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31/12/2023
सभी को भारत के 76वे  स्वतंत्रता दिवस की बधाई ।
15/08/2023

सभी को भारत के 76वे स्वतंत्रता दिवस की बधाई ।

अगर आप सारागढ़ी के बारे में पढ़ेंगे तो पता चलेगा इससे महान लड़ाई सिखलैड में हुई थी।बात 1897 की है। नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर स्...
13/08/2023

अगर आप सारागढ़ी के बारे में पढ़ेंगे तो पता चलेगा इससे महान लड़ाई सिखलैड में हुई थी।

बात 1897 की है। नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर स्टेट में 12 हजार अफगानो ने हमला कर दिया। वे गुलिस्तान और लोखार्ट के किलो पर कब्जा करना चाहते थे। इन किलोँ को महाराजा रणजीत सिंह ने बनवाया था।

इन किलो के पास सारागढी में एक सुरक्षा चौकी थी। जहां पर 36वी सिख रेजिमेट के 21 जवान तैनात थे। ये सभी जवान माझा क्षेत्र के थे और सभी सिख थे।
36 वी सिख रेजिमेँट मे केवल साबत सूरत (जो केशधारी हों) सिख भर्ती किये जाते थे।

ईशर सिंह के नेतृत्व में तैनात इन 20 जवानो को पहले ही पता चल गया कि 12 हजार अफगानो से जिन्दा बचना नामुमकिन है। फिर भी इन जवानो ने लड़ने का फैसला लिया। और 12 सितम्बर 1897 को सिखलैड की धरती पर एक ऐसी लड़ाई हुयी जो दुनिया की पांच महानतम लड़ाइयो में शामिल हो गयी।

एक तरफ 12 हजार अफगान थे तो दूसरी तरफ 21 सिख। यहां बड़ी भीषण लड़ाई हुयी और 600-1400 अफगान मारे गये। और अफगानो की भारी तबाही हुयी। सिख जवान आखिरी सांस तक लड़े और इन किलो को बचा लिया। अफगानो की हार हुयी।

जब ये खबर यूरोप पंहुची तो पूरी दुनिया स्तब्ध रह गयी। ब्रिटेन की संसद मे सभी ने खड़ा होकर इन 21 वीरो की बहादुरी को सलाम किया। इन सभी को मरणोपरांत इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट दिया गया। जो आज के परमवीर चक्र के बराबर था।

भारत के सैन्य इतिहास का ये युद्ध के दौरान सैनिको द्वारा लिया गया सबसे विचित्र अंतिम फैसला था।

UNESCO ने इस लड़ाई को अपनी 8 महानतम लड़ाइयोँ में शामिल किया। इस लड़ाई के आगे स्पार्टन्स की बहादुरी फीकी पड़ गयी।

जो बात हर भारतीय को पता होनी चाहिए, उसके बारे में कम लोग ही जानते है। ये लड़ाई यूरोप के स्कूलो मेँ पढाई जाती है पर हमारे यहां जानते तक नहीँ। ग्रीक स्पार्टा और परसियन की लड़ाई के बारे में सुना होगा। इनके ऊपर 300 जैसी फिल्म भी बनी है।

VANDE Matram

𝗝𝗮𝗴𝘁𝗲 𝗥𝗮𝗵𝗼 -𝟭𝟵𝟱𝟲समाज का असली चेहरा दिखाती एक अनमोल कृतिख्वाजा अहमद अब्बास की लिखी और शोम्भु मित्रा द्वारा निर्देशित फिल्...
11/08/2023

𝗝𝗮𝗴𝘁𝗲 𝗥𝗮𝗵𝗼 -𝟭𝟵𝟱𝟲
समाज का असली चेहरा दिखाती एक अनमोल कृति

ख्वाजा अहमद अब्बास की लिखी और शोम्भु मित्रा द्वारा निर्देशित फिल्म 'जागते रहो' एक ऐसी फिल्म है जो एक रात में जिंदगी के अनेक सच दर्शाती है ये एक डार्क फिल्म थी जिसका ज्यादातर फिल्मांकन अंधरे में किया गया है कहानी की मांग के अनुरूप उचित भी था ..इस फिल्म को राजकपूर ने बनाया था 'जागते रहो 'में राज कपूर, प्रदीप कुमार,सुमित्रा देवी,पहाड़ी सानयाल,सुलोचना चटर्जी,डेज़ी ईरानी,मोतीलाल,नाना पालसिकर और इफ़्तेख़ार ने अभिनय किया था

फ़िल्म की कहानी सिर्फ़ एक रात की है जिसकी शुरुआत गांव से आने वाले बेनाम और बेघर देहाती नायक (राज कपूर) द्वारा पीने के पानी की तलाश के साथ होती है ........प्यासे नायक की कहानी के सहारे फ़िल्म आगे बढ़ती है नायक अपनी प्यास बुझाने के लिए रातभर दर-बदर भटकता है पानी की तलाश में भटक रहे उस युवक पर पुलिस चोर होने का ठप्पा लगा देती है .....पुलिस से बचने के लिए वह सफ़ेदपोशों की एक इमारत में छुप जाता है इमारत में चोर के घुस आने की ख़बर से चारों-तरफ़ अफ़रा-तफरी, चीख-पुकार मच जाती है लेकिन नायक इमारत के लोगों के बीच घुल-मिल जाता है ...

वह पूरी रात इमारत के लोगों के बीच अजनबी बना रहता है लोग उसे तो नहीं समझ पाते कि वह असल में कौन है, पर वह ज़रूर जान जाता है कि उस इमारत में रह रहे लोगों की वास्तविकता क्या है ?

पूरी फ़िल्म में लोगों के शोर और ख़ुद के चोर होने की अफ़वाह से डरा हुआ नायक, छुपता-छुपाता फिरता है. वह एक घर से दूसरे घर में जाता है, हर जगह उसे अलग-अलग तरह की घटनाएं दिखती हैं. सफ़ेदपोशों के काले चेहरे दिखते हैं. लोग किस तरह अपने पाप छुपाने के लिए मासूमों का इस्तेमाल कर सकते हैं, अपने कुकर्मों पर से ध्यान भटकाने के लिए दूसरों की ओर उंगली उठाते हैं लोग कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं इस कुंठा और आडंबर को फ़िल्म फ्रेम दर फ्रेम उजागर करती है. चोर-चोर के शोर में कई शरीफ़ चारों की असलियत देखता नायक जैसे-तैसे वो लंबे समय तक ख़ुद को बचाने में क़ामयाब होता है....

यूं तो यह पूरी फ़िल्म ही क्लासिक है, पर इसका क्लाइमैक्स बेहद प्रभावशाली है. समाज के दोहरे चेहरे, उसके चरित्र पर बहुत सारे सवाल छोड़ जाता है. जब नायक भीड़ के ग़ुस्से से बचने के लिए पानी की टंकी पर चढ़ जाता है और अपना गुस्सा और दुख बयां करता है, तो हास्य व्यंग का पुट लेकर आगे बढ़ रही कहानी अचानक से गंभीर हो जाती है. पूरी फ़िल्म में लगभग ना के बराबर बोलनेवाले नायक का मोनोलॉग कि वह कौन है? शहर में आकर उसने क्या सिखा? और शहर में जीने के लिए उसे क्या करना पड़ेगा? भारतीय मध्यम वर्गीय रवैये को दिखाया गया आईना है. उसके चेहरे पर लगाया गया तमाचा है.

फ़िल्म की कहानी और संदेश तो बेमिसाल है ही. इसके गाने भी सदाबहार हैं. फ़िल्म के तीन गाने आज भी गाहे-बगाहे लोगों की ज़ुबां पर आ जाते हैं. सबसे पहला गाना है ‘ज़िंदगी ख़्वाब है…’ मुकेश द्वारा गाए इस गाने को फ़िल्माया गया है नेचुरल ऐक्टिंग के शुरुआती पुरोधा मोतीलाल पर. जीवन के फ़लसफ़े को बयां करनेवाला गाना ग़म में डूबे हर आदमी के लिए ऐंथम जैसा है 'जागते रहो' की एक खास बात ये भी है की इस फिल्म में अभिनेता मोती लाल का अभिनय देख कर आप सहज ही अंदाजा लगा सकते है की उन्हें भारत का पहला 'नेचुरल एक्टर' क्यों कहा जाता है ........ दूसरा मशहूर गाना है ‘तेकी मैं झूठ बोलयां…’ मोहम्मद रफ़ी साहब ने इसे गाया है. चोर को पकड़ने के लिए पहरा दे रहे पंजाबी समुदाय के लोगों पर इसे फ़िल्माया गया है. वे वक़्त गुज़ारने के मक़सद से इसे सामूहिक रूप से गाते और नाचते हैं. फ़िल्म का नायक भी इसी समूह का एक हिस्सा बन जाता है. यह गाना एक सामाजिक कटाक्ष है. सुनने के बाद आपको उस दौर के ब्लैक ऐंड वाइट और 2022 में आज के हिंदुस्तान में ज़्यादा फ़र्क़ महसूस नहीं होगा. इस गाने की भाषा थोड़ा हिंदी और थोड़ा पंजाबी है, लेकिन समझने में कोई परेशानी नहीं होती. यह गाना आपको एहसास कराएगा कि हमारी समस्याएं अपरम्पार है और उनसे निजात पाने में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है....

इस फिल्म में कोई भी नायिका नहीं थी ये एक नायिका विहीन फिल्म थी सिर्फ फिल्म के अंत में जब सुबह होती है तो नायिका ( नर्गिस ) नायक राज कपूर को पानी पिलाती नजर आती है नर्गिस आर.के. फिल्म्स में अंतिम बार' जागते रहो 'में ही नजर आयी थी लेकिन फिल्म की कहानी से नायिका का कोई तालमेल नहीं है................अंतिम दृश्य का गीत कहानी को चार चाँद लगा देता है इस फ़िल्म का तीसरा और संभवत: सबसे मशहूर गाना है ‘जागो मोहन प्यारे…’ यह गाना फ़िल्म को एक पॉज़िटिव मैसेज के साथ ख़त्म करने में मदद करता है..... इस गाने के साथ ही मेहमान भूमिका में नर्गिस की एंट्री होती है. नायक की रातभर की दर्द भरी ज़िंदगी को राहत मिलती है. जब वह ख़ुद को बचाते हुए एक घर में प्रवेश करता है, उसका स्वागत एक छोटा बच्चा करता है. बच्चा पूछता भी है कि ...

तुम चोर हो?

लेकिन डरता नहीं घर के सारे दरवाज़े खोलता है और डरे हुए नायक को आगे जाने देता है. .......यह एक ऐसा दृश्य है जहां फ़िल्म में आपको सामाजिक संतुलन नज़र आएगा. एक ही तरह के दो लोगों के मिलने पर क्या होता है. फ़िल्म ख़त्म होते-होते नायक की प्यास बुझ जाती है, जब मंदिर में गा रहीं नरगिस उसे पानी पिलाती हैं....

जागते रहो अपने दौर की बेहतरीन फ़िल्म थी. आप इसे आज के दौर से रिलेट करके देखेंगे तो यह अब भी नई लगेगी. भारत जैसे हिपोक्रेट समाज के संदर्भ में इसकी कहानी कभी पुरानी नहीं होगी. अगर आप फ़िल्मों के शौक़ीन हैं तो आपको यह फ़िल्म निराश नहीं करेगी. .......बोलती हुई फ़िल्म का वह मूक नायक आपके दिल में उतर जाएगा. बतौर अभिनेता यह राज कपूर के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शनों में एक है. पता नहीं क्यों राज कपूर की चर्चित और मशहूर फ़िल्मों में इसकी चर्चा नहीं होती. बड़े से बड़े फ़िल्म के जानकार भी इस फ़िल्म की ख़ास चर्चा नहीं करते, जबकि इस तरह की फ़िल्मों को समाज के हित के लिए ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को देखने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए. फ़िल्म ''जागते रहो'' भारतीय समाज के लिए आईना है और हर देखने वाले आदमी को ख़ुद के अंदर झांकने के लिए मजबूर करती है. इसे देखने के बाद आप ख़ुद को ज़रूर बदलना चाहेंगे. हमारे समय के एक मशहूर आदमी ने कहा है,‘हिपोक्रेसी की भी सीमा होती है.’ यह फ़िल्म देखने के बाद आपकी नज़र तमाम तरह की हिपोक्रेसीज़ पर अनायास ही चली जाएगी.

भारत में इस फ़िल्म ने उस दौर में ठीक-ठाक बिज़नेस किया था ......फिल्म 'जागते रहो' में नायक गाँव का एक गरीब किसान है जो काम की तलाश में शहर आता है अपनी इमेज के विपरीत शायद राजकपूर को एक गरीब ग्रामीण के रोल में दर्शक पचा नहीं पाए ......'जागते रहो' भारत में तो कुछ खास कमाल नहीं कर पाई लेकिन सोवियत बॉक्स ऑफिस पर ये ब्लॉकबस्टर साबित हुई सोवियत संघ में राज कपूर की लोकप्रियता के कारण फिल्म ने 1965 तक अनुमानित 4.44 करोड़ रुपये कमाए फिल्म का एक छोटे से संस्करण ने 1957 में चेकोस्लोवाकिया के कार्लोवी वैरी इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में क्रिस्टल ग्लोब ग्रांड प्रिक्स जीता और भारत में चौथे वार्षिक राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में, 'जगाते रहो 'ने मेरिट प्रमाणपत्र भी हासिल किया .........सफल नहीं होने ने बावजूद भी आर.के फिल्म्स की 'जागते रहो ' को फिल्म समीक्षक एक बेहतरीन कल्ट फिल्म मानते है...

राज कपूर की लोकप्रियता इंडिया के अलावा तब के रूस यानी उस समय के सोवियत संघ में भी थी इसका फ़ायदा फ़िल्म के प्रदर्शन पर भी दिखा फ़िल्म ने सोवियत संघ में उम्मीद से ज़्यादा बिज़नेस किया हम कह सकते हैं कि फ़िल्म तकनीकी रूप से ही नहीं, कमर्शियल तौर पर भी सफल थी....

11/08/2023
यह पिक्चर सर्वोत्तम सार्वजनिक व्यवहार का एक आदर्श उदाहरण है!  ट्रैफिक जाम के बीच भी... एक भी वाहन गलत दिशा में नहीं मुड़...
09/08/2023

यह पिक्चर सर्वोत्तम सार्वजनिक व्यवहार का एक आदर्श उदाहरण है! ट्रैफिक जाम के बीच भी... एक भी वाहन गलत दिशा में नहीं मुड़ा। तस्वीर मिजोरम की है, यह उस अनुशासन को दिखाती है जिसके साथ वहां के लोग हमेशा यातायात के नियमों का पालन करते है।

कहते हैं कि यदि कोई बात बार बार दोहराई जाए तो उसका असर निश्चित ही पड़ता है। लिखा भी है करत करत अभ्यास नित जड़मति होत सुजान...
04/07/2023

कहते हैं कि यदि कोई बात बार बार दोहराई जाए तो उसका असर निश्चित ही पड़ता है। लिखा भी है
करत करत अभ्यास नित जड़मति होत सुजान
रसरी आवत जात नित पाथर परत निशान

सूर्यवंशम मैक्स पर आई थी 20 जुलाई 1999 में। अब रिलीज के तुरंत बाद तो कोई मूवी टीवी पर दिखाई नहीं देगी। साल भर बाद भी अगर दिखाई गई होगी तो अगर जोड़ें तो 22 साल मान सकते हैं। 22 वर्षों से महीने में कम से कम दो बार तो अवश्य ही दिखाई जाती है। कहने का अर्थ यह कि आलोक मौर्या सूर्यवंशम देखते हुए ही बड़े हुए। अमिताभ बच्चन का वैसे ही युवाओं में बहुत क्रेज था ऊपर से सूर्यवंशम के हीरा ठाकुर नए नए बड़े होते क्रांतिकारी युवाओं के लिए आदर्श पुरुष के रूप में उभरे थे। उधर एक और युवती ज्योति मौर्या भी सेटमैक्स के सूर्यवंशम से प्रेरित हो रही थी। आलोक मौर्या और ज्योति मौर्या का जब विवाह हुआ तो सूर्यवंशम की फिल्मी स्क्रिप्ट दोनों के जीवन के लिए आदर्श बन गईं।

कहते हैं कि फिल्में विशुद्ध मनोरंजन के लिए बनाई जाती हैं। सूर्यवंशम के डिस्क्लेमर में लिखा था कि इस कहानी को सिर्फ मनोरंजन की दृष्टि से देखें। पर यहां तो कहानी ही और चल रही थी। रील के हीरा ठाकुर की आत्मा रियल के आलोक मौर्या के शरीर मे प्रवेश कर चुकी थी।

खैर आलोक मौर्या के त्याग और ज्योति मौर्या के कठिन परिश्रम ने सफलता की इबारत सूर्यवंशम के स्क्रिप्टानुसार ही लिखी किन्तु फ़िल्म का संघर्ष अपना सा अवश्य लगता है किंतु क्लाइमेक्स कभी भी अपना सा नहीं होता उसमें ड्रामा होता ही होता है। इसी तरह सूर्यवंशम के हीरा ठाकुर का संघर्ष बेशक आलोक मौर्या को अपना सा लगा परन्तु क्लाइमेक्स बिल्कुल रियल है। इसका किसी कहानी से प्रेरित हो पाना संभव ही नहीं होता है। और अंततः वही हुआ जो कलयुग में होता है। जाना था जापान पंहुच गए चीन। रियल लाइफ ऐसे ही चलती है। स्त्री पुरूष को अपने से शक्तिशाली ही देखना चाहती है। धरती और आकाश में भी यही अंतर है। यही रहेगा भी। आदर्शवाद किताबों में ही अच्छे लगते हैं। वास्तव में तो यही चलन है। चलता भी रहेगा।

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08/03/2023

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26/01/2023

सभी भारतवासियों को गणतंत्र दिवस की गौरवशाली शुभकामनाएं ।

🇮🇳 जय हिंद 🇮🇳

ॐ ॐ इस फोटो को देखते ही कमेंट में ॐ ॐ लिखो, लाइक व शेयर करो व इस पेज को लाइक शेयर व Follow करो। मंगलवार तक एक शुभ समाचार...
13/11/2022

ॐ ॐ
इस फोटो को देखते ही कमेंट में ॐ ॐ लिखो,
लाइक व शेयर करो व इस पेज को लाइक शेयर व Follow करो।
मंगलवार तक एक शुभ समाचार प्राप्त होगा ।

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