08/07/2022
दरियापुर कांड: 7 जुलाई, 1987
उस नामुराद घड़ी की याद आते ही आज भी रूह कांप उठती है।
घटना 35 साल पहले की है । उन दिनों (अर्जुन जग्गा) मैँ, 10 जमा 2 की परीक्षा देने के बाद में हिसार से प्रकाशित सांध्य दैनिकों रूह- ए- वतन , अहिंसा की शक्ति व दिल्ली के साप्ताहिक चौथी दुनिया अखबारो से जुड़कर नोसिखिया पत्रकारिता में लबरेज था। पत्रकार बने मुश्किल से 2 या 3 महीने ही हुए थे।
आज के ही दिन 7 जुलाई,1987 शाम को दरियापुर के समीप हाइवे पर विभत्स गोलीकांड हुआ, जिसमे खालिस्तानी उग्रवादियों ने 38 निर्दोष बस यात्रियों को एके-47 से शहीद कर दिया था। उग्रवादियों ने जबरन बस को रुकवाकर सवारियों पर अंधाधुंध फायरिंग कर दी। 2 दर्जन लोगों ने मौके पर ही दम तोड़ दिया। दर्जनों अन्य गंभीर रूप से घायल हो गए। कुछ लोगों ने बसों की सीट के नीचे छुपकर या मृत होने का नाटक करके अपनी जान बचाई। पूरी बस में चीखोपुकार मची हुई थी। फायरिंग रुकने व उग्रवादियों की आवाजें आनी बन्द होने के करीब 20 मिनट बाद सीट के नीचे छुपा एक 18-20 साल का युवक ( नाम व उसके गांव का नाम याद नहीं) जो सकुशल बच गया था, उसने घायलों की जान बचाने की ठानी। युवक ने जिंदगी में कभी बस नहीं चलाई थी, लेकिन उसे ट्रेक्टर चलाना आता था। वो जैसे तैसे बस को चलाकर फतेहाबाद के सरकारी अस्पताल में ले आया। बस के अस्पताल आने के बाद शहर में गोलीकांड की खबर आग की तरह फैल गयी। शासन, प्रशासन ही नही हर कोई अस्पताल की तरफ दौड़ पड़ा।
मैँ भी अपनी साइकिल डायरी लेकर निकल लिया। अस्पताल का मंजर दहलाने वाला था। चारो तरफ खून से सनी लाशें ही लाशें। घायलों की चीत्कार और उनके परिजनों के क्रंदन से मेरा दिल बैठ गया। सिर्फ 17 की उम्र ही थी तब मेरी । सुन्न सा होकर एक तरफ खड़ा सब कुछ देख रहा था।
मृतकों में हर कोई अपनों को तलाश रहा था। शहर के अनेक स्वयमसेवी व युवा अस्पताल कर्मियों की मदद में जुटे थे। कोई रक्तदान कर रहा था तो कोई घायल, मृतको को स्ट्रेचर पर ला-ले जा रहा था। हर कोई पूछ रहा था कितने मरे हैं, वहां कोई संख्या बताने वाला नहीं था।
उस नामुराद रात को शहर सोया नही था। रात बीतते बीतते दर्जन भर घायल भी अपना शरीर छोड़ चुके थे।
जैसे जैसे सुबह हुई हर कोई मृतको, घायलों के नाम जानने को आतुर नजर आया। शहर व गांवों के अनेक परिवारों के उन लोगों के नाम भी सामने आ गए जिन्होंने अपना इस गोलीकांड में खोया था।
इस गोलीकांड के सदमे से शहर उबरा ही नही था, एक और बड़ी त्रासदी हो गयी। त्रासदी यह थी अनजान बाहरी लोगों की उन्मादी भीड़ ने शहर के अनेक सिख भाइयों के घर, दुकान व संस्थान जला दिए या लूट लिए । हिसार व फतेहाबाद में 4 सिख भाई भी दंगों में शहीद हो गए। कुछ सिख परिवार पलायन कर गए। हालात इतने खराब हो गए कि पुलिस से बेकाबू हो गए। शहर में कर्फ्यू लगाना पड़ा और मिलिट्री ने आकर हालात संभाले।
बीबीसी लन्दन के मार्क तुली से लेकर दिल्ली, चंडीगढ़ से अनेक देसी विदेशी पत्रकार हालात की रिपोर्टिंग करने फतेहाबाद पहुंचे।
वक्त गुजरने के साथ धीरे-धीरे सब सामान्य तो गया अनेक परिवारो के दिलों में उस गोलीकांड व दंगों के जख्म आज भी मिटे नहीं हैं।
जख्म मिटे कैसे..? गोलीकांड में संलिप्त 7 आरोपी, जो बाद में पकड़े गए थे, करीब 5 साल पहले अदालत से संदेह के लाभ में बरी हो गए । बरी होने का कारण उनके खिलाफ बस में सवार घटना के किसी प्रत्यक्षदर्शी द्वारा अदालत में गवाही न देना हैं। दंगों के आरोपियों का भी यही हाल हुआ। किसी को कोई सजा नहीं हुई।
-अर्जुन जग्गा कॉपी पेस्ट