06/08/2023
"हजारों साल नर्गिस अपनी बे नुरी पर रोती है ,
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा–वर पैदा ।
आज सालगिरह है उस शख्सियत की जिसे अपनी शख्सियत पर गुमा नहीं वो शख्स जिसे बड़ों की इज्जत छोटे पर शफकत करते हो और हम उम्र जिसकी मोहब्बत के कायल हो जिसकी सादगी हमें सलीका सिखाती हो जो रिश्तों को बेपनाह मोहब्बत के साथ निभाना जानते हैं आज से तकरीबन कई सालों से मेरे लिए एक बड़े भाई की भूमिका के साथ एक अच्छे दोस्त एक अच्छे उस्ताद एक अच्छे सरपरस्ती का हाथ शफकत से रखने वाले मेरे आइडियल जिन्होंने मुझे सियासत , रिश्ते , अपना पन सिखाया हो , वो शख्स तो एक है आपने मुझे जिंदगी में बहुत कुछ सिखाया है आपसे बहुत कुछ और सीखना है आप वो शख़्स हो मेरे लिए जिसके मेरे पास अल्फाज हीं नहीं आप की तारीफ में सियाही खत्म हो जाए लेकिन आपकी तारीफ लिखकर नहीं बोलकर भी बयां नहीं की जा सकती हो इन्हीं बातों के साथ मेरे सरपरस्त मेरी शान सांसद Imran Pratapgarhi जी को जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं आप हर मंजिल को पाएं आपका हर दिन नई खुशियां लेकर आए आपका हर दिन खूबसूरत हो यही है दुआ हमारी की आपका हर दिन इसी तरह कुछ खास हो ईश्वर से प्रार्थना है कि वह आपको उत्तम स्वास्थ्य , दीर्ध आयु तथा सुख समृद्धि
प्रदान करें !
खुदा आप की उम्र दराज करे और आपकी उम्र में बरकत करे नीले आसमान वाले से दुआ है वो आपको दोनों जहां की खुशियां अता करे ।
#चलो_थोड़ा_और_जानते_हैं_इमरान_को
थोड़ा टाइम निकाल कर पढ़िए!
एक लडका जो मुहब्बत के शेर पढते पढते बग़ावत पर उतर आया
जहाँ तक मैं इमरान प्रतापगढ़ी को जानता हूँ तो ऐसा कोई मौज़ू ही नहीं है जिस पर इमरान प्रतापगढ़ी ने न लिखा हो | इमरान प्रतापगढ़ी ने अपने सफ़र की शुरूआत ही "माँ" से किया है |
मुझे वो दिन याद है जब 15-16 साल के इमरान प्रतापगढ़ी मंच पर पहुंचते ही पढ़ा था ।
"अपने शहर की ताज़ा हवा ले के चला हूँ ,
हर मर्ज़ की यारों मैं दवा ले के चला हूँ ,
मुझको यकीन है कि रहूंगा मैं कामयाब ,
क्योंकि मैं घर से "माँ" की दुआ ले के चला हूँ |
फिर इमरान प्रतापगढ़ी ने 'माँ' को और गहराई से महसूस किया तो एक मुकम्मल नज़्म आई... |
"खुदा मुझसे माँ की मोहब्बत न छीने"
इस नज़्म को जिसने भी सुना है अपने आँसू नहीं रोक सका वो |
इमरान प्रतापगढ़ी फिर आगे बढ़ कर क़ौमी एकजहती की मिसाल पेश करते हुए कहते हैं कि ,
"हम नमाज़ पढ़ते हैं गंगा में वज़ू कर के "
फिर इमरान प्रतापगढ़ी 18-19 की उम्र तक पहुंचते हैं तो उनकी शायरी में उनकी उम्र बोल उठती है तो शेर कुछ यूं होते हैं कि,
"पतझड़ों के मौसम में भी बसंत हो जाये,
हर तरफ खुशी चहके, दुख का अंत हो जाए!!
जिस्म आपका जैसे, वेद की ऋचाएं हैं ,
जो भी गौर से पढ़ ले, वो ही संत हो जाए ||"
या फिर कुछ यूं होते हैं कि ,
मेरी आँखों का प्रस्ताव ठुकरा के तुम,
मुझसे यूँ न मिलो अजनबी की तरह !
अपने होठों से मुझको लगा लो अगर,
बज उठूंगा मैं फिर बाँसुरी की तरह |
और
"सामने देखकर मुँह न मोड़ा करो,
दिल ये नाज़ुक है इसको न तोड़ा करो |
रेशमी डोरियां कैद कर लेती हैं......!
अपनी ज़ुल्फें खुली यूं न छोड़ा करो ||"
उम्र कुछ और हावी हुई तो एक गीत बनकर बोल उठी ,
नहाना तेरा पानी में .........!
हसीं चाँद बादल के आगोश में था ,
तुम्हें देख कोई कहॉं होश में था ,
अरे ! जागते-जागते सो गया था ,
तुम्हें इस तरह देखकर खो गया था ,
दिवाना तेरा पानी में ,
नहाना तेरा पानी में ।
कुछ यूं भी दीवानगी का असर रहा है इमरान प्रतापगढ़ी पर कि उनकी कलम बेसाख्ता बोल उठी
तेरा चेहरा लगे अप्सरा की तरह ,
मैं गगन की तरह , तू धरा की तरह !!
दीवानगी बढ़ती गई और कुछ यूं कह उठे इमरान प्रतापगढ़ी ,
सुबह में शाम में और दोपहर में साथ रहती है ,
कोई मासूम सी लड़की सफ़र में साथ रहती है |
इसी दीवानगी में इमरान प्रतापगढ़ी ने लिखा कि ,
किसी की याद का जंगल है , भागे जा रहा हूँ मैं ,
जो किस्मत में नहीं है उसको मांगे जा रहा हूँ मैं ,
दुल्हन बनकर किसी की वो कहीं पर सो रही होगी ,
मगर मुद्दत हुई है अब भी जागे जा रहा हूँ मैं |
इसी सिलसिले में इमरान प्रतापगढ़ी की कलम से कुछ शे'र और आये,
"मेरी खुश्बू संभाल कर रखना ,
दिल पे काबू, संभाल कर रखना ,
तेरे सीने से लग के रोया हूं ,
मेरे आँसू संभाल कर रखना ।
यहाँ तक कि इमरान प्रतापगढ़ी पर एक वक़्त ऐसा भी आया की इन्होंने टी–शर्ट , लैपटॉप और मोबाइल फोन तक को अपनी शायरी में जगह दिया | यहाँ पर भी इनकी उम्र ही बोल रही थी | इसी बीच इमरान प्रतापगढ़ी ने मोबाइल फोन से जुड़ा हुआ एक गीत भी लिखा जो उस वक्त नौजवानों के लबों पर गुनगुनाया जाने लगा | गीत यूं था कि,
फिर उसने मारी है मिसकॉल......
नाजुक नाज़ुक उंगली जब , कीपैड पे चलती होगी,
उस पल तो मोबाइल की भी जान निकलती होगी ,
उसके भी मन में भी आते होंगे , अच्छे-बुरे खयाल ,
फिर उसने मारी है मिसकॉल ...!
और शायद यही इंतेहा भी थी उनके दीवानेपन की |
मुहब्बत की शायरी जब नौजवानों के सर चढ़कर बोलने लगी तो इमरान प्रतापगढ़ी को और ताकत मिली फिर उन्होंने खुलकर बात कहना शुरू किया तो कुछ यूं शेर आये कि ,
"इन रग़ों में बहती हो, सच में तुम लहू बनकर ,
जिसकी जो तमन्ना है , वैसी हूबहू बनकर ,
अब नहीं सहा जाता , मुझसे ये अकेलापन ,
अब तो घर में आ जाओ , माँ की तुम बहू बनकर...!!
फिर उन्होंने खुद ही कहा कि,
अगर हाँ कह दिया माँ ने , तुझे दुल्हन बना लूंगा...!
लेकिन अगले ही पल इमरान प्रतापगढ़ी की माँ का जवाब भी शायरी बनकर आता है .........
बहुत ज्यादा उबलता लहू पसंद नहीं ,
बिना दुपट्टे के मुझको बहू पसंद नहीं |
फिर इमरान प्रतापगढ़ी की ज़िंदगी को उस वक्त के हादसों ने मुतास्सिर करना शुरू किया तो उनकी शायरी का रूख ही बदल गया | ये दौर ऐसा था कि आतंकवाद के नाम पर बेगुनाह नौजवानों को जेल में ठूंसा जाता और जब तक वो अदालत में खुद को बेगुनाह साबित करते तब तक उनका कैरियर तबाह हो चुका होता | मदरसों को आतंक का अड्डा बताया जाता जो कि सरासर बेबुनियाद था | इन मामलात ने इमरान प्रतापगढ़ी को झकझोर के रख दिया और फिर यहाँ से जो शायरी का रूख बदला तो इमरान प्रतापगढ़ी को एक अलग पहचान मिली जो आज तक बरकरार है और इसी पहचान से कुछ मठाधीश जलने लग गये | हुआ यूं कि मदरसों पर हुये सुनियोजित हमलों के आगे किसी शायर ने बोलने की हिम्मत नहीं दिखाई तब इमरान प्रतापगढ़ी ने अपनी तारीखी नज़्म मदरसा लिखा और कुर्ला के मुशायरे में जब पढ़ा तो बड़े–बड़े शायर हैरत से इमरान प्रतापगढ़ी का मुंह देखने लगे |
शायद ही कोई हो जिसने मदरसा नज़्म को न सुना हो |
इस एक नज़्म को इतनी मकबूलियत हासिल हुई कि किसी शायर को जिंदगी भर में इतनी मकबूलियत हासिल नहीं हो पाती | और यहीं से इमरान प्रतापगढ़ी की हिम्मत और बढ़ी | अब वो हुकूमत से आँख मिलाकर शायरी करने लग गये | और साफ लफ्जों में उन्होंने हुकूमत से सवाल किया कि ,
"बापू का क़ातिल कौन है ?
इंदिरा का क़ातिल कौन है ?
राजीव को किसने कत्ल किया ?
इस पर संसद क्यों मौन है ??
नक्सली उधर हथियार उठा , लश्कर के लश्कर आते हैं ,
अफसोस मगर आतंक के हर इल्जाम मेरे सर आते हैं!!
इसके साथ ही साथ उन्होंने दिल्ली से सवाल किया,
"दिल्ली बता! धोका तुझे कब हमने दिया है?
और .........
"मुझको कुछ बातें कहनी हैं , इस गूंगी बहरी दिल्ली से!!
और फिर एक के बाद एक सवाल पैदा करती हुई नज़्म आने का सिलसिला शुरू हो गया जो अब तक जारी है |
इमरान प्रतापगढ़ी ने भारत माँ (मादरे वतन) को मुखातिब एक नज़्म भी पढ़ा जो बेहद मकबूल हुई |
"सदियों से यहीं पर रहता है ,
जाने कितने दुख सहता है ,
भीगी पलकों से एक बेटा ,
भारत माँ से ये कहता है ,
पुरखे हम सबके गोद में तेरी , खाक ओढ़कर लेटे हैं ,
माँ ! हम भी तेरे बेटे हैं !माँ हम भी तेरे बेटे हैं !!
इस नज़्म ने भी लोगों की आँखों में आँसू ला दिये | यही नहीं इस नज़्म के बाद भी माँ भारती को मुखातिब करती हुई एक और तारीखी नज़्म इमरान प्रतापगढ़ी ने जब दुबई में पहली बार पढ़ा तो मंच पर मौजूद शोअरा हैरत से इमरान प्रतापगढ़ी को देखने लगे......... वो नज़्म थी
"कश्मीर".........
नज़्म नहीं मानो कश्मीर बोल रहा हो......,
हाँ मैं कश्मीर हूँ , हाँ मैं कश्मीर हूँ ।।
ना कहानी हूं ना कोई किस्सा हूं मैं ,
मेरे भारत तेरा एक हिस्सा हूँ मैं ,
जिसको गाया नहीं जा सका आज तक ,
ऐसी एक टीस हूं, ऐसी एक पीर हूं ,
हाँ मैं कश्मीर हूँ ............
और यहीं से इमरान प्रतापगढ़ी का डंका विदेशों में भी बजने लगा |
इमरान प्रतापगढ़ी ने देश, समाज, गाँव, परदेश, हर मौजू पर अपनी बेबाक शायरी से लोगों का दिल जीत लिया है!
इसके आगे का इमरान प्रतापगढ़ी तो आप सब भी जानते ही होंगे | सच तो ये है कि इमरान प्रतापगढ़ी को लफ्जों में बयान ही नहीं किया जा सकता है इमरान प्रतापगढ़ी को समझने के लिए कुछ वक्त इमरान प्रतापगढ़ी के साथ गुज़ारना पड़ेगा क्योंकि इमरान प्रतापगढ़ी को लिखा नहीं जा सकता है सिर्फ महसूस किया जा सकता है |
बाकी फिर कभी ............
नदीम खान ✒️
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