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सम्पादकीय

गौरवपूर्ण,ईमानदार व जुझारू पत्रकारिता के लिए प्रधानमंत्री को पत्र

माननीय प्रधानमंत्री/मुख्यमंत्री महोदय, सादर वन्दे मातरम्! मैं इस देश का / आपके प्रदेश का एक साधारण नागरिक हूँ तथा विगत डेढ़ दशक से पत्रकारिता से जुड़ा हूँ। मैं अपने इस पत्र के माध्यम से पत्रकारिता से जुडे एक बेहद अहम मसले को आपके ध्यान में लाना चाहता हूँ और उम्मीद करता हूँ कि आप इस पत्र में दर्शाई गई ईमानदार व राष्ट्रभक्

त पत्रकारों की पीड़ा को समझेंगे तथा सुझाए गये उपाय पर सकारात्मक कदम उठाकर न सिर्फ पत्रकारिता वरन् भारत देश के विकास को एक नई गति व दिशा देंगें।

महोदय, ‘पत्रकारिता’ व ‘राष्ट्रहित’ दो ऐसे शब्द हैं जो जितने अधिक महत्वपूर्ण हैं उनके प्रति उतनी ही कम प्रतिबद्धता हमारी लोकतांत्रिक सरकारों नें आजादी के दिन से आज तक दिखाई है। किसी भी सभ्य समाज में ‘पत्रकारिता’ की अपरिहार्यता व महत्व से कोई इनकार नहीं कर सकता है। सही मायनों में पत्रकारिता का जन्म ही समाज व लोकतंत्र के रक्षक के रूप में हुआ है। लेखन,प्रसारण संबंधी वे सभी गतिविधियाँ ‘पत्रकारिता’ कहलाती हैं जिनसे की समाज व लोकतंत्र की कमियाँ सामने आती हों तथा समाज को निरन्तर एक सकारात्मक मार्गदर्शन प्राप्त होता हो। यहाँ खास बात यह है कि पत्रकारिता की प्रतिबद्धता सदैव ‘देश की जनता’ के प्रति होती है। यदि कोई भी व्यक्ति देश हित के बजाय किसी अन्य के प्रति प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने वाला लेखन या प्रसारण करता है तो उस व्यक्ति विशेष को ‘ख़बर लेखक’ से लेकर कोई भी संज्ञा दी जा सकती है परन्तु उसे ‘पत्रकार’ तो कदापि नहीं कहा जा सकता है क्योंकि पत्रकार की प्रत्येक सांस में; उसके द्वारा लिखे गये प्रत्येक शब्द में राष्ट्रहित व समाजहित की भावना ही सर्वोपरी होती है। सिर्फ ऐसी ही पत्रकारिता के बारे में नेपोलियन ने कहा था कि वो हजारों संगीनों की बजाय एक समाचारपत्र से अधिक डरता है। आज अधिकांश तथाकथित ‘पत्रकार’ पत्रकारिता करने का भ्रम फैलाकर समाज में प्रतिष्ठा व शक्ति तो पाना चाहते हैं परन्तु इस बात पर विचार करने को बिलकुल भी तैयार नहीं हैं कि क्या वे समाज में प्रतिष्ठा पाने के हकदार हैं? क्या वे सही मायने में ‘पत्रकारिता’ कर रहे हैं? गहन मंथन के बाद आज का लगभग हर पत्रकार इस निष्कर्ष पर पहुँचेगा कि यदि निष्पक्ष रूप से देखें तो आज हम ‘पत्रकारिता’ नहीं सिर्फ उसका दिखावा करने मात्र में लगे हैं; शायद इसीलिए समाज में लगातार पत्रकाराें की साख़ गिरती जा रही है और साख़ आखि़र गिरे क्यों नहीं अधिकांश तथाकथित पत्रकारों ने अपनी प्रतिबद्धता जनता के बजाय अपनी स्वार्थपूर्ति में सहायक व्यक्तियों के पास गिरवी जो रख दी है। अपनी प्रतिबद्धता गिरवी रखने वाले तथाकथित पत्रकारों व प्रतिबद्धता को गिरवी रखवाने वाले प्रशासक/राजनेता /कर्मचारी; सभी पक्षों की स्वार्थ पूर्ति निर्बाध रूप से जारी है परन्तु क्या जिससे पत्रकारिता को शक्ति प्राप्त हुई थी उस शक्तिपुंज को यानी देश की जनता को कुछ मिल रहा है? जब जनता को हमसे कुछ मिल ही नहीं रहा तो वो आखि़र क्यों हमें सम्मान देगी? महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि जब पत्रकारिता का जन्म ही जनता के लिए हुआ है तो आखिर क्यों पत्रकारिता अपने पथ से भटक गई है? मेरी राय में इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है- पत्रकारिता के क्षेत्र में ‘पत्रकारिता’ को कैरियर मानने वाले लोगों का बाहुल्य । जब से पत्रकारिता के क्षेत्र में उसे कैरियर मानने वाले लोगों का प्रवेश हुआ है तभी से इस क्षेत्र में सिर्फ पत्रकारिता विहीन पत्रकारों की संख्या बढ़ी है। यक्ष प्रश्न यह है कि क्या पत्रकारिता एक ‘कैरियर’ है? यदि है तो क्या पत्रकारिता को कैरियर के रूप में अपनाकर हम देश की जनता के साथ पूरी तरह से न्याय कर सकते हैं? मेरी राय में तो ऐसा कदापि सम्भव ही नहीं है क्योंकि ‘कैरियर’ शब्द का अर्थ ही होता है-व्यवसाय,पेशा,उद्योग,आजीविका । यदि हम पत्रकारिता के साथ ‘कैरियर’ शब्द जोड़ दे ंतो इसका अर्थ हुआ पत्रकारिता के हथियार का व्यावसायिक रूप में आजीविकी कमाने के मुख्य मकसद से प्रयोग। जब पत्रकारिता के क्षेत्र में आजीवीका हमारा मुख्य मकसद होगी तो हम राष्ट्रहित के प्रति कितनी मात्रा में और कितने समय तक वफादार रहेंगें यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। पत्रकारिता को आजीविका का साधन मानते ही न तो विचारों की स्वतंत्रता प्राप्त हो सकती है,न ईमानदारी बच सकती है; न राष्ट्रहित का जज़्बा सुरक्षित रह सकता है और न ही पत्रकारिता के महत्वपूर्ण गुण आत्मसम्मान की रक्षा की जा सकती है वैसे भी जब हम पत्रकारिता के अंतिम लक्ष्य ‘लोकहित’ की रक्षा ही नहीं कर पाये तो ऐसी ‘पत्रकारिता’ से फायदा ही क्या हुआ? यदि हम पत्रकारिता को आजीविका के साधन की बजाय सिर्फ राष्ट्रसेवा का अवसर माने तो इस सिद्धांत को अपनाने वाला पत्रकार आखिर अपना जीवन यापन करेगा तो करेगा कैसे? आज पत्रकारों की दुविधा यह है कि उसे पत्रकारिता को कैरियर या सेवा में से किसी एक रूप में चुनना पड़ता है तय है कि अधिकांश लोग पहला विकल्प चुनते हैं,हमारे तथाकथित जनप्रतिनिधियों,भ्रष्ट कार्मिकों व सरकारों की हार्दिक इच्छा भी यही रहती है कि हम पत्रकारिता को अपने कैरियर के रूप में देखें क्योंकि ऐसा करते ही हम स्वहित के आगे राष्ट्रहित की बलि चढ़ा देते हैं तथा मात्र एक ‘खबर लेखक’ की हैसियत से अपने लेखन कौशल का प्रयोग निजी स्वार्थसिद्धि में सहायक जनप्रतिनिधियों,प्रशासकों,पूंजीपतियों व मीडिया मालिकों की स्वार्थसिद्ध में करने लग जाते हैं तथा राष्ट्र की जनता को कहते हैं ‘प्लीज वेट! यू आर इन क्यू ’ । खब़रों में जनहित के प्रति पूर्ण समर्पण का अभाव पाया जाता है, ऐसा भी नहीं है कि ख़बरों में बिलकुल जनहित नज़र नहीं आता है,खबरों में जनहित की झलक दिखती है परन्तु सिर्फ उतनी ही जितनी की स्वयं मीडिया को अपने अस्तित्व के लिए जरू़री होती है। स्वार्थी जनप्रतिनिधियों, प्रशासकों,राजकीय कर्मचारियों एवं सरकारों की हार्दिक इच्छा के विरूद्ध पत्रकारिता को सेवा के रूप में अपनाने वाले लोग संघर्षशील होते हैं वे भूखे रहकर भी निरन्तर संघर्ष करते हैं परन्तु भूखे पेट संघर्ष कितने दिन चल सकता है हम सब जानते हैं। एक दिन ऐसा संघर्षशील ,सच्चा व वास्तविक पत्रकार लोगों के हितों के लिए लड़ता हुआ भूखे पेट ही इस दुनिया से रूकसत हो जाता है तथा उस पत्रकार के परिजन उस दिन को कोसते रहते हैं जिस दिन उनके प्रिय ने पत्रकारिता के क्षेत्र में सेवा वाले विकल्प को चुना था। परिजनों का कोसना भी गलत नहीं है आखिर प्रत्येक व्यक्ति की देश के साथ-साथ अपने परिवार के पालन-पोषण की भी कुछ जिम्मेदारी तो बनती ही है। अब सवाल उठता है कि यदि पत्रकारिता कैरियर नहीं है यानी धन कमाने का साधन नहीं है तो इस क्षेत्र में मौजूद लोग और भविष्य में आने वाले लोग ,क्या पत्रकारिता को ‘भूखे मरने के लिए अपनाए’? एक प्रचलित कहावत है ‘ भूखे भजन ना होय गोपाला’ अर्थात् भूखे पेट रहकर भगवान का भजन करना भी सम्भव नहीं होता है और यदि कोई इसे संभव बनाने की कोशिश भी करे तो ऐसा भजन बहुत अधिक समय तक चल नहीं सकता है। ऐसे भजन की आयु बहुत कम होती है। उक्त कहावत वर्तमान समय के पत्रकारों व पत्रकारिता की पीड़ा को सटीक ढंग से व्यक्त करती है। पीड़ा यह है कि सिद्धांत रूप में कहा जाता है कि पत्रकारिता देश व समाज की सेवा का साधन है,आजीविका का साधन नहीं है। हम सब इस बात को प्रबलता से मानते भी हैं परन्तु पत्रकारिता का उक्त सिद्धांत पत्रकारों को जीवन-यापन हेतु जरू़री धन के अर्जन के सभी द्वार बन्द कर देता है। पत्रकार यदि ख़बर से संबंधित विपक्ष से धन की अपेक्षा करे तो वह भ्रष्ट व ब्लैकमेलर कहलाएगा और यदि ख़बर से संबंधित पक्ष से धन की अपेक्षा करे तो यह न सिर्फ अनैतिक होगा वरन् पेड़ न्यूज का कलंक अपने माथे मढ़ने जैसा कार्य होगा। जहाँ तक बात सरकारी व निजी विज्ञापनों से खर्चा निकालने की है तो कुछ बडे मीडिया ब्रांडों के अलावा अन्य मीडिया संस्थानों के लिए यह विकल्प भी सफेद हाथी ही सिद्ध होता है। विज्ञापनदाता पर उचित अनुचित दबाब डालने व विज्ञापन हेतु पत्रकारिता के मूल सिद्धांत यानी जनहित से समझौता नहीं करने वाले लोगों के लिए निजी तो छोड़ो सरकारी विज्ञापन प्राप्त करना भी लगभग असम्भव है। आजादी के बाद से आज तक की सरकारी विज्ञापन नीति सदैव ‘ग्रामीण व स्थानीय पत्रकारिता’ के बज़ाय केवल ‘पूंजीवाद मीडिया घरानों को पोषित करने वाली रही है जबकि राष्ट्र-हित की दृष्टि से ग्रामीण व स्थानीय पत्रकारिता कतिपय पूंजीवादी मीडिया घरानों की पत्रकारिता की तुलना में अत्यधिक प्रभावी होती है। कुल मिलाकर राष्ट्र-हित को समर्पित पत्रकारिता केवल स्वयं व अपने परिवार को भूखा मारने जैसा कार्य बनकर रह गई है एक ऐसा कार्य जिसकी जरू़रत राष्ट्र के अलावा शायद किसी को नहीं है। क्या ऐसा नहीं हो सकता ही राष्ट्रहितकारी ईमानदार पत्रकारिता भी हो जाये तथा पत्रकार को न तो भूखा मरना पडे ,न विज्ञापन आदि के लालच में चुप रहना पडे़,न ही अपने आत्मसम्मान से समझौता करना पडे़ और प्रत्येक सच्चे पत्रकार को यह संतुष्टि भी मिले की उसने राष्ट्रसेवक की भूमिका निभाई वो भी बिना अपने ईमान को बेचे व परिवार को भूखों मारे । मेरी राय में यदि हमारे जनप्रतिनिधि व सरकारें अपने निजी हितों की बजाय जनहित के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए कृत संकल्प हों तो ऐसा शत् प्रतिशत सम्भव है। इसके लिए केन्द्र व राज्य सरकारों को ‘पत्रकारिता’ के क्षेत्र में ‘ख़बर भत्ता व प्रोत्साहन योजना’ लागू करनी चाहिए। इस योजना के अन्तर्गत प्रत्येक एक्सक्लूसिव ख़बर हेतु खबर संकलनकर्ता पत्रकार एवं उससे सम्बद्ध मीडिया संस्थान को 80 : 20 के अनुपात में कम से कम 10रू प्रति वर्ग सेमी की दर से ख़बर भत्ता दिया जाना चाहिए। ख़बर की एक्सक्लूसिवनेस के प्रमाण हेतु सरकारी स्तर पर ख़बर के ऑनलाईन पंजीकरण की व्यवस्था होनी चाहिए। यहाँ पत्रकार से हमारा तात्पर्य अधीस्वीकृत एवं गैर-अधीस्वीकृत दोनों प्रकार के पत्रकारों से है। अधिस्वीकृत पत्रकारों की सूची सरकार के पास उपलब्ध रहती ही है जबकि गैर-अधिस्वीकृत पत्रकारों की सूची प्रतिवर्ष प्रत्येक मीडिया संस्थान से अपडेट करवाते रहना चाहिए। सामान्य ख़बर भत्ते के अलावा आर्थिक अनियमितताओं को सटीक तथ्यों के साथ उजागर करने वाली प्रत्येक एक्सक्लूसिव ख़बर पर घोटाले की राशि का कम से कम 10 प्रतिशत बतौर प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। यदि सरकार वास्तव में चाहती है कि भ्रष्टाचार की चूलें हिलें तो उसे पत्रकारिता के क्षेत्र में उपरोक्त सुझाव को जरूरी विचार-विमर्श के बाद यथाशीघ्र लागू करना चाहिए। यदि सरकार ऐसा करती है तो पत्रकार एक ऐसी कौम का नाम है जो यदि सक्रिय हो जाए तो भ्रष्टाचार के सम्पूर्ण तंत्र की चूलें हिला डालेगी। सरकार का उक्त कदम न सिर्फ ईमानदार पत्रकारों को आत्मसम्मान के साथ आर्थिक सम्बल प्रदान करेगा वरन् कदम कदम पर राष्ट्र को पहुँचाई जाने वाली हानि से बचाएगा। सरकार का यह कदम देश में ईमानदार पत्रकारिता का मार्ग प्रशस्त करेगा। वर्तमान में स्थिति ये है सरकार ने पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय लोगों के लिए ईमानदारीपूर्ण व स्वाभिमानयुक्त पत्रकारिता का मार्ग पूरी तरह से बंद कर रखा है। आर्थिक मजबूरियों के तहत जहाँ एक ओर विभिन्न मीडिया घरानाें से वेतनभोगी के रूप में सम्बद्ध तथाकथित 90 प्रतिशत पत्रकार गम्भीर पूंजीवादी शोषण के शिकार हैं वहीं स्वतंत्र रूप से दैनिक,साप्ताहिक व पाक्षिक समाचार-पत्रों के संचालक पत्रकारों को गम्भीर आर्थिक कठिनाईयों के चलते मात्र परिवार-पालन की तो छोड़ो ,अपने सम्मान की रक्षा के लिए ही ऐड़ी से चोटी तक का जोर लगाना पड़ रहा है। वेतनभोगी पत्रकारों को जहाँ जॉब असुरक्षा व मामूली वेतन के चलते हर पल अपनी वाक् स्वतंत्रता (पत्रकारिता के सर्वप्रमुख गुण) से समझौता करना पड़ता है वहीं अधिकांश दैनिक,साप्ताहिक,पाक्षिक समाचार पत्र विज्ञापनों की आस में किसी के भी खिलाफ सच्चाई प्रकट करने से बचते हैं तथा सच्चाई का सौदा करने को मजबूर हो जाते हैं और जब वे मजबूरी के कारण भ्रष्टाचारियों से दुरभिसंधि कर लेते हैं तो लोग प्रत्येक ‘पत्रकार’ को ‘ब्लैकमेलर’ का खिताब दे डालते हैं। मैं ब्लैकमेलिंग का पक्षधर नहीं हूँ परन्तु सवाल ये उठता है कि क्या पत्रकारों के पास ईमानदारी से जीविकोंपार्जन का कोई तरीका सरकार ने छोड़ा है? नही ंना? वेतनभोगी पत्रकार कुछ हद तक इसके अपवाद हो सकते हैं परन्तु शोषण से पीडित इन ‘वाक् स्वतंत्रता विहीन’ लोगों पर लगा ‘पत्रकार’ का लेबल सिर्फ लेबल ही है ये किस हद तक और किस रूप में पत्रकारिता कर पाते हैं ये जगजाहिर है। आर्थिक तंगी से ग्रस्त अधिकांश ऐसे लोग पत्रकारिता को जरिया बनाकर सिर्फ भष्टों की कमाई में से अपना हिस्सा निकालने लगें हैं। मैं इसे पूरी तरह गलत नहीं कह सकता क्योंकि इसे हम गलत तो तब माने ना जब ईमानदार विकल्प उपलब्ध हों तथा कोई भ्रष्ट विकल्प को चुने। दैनिक,साप्ताहिक,पाक्षिक समाचारों के पास आय का एकमात्र स्रोत विज्ञापन हैं फिर वो चाहे सरकारी हों या निजी। समाचार संचालक विज्ञापनों के फेर में पत्रकारिता को ताक में रखने को मजबूर हो जाते हैं। बिना पैसे के समाचार-पत्र संचालक न तो मैन-पावर के माध्यम से समाचारों की गुणवत्ता ही बढ़ा पाते हैं और न ही अपनी प्रसार संख्या। किसी स्कैण्डल को उजागर करना व बिना लिए दिए छोड देना तो अपनी जेब से पैसा लगाना है क्योंकि सच उजागर होने पर समाचार-पत्र या ख़बर के लेखक पत्रकार को कोई आर्थिक लाभ नहीं होता है क्योंकि यदि ख़बर से सम्बद्ध पक्ष से धन की उम्मीद की जाये तो वह पेड न्यूज कहलाएगी और यदि विपक्ष से धन लें तो वह भी ब्लैकमेलिंग कहलाएगी व अनैतिक होगी। स्थिति यह है कि एक तरफ कुआं है और दूसरी तरफ खाई। हाँ यदि कोई सच उजागर करने की धमकी देकर रूपये ऐंठना चाहे तो ऐसी पीत-पत्रकारिता जैसा आय का शायद ही कोई कैरियर हो। मैं समझता हूँ कि मैने इस लेख के माध्यम से स्वाभिमानी व ईमानदार पत्रकारों की आर्थिक पीड़ा का उचित विवेचन का प्रयास किया है और पीड़ा निवारण का एक बेहद सरल,तर्कसंगत एवं व्यावहारिक उपाय सुझाने का प्रयास किया है। वैसे भी जब विधायक,सांसद जैसे जनप्रतिनिधि अपनी जनसेवा के बदले संतोषजनक वेतन व भत्तों का उपभोग करते हैं तो आखिर पत्रकार से बिलकुल भूखे पेट ईमानदार जनसेवा की उम्मीद आखिर क्यों? क्या राष्ट्र-हित के लिए पत्रकारों का जीवित रहना व श्रेष्ठ पत्रकारिता करना जरू़री नहीं है ? मैं पत्रकारों के लिए वेतन का समर्थन तो नहीं करता क्योंकि पत्रकार कभी वेतनभोगी हो ही नहीं सकता है परन्तु मैं पत्रकारों के लिए ‘ख़बर भत्ते एवं प्रोत्साहन राशि’ एवं पेंशन योजना पुरजोर समर्थन करता हूँ और अपील करता हूँ कि पत्रकारिता के क्षेत्र में आर्थिक स्वावलम्बन को प्रेरित करने वाले ऊपर वर्णित सुझाव पर त्वरित व सकारात्मक कदम उठाये। मुझे आशा ही नहीं वरन् पूर्ण विश्वास है कि केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा वर्तमान स्थिति पर गहन विचार कर जल्द ही ‘ग्रामीण व स्थानीय पत्रकारिता’ को प्रोत्साहित करने वाली नीति का पुर्ननिर्धारण किया जाएगा तथा पत्रकारिता के क्षेत्र में ‘ख़बर भत्ता व प्रोत्साहन योजना अविलम्ब लागू की जाए।

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