूनतम ज़रूरतें भी बहुत मुश्किल से पूरी कर पा रहें हैं। लेकिन पूँजीवादी मीडिया इन समस्याओं पर बात करने के बजाए, हिन्दू-मुस्लिम, मन्दिर-मस्जिद के मुद्दे में आम मेहनतकश अवाम को उलझाने की कोशिश करती है। ऐसे में मेहनतकश अवाम को जाति-धर्म के भेदभाव को छोड़कर अपने वास्तविक मुद्दों जैसे महँगाई, बेरोज़गारी, न्यूनतम वेतन सहित शिक्षा-स्वास्थ्य-आवास के हक़-अधिकारों के लिए वर्गीय एकजुटता कायम करनी होगी। 'मज़दूर बिगुल' अख़बार इन्हीं उद्देश्यों को लेकर निकाला जाता है।

शनिवार की शाम को नोएडा फेज़ टू औद्योगिक क्षेत्र से सटे हुए नयागाँव की मज़दूर बस्ती में 'मज़दूर बिगुल' अख़बार का प्रचार अ...
09/12/2024

शनिवार की शाम को नोएडा फेज़ टू औद्योगिक क्षेत्र से सटे हुए नयागाँव की मज़दूर बस्ती में 'मज़दूर बिगुल' अख़बार का प्रचार अभियान चलाया गया। काफ़ी संख्या में मज़दूरों ने अख़बार लिया। अभियान के दौरान आज के राजनीतिक परिस्थित तथा दिन-ब-दिन दयनीय होती मज़दूर की जीवन स्थिती पर विस्तार से बातचीत हुई। फेज़ टू औद्योगिक क्षेत्र में काफ़ी बड़ी संख्या में मज़दूर काम करते हैं, पर कोई संगठन नहीं होने की वजह से फैक्ट्री मालिकों की मनमानी चुपचाप सहने को मजबूर हैं। अभियान के दौरान मज़दूरों के एक क्रान्तिकारी अख़बार की ज़रूरत पर भी विस्तार से बातचीत हुई।

प्रचार के दौरान कुछ संघी लगातार मज़दूरों को भड़काकर माहौल बिगाड़ने का प्रयास कर रहे थे, पर 'बिगुल मज़दूर दस्ता' के कार्यकर्ताओं ने अपनी सूझबूझ के साथ मज़दूरों को सही मुद्दों पर बातचीत करते हुए उनके मंशा को असफ़ल कर दिया।

आगे अलग-अलग मज़दूर बस्तियों में नियमित तौर पर 'मज़दूर बिगुल ' अख़बार के प्रचार अभियान को चलाने की बातचीत हुई।

🗞🗞🗞🗞🗞🗞🗞🗞*मज़दूर वर्ग की आवाज़ बुलन्द करने वाले अख़बार ‘मज़दूर बिगुल’ का नवम्‍बर 2024 अंक*📱 https://www.mazdoorbigul.net/...
09/12/2024

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*मज़दूर वर्ग की आवाज़ बुलन्द करने वाले अख़बार ‘मज़दूर बिगुल’ का नवम्‍बर 2024 अंक*
📱 https://www.mazdoorbigul.net/archives/17189
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मज़दूर बिगुल का नवम्‍बर 2024 अंक ऑनलाइन अपलोड हो चुका है। अंक के सभी लेखों के लिंक भी नीचे दिये हुए हैं व साथ ही अंक की पीडीएफ़ फ़ाइल का लिंक भी। *इस अंक पर आपकी टिप्पणियों का हमें इन्तज़ार रहेगा। मज़दूर वर्ग के अख़बार को और बेहतर बनाने के लिए क्या किया जा सकता है, इस पर अपनी राय हमें ज़रूर भेजें। आप बिगुल के लिए अपने फ़ैक्टरी, ऑफ़िस, कारख़ाने की कार्यस्थिति पर रिपोर्ट भी भेज सकते हैं।* कोई भी टिप्पणी या रिपोर्ट [email protected] पर मेल कर सकते हैं या फिर व्हाट्सऐप के माध्यम से 9892808704 पर प्रेषित कर सकते हैं। वैसे तो अख़बार का हर नया अंक हम नि:शुल्क आप तक पहुँचाते हैं पर हमारा आग्रह है कि आप प्रिण्ट कॉपी की सदस्यता लें। उसके बाद आपको हर नया अंक डाक के माध्यम से भी मिलता रहेगा। अगर आप पहले से सदस्य हैं और आपको डाक से बिगुल मिलने में समस्या आ रही है या आपका पता बदल गया है तो उसकी सुचना भी हमें ज़रूर दें।
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धन्यवाद
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मज़दूर बिगुल टीम
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🔹 *सम्पादकीय*
महाराष्ट्र में भाजपा-नीत गठबन्धन की जीत और झारखण्ड में कांग्रेस-नीत इण्डिया गठबन्धन की जीत के मज़दूर वर्ग के लिए मायने - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17143

🔹 *अर्थनीति : राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय*
अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार : पूँजीवाद के इतिहास से उपनिवेशवाद के ख़ूनी दाग़ साफ़ करने के प्रयासों का ईनाम / योगेश - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17152

🔹 *श्रम कानून*
अदालत ने भी माना : आँगनवाड़ीकर्मी हैं सरकारी कर्मचारी के दर्जे की हक़दार! / वृषाली - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17150

🔹 *फासीवाद / साम्‍प्रदायिकता*
अयोध्या और ज्ञानवापी के बाद अब सम्भल और अजमेर के ज़रिए ध्रुवीकरण बढ़ाने की तैयारी में जुटा फ़ासीवादी गिरोह !! / प्रियम्वदा - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17145

चुनावों में भाजपा के फ़र्ज़ी मुद्दों से सावधान! / भारत - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17182

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भाजपा गठबन्धन की भारी जीत! मज़दूर वर्ग की चुनौतियाँ बढ़ेंगी, ज़मीनी संघर्षों की तेज़ करनी होगी तैयारी! / अविनाश - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17181

देशभर में साम्प्रदायिक उन्माद और नफ़रत का माहौल बनाने में जुटे संघ और भाजपा / अदिति - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17151

🔹 *विशेष लेख / रिपोर्ट*
“हिन्दू जोड़ो यात्रा” के अगुवा बागेश्वर धाम के धीरेन्द्र शास्त्री के नाम एक सरोकारी हिन्दू का खुला पत्र - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17170

🔹 *आन्दोलन : समीक्षा-समाहार*
उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग के ख़िलाफ़ छात्रों के आन्दोलन से हम मजदूरों को क्या सीखना चाहिए? / अविनाश - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17164

🔹 *महान शिक्षकों की कलम से*
एंगेल्स – मज़दूरी व्यवस्था - https://www.mazdoorbigul.net/archives/4066

🔹 *विरासत*
विश्व सर्वहारा के महान क्रान्तिकारी शिक्षक एंगेल्स के जन्मदिवस (28 नवम्बर) पर / ध्रुव - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17174

🔹 *साम्राज्यवाद / युद्ध / अन्धराष्ट्रवाद*
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में धुर-दक्षिणपंथी डोनाल्ड ट्रम्प की अन्तरविरोधों से भरी जीत के राजनीतिक मायने / विवेक - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17177

🔹 *औद्योगिक दुर्घटनाएं*
मेट्रो रेल कॉरपोरेशन और प्रशासन की लापरवाही की वजह से पटना मेट्रो के निर्माण कार्य में लगे मज़दूरों की हुई मौतें / आकाश - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17185

🔹 *मज़दूर बस्तियों से*
कुसुमपुर पहाड़ी में मेहनतकशों-नौजवानों की जीवन स्थिति पर एक छात्र की चिट्ठी / सागर - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17157

🔹 *कला-साहित्य*
मुक्तिबोध की कविताओं के कुछ अंश - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17169

🔹 *मज़दूरों की कलम से*
बवाना के मज़दूर की चिट्ठी - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17159

ऑटोमोबाइल मज़दूर विकास की चिट्ठी - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17158
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07/12/2024
📮___________________📮*“हिन्दू जोड़ो यात्रा” के अगुवा बागेश्वर धाम के धीरेन्द्र शास्त्री के नाम एक सरोकारी हिन्दू का खुला...
07/12/2024

📮___________________📮
*“हिन्दू जोड़ो यात्रा” के अगुवा बागेश्वर धाम के धीरेन्द्र शास्त्री के नाम एक सरोकारी हिन्दू का खुला पत्र*
📱 https://www.mazdoorbigul.net/archives/17170
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श्रीमान धीरेन्द्र शास्त्री, मीडिया के हवाले से ख़बर मिली कि आप अपने क्षेत्र में “हिन्दू जोड़ो पदयात्रा” निकाल रहे हैं! भगवामय इस यात्रा द्वारा आपने “हिन्दू एकता” का आह्वान किया है। आपकी इस पहल के लिए मेरे पास कुछ ठोस सुझाव हैं। सुझाव क्या, कहिए तो सही मायने में यही ‘हिन्दू एकता’ का रास्ता है। इससे हिन्दुओं को बाँटने वाली ताक़त का ख़ात्मा हो जायेगा। करोड़ों-करोड़ हिन्दू आबादी हर रोज़ जिस ख़तरे का सामना करती है, उससे लोहा लेना ही होगा, तभी तो सही मायनों में “हिन्दू एकता” स्थापित हो सकती है!

*सबसे पहले सबसे ज़रूरी सुझाव*

हमने देखा है कि एक हिन्दू जो पैसे वाला है, कारख़ाना-मालिक है, पूँजीपति है, धनी व्यापारी है और दूसरा हिन्दू जो मज़दूर, मेहनतकश है, ग़रीब है, उनके बीच बहुत भारी अन्तर है। पहले वाला हिन्दू दूसरे वाले को न्यूनतम मज़दूरी नहीं देता, 8 घण्टेे के काम के दिन का अधिकार नहीं देता, उनके बोनस व अन्य लाभ चोरी कर-करके अपनी तिजोरी भर रहा है, जबकि दूसरा ग़रीब मेहनतकश मज़दूर हिन्दू उसके शोषण के जुए के नीचे पिस रहा है, जबकि अमीर मालिक-सेठ-व्यापारी हिन्दुओं की समस्त समृद्धि की बुनियाद में तो इस ग़रीब मेहनतकश हिन्दू की मेहनत और ख़ून-पसीना है! इन दोनों हिन्दुओं में एकता एक ही तरह से स्थापित हो सकती है: सारे हिन्दुओं को मेहनत-मशक़्क़त और शारीरिक श्रम करना चाहिए जिससे कि समाज की समूची सम्पदा पैदा होती है। अगर कुछ हिन्दू मालिक बने रहें और कुछ उनके मज़दूर, तो “हिन्दू एकता” कैसे स्थापित होगी?

शास्त्री जी इतने समझदार हैं, उनके पास तो ज्ञान की गंगोत्री है, तो वे सारे अमीर, मालिक, सेठ, व्यापारी, ठेकेदार हिन्दुओं को यह सन्देश क्यों नहीं देते कि सबसे पहले तो मज़दूरों के सारे क़ानूनी अधिकार उनको दें और सारे श्रम क़ानून लागू करें। और वैसे तो उन्हें कल-कारख़ानों, खेतों-खलिहानों, और खानों-खदानों पर सारे हिन्दुओं के सामूहिक मालिकाने का आह्वान करना चाहिए और कहना चाहिए कि जो मेहनत करे, वही रोटी खाये! अगर ऐसा हो जाये, तो शास्त्री जी भी समझते होंगे, कि “हिन्दू एकता” का उनका महान सपना पूरा हो जायेगा।

कल कारख़ानों, खानों-खदानों का मालिकाना कुछ हिन्दुओं के पास है, अम्बानी, अडानी जी जैसों के पास, और हिन्दुओं का एक बड़ा हिस्सा है, जो कारख़ानों में मजूरी करता है और बमुश्किल परिवार पाल पाता है, ज़्यादातर समय बेरोज़गार घूमता है, चप्पल फटकारता है, हालात बुरे हों तो जान तक देने पर मजबूर होता है! ऐसी स्थिति बनी रहेगी, तो भला “हिन्दू एकता” कैसे स्थापित होगी? एक हिन्दू दूसरे हिन्दू को लूटेगा, उसका शोषण करेगा, उसकी मेहनत की कमाई निगल जायेगा, अधिकार माँगने पर उसे गुण्डों और पुलिस से पिटवायेगा, उसका अपमान करेगा, तो फिर “हिन्दू एकता” कैसे स्थापित होगी?

हमें इस मामल में भी हिन्दुओं की एकता स्थापित करने की ज़रूरत है, असल में कहिए तो, सबसे पहले यहीं स्थापित करने की ज़रूरत है। एक हिन्दू मालिक और बहुत से हिन्दू आधुनिक दास हों, आखिर कैसे हिन्दुओं के बीच इस अन्तर को एक सच्चा हिन्दू बर्दाश्त करे!? इसलिए सब कल-कारख़ानों, खानों-खदानों, खेतों-खलिहानों का मालिकाना कुछेक हिन्दुओं के हाथों से लेकर 80 करोड़ हिन्दुओं के हाथों में दे देना होगा! तब होगी सही अर्थों में हिन्दुओं की एकता और तब होगा धीरेन्द्र शास्त्री जी का सपना पूरा!

जैसा कि हमने कहा, इसकी शुरुआत करते हुए सबसे पहले सभी हिन्दू मालिकों-ठेकेदारों को हिन्दू मज़दूरों के लिए न्यूनतम वेतन लागू कर, ठेका प्रथा का ख़ात्मा कर, पक्का रोज़गार देकर, आठ घण्टे काम व अन्य श्रम क़ानूनों को लागू कर एक सुन्दर और पावन धार्मिक पहल करनी चाहिए! अगर शास्त्री जी अपने हज़ारों-लाखों मालिक व ठेकेदार हिन्दू भक्तों को यह आदेश दे दें, तो क्या भला वे इस आदेश को टाल पायेंगे? नहीं!

तो अगर शास्त्री जी चाहें तो “हिन्दू् एकता” स्थांपित करने के लिए अपनी यात्रा को सभी औद्योगिक इलाकों व पूँजीपतियों के रिहायशी इलाकों से गुज़ारकर सभी मालिकों, ठेकेदारों, व्यानपारियों को यह प्रवचन दे सकते हैं और अपने भक्‍त मालिकों-ठेकेदारों को तो वे आदेश भी दे सकते हैं!

हर रोज़ हज़ारों हज़ार की संख्या में हमारे हिन्दू बच्चे इलाज़ के अभाव, ग़रीबी, बीमारी के कारण मारे जाते हैं। गाँव-देहातों से लेकर शहर के झुग्गी-झोपड़ी वाले इलाकों में रहने वाले अपने हिन्दू भाइयों-बहनों तक इलाज़ की पहुँच नहीं है। अब समय आ गया है, हिन्दुओं की स्वस्थ एकता यानी “स्वस्थ हिन्दू एकता” हासिल करने का! इसलिए अब से सभी हिन्दू लोगों का इलाज हिन्दू मालिकों के अस्पतालों में मुफ़्त किया जाये! अगर सारे हिन्दू अस्पताल मालिक धीरेन्द्र शास्त्री जी महाराज के आदेश पर यह कदम उठा दें, तो हिन्दू भाइयो-बहनो, ज़रा सोचिए, क्या चट्टानी “हिन्दू एकता” स्थापित होगी!

“हिन्दू एकता” बनाने के लिए एक और महत्वतपूर्ण कदम उठाना होगा! हिन्दुओं के बच्चे ही तो “हिन्दू राष्ट्र” को विश्वगुरु बनायेंगे! इसके लिए हिन्दू मालिकाने वाले तमाम निजी स्कूलों में हिन्दू बच्चों को मुफ़्त शिक्षा दी जाये, यह आह्वान श्री धीरेन्द्र शास्त्री को करना चाहिए। बच्चों की शिक्षा में हर प्रकार के अन्तर को ख़त्म कर सभी हिन्दू बच्चों के लिए, चाहे वह राष्ट्रपति की सन्तान हो या किसी सन्तरी की, सबको एक समान मुफ़्त शिक्षा दी जाये, और “हिन्दू एकता” की नींव बचपन से ही मज़बूत की जाये!

हिन्दुओं की काफ़ी ताक़त सड़कों पर बरबाद हो रही है! कई करोड़ हिन्दू फ़ुटपाथ पर सोने के लिए मजबूर हैं! उनके पास अपना कोई घर नहीं है! हमें “हिन्दू एकता” स्थापित करनी है, इसलिए इन सभी हिन्दुओं को अपने साथ लेना होगा! इसके लिए आलीशान कोठियों, बंगलों, बड़े-बड़े होटलों, सरायों, जागीरों के हिन्दू मालिक, व्यापक “हिन्दू एकजुटता” स्थापित करने के लिए, अपने हिन्दू भाइयों-बहनों के लिए, अपने बंगलों, कोठियों, होटलों के दरवाज़े खोल दें, और उनकी रिहायश का इन्तज़ाम करें! उनको ख़ुद रहने के लिए 3-4 कमरे ही तो चाहिए! बड़ा संयुक्त परिवार हो तो 6-7! लेकिन उसके बाद भी उनके बंगलों और फार्म हाउसों में कमरों और जगह की भरमार है। सारे हिन्दू बिल्डरों को अपने ख़ाली पड़े लाखों फ़्लैट ग़रीब मेहनतकश हिन्दू आबादी में बाँट देने चाहिए! ज़रा सोचिए, शास्त्री जी! अगर हिन्दुओं के बीच बेघरी ख़त्म हो जाये, तो कैसी अभूतपूर्व “हिन्दू एकता” क़ायम हो सकती है!

सभी हिन्दू नेताओं-नौकरशाहों के बच्चे जो विदेशों में शिक्षा या नौकरी कर रहे हैं, उनको तत्काल वापस बुलाया जाये! उनकी पढ़ाई “हिन्दू राष्ट्र” के गुरुकुलों में होगी, तभी तो शक्तिवान होगा “हिन्दू राष्ट्र” और “हिन्दू एकता”!

“रामराज्य” में मर्यादा और धार्मिक उत्था‍न को आगे बढ़ाने और गन्दे-गन्दे विचारों के आगमन को रोकने के लिए हिन्दू पुरुषों व स्त्रियों के लिए धोती-कुर्ता व साड़ी अनिवार्य कर दी जाये! देश के सभी देशी-विदेशी कारख़ाने, जो पाश्चात्य शैली के वस्त्रों का निर्माण करते हैं, उनपर तत्काल ही ताला लटका दिया जाये! बल्कि ऐसे कारख़ानों के मालिक अगर हिन्दू हों, तो उन्हें ख़ुद खादी उद्योग में लग जाना चाहिए और पाश्चात्य वस्त्रों, जूतों आदि के कारख़ानों की जगह खड़ाऊँ और धोती आदि के कारख़ाने लगा लेने चाहिए! अगर शास्त्री जी यह बात मालिक हिन्दु़ओं को समझा दें, तो कोई शक्ति “हिन्दू एकता” के बनने में आड़े नहीं आ सकती!

“हिन्दू जोड़ो यात्रा” में सबसे पहले जात-पाँत को पूरी तरह से ख़त्म किया जाये। अगर हिन्दू एक है, तो फिर विभिन्न जातियाँ क्यों? “हिन्दू एकता” की पहली शर्त है, हिन्दुओं के जातिगत बँटवारे, ऊँच-नीच, छुआ-छूत, आदि का ख़ात्मा! इसके लिए धीरेन्द्र शास्त्री महाराज को सबसे पहले मिसाल पेश करनी चाहिए और यह घोषणा कर देनी चाहिए कि उन्होंने जात-पाँत का पूर्णत: त्याग कर दिया है! आज भी हिन्दुओं का एक हिस्सा हिन्दुओं के दूसरे हिस्से का छुआ पानी नहीं पी सकता। हिन्दुओं का एक हिस्सा, दूसरे हिस्से के इलाक़े से अपनी बारात पर घोड़ी पर बैठकर नहीं जा सकता, यहाँ तक की मूछें तक नहीं रख सकता। इसलिए शास्त्री जी को “हिन्दू एकता” स्थापित करने के लिए सबसे पहले तो इस जातिवाद, ऊँच-नीच के ऊपर बुलडोज़र चलाना होगा! सुना है आपको भी बुलडोज़र से बड़ा लगाव है!

हिन्दू एकता के लिए धीरेन्द्र शास्त्री महाराज को सबसे पहले तो अन्तरजातीय विवाह को बढ़ावा देना चाहिए और एक मिसाल पेश करने के लिए अपनी किसी प्रवचन सभा में ही कुछ दर्जन अन्तरजातीय प्रेमी जोड़ों के बीच जन्म-जन्मान्तर का रिश्ता स्थापित कर देना चाहिए।

उनको सरकार से माँग उठानी चाहिए कि तमाम जाति-आधारित राजनीतिक मंचों, संगठनों को ख़त्म करने के लिए उनकी प्रिय सरकार संवैधानिक संशोधन करे। जो भी पार्टी या नेता चुनाव के लिए जाट-गैर जाट, मराठा-गैर मराठा, अगड़ा-पिछड़ा, आदि करता है, वह तो “हिन्दू एकजुटता” को कमज़ोर कर रहा है! ऐसी पार्टियों तथा नेताओं का पूर्णतया बहिष्कार करें, यह आह्वान शास्त्री जी को अपनी सभाओं में कर देना चाहिए! यह रोड़ा रास्ते से हट जाये, तो समझ लो बनी गयी “हिन्दू एकता”!

श्री धीरेन्द्र शास्त्री जी महाराज! यदि आप सही अर्थों में हिन्दुओं की एकता के हामी हैं तो आइए इन बिन्दुओं के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया जाये! मुझे पूरा भरोसा है कि शास्त्री जी “हिन्दू एकजुटता” के लिए आवश्यक ये कदम अवश्य उठायेंगे! शास्त्री जी की जय हो!

आपका तुच्छ सेवक और परम शिष्य,

त्रिविक्रमा वक्रदृष्टि





मज़दूर बिगुल, नवम्‍बर 2024
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📮___________________📮*अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार : पूँजीवाद के इतिहास से उपनिवेशवाद के ख़ूनी दाग़ साफ़ करने के प्रयास...
06/12/2024

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*अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार : पूँजीवाद के इतिहास से उपनिवेशवाद के ख़ूनी दाग़ साफ़ करने के प्रयासों का ईनाम*
✍ योगेश
📱 https://www.mazdoorbigul.net/archives/17152
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साल 2024 के अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार 3 अमेरिकी अर्थशास्त्रियों को दिया गया है। नोबेल समिति के अनुसार, डैरोन ऐसमोग्लू, साइमन जॉनसन और जेम्स रॉबिन्सन को यह पुरस्कार इस विषय पर उनके शोध के लिए दिया गया है कि “विभिन्न देशों में आय के बीच अन्तर इतना बड़ा और इतना स्थायी क्यों है?”

ये और बात है कि उनके द्वारा विकसित सिद्धान्त और उसके परिणामस्वरूप उनके द्वारा दिये गये राजनीतिक नुस्खे, दोनों ही त्रुटिपूर्ण हैं। इसके बावजूद उन्हें अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार के इतिहास और उद्देश्य की निरन्तरता को जारी रखते हुए नवाज़ा गया है : उन लोगों को मान्यता देने के लिए जो जाने या अनजाने पूँजीवाद के अस्तित्व को उचित ठहराते हैं या इसे ‘कम बुरा’ बनाने के उपाय प्रदान करने का प्रयास करते हैं, कोई सुधार, कोई पैबन्दसाज़ी कर मौजूदा मानवद्रोही व्यवस्था में ही कुछ बेहतरी चाहते हैं। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो आम तौर पर ऐसा ही हुआ है।

इस बार का पुरस्कार भी कुछ और नहीं बल्कि आज के समय में शासक वर्ग की शैक्षणिक और बौद्धिक आवश्यकताओं को दर्शाता है। यहाँ हम अपना ध्यान इन अकादमीशियनों द्वारा प्रस्तावित सिद्धान्त के दिवालियेपन पर केन्द्रित करेंगे और दिखलायेंगे कि न सिर्फ़ यह सिद्धान्त ऐतिहासिक तौर पर ग़लत ठहरता है बल्कि यह सचेतन तौर पर पूँजीवाद को उसके ऐतिहासिक अपराधों और करोड़ों लोगों के ख़ून से रंगे उसके हाथों को छिपाने का प्रयास मात्र है।

पुरस्कृत अकादमीशियन नव संस्थागत अर्थशास्त्र (New Institutional Economics) से आते हैं जिनका आर्थिक विकास की व्याख्या करने के लिए संस्थाओं के बीच, संस्थाओं और व्यक्तियों के बीच के परस्पर सम्बन्ध पर विशेष ज़ोर होता है। इसके अलावा इनके अनुसार आर्थिक विकास में राज्य की निष्क्रिय भूमिका नहीं होती है। यहां ‘संस्थाओं’ से तात्पर्य देश में उत्पादन के क़ायदे–क़ानूनों से है; इसमें उनका सूत्रीकरण करने वाली और उनको लागू करने वाली संस्थाएँ और सबसे महत्वपूर्ण स्वयं सरकार व उसके निकाय शामिल हैं। उदाहरण के लिए, निजी सम्पत्ति की सुरक्षा के क़ानून, अनुबन्धों की प्रवर्तनीयता, राज्य की प्रभावशीलता, आदि।

इनके अनुसार किसी भी राष्ट्र की समृद्धि उसके राजनीतिक संस्थानों का चरित्र और उनकी प्रभावशीलता पर निर्भर करती है और उस राष्ट्र की आर्थिक संस्थाएँ मूल रूप से इन राजनीतिक संस्थाओं पर निर्भर करती हैं। ये आर्थिक संस्थाएँ पलटकर उन राजनीतिक संस्थाओं को मज़बूत बनाती हैं। यानी यह एक “सुचक्र” (“virtuous cycle”) है। उनके अनुसार, यदि आर्थिक विकास का अध्ययन किया जाये तो भूगोल, तकनीक, आदि केवल एक निष्क्रिय भूमिका निभाते हैं।

इसके अलावा, वे कहते हैं कि उपनिवेशवादियों द्वारा स्थापित संस्थाएँ किस तरह की थीं, यह बात उस देश की समृद्धि में निर्णायक भूमिका निभाती है। यानी कि यदि उपनिवेशवादियों ने किसी देश या महाद्वीप में बसने की योजना बनायी तो वे वहाँ ‘समावेशी’ संस्थाएँ स्थापित करते हैं जो मुक्त प्रतिस्पर्धा, आविष्कार और निवेश सुनिश्चित करती हैं, और इनके परिणामस्वरूप आर्थिक विकास होता है। इसका उल्टा भी सच है। यदि उपनिवेशवादियों का मक़सद बसना नहीं है तो वे उपनिवेश को केवल निचोड़ने वाली संस्थाएँ स्थापित करते हैं जो अनिवार्य रूप से शोषक होती हैं और मुक्त प्रतिस्पर्धा, नवाचारों में बाधा डालती हैं और निवेश को हतोत्साहित करती हैं, इसलिए आर्थिक प्रगति बाधित होती है। यानी जहाँ कहीं यूरोपीय साम्राज्यवादी बस गये और वहाँ की मूल आबादी का उन्होंने जनसंहार करके एक ‘नया इंग्लैण्ड’, ‘नया फ्रांस’ आदि बसा लिया, वहाँ उन्होंने समावेशी संस्थाएँ बनायीं, उदार पूँजीवादी लोकतन्त्र खड़ा किया और नतीजतन वहाँ आर्थिक विकास हुआ! जबकि जिन देशों में उपनिवेशवादी स्थायी तौर पर बसे नहीं, ‘सेटल’ नहीं हुए, वहाँ बस उन्होंने उन देशों को लूटा और निचोड़ा और इस प्रकार वहाँ उसी के अनुसार निचोड़ने वाली संस्थाएँ बनायीं, नतीजतन, विकास को अवरुद्ध किया। अब आइए इस सिद्धान्त के दिवालियेपन को समझते हैं।

सबसे पहले तो उनका सिद्धान्त उपनिवेशवाद के रक्तरंजित इतिहास को साफ़ करने की कोशिश करता है। वे एक भी जगह उपनिवेशवाद द्वारा ग़ुलाम देशों के लोगों पर की गयी लूट, हत्या और अत्याचारों को ध्यान में नहीं रखते हैं। आश्चर्य की बात नहीं है कि पुरस्कार प्राप्त करने के बाद जीतने वाले एक अर्थशास्त्री ऐसमोग्लू ने कहा कि उपनिवेशवाद के कुकर्मों पर विचार करने में उनकी दिलचस्पी नहीं थी। उपनिवेशीकरण की रणनीतियों के जो निहितार्थ थे बस उन्हीं में उनकी दिलचस्पी थी। हालाँकि अगर इस स्पष्ट स्वीकारोक्ति को छोड़ भी दिया जाये तो वैज्ञानिक व ऐतिहासिक रूप में उनका सिद्धान्त अन्य जगहों पर भी बुरी तरह विफल होता है। मसलन, उपनिवेशवाद के परिणाम उपनिवेशवादी देशों और उपनिवेशों के लिए समान या सीधे समानुपाती नहीं होते हैं। सच्चाई तो यह है कि उपनिवेशवादी देश ग़ुलाम देशों की भूमि से कच्चा माल व अन्य प्राकृतिक संसाधन लूटते हैं, वहाँ की जनता का सस्ता श्रम निचोड़ते हैं और ग़ुलाम देशों की क़ीमत पर अपने देश को समृद्ध बनाते है। इसलिए, पश्चिमी उदार लोकतंत्र वाले साम्राज्यवादी देश, जिनकी ये नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री प्रशंसा करते नहीं थकते, उपनिवेशवाद की सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद, यानी दुनिया के तमाम देशों को गुलाम बनाकर और उन्हें लूटकर आर्थिक समृद्धि के वर्तमान स्तर पर पहुँचे हैं।

इन अर्थशास्त्रियों का शोध उत्पीड़ित और उत्पीड़क देश के लिए उपनिवेशवाद के परिणामों में अन्तर को ध्यान में नहीं रखता है। मसलन, इस बात पर ध्यान नहीं दिया जाता कि बंगाल के अकाल का ब्रिटेन और भारत पर समान प्रभाव नहीं पड़ा था। उल्टे बंगाल में अंग्रेज़ी राज के दौरान हुआ अकाल ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की उन नीतियों का परिणाम था, जिनका मकसद था भारत के श्रम व प्रकृति को लूटना और ब्रिटेन के पूँजीपति वर्ग को समृद्ध बनाना।

दूसरा, इस शोध से प्रतीत होता है मानो शोधकर्ता उपनिवेशवाद के ‘सकारात्मक’ और ‘नकारात्मक’ तत्वों की पड़ताल कर रहे हैं और ये बताने का प्रयास कर रहे हैं कि ‘अच्छे वाले उपनिवेशवाद’ के कुछ सकारात्मक भी थे! यहाँ उनका इशारा सेटलर उपनिवेशों की ओर है। यदि उपनिवेशवादियों ने बसने की योजना बनायी, जैसाकि न्यूज़ीलैण्ड, ऑस्ट्रेलिया या अमेरिका जैसे सेटलर उपनिवेशों (जहाँ पश्चिमी यूरोपीय आबादी आकर बसी) में हुआ, तो उपनिवेश बनाये गये देश में आर्थिक समृद्धि होगी क्योंकि तब उपनिवेशवादी उपनिवेशित भूमि पर ‘समावेशी’ संस्थाएँ स्थापित करेंगे। दूसरी ओर, उपनिवेशवादी उन जगहों पर महज़ उस देश को निचोड़ने वाली संस्थाएँ स्थापित करते हैं जहाँ वे बसने की योजना नहीं बनाते हैं, जैसा कि भारत में या मोटे तौर पर अफ्रीका के अधिकांश हिस्सों में हुआ है। यहां ‘समावेशी’ और ‘सारवत’ का उपयोग मुक्त बाज़ार प्रतिस्पर्धा, निजी सम्पत्ति की सुरक्षा, सरकारी संरचना आदि के चरित्र व उनकी उपस्थिति या अनुपस्थिति को परिभाषित करने के लिए किया गया है। सेटलर उपनिवेशों की ‘समावेशी’ संस्थाएँ इन नोबेल विजेता अर्थशास्त्रियों के अनुसार, मुक्त बाज़ार प्रतिस्पर्धा, सुरक्षित निजी सम्पत्ति अधिकार, एक कारगर उदार लोकतंत्र, नवोन्मेष, आविष्कार और निवेश को बढ़ावा देती हैं, जिससे आर्थिक समृद्धि होती है। जबकि ‘सारवत’ संस्थाएँ एकाधिकारवाद, सर्वसत्तावादी सरकारें, जवाबदेही के अभाव और मनमानेपन, आदि को जन्म देती हैं जो आर्थिक विकास में बाधा डालती हैं। ये झूठे और दरिद्र सिद्धान्त न सिर्फ अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों/महाद्वीपों की मूल आबादी के भयंकर जनसंहार की सच्चाई को छिपाते हैं, बल्कि ये इज़रायल जैसे आज के हत्यारे व निरंकुश नस्लवादी शासन को भी सही ठहराती है।

यह पूरा विश्लेषण किसी देश के ऐतिहासिक विकास पर उपनिवेशवाद के असर को ध्यान में नहीं रखता है। मिसाल के तौर पर, सबसे पहली बात तो यह है कि सेटलर उपनिवेशवाद ने जहाँ कहीं भी बसावट की वहाँ की स्थानीय आबादी को लगभग मिटा दिया और अगर कुछ आबादी बच गयी तो उसे भयंकर अत्याचार और दासत्व की स्थिति में रखा। इसलिए, जो ‘समावेशी’ संस्थाएँ नये सिरे से बनायी भी गयी होंगी, वे पश्चिमी उपनिवेशवादियों द्वारा लायी गयी थीं, उन्हीं के लिए थीं और वे स्थानीय आबादी के लिए तो कम से कम ‘समावेशी’ नहीं थीं, जिनके अस्तित्व को ही समाप्त किया जा रहा था। दूसरा, इस विश्लेषण में किसी देश भी की आन्तरिक गतिशीलता को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया गया है और बाहरी हस्तक्षेप (उपनिवेशवाद) को ग़ुलाम देश के आर्थिक विकास के लिए एक प्रेरक शक्ति के रूप में दिखाया गया है। यह न केवल आर्थिक प्रगति के लिए ग़ुलाम देशों द्वारा उपनिवेशित होने की आवश्यकता और सकारात्मकता स्थापित करने की कोशिश करता है, बल्कि उपनिवेशवादियों द्वारा उपनिवेशों पर अत्याचारों के इतिहास को मिटने का प्रयास करता है। इतिहास के सन्दर्भ में भी विश्लेषण निहायत कमज़ोर और ग़लत है क्योंकि, उदाहरण के लिए, भारत में पहले से ही पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के बीज जन्म ले चुके थे, जो कालान्तर में विकसित होते और भारत अपने रास्ते से सामन्तवाद से मुक्ति पाता, पूँजीवाद और पूँजीवादी लोकतन्त्र की ओर जाता। लेकिन जब यह प्रक्रिया शुरू ही हुई थी ठीक उसी समय ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने आक्रमण करना शुरू किया था। मुख्य रूप से किसी देश का विकास स्वयं उसकी उत्पादक शक्तियों (यानी मनुष्य, प्रकृति के बारे में उसकी जानकारी और प्रकृति को अपने उपयोग के अनुसार बदलने की उसकी क्षमता व उपकरण) और उत्पादन सम्बन्धों (इस प्रकार उत्पादन करने की प्रक्रिया में मनुष्यों के बीच बनने वाले सम्बन्ध) के अपने आन्तरिक संघर्ष से प्रेरित होते हैं। इसके अलावा, किसी देश में कौन सी संस्थाएँ हैं, यह विभिन्न दूसरे कारकों पर निर्भर करता है। ये कारक हैं किसी देश में उत्पादक शक्तियों व उत्पादन सम्बन्धों के बीच अन्तरविरोध की प्रकृति व चरण, उसके आधार पर पैदा होने वाला वर्ग संघर्ष, राजनीति, विचारधारा, संस्कृति, आदि। संस्थाएँ हवा में नहीं पैदा होती हैं। यह केवल “सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग” या बाहरी हस्तक्षेपकर्ताओं द्वारा थोपी गयी उदारता या मजबूरियों की बात नहीं है। नतीजतन, इन अर्थशास्त्रियों का समूचा विश्लेषण ही अनैतिहासिक नज़रिये से ग्रस्त है।

इसके अलावा, प्रस्तावित सिद्धान्त समाज के आर्थिक आधार और उसकी अधिरचना के बीच द्वन्द्व को समझने में विफल रहता है। यानी समाज में मौजूद उत्पादन पद्धति, उत्पादन सम्बन्ध व उत्पादक शक्तियों के बीच अन्तरविरोध और दूसरी ओर समाज में इस आर्थिक आधार पर खड़ी राजनीति, विचारधारा, कानून, संस्कृति आदि की खड़ी समूची अट्टालिका के बीच के रिश्ते के बारे में इन अर्थशास्त्रियों का सिद्धान्त उल्टा रिश्ता बिठा देता है। राजनीतिक संस्थाओं को आर्थिक संस्थाओं के मूलभूत निर्धारक के रूप में मानना न केवल सिर के बल खड़े होने के समान है, बल्कि यह इन संस्थाओं की उत्पत्ति, कारण और परिवर्तन की गति को भी तार्किक रूप में स्पष्ट नहीं कर सकता है। दूसरा, पश्चिमी उदार लोकतंत्रों के साथ हर देश की प्रगति की अनैतिहासिक तुलना करने और यह दिखलाने का उनका प्रयास कि उदार पूँजीवादी लोकतंत्र आर्थिक विकास के लिए सबसे उपयुक्त है, पूँजीवाद के भाड़े के कलमघसीट फ्रांसिस फुकोयामा के इस दावे को सिद्ध करने का एक दरिद्र प्रयास है कि पूँजीवाद मानवता के इतिहास का उच्चतम स्तर है। उनका यह तर्क कि उदार लोकतंत्र आर्थिक विकास के लिए एक पूर्वशर्त है, न सिर्फ़ सोवियत संघ (जिसमें उदार पूँजीवादी लोकतंत्र नहीं था बल्कि सर्वहारा लोकतन्त्र था) में 1917 से 1953 के बीच मज़दूर वर्ग की सत्ता की अभूतपूर्व आर्थिक सफलता की व्याख्या कर पाता है, न चीन में मज़दूर वर्ग की समाजवादी सत्ता की 1949 से 1976 के बीच भारी आर्थिक तरक्की की व्याख्या कर पाता है। बल्कि यह स्वयं उन देशों में पूँजीवादी खुली तानाशाही या सामाजिक-साम्राज्यवादी या सामाजिक फ़ासीवादी बुर्जुआ सत्ता के मातहत पूँजीवादी आर्थिक विकास की भी व्याख्या नहीं कर पाता है, जहाँ पूँजीपति वर्ग ने कोई उदार पूँजीवादी लोकतन्त्र नहीं क़ायम किया था। मसलन, 1976 के बाद का चीन (जो 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध से सामाजिक-फ़ासीवादी बनने के बावजूद तेज़ी से आर्थिक विकास कर रहा था), 1930 के दशक का नात्सी जर्मनी (जिसमें फ़ासीवादी तानाशाही थी), 1960 व 1970 के दशक से ताइवान और दक्षिण कोरिया (दोनों के आर्थिक विकास की ज़मीन सैन्य तानाशाही के दौरान विकसित हुई थी)। न ही यह सिद्धान्त इस बात की व्याख्या कर सकता है कि भारत एक पूँजीवादी लोकतंत्र होने के बावजूद (चाहे इसमें कितनी भी खामियाँ क्यों न हों) आर्थिक रूप से समृद्ध चीन से पीछे क्यों है, जो एक सामाजिक-फ़ासीवादी शासन है। यहाँ तक कि अरविन्द सुब्रमण्यम् जैसे बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों ने भी भारत और चीन के आर्थिक विकास के इतिहास की व्याख्या करने में असमर्थता के लिए इस सिद्धान्त की आलोचना की है, जहाँ दुनिया की आबादी का लगभग 35% हिस्सा बसता है। साथ ही, यह सिद्धान्त तमाम देशों में उन उदार पूँजीवादी संस्थाओं के ह्रास के कारणों की व्याख्या करने में असमर्थ है जिनकी वह इतने लगाव से सराहना करता है।

अगर इसी सिद्धान्त के तर्क को आगे बढ़ाया जाये और इतिहास पर लागू किया जाये तो हम देख सकते हैं कि इस सिद्धान्त में कोई निरन्तरता नहीं है। इन अर्थशास्त्रियों का दावा है कि पर्यावरण और प्रौद्योगिकी की आर्थिक विकास में सक्रिय भूमिका नहीं होती है और उपनिवेशवादियों की बसाहट योजना एक उपनिवेशित देश में संस्थाओं के विकास और चरित्र को निर्धारित करती है। लेकिन क्या यूरोपीय उपनिवेशवादी वहीं नहीं बसे जहाँ पर्यावरण उनके अनुकूल था? और अगर, इन तीनों के अनुसार, उपनिवेशवादियों की बसाहट ही संस्थाओं की ‘समावेशिकता’ को निर्धारित करती है तो अन्ततः यह किसी देश के प्राकृतिक संसाधन, अनुकूलनीयता व श्रम संसाधन ही वे कारक हैं जो ये निर्धारित करते हैं कि देश में उदार पूँजीवाद की तथाकथित ‘समावेशी’ संस्थाएँ होंगी या नहीं, और इसके आधार पर आर्थिक विकास होगा या नहीं!

व्यापक रूप से कहें तो यह सिद्धान्त पूँजीवाद के इतिहास पर उपनिवेशवाद व साम्राज्यवाद के ख़ूनी धब्बों को हटाने और पूँजीवाद को उत्पादन के सबसे उपयुक्त तरीक़े के रूप में दिखलाने का प्रयास करता है। इसे साम्राज्यवादी देशों व बैंकों द्वारा वित्तपोषित अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार मिला है, तो यह अकारण नहीं है और इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।







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