Balbeer Gurjar IBC Bada Business

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06/08/2023

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06/08/2023
08/07/2023

Kabir is God

06/07/2023

Kabir is God

06/07/2023

Kabir is God

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06/07/2023

Kabir is God

#ज्ञानगंगा_Part72

श्री देवी महापुराण से ज्ञान ग्रहण करें‘‘
‘‘श्री देवी महापुराण से आंशिक लेख तथा सार विचार‘‘

(संक्षिप्त श्रीमद्देवीभागवत, सचित्र, मोटा टाइप, केवल हिन्दी, सम्पादक-हनुमान प्रसाद पोद्दार, चिम्मनलाल गोस्वामी,
प्रकाशक-गोबिन्दभवन-कार्यालय, गीताप्रेस, गोरखपुर)

।।श्रीजगदम्बिकायै नमः।।
श्री देवी मद्भागवत
तीसरा स्कन्ध

राजा परीक्षित ने श्री व्यास जी से ब्रह्मण्ड की रचना के विषय में पूछा। श्री व्यास जी ने कहा कि राजन मैंने यही प्रश्न ऋषिवर नारद जी से पूछा था, वह वर्णन आपसे बताता हूँ। मैंने (श्री व्यास जी ने) श्री नारद जी से पूछा एक ब्रह्मण्ड के रचियता कौन हैं? कोई तो श्री शंकर भगवान को इसका रचियता मानते हैं। कुछ श्री विष्णु जी को तथा कुछ श्री ब्रह्मा जी को तथा बहुत से आचार्य भवानी को सर्व मनोरथ पूर्ण करने वाली बतलाते हैं। वे आदि माया महाशक्ति हैं तथा परमपुरुष के साथ रहकर कार्य सम्पादन करने वाली प्रकृति हैं। ब्रह्म के साथ उनका अभेद सम्बन्ध है। (पृष्ठ 114)

नारद जी ने कहा - व्यास जी ! प्राचीन समय की बात है - यही संदेह मेरे हृदय में भी उत्पन्न हो गया था। तब मैं अपने पिता अमित तेजस्वी ब्रह्मा जी के स्थानपर गया और उनसे इस समय जिस विषय में तुम मुझसे पूछ रहे हो, उसी विषय में मैंने पूछा। मैंने कहा - पिताजी ! यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड कहां से उत्पन्न हुआ? इसकी रचना आपने की है या श्री विष्णु जी ने या श्री शंकर जी ने - कृपया सत-सत बताना।

ब्रह्मा जी ने कहा - (पृष्ठ 115 से 120 तथा 123, 125, 128, 129) बेटा ! मैं इस प्रश्न का क्या उत्तर दूँ ? यह प्रश्न बड़ा ही जटिल है। पूर्वकाल में सर्वत्र जल-ही-जल था। तब कमल से मेरी उत्पत्ति हुई। मैं कमल की कर्णिकापर बैठकर विचार करने लगा - ‘इस अगाध जल में मैं कैसे उत्पन्न हो गया ? कौन मेरा रक्षक है ? कमलका डंठल पकड़कर जल में उतरा। वहाँ मुझे शेषशायी भगवान् विष्णु का मुझे दर्शन हुआ। वे योगनिद्रा के वशीभूत होकर गाढ़ी नींद में सोये हुए थे। इतने में भगवती योगनिद्रा याद आ गयीं। मैंने उनका स्तवन किया। तब वे कल्याणमयी भगवती श्रीविष्णु के विग्रहसे निकलकर अचिन्त्य रूप धारण करके आकाश में विराजमान हो गयीं। दिव्य आभूषण उनकी छवि बढ़ा रहे थे। जब योगनिद्रा भगवान् विष्णुके शरीर से अलग होकर आकाश में विराजने लगी, तब तुरंत ही श्रीहरि उठ बैठे। अब वहाँ मैं और भगवान् विष्णु - दो थे। वहीं रूद्र भी प्रकट हो गये। हम तीनों को देवी ने कहा - ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर! तुम भलीभांति सावधान होकर अपने-अपने कार्यमें संलग्न हो जाओ। सृष्टि, स्थिति और संहार - ये तुम्हारे कार्य हैं। इतनेमें एक सुन्दर विमान आकाश से उतर आया। तब उन देवी नें हमें आज्ञा दी - ‘देवताओं ! निर्भीक होकर इच्छापूर्वक इस विमान में प्रवेश कर जाओ। ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र! आज मैं तुम्हें एक अद्भुत दृश्य दिखलाती हूँ।‘

हम तीनों देवताओं को उस पर बैठे देखकर देवी ने अपने सामथ्र्य से विमान को आकाश में उड़ा दिया

इतने में हमारा विमान तेजी से चल पड़ा और वह दिव्य धाम- ब्रह्मलोक में जा पहुंचा। वहाँ एक दूसरे ब्रह्मा विराजमान थे। उन्हें देखकर भगवान् शंकर और विष्णु को बड़ा आश्चर्य हुआ। भगवान् शंकर और विष्ण ुने मुझसे पूछा-‘चतुरानन! ये अविनाशी ब्रह्मा कौन हैं?‘ मैंने उत्तर दिया-‘मुझे कुछ पता नहीं, सृष्टि के अधिष्ठाता ये कौन हैं। भगवन्! मैं कौन हूँ और हमारा उद्देश्य क्या है - इस उलझन में मेरा मन चक्कर काट रहा है।‘

इतने में मनके समान तीव्र गामी वह विमान तुरंत वहाँ से चल पड़ा और कैलास के सुरम्य शिखरपर जा पहुंचा। वहाँ विमान के पहुंचते ही एक भव्य भवन से त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकर निकले। वे नन्दी वृषभ पर बैठे थे।

क्षणभर के बाद ही वह विमान उस शिखर से भी पवन के समान तेज चाल से उड़ा और वैकुण्ठ लोक में पहुंच गया, जहां भगवती लक्ष्मी का विलास-भवन था। बेटा नारद ! वहाँ मैंने जो सम्पति देखी, उसका वर्णन करना मेरे लिए असम्भव है। उस उत्तम पुरी को देखकर विष्णु का मन आश्चर्य के समुद्र में गोता खाने लगा। वहाँ कमल लोचन श्रीहरि विराजमान थे। चार भुजाएं थीं।

इतने में ही पवन से बातें करता हुआ वह विमान तुरंत उड़ गया। आगे अमृत के समान मीठे जल वाला समुद्र मिला। वहीं एक मनोहर द्वीप था। उसी द्वीप में एक मंगलमय मनोहर पलंग बिछा था। उस उत्तम पलंग पर एक दिव्य रमणी बैठी थीं। हम आपस में कहने लगे - ‘यह सुन्दरी कौन है और इसका क्या नाम है, हम इसके विषय में बिलकुल अनभिज्ञ हैं।

नारद ! यों संदेहग्रस्त होकर हमलोग वहाँ रूके रहे। तब भगवान् विष्णु ने उन चारुसाहिनी भगवती को देखकर विवेक पूर्वक निश्चय कर लिया कि वे भगवती जगदम्बिका हैं। तब उन्होंने कहा कि ये भगवती हम सभी की आदि कारण हैं। महाविद्या और महामाया इनके नाम हैं। ये पूर्ण प्रकृति हैं। ये ‘विश्वेश्वरी‘, ‘वेदगर्भा‘ एवं ‘शिवा‘ कहलाती हैं।

ये वे ही दिव्यांगना हैं, जिनके प्रलयार्णवमें मुझे दर्शन हुए थे। उस समय मैं बालकरूप में था। मुझे पालने पर ये झुला रही थीं। वटवृक्ष के पत्र पर एक सुदृढ़ शैय्या बिछी थी। उसपर लेटकर मैं पैरके अंगूठे को अपने कमल-जैसे मुख में लेकर चूस रहा था तथा खेल रहा था। ये देवी गा-गाकर मुझे झुलाती थीं। वे ही ये देवी हैं। इसमें कोई संदेह की बात नहीं रही। इन्हें देखकर मुझे पहले की बात याद आ गयी। ये हम सबकी जननी हैं।

श्रीविष्णु ने समयानुसार उन भगवती भुवनेश्वरी की स्तुति आरम्भ कर दी।

भगवान विष्णु बोले - प्रकृति देवीको नमस्कार है। भगवती विधात्रीको निरन्तर नमस्कार है। तुम शुद्धस्वरूपा हो, यह सारा संसार तुम्हींसे उद्भासित हो रहा है। मैं, ब्रह्मा और शंकर - हम सभी तुम्हारी कृपा से ही विद्यमान हैं। हमारा आविर्भाव और तिरोभाव हुआ करता है। केवल तुम्हीं नित्य हो, जगतजननी हो, प्रकृति और सनातनी देवी हो।

भगवान शंकर बोले - ‘देवी ! यदि महाभाग विष्णु तुम्हीं से प्रकट हुए हैं तो उनके बाद उत्पन्न होने वाले ब्रह्मा भी तुम्हारे बालक हुए। फिर मैं तमोगुणी लीला करने वाला शंकर क्या तुम्हारी संतान नहीं हुआ - अर्थात् मुझे भी उत्पन्न करने वाली तुम्हीं हो। इस संसार की सृष्टि, स्थिति और संहार में तुम्हारे गुण सदा समर्थ हैं। उन्हीं तीनों गुणों से उत्पन्न हम ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर नियमानुसार कार्यमें तत्पर रहते हैं। मैं, ब्रह्मा और शिव विमान पर चढ़कर जा रहे थे। हमें रास्तेमें नये-नये जगत् दिखायी पड़े। भवानी ! भला, कहिये तो उन्हें किसने बनाया है ?

इसलिए यही प्रमाण देखें श्री मद्देवीभागवत महापुराण सभाषटिकम् समहात्यम्, खेमराज श्री कृष्ण दास प्रकाशक मुम्बई, इसमें संस्कृत सहित हिन्दी अनुवाद किया है। तीसरा स्कंद अध्याय 4 पृष्ठ 10, श्लोक 42:-

ब्रह्मा - अहम् इश्वरः फिल ते प्रभावात्सर्वे वयं जनि युता न यदा तू नित्याः, के अन्ये सुराः शतमख प्रमुखाः च नित्या नित्या त्वमेव जननी प्रकृतिः पुराणा। (42)

हिन्दी अनुवाद:- हे मात! ब्रह्मा, मैं तथा शिव तुम्हारे ही प्रभाव से जन्मवान हैं, नित्य नही हैं अर्थात् हम अविनाशी नहीं हैं, फिर अन्य इन्द्रादि दूसरे देवता किस प्रकार नित्य हो सकते हैं। तुम ही अविनाशी हो, प्रकृति तथा सनातनी देवी हो। (42)

पृष्ठ 11-12, अध्याय 5, श्लोक 8:- यदि दयार्द्रमना न सदांऽबिके कथमहं विहितः च तमोगुणः कमलजश्च रजोगुणसंभवः सुविहितः किमु सत्वगुणों हरिः। (8)

अनुवाद:- भगवान शंकर बोले:-हे मात! यदि हमारे ऊपर आप दयायुक्त हो तो मुझे तमोगुण क्यों बनाया, कमल से उत्पन्न ब्रह्मा को रजोगुण किस लिए बनाया तथा विष्णु को सतगुण क्यों बनाया? अर्थात् जीवों के जन्म-मृत्यु रूपी दुष्कर्म में क्यों लगाया?

श्लोक 12:- रमयसे स्वपतिं पुरुषं सदा तव गतिं न हि विह विद्म शिवे (12) हिन्दी - अपने पति पुरुष अर्थात् काल भगवान के साथ सदा भोग-विलास करती रहती हो। आपकी गति कोई नहीं जानता।

ब्रह्मा जी कहते हैं - मैं भी महामाया जगदम्बिकाके चरणों पर गिर पड़ा और मैंने उनसे कहा माता ! वेद कहते हैं ‘एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म‘ है तो क्या वह आत्मस्वरूपा तुम्हीं हो अथवा वह कोई और ही पुरुष है?

देवी ने कहा - मैं और ब्रह्म एक ही हैं। मुझमें और इन ब्रह्ममें कभी किंचितमात्र भी भेद नहीं है। गौरी, ब्राह्मी, रौद्री, वाराही, वैष्णवी, शिवा, वारुणी, कौबेरी, नारसिंही और वासबी - सभी मेरे रूप हैं। ब्रह्मा जी ! इस शक्तिको तुम अपनी स्त्री बनाओ। ‘महासरस्वती‘ नाम से विख्यात यह सुन्दरी अब सदा तुम्हारी स्त्री होकर रहेगी। भगवती जगदम्बा ने भगवान् विष्णु से कहा - ‘‘विष्णो ! मनको मुग्ध करनेवाली इस ‘महालक्ष्मी को लेकर अब तुम भी पधारो। यह सदा तुम्हारे वक्षःस्थल में विराजमान रहेगी।

देवी ने कहा-शंकर ! मन को मुग्ध करने वाली यह ‘महाकाली‘ गौरी-नाम से विख्यात है। तुम इसे पत्नीरूप से स्वीकार करो।

अब मेरा कार्य सिद्ध करने के लिये विमान पर बैठकर तुमलोग शीघ्र पधारो। कोई कठिन कार्य उपस्थित होनेपर जब तुम मुझे स्मरण करोगे, तब मैं सामने आ जाऊंगी। देवताओ ! मेरा तथा सनातन परमात्मा का ध्यान तुम्हें सदा करते रहना चाहिये। हम दोनों का स्मरण करते रहोगे तो तुम्हारे कार्य सिद्ध होने में किंचितमात्र भी संदेह नहीं रहेगा।

ब्रह्मा जी कहते हैं - इस प्रकार कहकर भगवती जगदम्बिका ने हमें विदा कर दिया। उन्होंने शुद्ध आचारवाली शक्तियों में से भगवान् विष्णु के लिये महालक्ष्मी को, शंकरके लिये महाकाली को और मेरे लिये महासरस्वती को पत्नी बनने की आज्ञा दे दी। अब उस स्थान से हम चल पडे।

सार विचार:- एक ब्रह्मण्ड की वास्तविक स्थिति से महर्षि व्यास जी, महर्षि नारद जी तथा श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शंकर जी भी अनभिज्ञ हैं। यह भी स्पष्ट है कि श्री दुर्गा को प्रकृति भी कहते हैं तथा दुर्गा तथा ब्रह्म (ज्योति निरंजन-काल) का पति पत्नी का सम्बन्ध भी है। इसलिए लिखा है कि ब्रह्म के साथ प्रकृति का अभेद सम्बन्ध है, जैसे पत्नी को अर्धांगनी भी कहते हैं। श्री ब्रह्मा जी को स्वयं नहीं पता मैं कहां से उत्पन्न हुआ। हजार वर्ष तक जल में पृथ्वी की खोज की, परन्तु नहीं मिली। तब आकाशवाणी के आधार पर हजार वर्ष तक तप किया। कमल का डंठल पकड कर नीचे उतरा तो वहाँ शेष नाग की शैय्या पर भगवान विष्णु बेहोश पड़े थे। श्री विष्णु के शरीर में से एक देवी निकली (प्रेतनी की तरह) जो सुन्दर आभूषण पहने आकाश में विराजमान हो गई। तब श्री विष्णु जी होश में आए। इतने में शंकर जी भी वहीं आ गए।

उपरोक्त विवरण से सिद्ध है कि तीनों भगवान बेहोश कर रखे थे। फिर सचेत किए। आकाश से विमान आया। देवी ने तीनों प्रभुओं को विमान में बैठने का आदेश दिया। विमान को आकाश में उड़ाया। ऊपर एक ब्रह्मा, एक शिव तथा एक विष्णु और देखा जो ब्रह्मलोक में थे।

विचार करें - ब्रह्मलोक में दूसरे ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव दिखाई दिए थे, यह ज्योति निरंजन (ब्रह्म) की ही कलाबाजी है, वही अन्य तीन रूप धारण करके ब्रह्मलोक में तीन गुप्त स्थान (एक रजोगुण प्रधान क्षेत्र, एक सतोगुण प्रधान क्षेत्र, एक तमोगुण प्रधान क्षेत्र) बनाकर रहता है तथा प्रकृति (दुर्गा-अष्टंगी) को अपनी पत्नी रूप में रखता है। जब ये दोनों रजोगुण प्रधान क्षेत्र में होते हैं तब यह महाब्रह्मा तथा दुर्गा महासावित्री कहलाते हैं। इन दोनों के संयोग से जो पुत्र इस रजोगुण प्रधान क्षेत्र में उत्पन्न होता है वह रजोगुण प्रधान होता है, उसका नाम ब्रह्मा रख देते हैं तथा जवान होने तक अचेत करके परवरिश करते रहते हैं। फिर कमल के फूल पर रखकर सचेत कर देते हैं। जब ये दोनों महाविष्णु तथा महालक्ष्मी रूप में (काल-ब्रह्म तथा दुर्गा) सतोगुण प्रधान क्षेत्र में रहते हैं तब दोनों के पति-पत्नी व्यवहार से जो पुत्र उत्पन्न होता है वह सतोगुण प्रधान होता है, उसका नाम विष्णु रख देते हैं। कुछ दिन के पश्चात् बालक को अचेत करके जवान होने तक परवरिश करते रहते हैं। फिर शेष नाग की शैय्या पर सुला देते हैं। फिर सचेत कर देते हैं। इसी प्रकार जब ये दोनों तमोगुण प्रधान क्षेत्र में रहते हैं तब शिवा अर्थात् दुर्गा तथा महाशिव अर्थात् सदाशिव के पति-पत्नी व्यवहार से जो पुत्र इस क्षेत्र में उत्पन्न होता है, वह तमोगुण प्रधान होता है। इसका नाम शिव रख देते हैं, इसे भी जवान होने तक अचेत रखते हैं, फिर जवान होने पर सचेत करते हैं। फिर तीनों को इक्ट्ठा करके विमान में बैठा कर ऊपर के लोकों का दृश्य दिखाते हैं। कहीं ये अपने आप को सर्वेस्वा न मान बैठें। गुण प्रधान क्षेत्र को समझने के लिए एक उदाहरण है - किसी मकान में तीन कमरे हैं। एक कमरे में देश भक्त शहीदों के चित्र लगे हों, जब व्यक्ति उस कमरे में जाता है तो उसके विचार भी देश भक्तों जैसे हो जाते हैं। दूसरे कमरे में साधु-संतों, ऋषियों आदि के चित्र लगे हों। उस कमरे में प्रवेश करते ही मन शान्त तथा प्रभु भक्ति की तरफ लग जाता है। तीसरे कमरे में अश्लील, अर्धनग्न स्त्राी-पुरुषों के चित्र लगे हो तो मन में स्वतः बकवास घर करने लग जाती हैं। इसी प्रकार ऊपर ब्रह्मलोक में काल रूपी ब्रह्म ने तीन स्थान एक-एक गुण प्रधान बनाऐं हैं। तीनों प्रभु (रजगुण ब्रह्माजी, सतगुण विष्णुजी तथा तमगुण शिव जी) अपने गुणों का प्रभाव कैसे डालते हैं। उदाहरण - जैसे रसोईघर में मिर्चों का छोंक सब्जी में लगाया। मिर्च के गुण से सभी कमरों के व्यक्तियों को छींके आने लगी। जैसे साकार वस्तु मिर्च तो रसोई में थी, परन्तु उसकी निराकार शक्ति अर्थात् गुण ने दूर बैठे व्यक्तियों को भी प्रभावित कर दिया।

ठीक इसी प्रकार तीनों प्रभु (श्री ब्रह्मा जी रजगुण, श्री विष्णु जी सतगुण तथा श्री शिव जी तमगुण) अपने-अपने लोक में रहते हुए तीन लोक (पृथ्वी लोक, पाताल लोक तथा स्वर्ग लोक) के प्राणियों को प्रभावित रखते हैं। जैसे मोबाईल फोन की रेंज से फोन कार्य करता है। इस प्रकार अदृश शक्ति रूपी गुणों से तीनों देवता अपने पिता काल की सृष्टि उसके आहार के लिए चला रहे हैं। दुर्गा का अपना अलग लोक भी है, जिसमें यह अपने वास्तविक रूप में दर्शन देती है। फिर इनका विमान दुर्गा के द्वीप में पहुंचा। तब ज्योति निरंजन अर्थात् कालरूपी ब्रह्म ने विष्णु जी को बचपन की याद प्रदान कर दी। तब श्री विष्णु जी ने बताया कि यह दुर्गा अपनी तीनों की माता है। मैं बालक रूप में पालने में लेटा था, यह मुझे लोरी देकर झुला रही थी। तब श्री विष्णु जी ने कहा कि हे दुर्गा आप हमारी माता हो। मैं (विष्णु) ब्रह्मा तथा शंकर तो जन्मवान हैं। हमारा तो आविर्भाव अर्थात् जन्म तथा तिरोभाव अर्थात् मृत्यु होती है, हम अविनाशी नहीं हैं। आप प्रकृति देवी हो। यह बात श्री शंकर जी ने भी स्वीकार की तथा कहा कि मैं तमोगुणी लीला करने वाला शंकर भी आपका ही पुत्र हूँ। श्री विष्णु जी तथा श्री ब्रह्मा जी भी आप से ही उत्पन्न हुए हैं।

फिर इन तीनों देवताओं की शादी दुर्गा ने की। प्रकृति देवी (दुर्गा) ने अपनी शब्द शक्ति से अपने ही अन्य तीन रूप धारण किए। श्री ब्रह्मा जी की शादी सावित्री से, श्री विष्णु जी की शादी लक्ष्मी से तथा श्री शिव जी की शादी उमा अर्थात् काली से करके विमान में बैठाकर इन के अलग-अलग द्वीपों (लोकों) में भेज दिया।

ज्योति निरंजन (काल-ब्रह्म) ने अपने स्वांसों द्वारा समुद्र में चार वेद छुपा दिए। फिर प्रथम सागर मंथन के समय ऊपर प्रकट कर दिए। ज्योति निरंजन (काल) के आदेश से दुर्गा ने चारों वेद श्री ब्रह्मा जी को दिए। ब्रह्मा ने दुर्गा (अपनी माता) से पूछा कि वेदों में जो ब्रह्म (प्रभु) कहा है वे आप ही हो या कोई अन्य पुरुष है।

दुर्गा ने काल के डर से वास्तविकता छुपाने की चेष्टा करते हुए कहा कि मैं तथा ब्रह्म एक ही हैं, कोई भेद नहीं। फिर भी वास्तविकता नहीं छुपी। दुर्गा ने फिर कहा कि तुम तीनों मेरा तथा ब्रह्म का सदा स्मरण करते रहना। हम दोनों का स्मरण करते रहने से यदि कोई कठिन कार्य होगा तो मैं तुरन्त सामने आ जाऊंगी।

विशेष - क्योंकि काल ने दुर्गा से कह रखा है कि मेरा भेद किसी को नहीं कहना है। इस डर से दुर्गा सर्व जगत् को वास्तविकता से अपरिचित रखती है। ये अपने पुत्रों को भी धोखे में रखते हैं। इसका कारण है कि काल को शाप लगा है एक लाख मानव शरीरधारी प्राणियों का आहार नित्य करने का। इसलिए अपने तीनों पुत्रों से अपना आहार तैयार करवाता है। श्री ब्रह्मा जी के रजगुण से प्रभावित करके सर्व प्राणियों से संतान उत्पति करवाता है। श्री विष्णु जी के सतोगुण से एक दूसरे में मोह उत्पन्न करके स्थिति अर्थात् काल जाल में रोके रखता है तथा श्री शंकर जी के तमोगुण से संहार करवा कर अपना आहार तैयार करवाता है। फिर तीनों प्रभुओं को भी मार कर खाता है तथा नए पुण्य कर्मी प्राणियों में से तीन पुत्र उत्पन्न करके अपना कार्य जारी रखता है तथा पूर्व वाले तीनों ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव चैरासी लाख योनियों तथा स्वर्ग-नरक में कर्म आधार से चक्र लगाते रहते हैं। यही प्रमाण शिव महापुराण, रूद्र संहिता, प्रथम (सृष्टि) खण्ड, अध्याय 6, 7 तथा 8, 9 में भी है।

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Kabir is God
04/07/2023

Kabir is God

#ज्ञानगंगा_Part70

‘‘श्री ब्रह्मा जी तथा श्री विष्णु जी का युद्ध‘‘

श्री शिव पुराण (विद्येश्वर संहिता अध्याय 6 अनुवादक दीन दयाल शर्मा, प्रकाशक रामायण प्रैस मुम्बई, पृष्ठ 67 तथा सम्पादक पंडित रामलग्न पाण्डेय ‘‘विशारद‘‘ प्रकाशक सावित्रा ठाकुर, प्रकाशन रथयात्रा वाराणसी, ब्रांच - नाटी इमली वाराणसी के विद्येश्वर संहिता अध्याय 6, पृष्ठ 54 तथा टीकाकार डाॅ. ब्रह्मानन्द त्रिपाठी साहित्य आयुर्वेद ज्योतिष आचार्य, एम.ए.,पी.एच.डी.,डी.एस.,सी.ए.। प्रकाशक चैखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान, 38 यू.ए., जवाहर नगर, बंगलो रोड़, दिल्ली, संस्कृत सहित शिव पुराण के विद्येश्वर संहिता अध्याय 6 पृष्ठ 45 पर)

श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी के पास आए। उस समय श्री विष्णु जी लक्ष्मी सहित शेष शैय्या पर सोए हुए थे। साथ में अनुचर भी बैठे थे। श्री ब्रह्मा जी ने श्री विष्णु जी से कहा बेटा, उठ देख तेरा बाप आया हूँ। मैं तेरा प्रभु हूँ। इस पर विष्णु जी ने कहा आओ, बैठो मैं तुम्हारा पिता हूँ। तेरा मुख टेढ़ा क्यों हो गया। ब्रह्मा जी ने कहा - हे पुत्र! अब तुझे अभिमान हो गया है, मैं तेरा संरक्षक ही नहीं हूँ। परंतु समस्त जगत् का पिता हूँ। श्री विष्णु जी ने कहा रे चोर ! तू अपना बड़प्पन क्या दिखाता है ? सर्व जगत् तो मुझमें निवास करता है। तू मेरी नाभि कमल से उत्पन्न हुआ और मुझ से ही ऐसी बातें कर रहा है। इतना कह कर दोनों प्रभु आपस में हथियारों से लड़ने लगे। एक-दूसरे के वक्षस्थल पर आघात किए। यह देखकर सदाशिव (काल रूपी ब्रह्म) ने एक तेजोमय लिंग उन दोनों के मध्य खड़ा कर दिया, तब उनका युद्ध समाप्त हुआ। (यह उपरोक्त विवरण गीता प्रैस गोरखपुर वाली शिव पुराण से निकाल रखा है। परन्तु मूल संस्कृत सहित जो ऊपर लिखी है तथा अन्य दो सम्पादकों तथा प्रकाशकों वाली शिव पुराण में सही है।)

विचार करें - श्री शिव पुराण, श्री विष्णु पुराण तथा श्री ब्रह्मा पुराण तथा श्री देवी महापुराण में तीनों प्रभुओं तथा सदाशिव (काल रूपी ब्रह्म) तथा देवी (शिवा-प्रकृति) की जीवन लीलाऐं हैं। इन्हीं के आधार से सर्व ऋषिजन व गुरुजन ज्ञान सुनाया करते थे। यदि कोई पवित्र पुराणों से भिन्न ज्ञान कहता है वह पाठ्य क्रम के विरुद्ध ज्ञान होने से व्यर्थ है।

उपरोक्त युद्ध का विवरण पवित्र शिव पुराण से है, जिसमें दोनों प्रभु पाँच वर्ष के बच्चों की तरह झगड़ रहे हैं। वे कहा करते हैं कि तू मेरा बेटा, दूसरा कहा करता है तू मेरा बेटा, मैं तेरा बाप। फिर एक - दूसरे का गिरेबान पकड़ कर मुक्कों व लातों से झगड़ा करते हैं। यही चरित्र त्रिलोक नाथों का है।

उपरोक्त तीनों पुराणों (श्री ब्रह्मा पुराण, श्री विष्णु पुराण तथा श्री शिवपुराण) का प्रारम्भ तो काल रूपी ब्रह्म अर्थात् ज्योति निरंजन से ही होता है जो ब्रह्मलोक में महाब्रह्मा, महाविष्णु तथा महाशिव रूप धारण करके रहता है तथा अपनी लीला भी उपरोक्त रूप में करता है। अपने वास्तविक काल रूप को छुपा कर रखता है तथा बाद में विवरण रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव जी की लीलाओं का है। उपरोक्त ज्ञान के आधार से पवित्र पुराणों को समझना अति आसान हो जाएगा।

‘‘श्री विष्णु पुराण‘‘
(अनुवादक श्री मुनिलाल गुप्त, प्रकाशक - गोविन्द भवन कार्यालय, गीताप्रैस गोरखपुर)

श्री विष्णुपुराण का ज्ञान श्री पारासर ऋषि ने अपने शिष्य श्री मैत्रोय ऋषि जी को कहा है।

श्री पारासर ऋषि जी ने शादी होते ही गृह त्याग कर वन में साधना करने का दृढ़ संकल्प किया। उसकी धर्मपत्नी ने कहा अभी तो शादी हुई है, अभी आप घर त्याग कर जा रहे हो। संतान उत्पत्ति करके फिर साधना के लिए जाना। तब श्री पारासर ऋषि ने कहा कि साधना करने के पश्चात् संतान उत्पन्न करने से नेक संस्कार की संतान उत्पन्न होगी। मैं कुछ समय उपरान्त आपके लिए अपनी शक्ति (वीर्य) किसी पक्षी के द्वारा भेज दूंगा, आप उसे ग्रहण कर लेना। यह कह कर घर त्याग कर वान प्रस्थ हो गया। एक वर्ष साधना के उपरान्त अपना वीर्य निकाल कर एक वृक्ष के पत्र में बंद करके अपनी मंत्र शक्ति से शुक्राणु रक्षा करके एक कौवे से कहा कि यह पत्र मेरी पत्नी को देकर आओ। कौवा उसे लेकर दरिया के ऊपर से उड़ा जा रहा था। उसकी चोंच से वह पत्र दरिया में गिर गया। उसे एक मछली ने खा लिया। कुछ महिनों उपरांत उस मछली को एक मलहा ने पकड़ कर काटा, उसमें से एक लड़की निकली। मलहा ने लड़की का नाम सत्यवती रखा वही लड़की (मछली के उदर से उत्पन्न होने के कारण) मछोदरी नाम से भी जानी जाती थी नाविक ने सत्यवती को अपनी पुत्री रूप में पाला।

कौवे ने वापिस जा कर श्री पारासर जी को सर्व वृतान्त बताया। जब साधना समाप्त करके श्री पारासर जी सोलह वर्ष उपरान्त वापिस आ रहे थे, दरिया पार करने के लिए मलाह को पुकार कर कहा कि मुझे शीघ्र दरिया से पार कर। मेरी पत्नी मेरी प्रतिक्षा कर रही है। उस समय मलाह खाना खा रहा था तथा श्री पारासर ऋषि के बीज से मछली से उत्पन्न चैदह वर्षीय युवा कन्या अपने पिता का खाना लेकर वहीं पर उपस्थित थी। मलाह को ज्ञान था कि साधना तपस्या करके आने वाला ऋषि सिद्धि युक्त होता है। आज्ञा का शीघ्र पालन न करने के कारण शाप दे देता है। मलाह ने कहा ऋषिवर मैं खाना खा रहा हूँ, अधूरा खाना छोड़ना अन्नदेव का अपमान होता है, मुझे पाप लगेगा। परन्तु श्री पारासर जी ने एक नहीं सुनी। ऋषि को अति उतावला जानकर मल्लाह ने अपनी युवा पुत्री से ऋषि जी को पार छोड़ने को कहा। पिता जी का आदेश प्राप्त कर पुत्री नौका में ऋषि पारासर जी को लेकर चल पड़ी। दरिया के मध्य जाने के पश्चात् ऋषि पारासर जी ने अपने ही बीज शक्ति से मछली से उत्पन्न लड़की अर्थात् अपनी ही पुत्री से दुष्कर्म करने की इच्छा व्यक्त की। लड़की भी अपने पालक पिता मलाह से ऋषियों के क्रोध से दिए शाप से हुए दुःखी व्यक्तियों की कथाऐं सुना करती थी। शाप के डर से कांपती हुई कन्या ने कहा ऋषि जी आप ब्राह्मण हो, मैं एक शुद्र की पुत्री हूँ। ऋषि पारासर जी ने कहा कोई चिंता नहीं। लड़की ने अपनी इज्जत रक्षा के लिए फिर बहाना किया हे ऋषिवर! मेरे शरीर से मछली की दुर्गन्ध निकल रही है। ऋषि पारासर जी ने अपनी सिद्धि शक्ति से दुर्गन्ध समाप्त कर दी। फिर लड़की ने कहा दोनों किनारों पर व्यक्ति देख रहे हैं। ऋषि पारासर जी ने गंगा दरिया का जल हाथ में उठा कर आकाश में फैंका तथा अपनी सिद्धि शक्ति से धूंध उत्पन्न कर दी। अपना मनोरथ पूरा किया। लड़की ने अपने पालक पिता को अपनी पालक माता के माध्यम से सर्व घटना से अवगत करा दिया तथा बताया कि ऋषि ने अपना नाम पारासर बताया तथा ऋषि वशिष्ठ जी का पौत्र (पोता) बताया था। समय आने पर कंवारी के गर्भ से श्री व्यास ऋषि उत्पन्न हुए।

उसी श्री पारासर जी के द्वारा श्री विष्णु पुराण की रचना हुई है। श्री पारासर जी ने बताया कि हे मैत्रोय! जो ज्ञान मैं तुझे सुनाने जा रहा हूँ, यही प्रसंग दक्षादि मुनियों ने नर्मदा तट पर राजा पुरुकुत्स को सुनाया था। पुरुकुत्स ने सारस्वत से और सारस्वत ने मुझ से कहा था। श्री पारासर जी ने श्री विष्णु पुराण के प्रथम अध्याय श्लोक संख्या 31, पृष्ठ संख्या 3 में कहा है कि यह जगत विष्णु से उत्पन्न हुआ है, उन्हीं में स्थित है। वे ही इसकी स्थिति और लय के कर्ता हैं। अध्याय 2 श्लोक 15.16 पृष्ठ 4 में कहा है कि हे द्विज ! परब्रह्म का प्रथम रूप पुरुष अर्थात् भगवान जैसा लगता है, परन्तु व्यक्त (महाविष्णु रूप में प्रकट होना) तथा अव्यक्त (अदृश रूप में वास्तविक काल रूप में इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में रहना) उसके अन्य रूप हैं तथा ‘काल‘ उसका परम रूप है। भगवान विष्णु जो काल रूप में तथा व्यक्त और अव्यक्त रूप से स्थित होते हैं, यह उनकी बालवत लीला है।

अध्याय 2 श्लोक 27 पृष्ठ 5 में कहा है - हे मैत्रोय ! प्रलय काल में प्रधान अर्थात् प्रकृति के साम्य अवस्था में स्थित हो जाने पर अर्थात् पुरुष के प्रकृति से पृथक स्थित हो जाने पर विष्णु भगवान का काल रूप प्रवृत होता है।

अध्याय 2 श्लोक 28 से 30 पृष्ठ 5 - तदन्तर (सर्गकाल उपस्थित होने पर) उन परब्रह्म परमात्मा विश्व रूप सर्वव्यापी सर्वभूतेश्वर सर्वात्मा परमेश्वर ने अपनी इच्छा से विकारी प्रधान और अविकारी पुरुष में प्रविष्ट होकर उनको क्षोभित किया।।28- 29।। जिस प्रकार क्रियाशील न होने पर भी गंध अपनी सन्निधि मात्र से ही प्रधान व पुरुष को पे्ररित करते हैं।

विशेष - श्लोक संख्या 28 से 30 में स्पष्ट किया है कि प्रकृति (दुर्गा) तथा पुरुष (काल-प्रभु) से अन्य कोई और परमेश्वर है जो इन दोनों को पुनर् सृष्टि रचना के लिए प्रेरित करता है।

अध्याय 2 पृष्ठ 8 पर श्लोक 66 में लिखा है वेही प्रभु विष्णु सृष्टा (ब्रह्मा) होकर अपनी ही सृष्टि करते हैं। श्लोक संख्या 70 में लिखा है। भगवान विष्णु ही ब्रह्मा आदि अवस्थाओं द्वारा रचने वाले हैं। वेही रचे जाते हैं और स्वयं भी संहृत अर्थात् मरते हैं। अध्याय 4 श्लोक 4 पृष्ठ 11 पर लिखा है कि कोई अन्य परमेश्वर है जो ब्रह्मा, शिव आदि ईश्वरों के भी ईश्वर हैं। अध्याय 4 श्लोक 14.15, 17, 22 पृष्ठ 11, 12 पर लिखा है। पृथ्वी बोली - हे काल स्वरूप ! आपको नमस्कार हो। हे प्रभो ! आप ही जगत की सृष्टि आदि के लिए ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र रूप धारण करने वाले हैं। आपका जो रूप अवतार रूप में प्रकट होता है उसी की देवगण पूजा करते हैं। आप ही ओंकार हैं। अध्याय 4 श्लोक 50 पृष्ठ 14 पर लिखा है - फिर उन भगवान हरि ने रजोगुण युक्त होकर चतुर्मुख धारी ब्रह्मा रूप धारण कर सृष्टि की रचना की।

उपरोक्त विवरण से सिद्ध हुआ कि ऋषि पारासर जी ने सुना सुनाया ज्ञान अर्थात् लोकवेद के आधार पर श्री विष्णु पुराण की रचना की है। क्योंकि वास्तविक ज्ञान पूर्ण परमात्मा ने प्रथम सतयुग में स्वयं प्रकट होकर श्री ब्रह्मा जी को दिया था। श्री ब्रह्मा जी ने कुछ ज्ञान तथा कुछ स्वनिर्मित काल्पनिक ज्ञान अपने वंशजों को बताया। एक दूसरे से सुनते-सुनाते ही लोकवेद श्री पारासर जी को प्राप्त हुआ। श्री पारासर जी ने विष्णु को काल भी कहा है तथा परब्रह्म भी कहा है। उपरोक्त विवरण से यह भी सिद्ध हुआ कि विष्णु अर्थात् ब्रह्म स्वरूप काल अपनी उत्पत्ति ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव रूप से करके सृष्टि उत्पन्न करते हैं। ब्रह्म (काल) ही ब्रह्म लोक में तीन रूपों में प्रकट हो कर लीला करके छल करता है। वहाँ स्वयं भी मरता है (विशेष जानकारी के लिए कृप्या पढ़ें ‘प्रलय की जानकारी‘ पुस्तक ‘गहरी नजर गीता में‘ अध्याय 8 श्लोक 17 की व्याख्या में) उसी ब्रह्म लोक में तीन स्थान बनाए हैं। एक रजोगुण प्रधान उसमें यही काल रूपी ब्रह्म अपना ब्रह्मा रूप धारण करके रहता है तथा अपनी पत्नी दुर्गा को साथ रख कर एक रजोगुण प्रधान पुत्र उत्पन्न करता है। उसका नाम ब्रह्मा रखता है। उसी से एक ब्रह्मण्ड में उत्पत्ति करवाता है। इसी प्रकार उसी ब्रह्म लोक एक सतगुण प्रधान स्थान बना कर स्वयं अपना विष्णु रूप धारण करके रहता है तथा अपनी पत्नी दुर्गा (प्रकति) को पत्नी रूप में रख कर एक सतगुण युक्त पुत्र उत्पन्न करता है। उसका नाम विष्णु रखता है। उस पुत्र से एक ब्रह्मण्ड में तीन लोकों (पृथ्वी, पाताल, स्वर्ग) में स्थिति बनाए रखने का कार्य करवाता है। (प्रमाण शिव पुराण गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित अनुवाद हनुमान प्रसाद पौद्दार चिमन लाल गौस्वामी रूद्र संहिता अध्याय 6, 7 पृष्ठ 102-103)

ब्रह्मलोक में ही एक तीसरा स्थान तमगुण प्रधान रच कर उसमें स्वयं शिव रूप धारण करके रहता है तथा अपनी पत्नी दुर्गा (प्रकृति) को साथ रख कर पति-पत्नी के व्यवहार से उसी तरह तीसरा पुत्र तमोगुण युक्त उत्पन्न करता है। उसका नाम शंकर (शिव) रखता है। इस पुत्र से तीन लोक के प्राणियों का संहार करवाता है।

विष्णु पुराण में अध्याय 4 तक जो ज्ञान है वह काल रूप ब्रह्म अर्थात् ज्योति निरंजन का है। अध्याय 5 से आगे का मिला-जुला ज्ञान काल के पुत्र सतगुण विष्णु की लीलाओं का है तथा उसी के अवतार श्री राम, श्री कृष्ण आदि का ज्ञान है।

विशेष विचार करने की बात है कि श्री विष्णु पुराण का वक्ता श्री पारासर ऋषि है। यही ज्ञान दक्षादि ऋषियों से पुरुकुत्स ने सुना, पुरुकुत्स से सारस्वत ने सुना तथा सारस्वत से श्री पारासर ऋषि ने सुना। वह ज्ञान श्री विष्णु पुराण में लिपि बद्ध किया गया जो आज अपने करकमलों में है। इसमें केवल एक ब्रह्मण्ड का ज्ञान भी अधुरा है। श्री देवीपुराण, श्री शिवपुराण आदि पुराणों का ज्ञान भी ब्रह्मा जी का दिया हुआ है। श्री पारासर वाला ज्ञान श्री ब्रह्मा जी द्वारा दिए ज्ञान के समान नहीं हो सकता। इसलिए श्री विष्णु पुराण को समझने के लिए देवी पुराण तथा श्री शिव पुराण का सहयोग लिया जाएगा। क्योंकि यह ज्ञान दक्षादि ऋषियों के पिता श्री ब्रह्मा जी का दिया हुआ है। श्री देवी पुराण तथा श्री शिवपुराण को समझने के लिए श्रीमद् भगवद् गीता तथा चारों वेदों का सहयोग लिया जाएगा। क्योंकि यह ज्ञान स्वयं भगवान काल रूपी ब्रह्म द्वारा दिया गया है। जो ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव जी का उत्पन्न कर्ता अर्थात् पिता है। पवित्र वेदों तथा पवित्र श्रीमद् भगवद् गीता जी के ज्ञान को समझने के लिए स्वसम वेद अर्थात् सूक्ष्म वेद का सहयोग लेना होगा जो काल रूपी ब्रह्म के उत्पत्ति कर्ता अर्थात् पिता परम अक्षर ब्रह्म (कविर्देव) का दिया हुआ है। जो (कविर्गीभिः) कविर्वाणी द्वारा स्वयं सतपुरुष ने प्रकट हो कर बोला था। (ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मंत्र 16 से 20 तक प्रमाण है।)

“श्री ब्रह्मा पुराण”
इस पुराण के वक्ता श्री लोमहर्षण ऋषि जी हैं। जो श्री व्यास ऋषि के शिष्य हुए हैं जिन्हें सूत जी भी कहा जाता है। श्री लोमहर्षण जी (सूत जी) ने बताया कि यह ज्ञान पहले श्री ब्रह्मा जी ने दक्षादि श्रेष्ठ मुनियों को सुनाया था। वही मैं सुनाता हूँ। इस पुराण के सृष्टि के वर्णन नामक अध्याय में (पृष्ठ 277 से 279 तक) कहा है कि श्री विष्णु जी सर्व विश्व के आधार हैं जो ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव रूप से जगत की उत्पत्ति तथा पालन तथा संहार करते हैं। उस भगवान विष्णु को मेरा नमस्कार है।

जो नित्य सद्सत स्वरूप तथा कारणभूत अव्यक्त प्रकृति है उसी को प्रधान कहते हैं। उसी से पुरुष ने इस विश्व का निर्माण किया है। अमित तेजस्वी ब्रह्मा जी को ही पुरुष समझो। वे समस्त प्राणियों की सृष्टि करने वाले तथा भगवान नारायण के आश्रित हैं।

स्वयंभू भगवान नारायण ने जल की सृष्टि की। नारायण से उत्पन्न होने के कारण जल को नार कहा जाने लगा। भगवान ने सर्व प्रथम जल पर विश्राम किया। इसलिए भगवान को नारायण कहा जाता है। भगवान ने जल में अपनी शक्ति छोड़ी उससे एक सुवर्णमय अण्ड प्रकट हुआ। उसी में स्वयंभू ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई ऐसा सुना जाता है। एक वर्ष तक अण्डे में निवास करके श्री ब्रह्मा जी ने उसके दो टुकड़े कर दिए। एक से धूलोक बन गया और दूसरे से भूलोक।

तत्पश्चात् ब्रह्मा जी ने अपने रोष से रूद्र को प्रकट किया। उपरोक्त ज्ञान ऋषि लोमहर्षण (सूत जी) का कहा हुआ है जो सुना सुनाया (लोक वेद) है जो पूर्ण नहीं है। क्योंकि वक्ता कह रहा है कि ऐसा सुना है। इसलिए पूर्ण जानकारी के लिए श्री देवीमहापुराण, श्री शिवमहापुराण, श्रीमद् भगवद् गीता तथा चारों वेद और पूर्ण परमात्मा द्वारा तत्व ज्ञान जो स्वसम वेद अर्थात् कविर्वाणी (कबीर वाणी) कहा जाता है। उसके लिए कृप्या पढ़ें ‘गहरी नजर गीता में‘, परमेश्वर का सार संदेश‘, परिभाषा प्रभु की तथा पुस्तक ‘यथार्थ ज्ञान प्रकाश में‘।

(वास्तविक ज्ञान को स्वयं कलयुग में प्रकट होकर कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने अपने खास सेवक श्री धर्मदास साहेब जी (बांधवगढ़ वाले) को पुनर् ठीक-ठीक बताया। जो इसी पुस्तक में सृष्टि रचना में वर्णित है, कृप्या वहाँ पढ़ें।)।

श्री पारासर जी ने काल ब्रह्म को परब्रह्म भी कहा है तथा ब्रह्म भी तथा विष्णु भी कहा है तथा इसी को अनादि अर्थात् अमर भी कहा है। इस ब्रह्म अर्थात् काल का जन्म मृत्यु नहीं होती। इसी से ऋषि की बाल बुद्धि सिद्ध होती है।
विचार करें - विष्णु पुराण का ज्ञान एक ऋषि द्वारा कहा है जिसने लोकवेद (सुने सुनाऐं ज्ञान अर्थात् दंत कथा) के आधार से कहा है तथा ब्रह्मा पुराण का ज्ञान श्री लोमहर्षण ऋषि ने दक्षादि ऋषियों से सुना था, वह लिखा है। इसलिए उपरोक्त दोनों (विष्णु पुराण व ब्रह्मा पुराण) को समझने के लिए श्री देवी पुराण तथा श्री शिव पुराण का सहयोग लिया जाएगा, जो स्वयं श्री ब्रह्मा जी ने अपने पुत्र नारद जी को सुनाया, जो श्री व्यास ऋषि के द्वारा ग्रहण हुआ तथा लिखा गया। अन्य पुराणों का ज्ञान श्री ब्रह्मा जी के ज्ञान के समान नहीं हो सकता। इसलिए अन्य पुराणों को समझने के लिए देवी पुराण तथा श्री शिव पुराण का सहयोग लिया जाएगा। क्योंकि यह ज्ञान दक्षादि ऋषियों के पिता श्री ब्रह्मा जी का दिया हुआ है। श्री देवी पुराण तथा श्री शिवपुराण को समझने के लिए श्रीमद् भगवद् गीता तथा चारों वेदों का सहयोग लिया जाएगा। क्योंकि यह ज्ञान स्वयं भगवान काल रूपी ब्रह्म द्वारा दिया गया है। जो ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव जी का उत्पन्न कर्ता अर्थात् पिता है। पवित्र वेदों तथा पवित्र श्रीमद् भगवद् गीता जी के ज्ञान को समझने के लिए स्वसम वेद अर्थात् सूक्ष्म वेद का सहयोग लेना होगा जो काल रूपी ब्रह्म के उत्पत्ति कर्ता अर्थात् पिता परम अक्षर ब्रह्म (कविर्देव) का दिया हुआ है। जो (कविर्गीभिः) कविर्वाणी द्वारा स्वयं सतपुरुष ने प्रकट हो कर बोला था। (ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मंत्र 16 से 20 तक प्रमाण है।) तथा श्रीमद् भगवत गीता में भगवान काल अर्थात् ब्रह्म ने अपनी स्थिति स्वयं बताई है जो सत है।

गीता अध्याय 15 श्लोक 18 में कहा है कि मैं (काल रूपी ब्रह्म) अपने इक्कीस ब्रह्मण्डों में जितने भी प्राणी हैं उनसे श्रेष्ठ हूँ। वे चाहे स्थूल शरीर में नाशवान हैं, चाहे आत्मा रूप में अविनाशी हैं। इसलिए लोकवेद (सुने सुनाए ज्ञान) के आधार से मुझे पुरुषोत्तम मानते हैं। वास्तव में पुरुषोत्तम तो मुझ (क्षर पुरुष अर्थात् काल) से तथा अक्षर पुरुष (परब्रह्म) से भी अन्य है। वही वास्तव में परमात्मा अर्थात् भगवान कहा जाता है। तीनों लोकों में प्रवेश करके सर्व का धारण पोषण करता है, वही वास्तव में अविनाशी परमेश्वर है (गीता अध्याय 15 श्लोक 16.17)।

गीता ज्ञान दाता ब्रह्म स्वयं कह रहा है कि हे अर्जुन ! तेरे तथा मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। श्रीमद् भगवद् गीता अध्याय 4 श्लोक 5, अध्याय 2 श्लोक 12 में प्रमाण है तथा अध्याय 7 श्लोक 18 में अपनी साधना को भी (अनुत्तमाम्) अति अश्रेष्ठ कहा है। इसलिए अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि हे अर्जुन ! सर्व भाव से उस परमेश्वर की शरण में जा जिसकी कृपा से ही तू परमशांति को प्राप्त होगा तथा कभी न नष्ट होने वाले लोक अर्थात् सतलोक को प्राप्त होगा। अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि जब तुझे तत्वदर्शी प्राप्त हो जाए (जो गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में तथा अध्याय 15 श्लोक 1 में वर्णित है) उसके पश्चात् उस परम पद परमेश्वर की खोज करनी चाहिए जिसमें गए साधक फिर लौट कर संसार में नहीं आते अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करते हैं। जिस परमेश्वर से यह सर्व संसार उत्पन्न हुआ तथा वही सर्व का धारण-पोषण करने वाला है। मैं (गीता ज्ञान दाता ब्रह्म रूपी काल) भी उसी आदि पुरुष परमेश्वर की शरण में हूँ। पूर्ण विश्वास के साथ उसी की भक्ति साधना अर्थात् पूजा करनी चाहिए।

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