05/03/2022
स्त्री विमर्श -भोजपुरी लोकगीत में स्त्री चिंतन
अवधारणा -
स्त्री -विमर्श के विषय में बात करते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि वाकई हमें उस अधिकार और स्वतंत्रता कि जरुरत हैं, जिसे पाने के बाद समाज और परिवार दो भागो में बंट सकता हैं?
साहित्यिक स्तर पर स्त्री -विमर्श अब प्रमुख रूप विमर्श के रूप में स्वीकार किया गया हैं। भोजपुरी लोक और लोक साहित्य में अभी भी यह दूर हीं हैं, चुकी हमारे भोजपुरी लोक संगीत में स्त्री के बारे में कई संगीत और नाटक देखने और सुनने को मिलते हैं, परन्तु समाज कि तरफ़ से यह नहीं के बराबर हैं।
इक्कीस्वी सदी में महिलाओं का विमर्श भले हीं बौद्धिक जगत के लिये और हिंदी साहित्य में इसे महत्वपूर्ण स्थान प्रदान हैं, लेकिन लोक परम्पराओ में अभी भी महिलाओं के विमर्श के लिये कोई जगह नहीं हैं, अभी भी भोजपुरी समाज में पुरुषवादी सोच कब्ज़ा बनाकर बैठा हैं। आजादी के पहले भिखारी ठाकुर ने अपने नाटको और गीतों में महिलाओं के विषयों को उठाया था। लेकिन उनके बाद किसी ने कोई प्रयास नहीं किया। इसकी वजह से आधुनिकताओं के बावजूद लोक संगीत सामाजिक परिवर्तन के कारक नहीं बन पा रहे हैं, हमारे समाज में जितने भी लोक गीत गाये जाते हैं उसमे कही नहीं कही स्त्रियों कि सही घटना छुपी होती हैं, स्त्रियों के दर्द को अपने भोजपुरी लोक गीतों के माध्यम से बताया जाता हैं। भोजपुरी लोक संगीत में विवाह के समय होने वाले गीत पुरुष प्रधान समाज को स्वीकार हैं,। महिलाओं द्वारा दी जाने वाली "गारी" का भी विरोध नहीं करते, इसमें कोई विरोधभास नहीं जिसे सुनकर पुरुष समाज भड़क उठे। महिलाये भी अपनी भावनाओ को भोजपुरी लोक गीत में व्यक्त करती हैं। जैसे खेत में धान रोपती महिलाओं द्वारा गाये जाने वाला गीत या फ़िर बच्चे होने पर गाये जाने वाले "सोहर " यह सब गीत महिलाओं पक्ष में हैं, लेकिन फ़िर इन सब गीतों को साहित्य के रूप में मान्यता नहीं दी गयी। भोजपुरी लोक गीतों में स्त्रियों के श्रृंगार और विलाप का हैं, भोजपुरी लोक गीतों में स्त्रियों अधिक स्वतंत्रता नहीं दी जाती हैं,। भिखारी ठाकुर ने अपने "बेटी बेचवा " नाटक में एक ऐसी स्त्री को दिखाया गया हैं, जिसने आजादी के पहले हीं यौन स्वतंत्रता और यौन अधिकार कि बात कही, "बेटी बेचवा " नाटक में यह दरसाया गया हैं, कि नायिका अपने पिता से शिकायत करती हैं क्यों कि उसे एक बूढ़े के हाथों में बेच दिया गया। "गबर घिचोर " कि नायिका यौन स्वतंत्रता कि बात करती हैं, और अपने बच्चों के बारे में बताती हैं कि वह नाजायज नहीं हैं। ऐसे हीं नारी स्वतंत्रता कि झलक "बिदेसिया " में मिलती हैं, जो अपने पति के विरह का दर्द सहती हैं। भिखारी ठाकुर कि रचनाओं के बाद लोक संगीत क्षेत्र में महिलाओं कि हिस्सेदारी और सम्मान बढ़े। अधिकांश भोजपुरी लोक गीतों में जो महिला के बारे में बताया जाता हैं। वह या तो पुत्र कि कामना में रोती हैं या फ़िर पिया मिलन के विरह में कही भी उसका अपना दुःख सामने नहीं आता। भोजपुरी में स्त्री विमर्श तब से हैं, जब से लोक गीतों का आरम्भ हुआ हैं। भारतीय भाषाओं में स्त्री के अधिकारों कि लड़ाई लड़ने का सर्जनात्मक हस्तक्षेप भोजपुरी में सात सौ साल पुराना हैं
स्त्री कि अपनी भावनाएं, परम्पराओ के प्रति क्षोभ, वेदना, विरह, मिलन, बच्चे के जन्म से लेकर अंतिम तक के भाव हमें देखने को मिलता हैं। भिखारी ठाकुर का एक नाटक "बेटी बेचवा " कि कुछ लाइन देख लीजिये
"रोपया गिनाई लिहला पगहा धराई दिहल,
अरे चेरिया के छेरिया बनवल हो बाबूजी,
नेकी खाती बेटी भसीअवल हे बाबूजी,
ढर ढर ढरकेला लोर मोरे बाबूजी "
मतलब यें कि बेटी अपने पिता से कहती हैं कि रुपया पैसे के लिये आपने बकरी के पगहे में मुझें बांध दिया बाबूजी अपनी बेटी को पैसो के लिये बेच देते हैं, बेटी के आँसू थम नहीं रहे, भिखारी ठाकुर ने यहाँ एक बेटी कि वेदना को दिखाया हैं, इसी तरह भिखारी ठाकुर ने अपनी नाटक "बिदेशीया" में एक स्त्री कि विरह -वेदना को दिखाया हैं, जिसमे उसके पति पैसे के लिये गाँव, माता -पिता, और अपनी पत्नी को छोड़कर कमाने जाते हैं, नव विवाहिता स्त्री कहती हैं,
"डगरिया जोहते ना हो डगरिया जोहते ना,
बीतेला हो पहरिया डगरिया जोहते ना "
इसमें नव विवहिता स्त्री अपने पति के आने पर रास्ता देखती हैं, और रास्ता देखते देखते कई पहर बीत जाते हैं, तब भी पति नहीं आते हैं, इसमें स्त्री के पिया से मिलने कि आस को दिखाया गया हैं, उसकी विरह को व्यक्त किया गया हैं।
शादी के बाद पुत्री के ससुराल जाने पर विदाई गीत
"अमवा से मिठ, इमिलिया ए बाबा,
बाबा महुआ में लागी गइले कोंच "
हे पिता आम मीठी इमली होती हैं, क्यों कि इसमें खटे के साथ मिठास भी होती हैं, हे पिता महुआ में अब फल लग गयें हैं।
भोजपुरी के प्रख्यात सम्राट भरत शर्मा अपने गीत में दहेज़ को अपराध बताते हुए एक माँ के दर्द को बहूत हीं अच्छे तरह से व्यक्त किये हैं, जिसमे एक माँ के दर्द के लोभ में ससुराल वाले जला देते हैं, माँ कुछ इस प्रकार कहती हैं.
"जनती जे जारल जइबू आग में दहेज़ के,
पाप नाही करती यें बेटी ससुरा में भेज के "
भोजपुरी लोक गीत में स्त्रियों के प्रसव पीड़ा के वक़्त "सोहर " गाया जाता हैं,
"जुग -जुग जियस ललनवा,
भवनवा के भाग जागल हो,
ललना लाल भइले कुलवा के दीपक,
मनवा में आस जागल हो "
इस गीत में बच्चे के आने कि ख़ुशी को व्यक्त किया गया जिसमे गाँव कि सारी औरते बच्चे होने पर सोहर गाती हैं।
हमारे भोजपुरी लोकगीत में स्त्री अपने माँग और कोख, मतलब पति और पुत्र के लिये अनेको व्रत करती हैं जिनमे से एक छठ पूजा बहूत हीं प्रसिद्ध हैं, एक स्त्री पुत्र कि कामना करते हुए कुछ इस प्रकार गीत गाती हैं,
"ए आमा के कोख पइसि सुते ले आदितमल,
भोरे हो गइले बिहान,
आरे हाली -हाली उग ए आदितमल अरघ दिआऊ
फलवा -फूलवा ले मालिनी बीटी ठाढ़,
गोड़वा दुःखव तेरे डांडवा पिरइले,
कब से हम बानी ठाढ़ "
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि लोकगीतों में विभिन्न रूपों में स्त्री विमर्श कि आदिम गुनगुनहट सुनाई देती हैं, इनमे स्त्री पुरुष सम्बन्धो के विभिन्न आयाम हैं बालिका के जन्म से लेकर उसके जीवन के विवध मोड़, सुःख, दुःख, से लेकर निराशा, वेदना, करुणा,प्रेम, प्रतिरोध, भावनाएं और आदर्श सहज़ स्वाभाविक ढंग से सरल सहज़ bhas🙏व शिल्प के साथ अपनी अस्मिता बनाये हुए हैं, भोजपुरी लोक गीतों में हम भारतीय नारी कि मर्यादा और इसकी विडंबना के सजीव प्रतिछवि देख सकते हैं, जो हमारे आज कि स्त्रियों के लिये भी कुछ खास साबित नहीं हो पा रही हैं।
सन्दर्भ -1) भिखारी ठाकुर लोक -नाट्य "बिदेसिया "
"गबर घिचोर " और "बेटी बेचवा "
2)भरत शर्मा लोकगीत दहेज़
3)गाँव कि स्त्रियों द्वारा गया जाने वाला लोकगीत।
प्रिया पाण्डेय "रोशनी "