28/03/2022
हर सभ्य व्यक्ति चाहता है दुनिया में कोई भी व्यक्ति,समाज दुःखी, परेशान, गरीब, प्रताड़ित, अपमानित, बहिष्कृत और अशिक्षित न बचा रहे। नेतागिरी, समाजसेवा, आंदोलन, व्यवस्था परिवर्तन, क्रांति, बदलाव इत्यादि सभी बातों के लिए सभी मनावप्रेमी सहमत और एकमत है।
सवाल यह है कि कोई अपनी भूमिका कैसे दर्ज करवाये? क्या बिना साधन, संसाधन के हम किसी भी परिस्थिति से लड़ सकते हैं? और यदि आने वाले कल में हमारे पास साधन-संसाधन जुट जाएं, तब तक क्या हमारे अंदर के जज्बात उसी रूप में बरकरार बने रह सकते हैं?
मैंने देखा है असंख्य लोग गरीबों की गरीबी के लिए लड़ते-लड़ते खुद ही अमीर हो गये। आज मुझे भी पीड़ा है,चिंता है, सहानुभूति है, दर्द है लेकिन आज मेरी लड़ने के प्रति सीमाएं है, बाधाएं है, मजबूरी है जबतक इन तमाम रुकावटों से लड़ने योग्य बनूंगा तबतक इच्छाएं ही समाप्त हो जाएंगी?
ऐसा क्यों है कि लोग समय रहते हमें नहीं समझते और हम समय रहते लोगों को नहीं समझा पाते? शायद सामंतवादी समाज के विघटन जो कि उचित था और औधोगिक समाज के उदय होने से मानवीय मूल्यों की जगह धन, पैसा, अर्थ, पूंजी ने ले ली है? आज अर्थ ही उपलब्धि है।
हमने पूंजी अर्जित को सफलता समझ लिया गया है उसके स्रोत भले ही कुछ भी हो। मैँ जानता हूँ हर हालात को चंद समय में बदला जा सकता है लेकिन व्यवस्था बदलाव की बातें करने वालों को तवज्जो इसलिये नहीं मिलती क्योंकि समाज उनकी निजी आर्थिक उपलब्धि देखना चाहता है।