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13/10/2024
11/10/2024

गीता अध्याय-2 श्लोक-36 / Gita Chapter-2 Verse-36
प्रसंग-

उपर्युक्त बहुत से हेतुओं को दिखलाकर युद्ध न करने में अनेक प्रकार की हानियों का वर्णन करने के बाद अब भगवान् युद्ध करने में दोनों तरह से लाभ दिखलाते हुए अर्जुन को युद्ध के लिये तैयार होने की आज्ञा देते हैं-

अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिता: ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दु:खतरं नु किम् ।।36।।

तेरे दुश्मन लोग तेरे सामर्थ्य की निन्दा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे, उससे अधिक दु:ख और क्या होगा ।।36।।

11/10/2024

गीता अध्याय-2 श्लोक-37 / Gita Chapter-2 Verse-37
प्रसंग-

उपर्युक्त श्लोक में भगवान् ने युद्ध का फल राज्य सुख या स्वर्ग की प्राप्ति तक बतलाया, किंतु अर्जुन ने तो पहले ही कह दिया था कि इस लोक के राज्य की तो बात ही क्या है, मैं तो त्रिलोकी के राज्य के लिये भी अपने कुल का नाश नहीं करना चाहता। अत: जिसे राज्य सुख और स्वर्ग की इच्छा न हो उसको किस प्रकार युद्ध करना चाहिये, यह बात अगले श्लोक में बतलायी जाती है-

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय: ।।37।।

या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन ! तू युद्ध के लिये निश्चय करके खड़ा हो जा ।।37।।

10/10/2024

गीता अध्याय-2 श्लोक-34 / Gita Chapter-2 Verse-34

अकर्तिं चापि भूतानि
कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् ।
सम्भावितस्य चाकीर्ति-
र्मरणादतिरिच्यते ।।34।।

तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिये अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है ।।34।।

10/10/2024

गीता अध्याय-2 श्लोक-35 / Gita Chapter-2 Verse-35

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथा: ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यासि लाघवम् ।।35।।

और जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे ।।35।।

09/10/2024

गीता अध्याय-2 श्लोक-32 / Gita Chapter-2 Verse-32
प्रसंग-

इस प्रकार धर्ममय युद्ध करने में लाभ दिखलाने के बाद अब उसे न करने में हानि दिखलाते हुए भगवान् अर्जुन को युद्ध के लिये उत्साहित करते हैं।

यद्रच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् ।
सुखिन: क्षत्रिया: पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ।।32।।

हे पार्थ ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान् क्षत्रिय लोग ही पाते हैं ।।32।।

09/10/2024

गीता अध्याय-2 श्लोक-33 / Gita Chapter-2 Verse-33

अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि ।
तत: स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ।।33।।

किंतु यदि तू इस धर्म युक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा ।।33।।

08/10/2024

गीता अध्याय-2 श्लोक-30 / Gita Chapter-2 Verse-30
प्रसंग-

यहाँ तक भगवान् ने सांख्य योग के अनुसार अनेक युक्तियों द्वारा नित्य, शुद्ध, बुद्ध, सम, निर्विकार और अकर्ता आत्मा के एकत्व, नित्यत्व, अविनाशित्व आदि का प्रतिपादन करके तथा शरीरों को विनाशशील बतलाकर आत्मा के या शरीरों के लिये अथवा शरीर और आत्मा के वियोग के लिये शोक करना अनुचित सिद्ध किया। साथ ही प्रसंग वश आत्मा को जन्मने-मरने वाला मानने पर शोक करने के अनौचित्का प्रतिपादन किया और अर्जुन को युद्ध करने के लिये आज्ञा दी। अब सात श्लोकों द्वारा क्षत्रिय धर्म के अनुसार शोक करना अनुचित सिद्ध करते हुए अर्जुन को उस के लिये उत्साहित करते हैं–

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ।।30।।

हे अर्जुन! यह आत्मा सब के शरीरों में सदा ही अवध्य है। इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिये तू शोक करने को योग्य नहीं है ।।30।।

08/10/2024

गीता अध्याय-2 श्लोक-31 / Gita Chapter-2 Verse-31

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ।।31।।

तथा अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है, यानी तुझे भय नहीं करना चाहिये, क्योंकि क्षत्रिय के लिये धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है ।।31।।

07/10/2024

गीता अध्याय-2 श्लोक-28 / Gita Chapter-2 Verse-28
प्रसंग-

आत्म तत्त्व अत्यन्त दुर्बोध होने के कारण उसे समझाने के लिये भगवान् ने उपर्युक्त श्लोकों द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार से उसके स्वरूप का वर्णन किया। अब अगले श्लोक में उस आत्म तत्त्व दर्शन, वर्णन और श्रवण की अलौकिकता और दुर्लभता का निरूपण करते हैं-

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधानान्येव तत्र का परिदेवना ।।28।।

हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में प्रकट हैं, फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना हैं? ।।28।।

07/10/2024

गीता अध्याय-2 श्लोक-29 / Gita Chapter-2 Verse-29
प्रसंग-

इस प्रकार आत्म तत्त्व के दर्शन, वर्णन और श्रवण की अलौकिकता और दुर्लभता का प्रतिपादन करके अब, 'आत्मा नित्य की अवध्य है; अत: किसी भी प्राणी के लिये शोक करना उचित नहीं है'- यह बतलाते हुए भगवान् सांख्य योग के प्रकरण का उपसंहार करते हैं|

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य: ।
आश्चर्यवच्चैनमन्य: श्रृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ।।29।।

कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्त्व का आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता ।।29।।

06/10/2024

गीता अध्याय-2 श्लोक-26 / Gita Chapter-2 Verse-26

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसेमृतम् ।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ।।26।।

किंतु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा सदा मरने वाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो ! तू इस प्रकार शोक करने के योग्य नहीं है ।।26।।

06/10/2024

गीता अध्याय-2 श्लोक-27 / Gita Chapter-2 Verse-27
प्रसंग-

पूर्व श्लोकों द्वारा जो आत्मा को नित्य, अजन्मा अविनाशी मानते हैं और जो सदा जन्मने-मरने वाला मानते हैं, उन दोनों के मत से ही आत्मा के लिये शोक करना नहीं बनता, यह बात सिद्ध की गयी। अब अगले श्लोक में यह सिद्ध करते हैं कि प्राणियों के शरीरों को उद्देश्य करके भी शोक करना नहीं बनता-

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।।27।।

क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने के योग्य नहीं है ।।27।।

05/10/2024

गीता अध्याय-2 श्लोक-24 / Gita Chapter-2 Verse-24

अच्छेद्योऽयमदाह्रोऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्य: सर्वगत स्थाणुरचलोऽयं सनातन: ।।24।।

क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्रा, अक्लेद्य और नि:सन्देह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है ।।24।।

05/10/2024

गीता अध्याय-2 श्लोक-25 / Gita Chapter-2 Verse-25
प्रसंग-

उपर्युक्त श्लोकों में भगवान् ने आत्मा को अजन्मा और अविनाशी बतलाकर उसके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध किया। अब दो श्लोकों द्वारा आत्मा को औपचारिक रूप से जन्मने-मरने वाला मानने पर भी उसके लिये शोक करना अनुचित है, ऐसा सिद्ध करते हैं-

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ।।25।।

यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकार रहित कहा जाता है । इससे हे अर्जुन ! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं है अर्थात् तुझे शोक करना उचित नहीं है ।।25।।

04/10/2024

गीता अध्याय-2 श्लोक-22 / Gita Chapter-2 Verse-22
प्रसंग-

इस प्रकार एक शरीर से दूसरे शरीर के प्राप्त होने में शोक करना अनचित सिद्ध करके, अब भगवान् आत्मा का स्वरूप दुर्विज्ञेय होने के कारण पुन: तीन श्लोकों द्वारा प्रकारान्तर से उसकी नित्यता, निराकरता और निर्विकारता का प्रतिपादन करते हुए उसके विनाश की आशंका से शोक करना अनुचित सिद्ध करते हैं।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।22।।

जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है ।।22।।

04/10/2024

ध्रुव कुंड तीर्थ, धेरड़ू, कैथल, कुरुक्षेत्र तीर्थ ❤❤🙏🙏

04/10/2024

हय्लेपक तीर्थ, साकरा, कैथल, कुरुक्षेत्र तीर्थ ❤❤🙏🙏

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