22/11/2023
श्रीवास्तव कायस्थों का सांस्कृतिक इतिहास -
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पौराणिक स्रोतों के अनुसार, नंदिनी (सुदक्षिणा) और श्री चित्रगुप्त के प्रथम पुत्र थे कायथा (उज्जैन) में जन्में भानु, जिन्हें श्रीवास्तव कहा गया और उनका उपनाम धर्मध्वज था। उनका विवाह नाग वासुकि की पुत्री नागकन्या पद्मिनी (नाग वासुकि का प्राचीन मन्दिर प्रयागराज में है), और एक देवकन्या से भी कायथा में हुआ। विवाह के पश्चात कायथा से वह कश्मीर के झेलम नदी के किनारे बसे। दोनों पत्नियों ने कश्मीर में झेलम नदी के दो तरफ रहना पसंद किया। नागकन्या जिस तरफ बसीं वहां बसने वाले श्रीवास्तवों को खरे कहा गया। झेलम की दूसरी तरफ के क्षेत्र को देवसर कहा गया और वहां बसने वाले श्रीवास्तवों को देवसरे या दूसरे कहा गया। कालांतर में ये दोनों श्रीनगर के राजा की गद्दी पर भी बैठे। एक मान्यता यह है कि श्रीनगर नाम श्रीवास्तव उपजाति के कारण पड़ा, दूसरी मान्यता यह है कि भानु (श्रीवास्तव) सूर्य के उपासक थे और उन्होंने श्रीनगर की स्थापना की। ऐतिहासिक रेकॉर्ड भी बताते हैं कि श्रीवास्तव की उत्त्पत्ति स्वात नदी से जुड़ी है, जिसका मूल नाम श्रीवास्तु या सुवास्तु था (शशि, पेज 117)। कालांतर में वह अयोध्या में आकर बसे। उत्तर प्रदेश के अवध गज़ेटियर के साकेत अंक के अनुसार ६४३ से लेकर ११वीं शताब्दी तक श्रीवास्तव कायस्थ राजाओं ने लगभग राज किया। बंगाल के सेना साम्राज्य के एक राजा आदिसुर के आमंत्रण पर वह कन्नौज से बंगाल गये और उनकी उत्कृष्ट सेवा के लिये उन्हें कुलीन कि उपाधि दी गई। बंगाल में उनका स्थानीय नाम ‘बोस’ और ‘बसु’ पड़ा।उपरोक्त विवरण सर्वाधिक प्रामाणिक सबूतों पर आधारित है।
दूसरी एक मान्यता यह है कि राजा श्रीवास्तव का विवाह नर्मदा और सुषमा से हुआ। नर्मदा से उन्हें दो पुत्र हुए-देवदत्त और घनश्याम जिसे खरे कहा गया। एक पुत्र ने मुख्य कश्मीर पर राज किया और दूसरे ने सिंधु नदी के किनारे के क्षेत्र पर। घनश्याम के वंशजों को कुछ लोग सिंधुआ कहते हैं। सुषमा के पुत्र को धन्वंतर कहा गया, जिसने कौशल (कोशल) और अवध (अयोध्या) पर राज किया। उसके वंशजों को ‘दूसरे’ कहा गया। माना जाता है कि धन्वंतर ने अमरावती से विवाह किया, जिसने सुखेन को जन्म दिया, जो श्रीलंका के राजा रावण के राजवैद्य बने।
श्रीवास्तव कायस्थों के वंशज धीरे-धीरे आज के उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद, बनारस, गोरखपुर, जौनपुर, गाजीपुर, बलिया बस गये; आज के बिहार में वह मुख्य तौर पर उत्तर प्रदेश से सटे ज़िलों में भोजपुर, रोहतास, आरा, छपरा, सिवान, मुजफ्फरपुर आदि ज़िलों में आकर बसे।
इसके बाद वे मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के क्षेत्रों में आए। कुछ ब्रिटिश इतिहासकारों के मुताबिक, श्रीवास्तव कायस्थ गोंडा ज़िल के श्रावस्ती से बाहर फैले। श्रावस्ती नगर, जिसे सहेत-महेत कहा जाता था, की स्थापना उस श्रीवास्तव राजा (क्रुक, 1896) ने की थी जो एक महान और लंबी विरासत छोड़ गया था। आम मान्यता यह है कि राजा दशरथ के एक मंत्री सुमंत श्रीवास्तव कायस्थ थे। बाद में भगवान राम ने अपने साम्राज्य का विभाजन अपने पुत्रों लव और कुश के बीच कर दिया, तो उत्तरी कोशल श्रावस्ती बन गया और वहां के मुख्य निवासियों को श्रीवास्तव कहा गया। डॉ. रांगेय राघव के मुताबिक, श्रीवास्तव में जो ‘वास्तव’ जुड़ा है वह दरअसल यह बताता है कि वे महान वास्तुकार थे और उन्होंने हस्तिनापुर, अचिछा और श्रावस्ती का निर्माण किया था।
चंदेल राजा भोजवरम (13वीं सदी) के काल के अजयगढ़ शिलालेख से यह संकेत मिलता है कि 36 नगर ऐसे थे जिनमें लेखक वर्ग के लोग रहते थे। कीलहॉर्न और संत लाल कटारे सरीखे विद्वानों ने इन 36 नगरों की पहचान आज के छत्तीसगढ़ क्षेत्र में की है (एपिग्राफिया इंडिका, पेज 89)। इनमें सबसे खूबसूरत शहर तक्करिका था, जिसे श्रीवास्तवों ने अपनी स्थायी बस्ती के रूप में स्वीकार कर लिया था (एपिग्राफिया इंडिका,पेज 333)। बताया जाता है कि कुसा नाम के राजा ने कुसुमपुरा नामक नगर को अपना निवास स्थान बना लिया था। श्रीवास्तवों की उत्त्पति की कहानी जो भी हो, और उनका मूल स्थान चाहे श्रीनगर रहा हो या श्रावस्ती या छत्तीसगढ़ पुरालेखों से स्पष्ट है कि वे अपने विशद ज्ञान और अपनी विश्वसनीय निष्ठा जैसे असाधारण गुणों के बूते सत्ता की सीढ़ियों पर ≈पर चढ़ते गए। शक्तिशाली और समृह् होने के बाद उन्होंने अपनी सामाजिक हैसियत में वृहि् करने के लिए खुद को कश्यप ऋषि और उनके पुत्रों का वंशज बताकर यह दावा किया कि वे दैवी मूल के हैं।
ईपू. 268 के आसपास सम्राट अशोक ने कश्मीर को जीत लिया और अपने पुत्र जालौका को उसका राज्यपाल बना दिया। जालौका के बाद गोनंद परिवार ने, जिसका अंतिम राजा बालदित्य था, कश्मीर को अपने कब्जे में ले लिया। बालदित्य की एकमात्र बेटी थी अनंगलेखा, लेकिन अशुभ ग्रहों के प्रभावों को टालने के लिए उसने उसका विवाह एक चारा प्रबन्धक दुर्लभवर्धन से कर दिया, जो श्रीवास्तव कायस्थ था। ललितादित्य इस कर्कोट नामक वंश की पांचवीं पीढ़ी का राजा था।
इस वंश की उत्त्पति के बारे में भले ही भिन्न-भिन्न मत हों, ऐतिहासिक तथ्य यह है कि यह कार्कोट वंश छठी सदी के करीब में उभरा और सबसे प्रसिह् ललितादित्य मुक्तपीठ के अलावा कई योग्य कायस्थ राजाओं ने कश्मीर पर 400 से ज्यादा वर्षों तक राज किया। और ऐसा लगता है कि वे सब श्रीवास्तव कायस्थ ही थे।
कार्कोट वंश के इन राजाओं के बारे में ऐतिहासिक विवरण का स्रोत मुख्यतः कल्हण की ‘राजतरिंगिणी’ ही है। यह भी इस बात की पुष्टि करती है कि वे राजा कायस्थ थे। कल्हण के अलावा, अल बरूनी और तांग वंश के सु तांग ने भी ललितादित्य के शासनकाल का विस्तार से वर्णन किया है। एक इतिहासकार ने ललितादित्य को ‘भारत का सिकंदर’ तक कहा है। बताया जाता है कि उसने 100 से ज्यादा लड़ाइयां लड़ी और सबमें विजय प्राप्त कीऋ बताया जाता है कि उसने तुर्कों, रूसियों, और अरबों को उनकी ही ज़मीन पर हराया, जबकि चीनियों ने बागी तिब्बतियों को परास्त करने के लिए उसके साथ संधि कर ली। उसने उस काल के सबसे शक्तिशाली कन्नौज के राजा यशोवर्णम को भी पराजित किया। इस तरह, उसका साम्राज्य तुर्की से लेकर बंगाल तक फैला था। उसे कश्मीर में भव्य नगरों और मन्दिरों के निर्माता के तौर पर याद किया जाता है। उसने कश्मीर की राजधानी श्रीनगर से परिहासपुरा में स्थानांतरित करवाया, जिसके शानदार अवशेष श्रीनगर से 22 किलोमीटर की दूरी पर आज भी देखे जा सकते हैं। भारत में सूर्य देवता का सबसे बड़ा मार्तंड मन्दिर कश्मीर के अनंतनाग जिले में आज भी अपनी भव्यता के साथ खड़ा है, हालांकि विदेशी आक्रान्ताओं ने इसे कई बार नष्ट करने की कोशिश की (स्टीन, 2019)।
छठी सदी के बाद से श्रीवास्तवों ने उत्तर भारत की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कलचुरी, चंदेल, गहड़वाल जैसे महत्वपूर्ण राजवंशों ने उनकी सेवाओं का काफी लाभ उठाया। लेखक और कलमजीवी के रूप में शुरू करके उन्होंने सिकला, पुराण, आगम, धर्मशास्त्र और साहित्य की विद्या के सागर को पार किया और माप-तौल के विज्ञान, व्याकरण, प्रेम एवं कला से निर्मित राजनीतिक-विधिक ज्ञान की ऊचाइयों को छुआपि (एपिग्राफिया इंडिका, खंड 30, पेज 90, 48)। अपनी वफ़ादारी और कुशलता के बल पर उन्होंने गांवों की जमींदारी, दौलत, और रसूख हासिल किया, जिसे उन्होंने मन्दिरों का निर्माण कराने जैसे परमार्थ के कार्यों के जरिए मजबूत करने के उपक्रम किए (ब्लंट, पेज 222)। कालांतर में श्रीवास्तव कायस्थ मध्य और उत्तर भारत के कई क्षेत्रों में भी फैल गए।
उच्चवर्गीय श्रीवास्तव कायस्थों और उन्हीं के गांव के साधारण पटवारियों के बीच अलगथलग और उदासीन-सा संबंध रहा क्योंकि ये मुंशी भ्रष्टाचार के लिए बदनाम थे। आर्थिक अनिश्चितता और समाज में नीची हैसियत के कारण ये पटवारी लोग हेराफेरी का सहारा लिया करते थे। इसलिए उच्चवर्गीय श्रीवास्तव कायस्थ पटवारियों के साथ कारोबारी या पारिवारिक संबंध बनाने से इनकार करते थे (क्रुक, खंड 3, पेज 191)। श्रीवास्तवों के 56 अल हैं।
श्रीवास्तव कायस्थों में अनगिनत हस्तियाँ हुईं, जिसमें उल्लेखनीय हैं ललितादित्य मुक्तपीढ़, जयप्रकाश नारायन, सुभाष चंद्र बोस, महेश योगी, स्वामी योगानंद, राजेन्द्र प्रसाद, सच्चिदानंद सिन्हा, महादेवी वर्मा आदि।