03/07/2024
दस-बीस सेकंड हमारे दिमाग़ पर कितना असर कर सकते हैं?
इतना ज़्यादा की वो हमारी जीवनशैली बदल कर रख देते हैं।
विज्ञापनों की माने तो बिना महँगे इंटीरियर के घर रहने लायक़ ही नहीं होता। माखन की तरह लगने वाले दीवारों पर महँगे पेंट्स, क़ीमती झूमर और वॉलपेपर, मोडुलर किचन, विदेशी मार्बल, और ना जाने कितने हज़ार तरीक़े हैं घर को घर जैसा बनाने के। सब कुछ एकदम चमचमाता हुआ, सपनों सा सुंदर घर, की एक तिनका भी गलती से कहीं छिटक जाये तो आँखों को दिख जाए।
इंटीरियर डिज़ाइन के तेजी से बढ़ते मार्केट ने पुरानी भारतीय शैली से सजे घरों को पिछड़ा होना, below standard करार दिया है। मधुबनी, वरली, लीपन इस तरह के कई folk art forms की जगह दुर्लभ महँगी पेंटिंग्स ने ले ली है।
ना दीवारों पर हल्दी भरे हाथों का छापा पड़ा,
ना दरवाज़ों पर स्वस्तिक बनाने की जगह दी गई,
ना बच्चों को दीवारों पर कलाकारी करने की आज़ादी मिली,
ना चौके में माँ का छिटका हल्दी-कुमकुम,
ना पूजा घर में लीपे गये खोबर, अल्पना,
इन सबके बिना ना जाने घर कैसे सुंदर बन गया।
यही तो वो रीति-रस्में है जो घरों को बाँधती हैं अपने प्रेम से,
यही तो वो परम्पराएँ हैं जो साल दर साल, पीढ़ी दर पीढ़ी जोड़े रखती हैं।
‘दीवारें बोल उठेंगी’ इस विज्ञापन ने ना जाने कितने मन मोहे, मुझे तो वो दीवारें भावशून्य लगती हैं, निर्जीव लगती हैं, भला कैसे बोल उठेंगी दीवारें जब किसी ने उन पर कंधे टीका कर चाय की चुस्कियाँ नहीं ली, मन के दो बोल नहीं बतियाये।
ये तो वही बात हुई कि, देह सुंदर मिल गई और जान ना रही।
उन दीवारों के पास जाना कभी, जहाँ टँगा होगा बित्ते भर का धुँधला आयना, उतरना कभी उसमें, देखना कभी बग़ल की दीवार पर चिपकी बिंदियों को,
वहीं पास में बच्चों का मोम रंगों से बनाया आधा उधड़ा चित्र, चाकलेट खा कर दीवार पर पोछी नन्ही हथेलियों के धब्बे, देखना कभी, कितना कुछ कह जाएगा।
एक दिन जब उम्र बहुत आगे ले जाएगी इस शरीर को,
एक दिन जब बातें करने वाला कोई ना रह जाएगा,
तब यही खिड़की और दीवारें बतियायेंगी,
बतलायेंगी सब जो ये सुनती आयी हैं बरसों से, शादी के गाने, दोस्तों की हंसी ठिठोली, बच्चों की किलकारी, याद में गिरे आँसूँ, दीवाली में जले दिये, घर में हुए भजन, सब कुछ आँखों के सामने का कर रख देंगी।