05/11/2021
प्राचीन भारत के इतिहास का महत्त्व, part 1
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Table of Contents⬇️
1️⃣विविधता में एकता
2️⃣वर्तमान के लिए अतीत की प्रासंगिकता
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प्राचीन भारतीय इतिहास का अध्ययन कई कारणों से महत्त्वपूर्ण है। इससे हमें जानकारी मिलती है कि भारत में प्राचीनतम संस्कृतियों का विकास लोगों ने कब, कहाँ और किस प्रकार किया। कैसे उन्होंने कृषि की शुरुआत की और संग्रह करने की प्रवृत्ति को विकसित कर किस प्रकार जीवन-यापन को सुरक्षित और व्यवस्थित किया। इससे हमें इस बात की जानकारी मिलती है कि किस तरह से प्राचीन समय में भारतीयों ने प्राकृतिक संसाधनों का पता लगाया और उनके इस्तेमाल से जीवन-यापन के साधनों का निर्माण किया। इससे हमें यह भी पता चलता है कि प्राचीन निवासियों ने भोजन, आश्रय और यातायात के साधनों का इंतजाम कैसे किया; खेती, बुनाई, कताई, धातु-निर्माण आदि क्रिया की शुरुआत कैसे की; वनों को काटकर गाँव, शहर और अन्ततः साम्राज्यों की स्थापना किस प्रकार की।
लोगों को दरअसल तब तक सभ्य नहीं माना जाता, जब तक वे लिखने का कौशल न जान लें। आज भारत में लेखन की जितनी भी शैलियाँ चलन में हैं; सब की सब प्राचीन लिपियों से विकसित हुई हैं। वर्तमान समय में प्रचलित भाषाओं के लिए भी यही सत्य है। आज हम जिस भाषा का उपयोग करते हैं, उसका मूल सम्बन्ध प्राचीन काल से ही है और वह कई सदियों में विकसित हुई है।
विविधता में एकता
विभिन्न रेस (प्रजातियों) और जनजातीय समूहों के पारस्परिक जुड़ाव की गाथा के कारण प्राचीन भारतीय इतिहास काफी रोचक है। आर्यों के पूर्ववर्ती, ग्रीक, इण्डो-आर्य, सीथियन, हूण, तुर्क आदि ने भारत को अपना घर बनाया। हर जनजातीय समूह ने भारतीय सामाजिक व्यवस्था, कला एवं शिल्प, भाषा एवं साहित्य आदि के विकास में अपना योगदान दिया। ये सारे लोग और इनकी संस्कृतियों के लक्षण इस तरह गुँथे हुए हैं कि आज भी इनकी मौलिकता की पहचान स्पष्ट रूप में की जा सकती है।
उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम तक के सांस्कृतिक तत्वों का सम्मिलन प्राचीन भारतीय संस्कृति की एक खास विशेषता है। आर्यों को उत्तर में वैदिक एवं पौराणिक संस्कृति तथा आर्यों से पहले की संस्कृति को दक्षिण के द्रविड़ एवं तमिल संस्कृति से जोड़कर देखा जाता है। हालाँकि ई.पू. 1500–500 के वैदिक ग्रन्थों में मुण्डा, द्रविड़ और कई संस्कृतेतर शब्द भी पाए जाते हैं। ये शब्द प्रायद्वीपीय और गैर-वैदिक भारत से सम्बंधित विचार, संस्था, उत्पाद और अस्तित्व की ओर इशारा करते हैं। इसी तरह, संगम-साहित्य कहे जाने वाले प्राचीनतम तमिल ग्रन्थों में भी पाली भाषा और संस्कृत के कई शब्द पाए जाते हैं। जो ई.पू. 300 से सन् 600 तक प्रयोग किए जाते थे। यह भाषा गंगा के मैदानों में विकसित विचारों और संस्थाओं को दर्शाने वाली भाषा थी। आर्यों से पहले भी पूर्वी प्रदेशों में रहने वाली जनजातियों ने इस दिशा में अपने महत्वपूर्ण योगदान दिए। इस क्षेत्र के लोग मुण्डा या कोलारियन भाषा बोलते थे। इण्डो-आर्यन भाषा में प्रयुक्त—कपास, नौकायन, खुदाई, डण्डा इत्यादि जैसे कई शब्दों को भाषाविदों ने मूलतः मुण्डा भाषा से लिया गया बताया है। हालाँकि, छोटानागपुर के पठारों में मुण्डा के कई क्षेत्र हैं लेकिन मुण्डा संस्कृति के अवशेष इण्डो-आर्यन संस्कृति में प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं। इण्डो-आर्यन भाषा में कई द्रविड़ शब्द भी पाए जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि वैदिक भाषा की ध्वनियों एवं शब्दों की जितनी व्याख्या मुण्डा सांस्कृतिक प्रभाव के आधार पर की जा सकती है उतनी ही द्रविड़ संस्कृति के प्रभाव के आधार पर भी की जा सकती है।
प्राचीन काल से ही भारत कई धर्मों की भूमि रहा है। प्राचीन भारत में ब्राह्मण या हिन्दू धर्म, जैन और बौद्ध धर्म का जन्म हुआ, किन्तु इन सभी धर्मों-संस्कृतियों ने आपस में सामंजस्य और संवाद स्थापित किया। भारतवासी बेशक भिन्न-भिन्न भाषा, धर्म और सामाजिक रीति-रिवाजों को मानते हों लेकिन उनकी नियत जीवन शैली समान है। हमारा देश विविधताओं के बावजूद अपनी अन्तर्निहित गहरी एकता को दर्शाता है।
यहाँ अतीत काल में लोगों ने एकता के लिए संघर्ष किया। भारतीय प्रायद्वीप भौगोलिक रूप से भली-भाँति सुपरिभाषित था और इसकी भौगोलिक एकता सांस्कृतिक समन्वय से परिपुष्ट थी। हालाँकि इसके भीतर कई राज्य, भाषा, संस्कृति और समुदाय थे और धीरे-धीरे लोगों ने प्रादेशिक पहचान विकसित की। जनपद कहे जाने वाले राज्य या क्षेत्रीय इकाई का नामकरण विभिन्न जनजातियों के आधार पर होता था। हालाँकि पूरे देश का नाम शक्तिशाली सांस्कृतिक समुदाय ‘आर्यों’ के कारण आर्यावर्त पड़ा। आर्यावर्त का अभिप्राय उत्तरी और केन्द्रीय भारत से था, जिसका फैलाव पूर्वी से पश्चिमी समुद्र तट तक था। भारत का दूसरा नाम भारतवर्ष या भारत भूमि भी था। ऋग्वेद और महाभारत में भारत की व्याख्या, जनजाति या परिवार के रूप में मिलती है लेकिन महाभारत और उत्तरवर्ती गुप्त काल के संस्कृत-ग्रन्थों में भारतवर्ष की चर्चा है। दरअसल, यह नाम पृथ्वी के नौवें हिस्से के लिए प्रयुक्त होता था और गुप्त काल के बाद इसे भारत के लिए इस्तेमाल किया गया। भारतीय या भारतवासी जैसे पदबन्ध गुप्त काल के बाद के ग्रन्थों में इस्तेमाल हुए हैं।
हिन्दू शब्द की उत्पत्ति के लिए इरानी शिलालेख महत्त्वपूर्ण हैं। हिन्दू शब्द का उल्लेख ई.पू. पाँचवीं-छठी शताब्दी के शिलालेखों में मिलता है। यह संस्कृत के सिन्धु शब्द से लिया गया है। ईरानी भाषा में ‘स’ ध्वनि बदलकर ‘ह’ हो जाती है। ईरानी शिलालेखों में हिन्दू की चर्चा इन्दस पर स्थित एक जिले के रूप में है। इसलिए पुराने समय में, हिन्दू का तात्पर्य एक प्रादेशिक इकाई से था। इसका सम्बन्ध न तो धर्म से था और न ही समुदाय से।
हमारे प्राचीन कवि, दार्शनिक और लेखक देश को एक अखण्ड इकाई के रूप में देखते थे। वे इस भूखण्ड को हिमालय से लेकर समुद्र तक एकछत्र फैले हुए विस्तृत साम्राज्य के रूप में बताते हैं। जिन राजाओं ने हिमालय से केप कोमरीन तक और पूरब में ब्रह्मपुत्र घाटी से लेकर पश्चिम में सिंधु से आगे तक अधिकार क्षेत्र बढ़ाने की कोशिश की, उनकी सर्वत्र प्रशंसा की गई है। उन्हें चक्रवर्ती कहा जाता था। प्राचीन काल में ऐसी राजनीतिक एकता कम से कम दो बार स्थापित हुई। ई.पू. तीसरी शताब्दी में अशोक ने दूरन्त दक्षिण को छोड़कर पूरे भारत में अपने साम्राज्य का विस्तार किया। अशोक के शिलालेख भारत-पाकिस्तान के अधिकतम हिस्सों से लेकर अफगानिस्तान तक अलग-अलग मिलते हैं। फिर चौथी सदी में समुद्रगुप्त ने गंगा से लेकर तमिल भूमि तक की विजय-यात्रा की। सातवीं शताब्दी में, चालुक्य राजा, पुलकेशिन ने हर्षवर्द्धन को हरा दिया जो पूरे उत्तर भारत के राजा थे। कमजोर राजनीतिक एकता के बावजूद, पूरे भारत का विभिन्न राजनीतिक ढाँचा कमोवेश एकता के सूत्र में बँधा हुआ था। विजेताओं और सांस्कृतिक दिग्दर्शकों की नजर में भारत की भौगोलिक सीमा को एक समग्र इकाई के रूप में देखा गया। विदेशियों ने भी भारत की एकता को पहचाना। वे पहली बार सिन्धु या इन्दस नदी के किनारे रहने वाले लोगों के सम्पर्क में आए और उन्होंने पूरे देश का नाम इसी नदी के नाम पर रख दिया। हिन्द या हिन्दू शब्द संस्कृत के सिन्धु से लिया गया है, इसी आधार पर इस देश का नाम ‘इण्डिया’ पड़ा जो ग्रीक शब्द के काफी करीब है। फारसी और अरबी भाषाओं में इण्डिया को ‘हिन्द’ कहा गया। उत्तर-कुषाण काल में, ईरानी शासकों ने सिन्ध क्षेत्र पर जीत हासिल की और इसका नाम हिन्दुस्तान रख दिया।
अध्ययन के दौरान भारत में भाषिक और सांस्कृतिक एकता स्थापित करने की लगातार कोशिश दिखती है। ई.पू. तीसरी शताब्दी में प्राकृत भाषा ने भारत के बड़े हिस्सों में बोल-चाल की भाषा का काम किया। अशोक के शिलालेख मुख्यतः ब्राह्मी लिपि में प्राकृत भाषा में लिखे गए हैं। बाद में, यही स्थान संस्कृत को मिला और संस्कृत ने भारत के सुदूर हिस्सों में राजभाषा का काम किया। चौथी शताब्दी में गुप्त काल के समय यह प्रक्रिया विशिष्ट रूप से विद्यमान थी। हालाँकि, गुप्त काल के समय भारत में कई छोटे-छोटे राज्यों का उद्भव हुआ और राजशाही दस्तावेज संस्कृत में लिखे गए।
दूसरा मुख्य तथ्य यह है कि रामायण और महाभारत जैसे प्राचीन महाकाव्य तमिल की धरती पर भी उतने ही उत्साह और भक्ति से पढ़े गए, जितने बनारस और तक्षशिला के विद्वानों के बीच। मूलत: संस्कृत में रचित इन महाकाव्यों के विभिन्न भाषाओं में कई संस्करण तैयार किए गए। हालाँकि, भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों और विचारों की अभिव्यक्ति चाहे जिस भी रूप में हो, लेकिन उसका सत्व समूचे भारत में लगभग एक जैसा रहा।
भारत में एक विशेष प्रकार की सामाजिक व्यवस्था के कारण भारतीय इतिहास पर ध्यान देना आवश्यक है। उत्तर भारत में विकसित हुई वर्ण/जाति व्यवस्था, पूरे देश में फैल गई। इसने ईसाई एवं मुसलमान को भी प्रभावित किया। यहाँ तक कि ईसाई और मुसलमानों ने भी हिन्दुत्व की जाति-व्यवस्था को अपनाना शुरू कर दिया।
वर्तमान के लिए अतीत की प्रासंगिकता
वर्तमान की समस्याओं के मद्देनजर भारत के अतीत के अध्ययन का महत्त्व और बढ़ जाता है। कुछ लोग प्राचीन संस्कृति और सभ्यता को वापस स्थापित करना चाहते हैं और कुछ लोग भारत के गौरवशाली अतीत से भावनात्मक रूप से प्रभावित हैं। यह कला और वास्तुकला को संरक्षित करने या उसके प्रति सरोकार रखने से अलग बात है। वे प्राचीन समाज और संस्कृति की पुरानी व्यवस्था फिर से स्थापित करना चाहते हैं। इसके लिए अतीत की साफ और स्पष्ट समझदारी की अपेक्षा है। इसमें कोई शक नहीं कि अतीत काल में लोगों ने विविध क्षेत्रों में उल्लेखनीय उन्नति की लेकिन वर्तमान समय के आधुनिक विज्ञान और तकनीक की बराबरी करने के लिए यह उन्नति ही पर्याप्त नहीं है। हम इस तथ्य की अनदेखी नहीं कर सकते कि प्राचीन भारतीय समाज में सामाजिक अन्याय भी प्रमुखता से विद्यमान था। निचले तबके के लोगों को, विशेषकर शूद्रों और अतिशूद्रों (अस्पृश्य) को जिस तरह अक्षम बना दिया गया था, वह आधुनिक मस्तिस्क के लिए असह्य था। इसी तरह, न्याय-व्यवस्था और महिलाओं के साथ भेदभाव की प्रथा पुरुषों के पक्ष में काम करती थी। जीवन के पुराने तौर-तरीके स्वाभाविक रूप से इन सभी असमानता को पुनर्जीवित और मजबूत करेंगे। प्राचीन काल में लोगों द्वारा प्रकृति और मनुष्य प्रदत्त आपदाओं पर विजय पाने की सफलता हमारे भीतर उम्मीद जगा सकती है और भविष्य के लिए हमें संबल दे सकती है लेकिन अतीत की तरफ जाने के किसी भी प्रयास का मतलब होगा कि उस सामाजिक असमानता को बनाए रखना जिससे भारत पीड़ित रहा है। अतीत को समझने के लिए जरूरी है कि हम इन सारी चीजों को समझें।
प्राचीनकाल, मध्यकाल और उसके बाद के अवशेष हमारे वर्तमान में भी मौजूद हैं। पुराने मूल्य, मर्यादा, सामाजिक रीति-रिवाज और प्रथा हमारी चेतना में इतने भीतर तक समाए हुए हैं कि उससे आसानी से छुटकारा नहीं मिल सकता। दुर्भाग्यवश से जीवन की यही बुराइयां व्यक्ति और समूचे देश के विकास को बाधित करती हैं और औपनिवेशिक काल में इन्हें जानबूझकर थोपा गया। अतीत की इन बुराईयों का जब तक उन्मूलन नहीं किया जाता, भारत बेहतर तरीके से विकास नहीं कर सकता हैं। जाति-व्यवस्था और अलगाववाद भारत की लोकतान्त्रिक, एकीकरण और विकास के लिए बाधक है। जातिगत भेदभाव एवं पूर्वाग्रहों के कारण शिक्षित लोग भी मानव-श्रम का सम्मान नहीं कर पाते और यह सामान्य मसलों पर भी एकीकरण होने में बाधा पहुचाता है। महिलाओं को मतदान का अधिकार बेशक दे दिया गया, लेकिन परम्परागत सामाजिक शोषण उन्हें समाज में अपनी उचित भूमिका निभाने से वंचित रखता है। समाज के निचले पायदान पर खड़े लोगों के जीवन का सच भी यही है। प्राचीन इतिहास का अध्ययन हमें इन दुराग्रहों की जड़ों को गहनता से जाँचने-परखने में मदद करता है और जाति-व्यवस्था को बनाए रखने, महिला को दोयम दर्जा देने, संकीर्ण धार्मिक अलगावों को बढ़ावा देने वाले कारणों को उजागर करता है। इसलिए, प्राचीन भारत के अध्ययन से हमें न सिर्फ इसकी प्रासंगिकता का बोध होता है, बल्कि अतीत के वास्तविक स्वभाव को समझने में भी सहायता मिलती है और ‘एक राष्ट्र के रूप में भारत के विकास’ के मार्ग में उपस्थित होने वाली असली बाधाओं की समझ बनती है।
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