28/04/2024
#खोंईछा
बचपन में जब मां अपने मायके से लौटती थी तो नानी उसके आंचल में चावल दूभ हल्दी पैसे के साथ अपना स्नेह बांध देती थी।कितनी सदियों पुरानी है खोंईछा की ये रीत... और कितना कुछ समेट रखा है खोंईछा शब्द ने ही खुद में! हमारे बिहार में खोईंछा शब्द सुनते ही न जाने कितनी भावनाएं और और कितना नेह जुड़ जाता है लोगों के मन में। क्यूंकि खोंईछा वह अनमोल उपहार है जो ससुराल जाते समय विदाई से ठीक पहले मां, भाभी या कोई अन्य सुहागिन महिला ससुराल जाती हुई बेटी के आंचल में देती हैं। इस खोंईछा में जीरा, चावल, हल्दी, हरा दूब, फूल और कुछ द्रव्य होता है। यूं तो खोंईछा में बस मुट्ठी भर अरवा (सफेद) चावल, हरी दूब, फूल और चंद सिक्के ही काफी होते हैं, लेकिन अब तो लोगों ने बेटियों के विवाह में अपनी सामर्थ्य के अनुसार ही खोंईछा देना शुरू कर दिया है! ऐसे में खोंईछा के रूप में रूपयों के साथ सोने के पांच या ग्यारह जीरे, चांदी की मछलियां, चांदी के सिक्के या सोने का कोई छोटा-मोटा गहना भी दिया जा सकता है। ध्यातव्य है कि खोंईछा में दी जाने वाली सारी चीजें बेटी के ससुराल में उसकी छोटी-बड़ी ननदों का हो जाता है। बढ़ा-चढ़ाकर देना कोई रस्म का हिस्सा तो नहीं है, लेकिन आजकल तो खोंईछा भी अपनी ऊंची सामर्थ्य को दिखाने का भी एक जरिया होता जा रहा है।हालांकि यह चलन कहीं-कहीं तो भले ही पूर्व की तरह ही जारी है, लेकिन धीरे-धीरे लोग इसके महत्व को भूलते जा रहे हैं, जबकि खोंईछा में मिले हर एक चीज़ का गहरा महत्व है।जैसे शादी के बाद पहली बार विदाई पर हल्दी, दूब, फूल और द्रव्य के साथ जीरा दिया जाता है। जीरा का मतलब जीव से भी होता है और मायके से ससुराल खोंईछा में जीव के प्रतीक जीरा को लेकर आना शुभ माना जाता है। मछलियां भी शुभ मानी जाती है, इसीलिए खोंईछा में चांदी की मछलियां देने का भी प्रचलन है। वैसे तो यह भी मान्यता है कि चूंकि जीरा कठोर होता है, इसलिए हो सकता है कि बेटी मायके का मोह त्याग कर ससुराल में रच बस जाए। हमारे यहां शादी के बाद विदाई में पहली बार जीरा और उसके बाद हर बार अरवा चावल दिया जाता है। सोच यह है कि चावल देने से बेटी का नया जीवन धन-धान्य से भरा रहेगा और हल्दी की पांच गांठें देने के पीछे मान्यता यह होती है कि नया जीवन सकारात्मक ऊर्जा से भरा रहे और इन गांठों की तरह शुभ और स्वस्थ बने रहकर पूरे परिवार को एक सूत्र में बांधे रखे। हरी दूब परिवार को जीवन देने के लिए होता है, चूंकि दूब कहीं भी पनप जाती है। द्रव्य या सोना-चांदी तो लक्ष्मी का प्रतीक है ही, सो यह सब देना तो बेटी के ससुराल में बरकत बनाए रखने के लिए प्रतीकात्मक तौर पर दिया ही जाता है। खोंईछा का धार्मिक महत्व भी है, क्योंकि दुर्गापूजा पर मां दुर्गा को भी खोंईछा भरा जाता है; कई जगह तो देवी-दुर्गा के मंदिर में खोंईछा भरने की मन्नत भी मानी जाती है, और देवी मां के समक्ष जाहिर की गई मनोकामना के पूर्ण होने पर सुहागन महिलाएं सोलह श्रृंगार कर देवी मां के गीत गाते हुए उन्हें नई साड़ी ओढ़ाकर पान, सुपारी, लौंग, इलाईची, फूल, हल्दी, हरी दूब ,अक्षत, फल और बताशे या किसी अन्य मिठाईयों से देवी मां का खोंईछा भरती हैं। इसके पीछे की भावना यह है कि बेटी अन्नपूर्णा होती है, और मां अपनी बेटी का आंचल धन-धान्य से भरकर उसे लक्ष्मी और अन्नपूर्णा के रूप में ही ससुराल भेजती है। खोईंछा हमेशा पूजा घर में, उस कमरे में जहां कुलदेवता का वास माना जाता है, ही दिया जाता है। आंचल में रूमाल रखकर बांस के कोलसुप से ये खोंईछा दिया जाता है, क्योंकि बांस को शुभ तो माना ही जाता है, साथ-साथ यह वंश वृद्धि का द्योतक भी है। खोंईछा देने के क्रम में पांच बार में मुट्ठियां भर-भर कर आंचल में डालते हैं, और चुटकियों से चंद दाने आंचल से कोलसुप में पांच बार निकाला भी जाता है; ताकि बेटियां लक्ष्मी स्वरूपा अपने मायके में भी बरकत छोड़ती जाए और मायका भी धन-धान्य से भरा रहे। हर सुहागिन स्त्रियां किसी भी मांगलिक कार्य को करने के लिए आसन ग्रहण करती हैं तब सोलह श्रृंगार के साथ खोईंछा भी जरूर होता है साथ में।सबसे खूबसूरत बात यह होती है कि खोंईछा मायके से विदा होती हर सुहागिन बेटी को बुढ़ापे तक दिया जाता है, और अंत में मृत्यु के पश्चात् भी विदाई में साज-सिंगार के साथ खोंईछा दिया जाता है।बचपन में ननिहाल से मां की विदाई के समय खोंईछा मिलने के समय ही मां, नानी, मामी और मौसीयों के एक साथ मार्मिक-रूदन की आवाज़ कानों में पड़ती थी तो समझ आ जाता था की अब विदाई हो रही है। खोंईछा मिलने का पल ही इतना भावाकुल करने वाला होता है कि मायके क्या, ससुराल से भी खोंईछा मिलते हुए मेरी आंखें गीली हो आई थीं।बेटियों की खुशकिस्मती होती है यदि मां के बाद भाभी भी इस रीत को निभाती रहे, और भाभियों का भी सौभाग्य होता है कि ननदों को खोंईछा देने की रीत निभा पाए। हर बेटी के जीवन में यह सौभाग्य बना रहे और खोईंछा की यह प्रथा कभी विलुप्त न होने पाए। हल्दी जैसी शुभ और हरी दूब की तरह जीवन में हरियाली बनाए रखें। यह रीत पुरानी होकर भी अपनी सोने जैसी चमक हमेशा बनाए रखे, यही कामना है।
🙏🙏🙏