मज़दूर बिगुल Mazdoor Bigul

मज़दूर बिगुल Mazdoor Bigul मज़दूरों का मासिक अख़बार Workers' monthly newspaper
https://www.mazdoorbigul.net/
(1)

‘मज़दूर बिगुल’ का स्वरूप, उद्देश्‍य और जिम्मेदारियां
‘मज़दूर बिगुल’ व्‍यापक मेहनतकश आबादी के बीच क्रान्तिकारी राजनीतिक शिक्षक और प्रचारक का काम करता है। यह मज़दूरों के बीच क्रान्तिकारी वैज्ञानिक विचारधारा का प्रचार करेगा और सच्‍ची सर्वहारा संस्‍कृति का प्रचार करेगा। यह दुनिया की क्रान्तियों के इतिहास और शिक्षाओं से, अपने देश के वर्ग संघर्षों और मज़दूर आन्‍दोलन के इतिहास और सबक से मज़दूर वर्ग को पर

िचित करायेगा तथा तमाम पूंजीवादी अफवाहों-कुप्रचारों का भण्‍डाफोड़ करेगा।

मज़दूर बिगुल’ भारतीय क्रान्ति के स्‍वरूप, रास्‍ते और समस्‍याओं के बारे में क्रान्तिकारी कम्‍युनिस्‍टों के बीच जारी बहसों को नियमित रूप से छापेगा और ‘बिगुल’ देश और दुनिया की राजनीतिक घटनाओं और आर्थिक स्थितियों के सही विश्‍लेषण से मज़दूर वर्ग को शिक्षित करने का काम करेगा।
स्‍वयं ऐसी बहसें लगातार चलायेगा ताकि मज़दूरों की राजनीतिक शिक्षा हो तथा वे सही लाइन की सोच-समझ से लैस होकर क्रान्तिकारी पार्टी के बनने की प्रक्रिया में शामिल हो सकें और व्‍यवहार में सही लाइन के सत्‍यापन का आधार तैयार हो।

‘मज़दूर बिगुल’ मज़दूर वर्ग के बीच राजनीतिक प्रचार और शिक्षा की कार्रवाई चलाते हुए सर्वहारा क्रान्ति के ऐतिहासिक मिशन से उसे परिचित करायेगा, उसे आर्थिक संघर्षों के साथ ही राजनीतिक अधिकारों के लिए भी लड़ना सिखायेग, दुअन्‍नी-चवन्‍नीवादी भूजाछोर ”कम्‍युनिस्‍टों” और पूंजीवादी पार्टियों के दुमछल्‍ले या व्‍यक्तिवादी-अराजकतावादी ट्रेडयूनियनों से आगाह करते हुए उसे हर तरह के अर्थवाद और सुधारवाद से लड़ना सिखायेगा तथा उसे सच्‍ची क्रान्तिकारी चेतना से लैस करेगा। यह सर्वहारा की कतारों से क्रान्तिकारी भरती के काम में सहयोगी बनेगा।
‘मज़दूर बिगुल’ मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी शिक्षक, प्रचारक और आह्वानकर्ता के अतिरिक्‍त क्रान्तिकारी संगठनकर्ता और आन्‍दोलनकर्ता की भी भूमिका निभायेगा।

आज सुबह ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ द्वारा गोरखपुर में सूरजकुण्ड लेबर चौक पर दिहाड़ी मज़दूरों के बीच ‘मज़दूर बिगुल’ अखबार का प्रचार...
15/02/2025

आज सुबह ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ द्वारा गोरखपुर में सूरजकुण्ड लेबर चौक पर दिहाड़ी मज़दूरों के बीच ‘मज़दूर बिगुल’ अखबार का प्रचार अभियान चलाया गया। इस दौरान कई मज़दूरों ने ‘मज़दूर बिगुल’ लिया। मज़दूर बिगुल के कार्यकर्ताओं मज़दूरों को बताया कि दैनिक जागरण, अमर उजाला आदि अखबारों, टीवी-चैनलों, सोशल मीडिया आदि में मज़दूरों की खबरें नहीं होतीं। कभी-कभार मज़दूरों के मरने/दुर्घटनाग्रस्त या किसी बड़े हादसे पर कोई खबर आ जाती है। बाकी पूरा अखबार सरकार की नीतियों का झूठा गुणगान करने, फ़र्ज़ी विज्ञापनों आदि से भरा रहता है। इसका कारण यह है कि यह सारे अखबार, चैनल आदि धन्नासेठों के हैं। जो मज़दूरों का खून चूसकर मोटे होते रहते हैं। तमाम चुनावबाज पार्टियाँ इन धन्नासेठों के चन्दों से चुनाव लड़ती हैं, इसलिए इनमें से किसी की भी सरकार बने वो धन्नासेठों के हित में ही काम करती है। वर्तमान भाजपा सरकार ने तो मज़दूरों को निचोड़ने के लिए मालिकों को खुली छूट दे रखी है।

‘मज़दूर बिगुल’ मेहनतकश जनता के आर्थिक सहयोग से निकलता है और मज़दूर वर्ग का पक्ष चुनने वाले उनके सच्चे प्रतिनिधियों द्वारा तैयार किया जाता है। इसलिए ‘मज़दूर बिगुल’ न केवल देश-दुनिया के मज़दूरों के शोषण के कारणों को उजागर करता है बल्कि तात्कालिक तौर पर अपने हकों के लिए लड़ने के साथ-साथ पूँजीपतियों द्वारा मजदूरों के शोषण पर टिकी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए लम्बी लड़ाई के लिए भी शिक्षित करता है।

सभी जगहों की तरह सूरजकुण्ड के दिहाड़ी मज़दूरों की स्थिति बहुत खराब है। मज़दूरी 500 रुपये से लेकर 700 रुपये (मिस्त्री की) तक है। रोज़ काम नहीं मिलता। मजबूरी में मज़दूर इससे भी कम रेट पर काम करने जाते हैं। शहर के अलावा बहुत से मज़दूर आस-पास के इलाकों से आते हैं। वो गोरखपुर में कमरा लेकर रहते हैं। मज़दूरों ने बात करने के दौरान खुद कहा कि हमारी सबसे बड़ी समस्या एकता न होने की है। मज़दूरों ने सुझाव दिया कि यहाँ एक रेट बोर्ड लगाना चाहिए। वास्तव में दिहाड़ी मज़दूरों के काम के घण्टे, मज़दूरी, काम की परिस्थितियाँ कुछ भी तय नहीं होता। सब कुछ इनके श्रम को ख़रीदने वाले मालिक की मर्ज़ी पर होता है। अलग-अलग होने की वजह से इनकी मोलभाव करने की शक्ति भी बहुत कम होती है। काम पर दुर्घटनाओं या बीमारी की स्थिति में इन्हें कोई मुआवज़ा भी नहीं मिल पाता। अक्सर इन्हें दुर्व्‍यवहार और मार-पीट का भी सामना करना पड़ता है। ये किसी भी तरह की सामाजिक सुरक्षा से वंचित हैं।

बिगुल मज़दूर दस्ता की ओर से गत 1 फ़रवरी को हैदराबाद के जीडीमेटला औद्यागिक इलाक़े में स्थित रामी रेड्डी नगर में क्रांतिका...
02/02/2025

बिगुल मज़दूर दस्ता की ओर से गत 1 फ़रवरी को हैदराबाद के जीडीमेटला औद्यागिक इलाक़े में स्थित रामी रेड्डी नगर में क्रांतिकारी अख़बार मज़दूर बिगुल की हॉकिंग की गई। इस इलाके में हिन्दी पट्टी के हज़ारों मज़दूर सालों से काम कर रहे हैं। बेहतर रोज़गार की तलाश उन्हें अपने घर से दूर यहाँ ले आई है।

बिगुल मज़दूर दस्ता के सदस्‍यों ने आज की इस बढ़ती बेरोज़गारी, महँगाई, अस्थायी रोज़गार के दौर में मज़दूर बिगुल अख़बार पढ़ने की ज़रूरत को लेकर मज़दूरों से बात की। कुछ मज़दूरों ने अपनी निराशा ज़ाहिर की। साथियों ने बताया कि यह लड़ाई अकेले की नहीं है, मज़दूरों को अपनी क्रांतिकारी एकजुटता बनाने की ज़रूरत है और सामूहिक रूप से ही वे अपनी समस्याओं को हल कर सकते हैं । कई मज़दूरों ने अख़बार लिया और अपनी समस्याओं को लेकर बात भी की।

हर बार की ही तरह इस बार भी कई मज़दूरों ने अख़बार को लेकर उत्‍सुकता द‍िखायी, परन्‍तु ह‍िन्‍दी न पढ़ पाने की वजह से वे अख़बार नहीं ले सके।

🗞🗞🗞🗞🗞🗞🗞🗞*मज़दूर वर्ग की आवाज़ बुलन्द करने वाले अख़बार ‘मज़दूर बिगुल’ का दिसम्‍बर 2024 – जनवरी 2025 अंक*📱 https://www.maz...
30/01/2025

🗞🗞🗞🗞🗞🗞🗞🗞
*मज़दूर वर्ग की आवाज़ बुलन्द करने वाले अख़बार ‘मज़दूर बिगुल’ का दिसम्‍बर 2024 – जनवरी 2025 अंक*
📱 https://www.mazdoorbigul.net/archives/17258
➖➖➖➖➖➖➖➖
प्रिय साथियो,

मज़दूर बिगुल का दिसम्‍बर 2024 – जनवरी 2025 अंक ऑनलाइन अपलोड हो चुका है। अंक के सभी लेखों के लिंक भी नीचे दिये हुए हैं व साथ ही अंक की पीडीएफ़ फ़ाइल का लिंक भी। *इस अंक पर आपकी टिप्पणियों का हमें इन्तज़ार रहेगा। मज़दूर वर्ग के अख़बार को और बेहतर बनाने के लिए क्या किया जा सकता है, इस पर अपनी राय हमें ज़रूर भेजें। आप बिगुल के लिए अपने फ़ैक्टरी, ऑफ़िस, कारख़ाने की कार्यस्थिति पर रिपोर्ट भी भेज सकते हैं।* कोई भी टिप्पणी या रिपोर्ट [email protected] पर मेल कर सकते हैं या फिर व्हाट्सऐप के माध्यम से 9892808704 पर प्रेषित कर सकते हैं। वैसे तो अख़बार का हर नया अंक हम नि:शुल्क आप तक पहुँचाते हैं पर हमारा आग्रह है कि आप प्रिण्ट कॉपी की सदस्यता लें। उसके बाद आपको हर नया अंक डाक के माध्यम से भी मिलता रहेगा। अगर आप पहले से सदस्य हैं और आपको डाक से बिगुल मिलने में समस्या आ रही है या आपका पता बदल गया है तो उसकी सुचना भी हमें ज़रूर दें।
*अगर आप हमारे व्हाट्सऐप चैनल में अभी नहीं जुड़े हैं तो हमारा आपसे आग्रह है कि आप ज़रूर जुड़ें।* उससे दो फ़ायदे होंगे। आपको हर रोज़ दो-तीन लेख मिलते रहेंगे जिससे पढ़ने में आसानी रहेगी व साथ ही हर वक़्त पढ़ने के लिए इण्टरनेट की भी ज़रूरत नहीं पड़ेगी। व्हाट्सऐप पर एक बार आया संदेश आपके मोबाइल में सेव हो जाता है। इस व्हाट्सऐप ग्रुप में आपको सिर्फ़ मज़दूर बिगुल ही नहीं बल्कि अन्‍य क्रान्तिकारी पत्र-पत्रिकाओं के लेख व प्रगतिशील साहित्यकारों की रचनाएँ भी पढ़ने को मिलेंगे। अगर आप इस चैनल से जुड़ना चाहें तो तो इस लिंक पर जाकर हमारा व्हाट्सऐप चैनल ज्वाइन करें – https://www.mazdoorbigul.net/whatsapp चैनल ज्वाइन करने में कोई समस्या आये तो इस नम्बर पर अपना नाम और ज़िला लिखकर भेज दें - 9892808704
धन्यवाद
इन्क़लाबी सलाम के साथ
मज़दूर बिगुल टीम
हमारा फेसबुक पेज - https://www.facebook.com/mazdoorbigul
➖➖➖➖➖➖➖➖
(मज़दूर बिगुल के दिसम्‍बर 2024 – जनवरी 2025 अंक में प्रकाशित लेख। अंक की पीडीएफ़ फ़ाइल डाउनलोड करने के लिए यहाँ (https://www.mazdoorbigul.net/pdf/Bigul-2024-12-2025-01.pdf) क्लिक करें और अलग-अलग लेखों-ख़बरों आदि को यूनिकोड फ़ॉर्मेट में पढ़ने के लिए उनके शीर्षक पर क्लिक करें)

🔹 *सम्पादकीय*
नया साल मज़दूर वर्ग के फ़ासीवाद-विरोधी प्रतिरोध और संघर्षों के नाम! साम्राज्यवाद-पूँजीवाद के विरुद्ध क्रान्तिकारी संघर्षों के नाम! - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17211

🔹 *अर्थनीति : राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय*
उत्तर प्रदेश में बिजली विभाग को निजी हाथों में सौंपने पर आमादा योगी सरकार / अमित - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17223

मोदी राज में ‘अडानी भ्रष्टाचार – भ्रष्टाचार न भवति’ ! / वृषाली - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17231

भाजपा की वाशिंग मशीन : भ्रष्टाचारी को “सदाचारी” बनाने का तन्त्र! / अविनाश - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17204

🔹 *श्रम कानून*
लार्सन एण्ड टूब्रो कम्पनी के चेयरमैन की इच्छा : “राष्ट्र के विकास” के लिए हफ़्ते में 90 घण्टे काम करें मज़दूर व कर्मचारी! / केशव - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17214

आँगनवाड़ीकर्मी हैं सरकारी कर्मचारी के दर्जे की हक़दार! / वृषाली - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17237

🔹 *विशेष लेख / रिपोर्ट*
पाँच दिवसीय सातवीं अन्तरराष्ट्रीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी हैदराबाद में सम्पन्न हुई! फ़ासीवाद की सही समझ के साथ इसके विरुद्ध संघर्ष तेज़ करने का संकल्प - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17246

🔹 *मज़दूर आंदोलन की समस्याएं*
हालिया मज़दूर आन्दोलनों में हुए बिखराव की एक पड़ताल / भारत - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17216

🔹 *समाज*
चिन्मय स्कूल प्रशासन की आपराधिक लापरवाही से प्रिन्स की मौत, फिर भी स्कूल प्रशासन को बचाने में लगी दिल्ली पुलिस / लता - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17242

🔹 *बुर्जुआ जनवाद – दमन तंत्र, पुलिस, न्यायपालिका*
बढ़ती बेरोज़गारी के शिकार छात्रों-युवाओं पर टूटता फ़ासीवादी कहर – बिहार और उत्तराखण्ड में छात्रों पर बरसी लाठियाँ / ध्रुव - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17239

🔹 *बुर्जुआ जनवाद – चुनावी नौटंकी*
दिल्ली विधानसभा के चुनावी मौसम में चुनावबाज़ पूँजीवादी पार्टियों को याद आया कि ‘मज़दूर भी इन्सान हैं!’ / अजय - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17207

🔹 *औद्योगिक दुर्घटनाएं*
भोपाल गैस हत्याकाण्ड के 40 साल – मेहनतकशों के हत्याकाण्डों पर टिका मानवद्रोही पूँजीवाद!! - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17219

🔹 *मज़दूर बस्तियों से*
मज़दूर परिवार जान की गुहार लगाता रहा लेकिन प्रशासन चुनावी ताम-झाम में लगा रहा / गुरुदास, सिधानी (हरियाणा) - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17228

🔹 *गतिविधि रिपोर्ट*
राजधानी दिल्ली में एकजुट होकर अधिकारों के लिए आवाज़ उठायी मनरेगा मज़दूरों ने - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17224

🔹 *कला-साहित्य*
नाज़िम हिकमत के जन्मदिवस (15 जनवरी) पर कविता – कचोटती स्वतन्त्रता - https://www.mazdoorbigul.net/archives/2247
➖➖➖➖➖➖➖➖
*‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!*

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

सदस्यता के लिए ऑनलाइन भुगतान करें - https://payments.cashfree.com/forms/bigul-membership

ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020

बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

*आर्थिक सहयोग भी करें!*

प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।

ऑनलाइन आर्थिक सहयोग करें - https://payments.cashfree.com/forms/contribute-bigul

📮___________________📮_सभी मजदूर, मेहनतकश साथियों और मजदूर कार्यकर्ताओं के लिए एक जरूरी लेख_पढ़ें और पढ़ाएं*हालिया मज़दूर...
29/01/2025

📮___________________📮
_सभी मजदूर, मेहनतकश साथियों और मजदूर कार्यकर्ताओं के लिए एक जरूरी लेख_

पढ़ें और पढ़ाएं

*हालिया मज़दूर आन्दोलनों में हुए बिखराव की एक पड़ताल*
✍ भारत
📱 https://mazdoorbigul.net/archives/17216
➖➖➖➖➖➖➖➖
आज भारत में मज़दूर आन्दोलन देश स्तर पर बिखराव का शिकार है। क्रान्ति की शक्तियों पर प्रतिक्रान्ति की शक्तियाँ हावी हैं। यह सच्चाई है, जिसे समझकर ही हम मज़दूर आन्दोलन को फिर से खड़ा कर सकते हैं। लेकिन इस बिखराव के बावजूद मज़दूरों के स्वत:स्फूर्त संघर्ष अविराम जारी हैं। इन बिखरे स्वत:स्फूर्त संघर्षों को संगठित करने का काम ही आज मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी का प्रमुख कार्य है। लेकिन तमाम विजातीय प्रवृत्तियों (यानी मज़दूर आन्दोलन के भीतर मौजूद वे प्रवृत्तियाँ जो मज़दूर वर्ग नहीं बल्कि पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी करती हैं) का समय-समय पर मज़दूर आन्दोलन में उभार होता है, जिसके चलते आन्दोलन बिखरता रहता है। मालिकों का वर्ग इन्हीं रुझानों के ज़रिये हमारे और हमारे आन्दोलनों के भीतर घुसपैठ करता है। हाल-फिलहाल में भी इस तरह के कई मज़दूर संघर्ष हुए जो सही राजनीति, नेतृत्व व दिशा के अभाव में किसी न किसी शर्मनाक समझौते पर ही ख़त्म हुए या उसी ओर बढ़ रहे हैं। इस लेख में हम हाल में हुए इन आन्दोलनों और इनके बिखराव के कारणों पर बात करेंगे। इन आन्दोलनों का विश्लेषण करने से पहले संक्षिप्त में यह बात कर लेते हैं कि आज मज़दूर आन्दोलन के बिखराव के वस्तुगत कारण क्या हैं!

पिछले लम्बे अरसे से मज़दूर आन्दोलन जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है उसके वस्तुगत और मनोगत दोनों ही कारण हैं। वस्तुगत इस तौर कि पूँजीवादी व्यवस्था में मज़दूर वर्ग पर मालिकों के वर्ग और उनकी पूँजीवादी राज्यसत्ता द्वारा चौतरफ़ा हमले होते रहते हैं। मालिकों-पूँजीपतियों की नुमाइन्दगी करने वाली तमाम सरकारें और पूरी की पूरी पूँजीवादी राज्य मशीनरी मज़दूरों के शरीर से ख़ून का आख़िरी क़तरा भी निचोड़ लेने के लिए और उसे मुनाफ़े में तब्दील करने के लिए तमाम मज़दूर-विरोधी नीतियाँ और क़ानून बनाती और लागू करती हैं। भारत में 2014 में फ़ासीवादी मोदी सरकार के सत्तासीन होने के बाद से तो यह सिलसिला बेतहाशा तेज़ी से आगे बढ़ा है। आज पहले के मुक़ाबले पूँजी की ताक़तें मज़दूर वर्ग पर और अधिक हावी हैं। पूँजीपति वर्ग के मोदी-शाह की फ़ासीवादी सरकार के दौर में तेज़ हुए हमलों के समक्ष मज़दूर वर्ग अभी कोई प्रभावी प्रतिरोध नहीं कर पा रहा है। साथ ही, पिछले 3-4 दशकों में निजीकरण, उदारीकरण और भूमण्डलीकरण की नीतियों के कारण श्रम के अनौपचारिकीकरण, कारखानों के छोटे होते आकार और सरकार का खुलकर धन्नासेठों के पक्ष में आ खड़ा होना वे अन्य वस्तुगत कारण हैं, जिनके कारण मज़दूर आन्दोलन के सामने पहले से गम्भीर चुनौतयाँ मौजूद हैं।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद मनोगत प्रवृत्तियों को समझने के लिए हाल में हुए आन्दोलनों पर नज़र डालते हैं। बीते सितम्बर-अक्टूबर में मुख्यत: तीन आन्दोलन हुए, जिनपर हम बात करेंगे। पहला, वेतन बढ़ाने व यूनियन गठन करने को लेकर तमिलनाडु में सैमसंग के मज़दूरों की हड़ताल 7 सितम्बर से शुरू हुआ। एक महीने तक यह हड़ताल सीटू के नेतृत्व में जारी रही और अन्त में कुछ मामूली वेतन में बढ़ोत्तरी, हड़ताली मज़दूरों को काम से न निकालने और कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई न होने के आश्वासन के साथ यह हड़ताल एक समझौते के रूप में ख़त्म हो गयी। यूनियन बनाने की माँग को सैमसंग प्रबन्धन ने नहीं माना और इसपर कोर्ट में सुनवाई जारी है। यहाँ 1723 परमानेन्ट मज़दूर काम करते हैं, जिसमें से 1350 मज़दूर हड़ताल में शामिल थे। बाक़ी ठेके पर कार्यरत मज़दूर आन्दोलन में शामिल नहीं थे, क्योंकि कोई भी केन्द्रीय ट्रेड यूनियन फेडरेशन उन्हें कभी संगठित करने का प्रयास ही नहीं करता; यह इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियन फेडरेशनों का सरकार से एक प्रकार का समझौता है कि ठेका व अस्थायी मज़दूरों को वे नहीं छुएँगी। सीटू ने इस पूरे संघर्ष को गड्ढे में धकेलने का काम किया, जो किसी भी तरह से समझौता करवाने पर आमादा थी। बता दें कि सीपीएम ने तमिलनाडु की स्टालिन सरकार को भी अपना समर्थन दिया हुआ है जो जी-जान से हड़ताल को तोड़ने में सैमसंग प्रबन्धन के साथ लगी हुई थी। लाल झण्डे की आड़ में ये संशोधनवादी मज़दूरों के बीच में मालिकों और पूँजीपतियों के घुसपैठिये और लफ़्फ़ाज़ होते हैं। संसद में बैठे इनके बड़े नेता मज़दूर-हितों पर भाषण देने के अलावा सारी मज़दूर-विरोधी नीतियों के बनने में साथ देते हैं। दूसरी तरफ़ निचले स्तरों पर इन यूनियनों के नेता मज़दूरों से कमीशन तो खाते ही हैं, समझौते के नाम पर मालिकों से भी पैसा लेते है। चुनावी पार्टियों से जुडी ट्रेड यूनियनें ज़्यादा से ज़्यादा एक दिन की रस्मी हड़तालें ही करती हैं। और वह भी इसलिए कि वह भी संगठित क्षेत्र के 7-8 प्रतिशत मज़दूरों के बीच उनकी कुछ ज़मीन बची रहे। असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों यानी ठेका, केजुअल, एप्रेन्टिस मज़दूरों की माँग इनके माँगपत्रक में निचले पायदान पर जगह पाती है और इस क्षेत्र के मज़दूरों का इस्तेमाल महज़ भीड़ जुटाने के लिए किया जाता है। यह तमाम केन्द्रीय ट्रेड यूनियन मज़दूर वर्ग से गद्दारी के रास्ते पर बहुत आगे जा चुके हैं।

(सैमसंग आन्दोलन में भी सीटू की गद्दारी के बारे में विस्तार से जानने के लिए मज़दूर बिगुल का अक्टूबर, 2024 का अंक देखे - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17104)

दूसरा आन्दोलन उत्तराखण्ड के पंतनगर में अक्टूबर में शुरू हुआ। मज़दूर काम से निकाले जाने, न्यूनतम वेतन, बोनस आदि जैसे श्रम क़ानूनों को लागू करवाने हेतु संघर्षरत थे। यह संघर्ष क़रीब दो महीने चला और आख़िरी के 37 दिनों में कई मज़दूर आमरण अनशन कर रहे थे। बीते 26 नवम्बर को स्थानीय भाजपा विधायक के आश्वासन के बाद इस आन्दोलन को वापस ले लिया गया। अभी तक न तो सभी मज़दूरों को काम पर वापस लिया गया है और न ही अभी तक इस कम्पनी में श्रम क़ानूनों को लागू किया गया है। वहीं निराशा में कई मज़दूरों ने अब कम्पनी से अपना हिसाब भी ले लिया है। यही दर्शाता है यह आन्दोलन वैचारिक तौर पर कितना कमज़ोर था। इस पूरे आन्दोलन में अपने आपको मज़दूरों का “इन्क़लाबी केन्द्र” बताने वाला संगठन भी शामिल था। यह आन्दोलन अपने हर चरण में भटकाव का ही शिकार रहा। इसलिए कभी धनी किसानों के संगठनों के दम पर आन्दोलन में जान फूँकने कि कोशिश होती, तो कभी अन्य चुनावबाज़ पार्टियों तक से भी आन्दोलन में शामिल होने की अपील की जाती रही। इस पूरे आन्दोलन में इन्क़लाबी मज़दूर केन्द्र की भागीदारी प्रमुखता से रही। इसने इनकी वैचारिक दरिद्रता को पुख़्ता कर दिया और दुबारा यह स्पष्ट हो गया किसी आन्दोलन को नेतृत्व देने के बजाय स्वत:स्फूर्तता का पिछलग्गू बनना ही इनका “इन्क़लाब” है। अपने आप को “इन्क़लाबी” बताने वाला यह संगठन मज़दूर आन्दोलन में जुझारू अर्थवाद का ही पैरोकार है। इससे पहले गुड़गाँव में चले बेलसोनिका के आन्दोलन को भी इस संगठन ने अर्थवाद के गड्ढे में धकेल दिया था। अतीत में भी मारुति से लेकर हीरो, हिताची जैसे कई सम्भावना-सम्पन्न संघर्षों में इन्होंने अपने निहायती अवसरवादी चरित्र को दिखलाया है और इन आन्दोलनों असफ़लता के दलदल में डुबाने का काफ़ी श्रेय इन “इन्क़लाबी कॉमरेडों” भी जाता है। आम तौर पर, एक क्रान्तिकारी संगठन का काम मज़दूर आन्दोलन और मज़दूर जनसमुदायों में मौजूद बिखरे सही विचारों को व्यवस्थित करना और उसके आधार पर एक सही राजनीतिक लाइन को सूत्रबद्ध करना और उसके आधार पर आन्दोलन को नेतृत्व देना होता है, न कि हर प्रकार की स्वत:स्फूर्त प्रवृत्तिके पीछे अवसरवादी तरीके सेघिसटना। इस प्रकार के अराजकतावादी व अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी (जो मज़दूर आन्दोलन में एक सही राजनीतिक लाइन व नेतृत्व की आवश्यकता को नहीं पहचानते और स्वत:स्फूर्तता की पूजा करते रहते हैं) संगठन मसलन “इंक़लाबी” केन्द्र और “सहयोग” केन्द्र अपनी इन्हीं विजातीय रुझानों के कारण पहले भी कई आन्दोलनों को नुकसान पहुँचा चुके हैं। (भारत के मज़दूर आन्दोलन में मौजूद इस जुझारू अर्थवाद की प्रवृत्ति के बारे जानने के लिए बिगुल में लिखित अर्थवाद लेखमाला को ज़रूर पढ़ें - https://www.mazdoorbigul.net/archives/category/article-series/economism-article-series)

तीसरा आन्दोलन जो अब भी जारी है और एक संकट का शिकार है, वह है मारुति से निकाले गये मज़दूरों का काम पर वापसी के लिए संघर्ष। बीते 18 सितम्बर से मारुति मानेसर प्लाण्ट (हरियाणा) के वर्ष 2012 से बर्ख़ास्त मज़दूर अपनी कार्यबहाली, झूठे मुक़दमों की वापसी और 18 जुलाई की घटना की स्वतन्त्र जाँच की माँग के लिए मानेसर तहसील पर अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे हुए हैं। बीच-बीच में कुछ रैलियों और सभाओं के माध्यम से यह आन्दोलन को तेज़ करने की कोशिश करते हैं, पर खींचतान कर भी 200-300 से अधिक जुटान नहीं हो पाता। अन्य दिनों में धरने पर सिर्फ़ 40-50 लोग ही मौजूद रहते हैं। कहने के लिए इन्होंने मारुति में कार्यरत ठेका मज़दूरों की माँगें भी शामिल की, पर इनको संगठित करने के लिए इनके पास कोई ठोस योजना नहीं है। साथ ही इस पूरे धरने में मारुति सुजुकी मज़दूर संघ की गद्दारी भी खुलकर सामने आ गयी, जिसने प्रबन्धन के साथ वार्ता पर परमानेन्ट मज़दूरों के वेतन में बढ़ोतरी करवा ली, पर अस्थायी- ठेका व काम से निकाले गये मज़दूरों की माँगों को नहीं उठाया।

ज्ञात हो कि 18 जुलाई 2012 को प्रबन्धन के अधिकारी की मौत के बाद यूनियन को ख़त्म करने के लिए मैनेजमेण्ट ने षड्यन्त्रकारी तरीक़े से 546 स्थायी व 1800 ठेका मज़दूरों को निकाल दिया था और 148 मज़दूरों को जेल भेज दिया गया था। फिर सबूतों के अभाव में 5 साल जेल में बिताने के बाद 117 मज़दूरों को बाइज़्ज़त बरी कर दिया गया। लेकिन यूनियन के 12 पदाधिकारियों और एक मज़दूर जिया लाल समेत 13 मज़दूरों को उम्रक़ैद की सज़ा सुनायी गयी। फिर 10 साल जेल में बिताने के बाद ज़मानत हासिल हुई। इस तरह 10 साल लम्बे क़ानूनी संघर्ष के बाद 2022 में बर्ख़ास्त मज़दूरों ने ज़मानत के बाद एक बार फिर से कार्यबहाली, केस वापसी और घटना की निष्पक्ष जाँच की माँग को लेकर 18 जुलाई घटना की बरसी के मौक़ों पर धरना-प्रदर्शन के ज़रिये प्रमुखता से उठाना शुरू कर दिया। बता दें कि इसके नेतृत्व पर मज़दूर “सहयोग” केन्द्र नामक संगठन का प्रभाव है। साथ ही “इन्क़लाबी कॉमरेड” भी इनके “सहयोग” में है। यह संगठन भी मज़दूरों की राजनीतिक चेतना का विकास करने की बजाय पुछल्लावाद का शिकार है। इनकी सोच है कि मज़दूर आबादी स्वयं जो भी करेगी वह सही करेगी और इसमें उन्हें सही राजनीतिक लाइन व राजनीतिक नेतृत्व की आवश्यकता नहीं है, या वे स्वयं ही इसे स्वत:स्फूर्त रूप से निर्मित कर लेंगे। लेकिन फिर आप भी वहाँ किसलिए हैं? ज़ाहिर है, मज़दूर आन्दोलन और मज़दूर जनसमुदायों व आम तौर पर जनता से ही क्रान्तिकारी संगठन सीखता है, लेकिन वह जनता के बीच बिखरे सही विचारों को केन्द्रीकृत करता है, व्यवस्थित करता है और एक सही राजनीतिक लाइन को उसी के आधार पर निर्मित कर उसे नेतृत्व देता है। इसमें केवल सीखने के पहलू पर ज़ोर देना अराजकतावाद व संघाधिपत्यवाद है, जबकि केवल दूसरे पहलू पर ज़ोर देना हिरावलपन्थ। मज़दूर वर्ग का क्रान्तिकारी संगठन न तो मज़दूर जनसमुदायों में मौजूद हर रुझान के पीछे पुछल्ला बनकर चल सकता है, और न ही वह मज़दूर जनसमुदायों में ही मौजूद बिखरे, अव्यवस्थित व विकेन्द्रित सही विचारों को एकत्र, व्यवस्थित व केन्द्रीकृत किये, उन्हें नेतृत्व दे सकता है। मज़दूर सहयोग केन्द्र व इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र जैसे संगठन वास्तव में स्वत:स्फूर्ततावाद, अर्थवाद और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद के शिकार हैं और यही वजह है कि तमाम आन्दोलनों में उनकी भूमिका नकारात्मक रही है। मसलन, 2012 से लेकर आज तक मारुति के आन्दोलन को गड्ढे में डालने में मज़दूर सहयोग केन्द्र ने पूरा सहयोग दिया है। (मारुति आन्दोलन और मज़दूर सहयोग केन्द्र की अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी राजनीति के बारे में बिगुल के पिछले अंकों में विस्तार से लिखा जा चुका है। - https://www.mazdoorbigul.net/archives/category/movements-sumup-critque/maruti-movement)

इन आन्दोलनों की असफ़लता या उनके जारी संकट के पीछे और आम तौर पर मज़दूर आन्दोलन के समक्ष उपस्थित इस संकट में ऐसे कारणों को समझना ज़रूरी है जो स्वयं आन्दोलन के भीतर मौजूद हैं। ऐसी कई प्रवृत्तियाँ आन्दोलन के भीतर मौजूद हैं जो अन्दर से मज़दूरों के संघर्षों को कमज़ोर और खोखला बनाती जाती हैं। ऐसी विजातीय प्रवृत्तियाँ पूरी दुनिया के मज़दूर आन्दोलनों में इतिहास से लेकर आज तक मौजूद रही हैं। अपनी अन्तर्वस्तु में यह प्रवृत्तियाँ मालिकों और पूँजीपतियों के विचारों यानी कि बुर्जुआ विचारधारा से प्रेरित होती हैं और मज़दूर आन्दोलन में, सचेतन या अचेतन तौर पर, पूँजीपति वर्ग के पक्ष की नुमाइन्दगी करती हैं और इसी वर्ग की सेवा करती हैं।

पहली बात तो हमें यह समझ लेना चाहिए कि आज के दौर के अलग-अलग कारख़ानों में अलग से हड़ताल करके जीतना पहले के मुकाबले कहीं ज़्यादा मुश्किल है। अगर आज मज़दूर आन्दोलन को आगे बढ़ाना है तो समूचे सेक्टर, या ट्रेड यानी, समूचे पेशे, के आधार पर सभी मज़दूरों को अपनी यूनियन व संगठन बनाने होंगे। इसके ज़रिये ही कारख़ानों में यूनियनों को भी मज़बूत किया जा सकता है और कारख़ाना-आधारित संघर्ष भी जीते जा सकते हैं। इसी आधार पर ठेका, कैजुअल, परमानेन्ट मज़दूरों को साथ आना होगा और अपने सेक्टर और इलाक़े का चक्का जाम करना होगा। तभी मालिकों और सरकार को झुकाया जा सकता है। एक फैक्ट्री के आन्दोलन तक ही सीमित होने के कारण उपरोक्त तीनों आन्दोलन आगे नहीं बढ़ सके। ऐसी पेशागत यूनियनों के अलावा, इलाकाई आधार पर मज़दूरों को संगठित करते हुए उनकी इलाकाई यूनियनों को भी निर्माण करना होगा। इसके ज़रिये पेशागत आधार पर संगठित यूनियनों को भी अपना संघर्ष आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी।

दूसरी दिक्कत है सही राजनीतिक नेतृत्व का न होना। इससे ही यह सवाल निकलता है कि मज़दूर आन्दोलन में वह कौन सी प्रवृत्तियाँ हैं, जो मज़दूर आन्दोलन के सही नेतृत्व के विकसित होने में रुकावट हैं। हमने ऊपर इनमें दो प्रमुख रुझानों की चर्चा की है: संशोधनवादी अर्थवाद और समझौतापरस्ती जो संसदीय वामपंथी पार्टियों की ट्रेड यूनियनें करती हैं, और, अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी अर्थवाद और स्वत:स्फूर्ततावाद, जिसे इंकलाबी मज़दूर केन्द्र और मज़दूर सहयोग केन्द्र जैसे संगठन अमल में लाते हैं। दोनों ही प्रवृत्तियाँ अवसरवाद की विभिन्न किस्मों को दिखलाती हैं। यह भी ग़ौरतलब है कि अस्थायी मज़दूरों संगठित करना और उनकी माँगों को प्राथमिकता देते हुए संघर्ष को नये सिरे से खड़ा करना दोनों ही प्रवृत्तियों के लिए कोई मसला नहीं बनता है।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद सबसे प्रमुख विजातीय प्रवृति है अर्थवाद। यह प्रवृत्ति उपरोक्त तीनों आन्दोलन में भी मौजूद थी। अर्थवाद दरअसल मज़दूरों के लिए केवल आर्थिक संघर्ष को ही, यानी वेतन-भत्ते और बेहतर कार्यस्थितियों के लिए संघर्ष को ही समस्त आन्दोलन के लिए सर्वोपरि बना देता है और इस मुग़ालते में रहता है कि मज़दूर वर्ग के बीच राजनीतिक चेतना स्वतःस्फूर्त तरीक़े से इन्हीं आर्थिक संघर्षों मात्र से पैदा हो जायेगी। अर्थवादी राजनीति वास्तव में सुधारवादी राजनीति ही है। अर्थवाद जब यह कहता है कि मज़दूरों की केवल आर्थिक मसलों में ही दिलचस्पी होती है तो वह दरअसल अपनी सुधारवादी राजनीति और वैचारिकी की सीमाओं को ही उजागर कर रहा होता है। अर्थवादी प्रवृत्ति वास्तव में पूँजीवाद के आर्थिक तर्क को मज़दूर आन्दोलन में स्थापित करने का काम करती है और मज़दूरों को वेतन-भत्ते बढ़वाने के लिए ही संघर्ष करने की बात पर ज़ोर देती है। आज तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टियों से जुड़ी सीटू-एटक-एक्टू-एचएमएस जैसी तमाम ट्रेड यूनियनें अर्थवाद का बेहद भोंडा संस्करण प्रस्तुत करती हैं। वहीं दूसरी तरफ़ इन्क़लाबी मज़दूर केन्द्र-मज़दूर सहयोग केन्द्र जैसे संगठन जुझारू क़िस्म के अर्थवाद यानी कि “वामपन्थी” अर्थवाद को पेश करते दीखते हैं। यदि आप ‘अर्थवाद’ शब्द के मूल पर ग़ौर करेंगे तो आप समझ जायेंगे कि अर्थवाद की प्रवृत्ति आर्थिक कारकों को राजनीतिक कारकों के ऊपर तरजीह देती है। यानी यह राजनीति को कमान में रखने की बजाय आर्थिक कारकों को कमान में रखती है। यह मज़दूर वर्ग को एक राजनीतिक वर्ग के रूप में संगठित होने और सत्ता का प्रश्न उठाने की क्षमता अर्जित करने से व्यवस्थित तरीक़े से रोकती है।

ऐसा नहीं है मज़दूर वर्ग अपने आर्थिक माँगों के लिए नहीं लड़ेगा। आर्थिक संघर्षों को लड़ना और अर्थवादी संघर्ष लड़ना एक ही चीज़ नहीं है। आर्थिक संघर्षों को राजनीतिक तौर पर भी लड़ा जा सकता है और आर्थिक तौर पर भी। राजनीतिक तौर पर आर्थिक संघर्षों को संगठित करने का अर्थ होता है कि मज़दूरों को इन संघर्षों के ज़रिये भी सिर्फ अपने मालिक को नहीं, बल्कि मालिकों की समूची जमात को दुश्मन के रूप में पहचानना सीखना, समूची पूँजीवादी सरकार व राज्यसत्ता को निष्पक्ष नहीं बल्कि मालिकों की इस जमात के नुमाइन्दे के तौर पर देखना सीखना; केवल अपने कारखाने या पेशे के मज़दूरों के स्तर पर ही अपने वर्ग हितों को संकुचित नहीं करना, बल्कि व्यापकतम सम्भव वर्ग एकजुटता क़ायम करने के लिए अपने कारखाने की सीमाओं के पार, फिर अपने पेशे के उजरती मज़दूरों और फिर अपने पेशे की सीमाओं के पार सभी पेशों के उजरती मज़दूरों की समूची जमात को अपनी जमात के रूप में पहचानना सीखना। केवल इसी प्रक्रिया में मज़दूर आन्दोलन एक ऐसी शक्ति में तब्दील हो सकता है जो मालिकों की जमात को तात्कालिक और दूरगामी, दोनों ही लड़ाइयों में शिकस्त दे सकती है। मालिकों की जमात अपने आपको एक राजनीतिक वर्ग के तौर संगठित करके ही हावी है और हम पर शासन कर रही है। वह केवल अपने तात्कालिक आर्थिक हितों को ध्यान में रखकर शासन नहीं कर सकती, बल्कि वह अपने दूरगामी राजनीतिक हितों को तरजीह देकर ही शासन कर सकती है और कर रही है। वहीं दूसरी ओर अर्थवाद की प्रवृत्ति हमें अपने कारखानों के वेतन-भत्तों के संघर्षों तक ही सीमित करके हमें वेतन-भत्तों के संघर्षों में भी अशक्त बना देती है। हमें यह समझ लेना चाहिए कि मज़दूर वर्ग आर्थिक माँगों की लड़ाई भी तभी लड़ सकता है जब वह इसे राजनीतिक वर्ग के तौर पर लड़े। बिना राजनीतिक हस्तक्षेप के मज़दूर केवल वेतन-भत्ते के लिए संघर्ष में ही उलझे रहेंगे। अर्थवाद के कारण ही मज़दूर वर्ग राजनीतिक प्रश्न उठाने में, जिसमें राजनीतिक सत्ता का प्रश्न सर्वोपरि है, असमर्थ हो जाता है और केवल दुवन्नी-अट्ठन्नी, भत्तों-सहूलियतों की लड़ाई के गोल चक्कर में घूमता रहता है।

वहीं दूसरी बात जो समझनी सबसे ज़्यादा ज़रूरी है वह यह कि मज़दूर वर्ग के व्‍यापक जनसमुदायों में स्वतःस्फूर्त रूप से जो चेतना पैदा करता है वह आर्थिक माँगों से आगे नहीं जाती और वह अपने आप में सर्वहारा चेतना नहीं होती। अगर मज़दूरों के बीच पायी जाने वाली इसी स्वतःस्फूर्ततावाद की सोच को आगे बढ़ा दिया जाये तो वह अर्थवाद, ट्रेड यूनियनवाद, मज़दूरवाद, पेशागत संकीर्णतावाद, ग़ैरपार्टी क्रान्तिवाद, अराजकतावाद–संघाधिपत्यवाद आदि ग़ैर-सर्वहारा प्रवृत्तियों तक चली जाती है। इन सभी प्रवृत्तियों के विस्तार में हम अभी नहीं जा सकते, पर कुल मिलाकर कहें तो यह वह तमाम विजातीय पूँजीवादी प्रवृत्तियाँ हैं, जो मज़दूर आन्दोलन को अन्दर से खोखला कर रही हैं। मार्क्स से लेकर लेनिन और माओ ने इन सभी प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ सतत संघर्ष चलाया और मज़दूर आन्दोलन को एक सही राजनीतिक दिशा दी।

आज के फ़ासीवादी दौर में मज़दूर आन्दोलन में मौजूद इन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ संघर्ष और अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। आज मोदी सरकार जिस रफ़्तार से सभी श्रम क़ानूनों व जनवादी अधिकार को ख़त्म कर रही है, इसके ख़िलाफ़ लड़ने में अर्थवाद बाधा पैदा करता है क्योंकि जिस समय मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के आगे जाने का कार्यक्रम मज़दूर वर्ग के सामने पेश करना होता है, उस समय भी अर्थवाद मज़दूर वर्ग को इसी व्यवस्था के भीतर ही महज़ आर्थिक लाभ हासिल करने तक सीमित कर देता है। राजनीतिक संघर्ष की रणनीति के अभाव में प्रतिरोध्य फ़ासीवादी उभार मज़दूर आन्दोलन के अर्थवाद की गलियों में घूमते रहने के कारण अप्रतिरोध्य बन जाता है। इसलिए मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के लिए अर्थवाद, ट्रेड यूनियनवाद, अराजकतावाद व अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी आत्मघाती प्रवृत्तियाँ हैं, जिन्हें मज़दूर आन्दोलन के बीच से उखाड़ फेंकने के लिए सतत संघर्ष करना होगा। इनके ख़िलाफ़ संघर्ष कर के ही आज मज़दूर आन्दोलन आगे बढ़ सकता है। यह आम तौर पर भी ज़रूरी है और फ़ासीवाद विरोधी सर्वहारा संघर्ष को संगठित करने के लिए विशेष रूप से ज़रूरी है।





मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2024 – जनवरी 2025

➖➖➖➖➖➖➖➖
🖥 प्रस्‍तुति - Uniting Working Class
👉 *हर दिन कविता, कहानी, उपन्‍यास अंश, राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक विषयों पर लेख, रविवार को पुस्‍तकों की पीडीएफ फाइल आदि व्‍हाटसएप्‍प, टेलीग्राम व फेसबुक के माध्‍यम से हम पहुँचाते हैं।* अगर आप हमसे जुड़ना चाहें तो इस लिंक पर जाकर हमारा व्‍हाटसएप्‍प चैनल ज्‍वाइन करें - http://www.mazdoorbigul.net/whatsapp
चैनल ज्वाइन करने में कोई समस्या आए तो इस नंबर पर अपना नाम और जिला लिख कर भेज दें - 9892808704
🖥 फेसबुक पेज -
https://www.facebook.com/mazdoorbigul/
https://www.facebook.com/unitingworkingclass/
📱 टेलीग्राम चैनल - http://www.t.me/mazdoorbigul

हमारा आपसे आग्रह है कि तीनों माध्यमों व्हाट्सएप्प, फेसबुक और टेलीग्राम से जुड़ें ताकि कोई एक बंद या ब्लॉक होने की स्थिति में भी हम आपसे संपर्क में रह सकें।

यह एक सामूहिक गीत है जिसे 1912 में संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका की 23 हजार महिला मज़दूरों ने गाया था। ये पच्‍चीस अलग-अलग राष्...
29/01/2025

यह एक सामूहिक गीत है जिसे 1912 में संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका की 23 हजार महिला मज़दूरों ने गाया था। ये पच्‍चीस अलग-अलग राष्‍ट्रीयताओं की तथा पैंतालीस अलग-अलग भाषाएं बोलने वाली थी। इन महिलाओं ने तेजी से बढ़ते हुए वस्‍त्र उद्योग को तीन महीनों तक एकदम ठप्‍प कर दिया था। इससे पहले इतिहास में कभी इतनी संख्‍या में विभिन्‍न जगहों की महिलाएं जीवन-निर्वाह से थोड़ी ज्‍यादा मज़दूरी तथा बेहतर जिन्‍दगी के अधिकार की मांग को लेकर संयुक्‍त और इतने प्रभावी रूप से किसी हड़ताल में शामिल नहीं हुई थी।

📮___________________📮*भोपाल गैस हत्याकाण्ड के 40 साल - मेहनतकशों के हत्याकाण्डों पर टिका मानवद्रोही पूँजीवाद!!*✍ बिगुल ड...
27/01/2025

📮___________________📮
*भोपाल गैस हत्याकाण्ड के 40 साल - मेहनतकशों के हत्याकाण्डों पर टिका मानवद्रोही पूँजीवाद!!*
✍ बिगुल डेस्क
📱 https://www.mazdoorbigul.net/archives/17219
➖➖➖➖➖➖➖➖
भोपाल गैस त्रासदी के 40 साल बाद आज भी इस नरसंहार के ज़ख्म ताज़ा हैं और न्याय के लिए लोगों के संघर्ष ज़िन्दा है। 2 दिसम्बर को भोपाल में इस घटना से प्रभावित लोगों और कई संगठनों ने प्रदर्शन कर सरकार के सामने एक बार फिर अपनी माँगें रखी हालाँकि इस पूरे मसले में सरकार से लेकर न्याय व्यवस्था तक का चेहरा 1984 में ही साफ हो गया था।

2 दिसम्बर 1984 की रात को जो हुआ वह महज़ कोई दुर्घटना नहीं थी क्योंकि इस दिल दहला देने वाली घटना की पटकथा काफ़ी समय पहले से लिखी जा रही थी। मुनाफ़े की अन्धी हवस में अमेरिकी कम्पनी यूनियन कार्बाइड की भारतीय सब्सिडियरी यूसीआईएल चन्द पैसे बचाने के लिए सारे सुरक्षा उपायों को ताक पर रखकर मज़दूरों से काम करवा रही थी। मालूम हो कि नगरनिगम योजना के मानकों के अन्तर्गत भी इस फैक्ट्री को लगाना गलत था लेकिन मध्यप्रदेश सरकार ने यू.सी.सी. का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। 1979 तक फैक्ट्री ने काम भी शुरू कर दिया गया, लेकिन काम शुरू होते ही कई दुर्घटनाएँ हुईं। दिसम्बर 1981, में ही गैस लीक होने के कारण एक मज़दूर की मौत हो गई और दो बुरी तरह घायल हो गये। लगातार हो रही दुर्घटनाओं के मद्देनज़र मई, 1982 में तीन अमेरिकी इंजीनियरों की एक टीम फैक्ट्री का निरीक्षण करने के लिए बुलाई गई। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में साफ कहा कि मशीनों का काफी हिस्सा ख़राब है, एवं गैस भण्डारण की सुविधा अत्यन्त दयनीय है जिससे कभी भी गैस लीक हो सकती है और भारी दुर्घटना सम्भव है। इस रिपोर्ट के आधार पर 1982 में भोपाल के कई अखबारों ने लिखा था कि ‘वह दिन दूर नहीं, जब भोपाल में कोई त्रासदी घटित हो जाए।’ फिर भी न तो कम्पनी ने कोई कार्रवाई की और न ही सरकार ने।

मिथाइल आइसोसायनाइड गैस जो इतनी ज़हरीली होती है कि उसकी बहुत छोटी मात्रा ही भण्डारित की जा सकती है, परन्तु उसका इतना बड़ा भण्डार रखा गया था जो शहर की आबादी को ख़त्म करने के लिए काफ़ी था। इतना ही नहीं सुरक्षा इन्तज़ामों में भी एक-एक करके कटौती की गयी थी। मिथाइल आइसोसायनाइड गैस को 0 से 5 डिग्री तापमान पर भण्डारित करना आवश्यक होता है। जबकि कूलिंग सिस्टम 6 महीने पहले से ही बन्द था। गैस टैंक के मेण्टेनेंस स्टाफ़ की संख्या को भी घटाकर आधा कर दिया गया था और गैस लीक होने की चेतावनी देने वाला सायरन भी बन्द कर दिया गया था। फ़ैक्टरी में काम करने वाले मज़दूर जानते थे कि शहर मौत के मुहाने पर खड़ा है और उन्होनें फ़ैक्टरी प्रशासन को कई बार इसपर कार्यवाही करने को चेताया भी था किन्तु उनकी सुनने वाला भला वहाँ कौन था?

यह गैस इतनी ज़हरीली थी कि पचासों वर्ग किलोमीटर के दायरे में मवेशी और पक्षी तक मर गये और ज़मीन और पानी तक में इसका ज़हर फैल गया। जो उस रात मौत से बच गये वे चालीस साल बाद आज भी तरह-तरह की बीमारियों से जूझ रहे हैं। इस ज़हर के असर से कई-कई वर्ष बाद तक उस पूरे इलाके में पैदा होने वाले बच्चे जन्म से ही विकलांग या बीमारियाँ लिये पैदा हो रहे हैं।

कीटनाशक कारख़ाने की टेक्नोलॉजी बेहद पुरानी पड़ चुकी थी और ख़तरनाक होने के कारण उसे अन्य देशों में ख़ारिज भी किया जा चुका था परन्तु हमारे देश के हुक्मरानों ने मौत के उस कारखाने को लगाने से पहले लाखों मज़दूरों की ज़िन्दगियों के बारे में सोचने का बीड़ा नहीं उठाया!

आज भी वहाँ की ज़मीन और पानी से इस ज़हर का असर ख़त्म नहीं हुआ है। कई अध्ययनों ने साबित किया है कि माँओं के दूध तक में यह ज़हर घुल चुका है।

गैस जिस दिन मौत बनकर शहर पर टूटी तो इस लापरवाही के ज़िम्मेदार सफ़ेदपोश कातिलों में से किसी को खरोंच तक नहीं आयी क्योंकि वे फ़ैक्टरी इलाक़े और मज़दूर बस्तियों से काफ़ी दूर अपने आलीशान इमारतों में सुरक्षा के तमाम इन्तज़ाम के साथ बैठे थे।

पूँजीवाद का पूरा इतिहास बर्बर हत्याकाण्डों और नृशंस जनसंहारों से भरा हुआ है। इस मानवद्रोही-मुनाफ़ाखोर व्यवस्था ने युद्धों के दौरान हिरोशिमा और नागासाकी को अंजाम दिया है तो जैसे शान्ति के दिनों में भोपाल जैसे जनसंहारों का इतिहास रचा है। कम से कम बीस हज़ार लोगों को मौत के घाट उतारने और करीब छह लाख लोगों को बीमारियों और विकलांगता का शिकार बनाने वाली यह घटना दुनिया की सबसे बड़े औद्योगिक हत्याकाण्डों में से एक है।

इस हादसे ने जहाँ इस बात को एक बार फिर रेखांकित कर दिया कि मालिकों के लिए मज़दूरों की ज़िन्दगी से बढ़कर उनका मुनाफ़ा होता है। मुनाफ़े में किसी भी तरह की रुकावट और कमी को रोकने के लिए सुरक्षा के सारे इन्तज़ाम ताक पर रख दिये जाते हैं। वहीं दूसरी तरफ भोपाल गैस त्रासदी ने पूँजीवादी न्याय व्यवस्था और तमाम बुर्जुआ पार्टियों की असलियत को भी उघाड़ कर रख दिया।

भोपाल में जिस समय लाशों के ढेर लगे थे और शहर के अस्पताल घायलों एवं विकलांगों से पटे पड़े थे, उसी समय तत्कालीन राज्य सरकार हत्यारे वारेन एण्डरसन को बेशर्मी के साथ ससम्मान अमेरिका भेजने की जुगत में लगी हुई थी और उस समय मध्यप्रदेश के मुख्यमन्त्री रहे अर्जुन सिंह इस मुद्दे पर अपना बचाव करते हुए कहते हैं कि क़ानून-व्यवस्था को बनाये रखने के लिए एण्डरसन को भोपाल से बाहर निकालना ज़रूरी था। यह बेहूदा तर्क देकर हज़ारों बेगुनाहों के हत्यारे एण्डरसन को देश से भगाने का काम सरकार की शह पर हुआ। भोपाल की घटना ने इस बात को दिखा दिया कि पूँजीवादी सरकारें पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी होती हैं और पूँजीपति वर्ग और उनके हितों की रक्षा करना इनका सर्वोपरि कर्तव्य है। एण्डरसन के साथ ही कार्बाइड के भारतीय सब्सिडियरी के प्रमुख केशव महेन्द्रा सहित सभी बड़े अधिकारी भी जो इस नरसंहार के जिम्मेदार थे, उन्हें बचाने में पूरा सत्तातन्त्र ने अपनी जान लगा दी!

लाखों लोगों की मौत के ज़िम्मेदार लोगों पर 7 जून 2010 को भोपाल की एक निचली अदालत ने अपने फ़ैसले में कम्पनी के 8 पूँजीपतियों को 2-2 साल की सज़ा सुनायी और कुछ ही देर बाद उनकी जमानत भी हो गयी और वे ख़ुशी-ख़ुशी अपने घरों को लौट गये। दरअसल इन्साफ़ के नाम पर इस घिनौने मज़ाक़ की बुनियाद 1996 में भारत के भूतपूर्व प्रधान न्यायाधीश जस्टिस अहमदी द्वारा रख दी गयी थी जिसने कम्पनी और मालिकान पर आरोपों को बेहद हल्का बना दिया था और उन पर मामूली मोटर दुर्घटना के तहत लागू होने वाले क़ानून के तहत मुक़दमा दर्ज़ किया गया जिसमें आरोपियों को 2 साल से अधिक की सज़ा नहीं दी जा सकती और इसके बदले में अहमदी को भोपाल गैस पीड़ितों के नाम पर बने ट्रस्ट का आजीवन अध्यक्ष बनाकर पुरस्कृत किया गया। कई वर्ष बाद सरकार ने कम्पनी के साथ शर्मनाक समझौता किया जिसके तहत कम्पनी ने 47 करोड़ डॉलर का जुर्माना देकर लोगों की मौत और ज़िन्दगियों का सौदा किया।

इस भयावह नरसंहार के इतने सालों बाद भी दोषी धड़ल्ले से आज़ाद घूम रहे हैं और इस त्रासदी से प्रभावित लोग धीमी मौत मरने के लिए मजबूर है।

भोपाल हादसे को चालीस बरस हो गये मगर इस बीच अनेक छोटे-छोटे भोपाल देशभर में होते रहे हैं। मुनाफ़े की अन्धाधुन्ध हवस में मज़दूरों और आम लोगों की मौत होती रहती है, जिनमें से कुछ अख़बारों की सुर्ख़ियाँ बनती हैं, मगर बहुतों की तो ख़बर तक नहीं हो पाती। हमें यह नहीं भूलना होगा कि जब तक पूँजीवाद रहेगा, भोपाल जैसे हादसे होते रहेंगे। फ़ासीवादी भाजपा सरकार के पिछले दस साल इस देश के मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए बाद से बदतर हुए हैं,औद्योगिक हादसो की बात करें तो उसकी संख्या में भी काफी बढ़ोतरी हुई है।

भारत सरकार के श्रम मन्त्रालय की एक रिपोर्ट बताती है कि बीते पाँच वर्षो में 6500 मज़दूर फैक्ट्री, खदानों, निर्माण कार्य में हुए हादसों में अपनी जान गवाँ चुके हैं। इसमें से 80 प्रतिशत हादसे कारखानों में हुए। 2017-2018 कारखाने में होने वाली मौतों में 20 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। साल 2017 और 2020 के बीच, भारत के पंजीकृत कारखानों में दुर्घटनाओं के कारण हर दिन औसतन तीन मज़दूरों की मौत हुई और 11 घायल हुए। 2018 और 2020 के बीच कम से कम 3,331 मौतें दर्ज़ की गयी। आँकड़ों के मुताबिक, फैक्ट्री अधिनियम, 1948 की धारा 92 (अपराधों के लिए सामान्य दण्ड) और 96ए (ख़तरनाक प्रक्रिया से सम्बन्धित प्रावधानों के उल्लंघन के लिए दण्ड) के तहत 14,710 लोगों को दोषी ठहराया गया, लेकिन आँकड़ों से पता चलता है कि 2018 और 2020 के बीच सिर्फ़ 14 लोगों को फैक्ट्री अधिनियम, 1948 के तहत अपराधों के लिए सज़ा दी गयी। यह आँकड़े सिर्फ़ पंजीकृत फैक्ट्रियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि दिल्ली और पूरे देश में लगभग 90 फ़ीसदी श्रमिक अनौपचारिक क्षेत्र से जुड़े हैं और अनौपचारिक क्षेत्र में होने वाले हादसों के बारे में कोई पुख़्ता आँकड़े नहीं हैं।

मई 2022 में भारत की राजधानी नई दिल्ली के मुंडका इलाके में एक चार मंजिला इलेक्ट्रॉनिक्स फैक्ट्री में भीषण आग लग गई। इस हादसे में 27 लोगों की जान चली गई और ऐसी औद्योगिक दुर्घटनाओं आम बात बनती जा रही हैं जिसमें हर साल हजारों लोग मारे जाते हैं या फिर बीमारियों या विकलांगता की चपेट में आते हैं। बुनियादी सुरक्षा उपायों की कमी के कारण भारतीय कारखानों में हर दिन औसतन तीन कामगारों की मौत हो जाती है और मोदी सरकार द्वारा बचे-खुचे श्रम क़ानूनों को ख़त्म करने के बाद तो मज़दूरों की ज़िन्दगी के साथ खिलवाड़ को खुली छूट मिल जाएगी।

नए लेबर कोड के तहत ‘व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यस्थल स्थिति संहिता’ में नाम के उलट मज़दूरों की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ को क़ानूनी रूप दे दिया जाएगा क्योंकि इसमें सुरक्षा समिति बनाये जाने के काम को सरकार के विवेक पर छोड़ दिया गया है, जो पहले कारख़ाना अधिनियम, 1948 के हिसाब से अनिवार्य था। पुराने क़ानून में स्पष्ट किया गया था कि मज़दूर अधिकतम कितने रासायनिक और विषैले माहौल में काम कर सकते हैं, जबकि नये कोड में रासायनिक और विषैले पदार्थों की मात्रा का साफ़-साफ़ ज़िक्र करने के बजाय उसे निर्धारित करने का काम राज्य सरकारों के ऊपर छोड़ दिया गया है। मालिकों की सेवा में सरकार इस हद तक गिर गयी है कि इस कोड के मुताबिक़, अगर कोई मालिक, मज़दूरों के लिए तय किये गये काम के घण्टे, वेतन और अन्य ज़रूरी सुरक्षा सुविधाओं की शर्तें नहीं पूरी करता है तो भी उसे ‘कार्य-विशिष्ट’ का लाइसेंस दिया जा सकता है। यानी, अब क़ानूनी और खुले तौर पर इस देश के मेहनतकशों को अपना जीवन मालिकों के मुनाफ़े की भेंट चढ़ाना होगा।

फ़ासीवादी दौर में मेहनतकश जनता के मानवीय अधिकारों तथा जीने के अधिकारों का छीने जाना, उनकी लूट, दमन और हादसों के खि़लाफ़ कोई क़ानूनी कार्यवाही कर सकना असम्भव हो गया है।

भोपाल गैस हत्याकाण्ड पूँजीवादी व्यवस्था की क्रूरता की असलियत को दिखाता है। और साथ ही विधायिका से लेकर कार्यपालिका, न्यायपालिका तक के मज़दूर-विरोधी चरित्र को सरेआम बेपर्द करता है। मुनाफ़ाखोर व्यवस्था का यह भयानक इतिहास चीख़-चीख़कर इस मानवद्रोही व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंकने की माँग करता है।





मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2024 – जनवरी 2025
➖➖➖➖➖➖➖➖
🖥 प्रस्‍तुति - Uniting Working Class
👉 *हर दिन कविता, कहानी, उपन्‍यास अंश, राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक विषयों पर लेख, रविवार को पुस्‍तकों की पीडीएफ फाइल आदि व्‍हाटसएप्‍प, टेलीग्राम व फेसबुक के माध्‍यम से हम पहुँचाते हैं।* अगर आप हमसे जुड़ना चाहें तो इस लिंक पर जाकर हमारा व्‍हाटसएप्‍प चैनल ज्‍वाइन करें - http://www.mazdoorbigul.net/whatsapp
चैनल ज्वाइन करने में कोई समस्या आए तो इस नंबर पर अपना नाम और जिला लिख कर भेज दें - 9892808704
🖥 फेसबुक पेज -
https://www.facebook.com/mazdoorbigul/
https://www.facebook.com/unitingworkingclass/
📱 टेलीग्राम चैनल - http://www.t.me/mazdoorbigul

हमारा आपसे आग्रह है कि तीनों माध्यमों व्हाट्सएप्प, फेसबुक और टेलीग्राम से जुड़ें ताकि कोई एक बंद या ब्लॉक होने की स्थिति में भी हम आपसे संपर्क में रह सकें।

Address

Lucknow
226006

Alerts

Be the first to know and let us send you an email when मज़दूर बिगुल Mazdoor Bigul posts news and promotions. Your email address will not be used for any other purpose, and you can unsubscribe at any time.

Contact The Business

Send a message to मज़दूर बिगुल Mazdoor Bigul:

Videos

Share