24/05/2024
. देवर्षि नारद
( परमपूज्य भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार )
अहो देवर्षिर्धन्योऽयं यत्कीर्तिं शार्ङ्गधन्वनः ।
गायन्माद्यन्निदं तन्त्र्या रमयत्यातुरं जगत् ॥
( श्रीमद्भागवत १ । ६ । ३९ )
‘अहो ! ये देवर्षि नारदजी धन्य हैं, जो वीणा बजाते, हरिगुण गाते और मस्त होते हुए इस आतुर जगत्को आनन्दित करते फिरते हैं ।’
कारक पुरुष जगत्में वैसे ही लोककल्याणार्थ आते और विचरते हैं, जैसे स्वयं भगवान् अवतीर्ण होते हैं । श्रीभगवान्की पवित्र लीलाके लिये भूमि तैयार कर देना, उनकी लीलाके लिये वैसे ही लीलोपयोगी उपकरणोंका संग्रह करना, लीलामें सहायक होना, यह उनका स्वाभाविक कार्य होता है । ऐसे महापुरुष मुक्त होनेपर भी मुक्त न होकर जगत्में जीवोंके साथ उनके कल्याणार्थ विराजते हैं । यों तो इनका कार्य सदा ही अबाधितरूपसे चलता रहता है, परन्तु किसी खास भगवदावतारके समय इनका कार्य विशेषरूपसे बढ़ जाता है । इनका मंगलमय जीवन जगत्के महान् मंगलके लिये होता है । अविद्या, अहंकार, ममत्व, आसक्ति आदिसे सर्वथा रहित ये महापुरुष यन्त्री भगवान्के हाथोंमें यन्त्रवत् कार्य करते रहते हैं । इनके सारे कार्य भगवान्के ही कार्य होते हैं । ऐसे ही महापुरुषोंमें देवर्षि नारदजी एक हैं । सभी युगोंमें, सभी लोकोंमें, सभी शास्त्रोंमें, सभी समाजोंमें और सभी कार्योंमें नारदजीका प्रवेश है । आप सत्ययुगमें भी थे; त्रेता, द्वापरमें भी और इस घोर कलिकालमें भी, कहते हैं कि अधिकारी भक्तोंको आपके शुभ दर्शन हुआ करते हैं । गोलोक, वैकुण्ठलोक, ब्रह्मलोक आदिसे लेकर तल-अतलादि पातालतक सर्वत्र आपका प्रवेश है और योगबलसे मन करते ही तुरन्त कहाँ-से-कहाँ पहुँच जाते हैं । वेद, स्मृति, पुराण, संहिता, ज्योतिष, संगीत आदि सभी शास्त्रोंमें आप दृष्टिगोचर होते हैं । साक्षात् भगवान् विष्णु, शिव आदिसे लेकर घोर राक्षसतक आपका सम्मान, विश्वास और आदर करते हैं । देवराज इन्द्र भी आपके वचनोंका आदर करते हैं और देवशत्रु हिरण्यकशिपुकी पत्नी कयाधू भी आपकी बातपर विश्वास कर आपके आश्रममें अपनेको सुरक्षित समझती है । कहीं आप व्यास, वाल्मीकि, शुकदेव-सरीखे महापुरुषोंको परमतत्त्वका उपदेश देते दिखायी देते हैं तो कहीं दो पक्षोंमें कलह और विवाद खड़ा कर देनेके प्रयासमें लगे दीखते हैं । वास्तवमें आप अपने लिये कुछ भी नहीं करते । जिस कार्यसे जिसका मंगल देखते हैं और भगवान्की लीलाका एक सुन्दर दृश्य सामने ला पाते हैं, उसी कार्यको करने लगते हैं । इनका विवाद और कलह कराना भी लोकहितार्थ और भगवान्की लीलाके साधनार्थ ही हुआ करता है । क्योंकि इनकी प्रत्येक चेष्टा भगवान्की ही चेष्टा होती है । इनको तो वस्तुतः भगवान्का ‘मन’ ही समझना चाहिये; गम्भीर दृष्टिसे विचार करनेपर भगवत्कृपासे यह बात स्पष्ट दीखती है । कुछ लोग कहते हैं कि नारद नामके कई भिन्न-भिन्न व्यक्ति हुए हैं । उनमें वे सात मुख्य मानते हैं—१-ब्रह्माके मानस पुत्र, २-पर्वत ऋषिके मामा, ३-वसिष्ठपत्नी अरुन्धतीके भाई या सत्यवती नामक स्त्रीके स्वामी, ४–यहाँकी वहाँ करके आपसमें लोगोंको भिड़ा देनेवाले, ५- कुबेरके सभासद्, ६-भगवान् श्रीरामकी सभाके आठ धर्मशास्त्रियोंमेंसे एक और ७-जनमेजयके सर्पयज्ञके एक सदस्य । यहाँपर हमें न तो इस विवादमें पड़ना है कि नारद एक थे या अनेक और न विवाद करके इसका निर्णय करनेकी हममें योग्यता ही है । हाँ, हमारी दृष्टिमें तो हमें एक ही नारद दिखायी देते हैं, जिन्होंने भिन्न-भिन्न कल्पों और युगोंमें भगवान्के यन्त्रकी हैसियतसे विभिन्न कार्य किये हैं और कर रहे हैं । यहाँ तो हमें नारदजीके उस कार्यके सम्बन्धमें कुछ कहना है जिसका सम्बन्ध भक्तिसे है और वास्तवमें यही नारदजीका प्रधान कार्य है । समस्त शास्त्रोंके सुपण्डित तथा समस्त तत्त्वोंके ज्ञाता और व्याख्याता होकर भी अन्तमें नारदजी भगवान्की भक्तिका ही उपदेश करते हैं । वाल्मीकि, व्यास, शुकदेव, प्रह्लाद, ध्रुव आदि महान् महात्माओंको भगवद्भक्तिमें लगाते हैं । इतना ही नहीं, स्वयं वीणा हाथमें लेकर सभी युगों और सभी समाजोंमें निर्भय और निश्चिन्त हुए सदा-सर्वदा भगवान्के पवित्र नामोंका गान करते हुए सारे विश्वके नर-नारियोंको पवित्र और भगवन्मुखी करते रहते हैं । इन भगवान् श्रीनारदने अपने दो कल्पोंके चरित्रका कुछ स्वयं वर्णन किया है । भागवतमें उक्त प्रसंग बड़ा ही सुन्दर है । अपने और पाठकोंके मनोरंजनके लिये उसका कुछ मर्म नीचे दिया जाता है ।
दिव्यदृष्टिसम्पन्न महर्षि व्यासजीने लोगोंके कल्याणके लिये वेदोंके चार विभाग किये । पंचम वेदरूप नानाख्यानोंसे पूर्ण महाभारतकी रचना की । पुराणोंका निर्माण किया । इस प्रकार सब प्राणियोंके कल्याणमें प्रवृत्त होनेपर भी व्यासभगवान्को तृप्ति नहीं हुई, उनके चित्तमें पूर्ण शान्ति न हुई, उन्हें अपने अन्दर कुछ कमी-सी प्रतीत होती ही रही; तब वे कुछ उदास-से होकर सरस्वती नदीके तटपर बैठकर विचारने लगे—‘मैंने सब कुछ किया, तथापि मुझे अपने अन्दर कुछ अभावका-सा अनुभव क्यों हो रहा है ? क्या मैंने भागवतधर्मोंका विस्तारसे निरूपण नहीं किया ? क्योंकि भागवतधर्म ही परमेश्वर और परमहंस भक्तोंके प्रिय हैं ।’ वे इस प्रकार सोच ही रहे थे कि हरिगुण गाते प्रसन्नवदन श्रीनारदजी वहाँ आ पहुँचे । आवभगत और कुशल-समाचार पूछने-कहनेके बाद श्रीव्यासजीने अपनी स्थिति बतलाकर देवर्षिसे उसके लिये उपाय पूछा । तब श्रीनारदजी कहने लगे—
हे मुनिवर्य ! आपने अपने ग्रन्थोंमें जिस प्रकार अन्यान्य धर्मोंका वर्णन किया है, उस प्रकार भगवान्की कीर्तिका कीर्तन नहीं किया । इसीलिये आपके मनमें उदासी छायी है । जिस वाणीमें—जिस कवितामें जगत्को पवित्र करनेवाले भगवान् श्रीवासुदेवकी महिमा और कीर्तिका वर्णन नहीं किया गया है, वह वाणी या कविता मृदु, मधुर और चित्र-विचित्र पदोंवाली ( काव्यगुणसम्पन्न ) होनेपर भी सारासारको जाननेवाले ज्ञानीलोग उसे ‘काकतीर्थ’ के नामसे पुकारते हैं । अर्थात् जैसे विष्ठापर चोंच मारनेवाले कौओंके समान मलिन विषयभोगी कामी मनुष्योंका मन उस कवितामें रमता है, वैसे मानसरोवरमें विहरण करनेवाले राजहंसोंके समान परमहंस भागवतोंका मन उसमें कभी नहीं रमता । परन्तु सुननेमें कठोर और काव्यालंकारादिसे रहित एवं पद-पदपर व्याकरणादिसे अशुद्ध होनेपर भी वह वाणी परम रम्य और जनसमूहके पापोंको नाश करनेवाली होती है, जिसमें भगवान्के नाम और भगवान्के गुणोंकी चर्चा भरी होती है । अतएव उस भगवद्गुणनामसे पूर्ण वाणीको साधु-महात्मागण सुनते हैं, सुनाते हैं और कीर्तन करते हैं । हे मुनिवर ! आप अमोघदर्शी हैं, आपसे कुछ भी छिपा नहीं है । इसलिये अब आप संसारके कल्याणके लिये श्रीहरिकी लीलाओंका वर्णन कीजिये । विद्वानोंने मनुष्यके तप, श्रवण, नित्य धर्म और तीक्ष्ण बुद्धि आदिका परम फल केवल एकमात्र भक्तिपूर्वक श्रीहरिका गुण वर्णन करना ही बतलाया है । मेरे पूर्वजन्मका इतिहास सुनकर उसका विचार कीजिये कि श्रीहरिके गुणश्रवणसे मैं क्या-से-क्या हो गया ।
हे महामुनि ! मैं पूर्वकालमें एक दासीपुत्र था । एक समय चातुर्मास्य बितानेके लिये वर्षाकालमें हमारे गाँवमें बहुत-से महात्मा पधारे । मैं छोटा बालक था । मेरी माताने मुझे उन महापुरुषोंकी सेवामें लगा दिया । मैं उन महात्माओंके सामने किसी प्रकारका लड़कपन नहीं करता था, सब खेलोंको छोड़कर शान्तिके साथ उनके चरणोंमें बैठा रहता था और बहुत ही कम बोलता था । इन्हीं सब कारणोंसे वे महात्मा समदृष्टि होनेपर भी मुझपर प्रसन्न होकर विशेष कृपा रखने लगे । उन मुनियोंकी आज्ञासे मैं उनके पत्तोंमें बची हुई जूठन खा लेता था । इसीके प्रभावसे मेरे सम्पूर्ण पाप नष्ट हो गये । ऐसा करते-करते कुछ समयमें मेरा चित्त शुद्ध हो गया जिससे उनके धर्ममें ( भागवतधर्ममें ) मेरी रुचि हो गयी । वहाँ वे लोग नित्य श्रीकृष्णकी कथाएँ गाते थे और मैं उन महात्माओंके अनुग्रहसे उन मनोहर कथाओंको श्रद्धाके साथ सुनता था । ऐसा करते-करते श्रीभगवान्में मेरी भक्ति हो गयी । हे महामुनि ! पहले भगवान्में मेरी रुचि हुई, फिर मेरी स्थिर दृढ़ मति हो गयी । उस विशुद्ध दृढ़ बुद्धिके प्रभावसे मैं अपने मायारहित शुद्ध परब्रह्मरूपमें समस्त सत्-असत् प्रपंचको मायासे कल्पित देखने लगा । इस प्रकार वर्षा और शरद् दोनों ऋतुओंभर वे महात्मा प्रतिदिन भगवान्के निर्मल यशका गान करते रहे, जिसके सुननेसे मेरे हृदयमें रजोगुण और तमोगुणको नाश करनेवाली सात्त्विकी भक्ति उत्पन्न हो गयी । मुझको अनुरागी, आश्रित, जितेन्द्रिय, श्रद्धालु और पापहीन बालकरूप दास समझकर दीनोंपर दया करनेवाले उन महात्माओंने गाँवसे जाते समय परम कृपा करके साक्षात् भगवान्के द्वारा कहा हुआ गुह्यतम ज्ञान मुझसे कहा, जिस ज्ञानके द्वारा मैं भगवान् वासुदेवकी मायाके प्रभावको जान गया, जिसके जाननेसे पुरुष परमात्माके परमपदको प्राप्त होता है ।
इसके अनन्तर मुझे ज्ञानोपदेश करनेवाले महात्मा तो दूसरी जगह चले गये । मैं उनके बतलानेके अनुसार भजन करता रहा । मेरी माताके मैं ही एकमात्र पुत्र था, जिससे मुझपर माताका बड़ा भारी स्नेह था । वह मुझको ही अनन्य गति समझती थी । एक दिन कालप्रेरित सर्पने मेरी स्नेहमयी माताको डस लिया, जिससे उसकी मृत्यु हो गयी । तब ‘भक्तोंका कल्याण चाहनेवाले भगवान्ने मुझपर कृपा की’ ऐसा मानकर मैं उत्तर दिशाकी ओर चल दिया और वहाँ एक घने वनमें पहुँचकर नदी-किनारे एक पीपलके वृक्षकी जड़में बैठकर भगवान्का चिन्तन और चित्तको एकाग्र करके भक्तिपूर्वक भगवान्के चरण-कमलोंका ध्यान करने लगा । उस समय प्रेमावेशसे मेरी आँखोंमें आनन्दके आँसू भर आये और मैंने देखा, मेरे हृदयमें भगवान् श्रीहरि प्रकट हो गये । भगवान्के दर्शन पाते ही प्रेमकी बाढ़-सी आ गयी । मेरे रोम खड़े हो गये । मैं आनन्दके समुद्रमें डूब गया और संसारसहित अपने-आपको भूल गया ।
सहसा भगवान्का वह मनमोहन परम सुन्दर रूप अन्तर्हित हो गया । तब मुझे बड़ा दुःख हुआ । मैं पुनः दर्शनार्थ चेष्टा करने लगा, तब मैंने आकाशवाणीसे सुना कि ‘हे बालक ! इस जन्ममें तुझको मेरे दर्शन नहीं होंगे, प्रेम बढ़ानेके लिये मैंने एक बार तुझे दर्शन दिये हैं । अल्पकालके सत्संगके प्रतापसे तेरी मुझमें दृढ़ भक्ति हुई है । तू इस शरीरको छोड़कर मेरा निजजन होगा, मुझमें तेरी अचल बुद्धि होगी और मेरी कृपासे कल्पान्तमें भी तुझे इस जन्मकी बातें याद रहेंगी ।’ तब मैंने अपनेको भगवान्का कृपापात्र जाना और झुककर प्रणाम किया और लज्जा छोड़कर भगवान्के परम गुप्त कल्याणमय नाम और गुणोंका कीर्तन और स्मरण करता हुआ सन्तोषके साथ अहंकार और ईर्ष्या त्यागकर निरीह हुआ संसारमें विचरने लगा । मैंने श्रीकृष्णमें मन लगाकर संसारका संग त्याग दिया । यथासमय मेरा वह शरीर नष्ट हो गया और मुझे शुद्ध दिव्य पार्षददेहकी प्राप्ति हुई ।
तदनन्तर कल्पके अन्तमें संसारको अपनेमें लीन करके प्रलयसमुद्रमें शयन करनेवाले ब्रह्माजीके हृदयमें श्वासके साथ मैंने प्रवेश किया । सहस्र युगके उपरान्त जब ब्रह्माजी जगत्की रचना करने लगे, तब मरीचि आदि ऋषियोंके साथ उनके श्वाससे मैं उत्पन्न हो गया ।
तबसे अखण्ड ब्रह्मचर्यका व्रत धारण करके मैं तीनों लोकोंमें बाहर-भीतर चाहे जहाँ विचरता हूँ । भगवान्की कृपासे मेरे लिये कहीं भी रुकावट नहीं है । स्वयं भगवान्की दी हुई इस स्वरमय ब्रह्मसे विभूषित वीणाको बजाकर हरिगुण गाता हुआ मैं सर्वत्र विचरता हूँ । भगवान्की मुझपर इतनी अपार कृपा है कि जब मैं प्रेमसे गद्गद होकर भगवान्की लीला गाता हूँ, तभी मंगलकीर्ति पूज्यचरण भगवान् उसी क्षण प्रकट होकर मुझे ऐसे दर्शन देते हैं, जैसे कोई किसीके पुकारते ही शीघ्र आ जाता है ।
जो लोग भोगोंकी इच्छासे बार-बार व्यग्रचित्त होकर संसारके विषय-भोगोंमें आसक्त हैं, उनके संसारसागरसे तरनेके लिये केवल श्रीहरिचर्चा ही दृढ़ नौका है । इसीलिये मैं अपने और लोगोंके कल्याणके लिये सदा-सर्वदा हरिगुणगान करता हुआ विचरण करता हूँ । ‘भगवान् श्रीहरिके भजनसे विषयी पुरुषोंका चित्त जितना शीघ्र शान्त होता है उतना योगादिके द्वारा नहीं होता ।’ इतना कहकर हरिगुण गाते हुए श्रीनारदजी वहाँसे चल दिये ।
महाभारतमें कहा है कि देवर्षि नारदजी समस्त वेदोंके तत्त्वज्ञ, देवताओंके पूज्य, इतिहास-पुराणोंके विशेषज्ञ, अतीत कल्पोंकी बातोंको जाननेवाले, धर्म-तत्त्वके ज्ञाता, शिक्षा-कल्प-व्याकरणके असाधारण पण्डित, संगीतविशारद, परस्पर-विरुद्ध विधिवाक्योंकी मीमांसा जाननेवाले, वाक्योंका पृथक्करण करनेमें पूर्ण योग्य, प्रभावशाली व्याख्यानदाता, मेधावी, स्मृतिवान्, नीतिशील, कवि, ज्ञानी, समस्त प्रमाणोंद्वारा वस्तुका विचार करनेमें समर्थ, बृहस्पति-जैसे विद्वानोंकी शंकाओंका समाधान करनेवाले, धर्म-अर्थ-काम-मोक्षके तत्त्वको जाननेवाले, योगबलसे समस्त दिशाओंसे परिपूर्ण भूमण्डलके प्रत्यक्षदर्शी, मोक्षाधिकारके ज्ञाता, कल्याणके लिये विवाद खड़ा कर देनेवाले, सन्धि और विग्रहके सिद्धान्तोंके ज्ञाता, अनुमानसे ही कार्यका तत्त्व जाननेवाले, समस्त शास्त्रोंके पूर्ण पण्डित, विधिका उपदेश करनेवाले, समस्त सद्गुणोंके आधार और अपार तेजस्वी थे । वे ज्ञानके स्वरूप, विद्याके भण्डार, आनन्दके समूह, सदाचारके आधार, सब भूतोंके अकारण प्रेमी, विश्वके सहज ही हितकारी, भक्तिके महान् स्वरूप और आचार्य थे ।
इस प्रकार लोगोंपर अकारण कृपाके कारण हरिगुण गाते हुए त्रिलोकीमें घूमनेवाले देवर्षि नारदजीके चरणोंमें प्रणामकर हमलोगोंको उनके परम प्रिय भक्तिके अनुपम उपदेशोंको ध्यानसे पढ़कर तदनुसार जीवन बनानेकी चेष्टा करनी चाहिये ।
श्रीनारदजीके प्राकट्य दिवसपर उनके पावन श्रीचरणोंमें अनन्तकोटि प्रणाम !!