01/01/2024
1जनवरी 1948
#खरसावां_गोलिकांड
वीर शहीदों को हुल जोहार,
हुल जोहार, हुल जोहार
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💥खरसावां गोलिकांड विशेष :-
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देश के तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने देशी रियासतों को मिलाकर देश के एकीकरण की प्रक्रिया शुरू की. तमाम रियासतोंं को 3 श्रेणियों अ- बड़ी रियासतें, बी- मध्यम और सी श्रेणी में छोटी रियासतोंं को बांटा गया. खरसावां और सरायकेला छोटी रियासत थीं.एकीकरण और रियासतोंं के विलय की प्रक्रिया में खरसावां, सरायकेला रियासत प्रमुखों ने ओडिशा के साथ अपने विलय को मंजूरी दे दी थी और 1 जनवरी 1948 को औपचारिक तौर पर सत्ता हस्तांतरण के दिन के रूप में निर्धारित किया गया था. लेकिन हो, भूमिज, मुंडा, संथाल और अन्य आदिवासी इस विलय के खिलाफ थे. वे अपने लिए एक अलग आदिवासी बाहुल्य राज्य- झारखंड की मांग कर रहे थे.25 दिसंबर 1947 को चंद्रपुर-जोजोडीह में नदी किनारे आयोजित सभा रियासतों के विलय के खिलाफ आदिवासियों बाहुल्य क्षेत्रों को मिलाकर आदिवासी राज्य की मांग पर आदिवासियों को एकजुट करने और 1 जनवरी को साप्ताहिक हाट के दिन खरसावां बाजार मैदान में सभा करने का फैसला किया गया, जहां मरंग गोमके जयपाल सिंह मुंडा के द्वारा संबोधित किया जाना तय हुआ.संविधान सभा के सदस्य, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र और आदिवासी महासभा के प्रमुख जयपाल सिंह मुंडा के आगमन की सूचना आदिवासियों के मध्य जैसे ही पहुंची, उन्हें सुनने-देखने के लिए रांची, चक्रधरपुर, चाईबासा, करंडीह, परसुडीह, तमाड़, वुंडू, जमशेदपुर, खरसावां, सरायकेला के स्थानीय आदिवासी बच्चे, बूढ़े, नौजवान, औरत, मर्द सभी कई दिनों की तैयारी के साथ सिर पर गठरी, खाने-पीने के सामान और परंपरागत हथियारों- कुल्हाड़ी, तीर धनुष, ढोल नगाड़े से लैस होकर पैदल ही सभा स्थल की ओर चल पड़े.गुरुवार साप्ताहिक हाट का दिन होने के चलते सामान्य से अधिक लोग बाजार के मैदान और उसके आसपास मौजूद थे. सभा के लिए लोगों का आना जारी था. आजादी के गीत, आदिवासी एकता के नारे, अलग राज्य- जय झारखंड की मांग, रियासतोंं के विलय के निर्णय और ओडिशा मुख्यमंत्री के खिलाफ नारे लगाये जा रहे थे. 50,000 से अधिक लोगों के सभा स्थल पर पहुंचने से ये अंदाजा हो गया था कि रियासतोंं के विलय के निर्णय ने पूरा आदिवासी बाहुल्य इलाके को सुलगा दिया था.ओडिशा के तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय पाणी किसी भी तरह के विरोध को बलपूर्वक कुचलने के लिए पहले से ही तैयार थे, लिहाजा उन्होंने पूर्व में ही अपनी तैयारी कर ली थी. ओडिशा सशस्त्र सुरक्षा बल और पुलिस के जवानों को सभा के आयोजन से 2 हफ्ते पहले 18 दिसंबर 1947 को जंगल के रास्ते खरसावां भेज दिया गया था. इनमें 3 हथियारबंद कंपनी शामिल थीं जिन्हें खरसावां के स्कूल में ठहराया गया था.‘झारखंड आबुव: ओडिशा जरी कबुव: रोटी पकौड़ी तेल में, विजय पाणी जेल में’ का नारा आसमान में गूंजने लगा. जुलूस की लंबी-लंबी कतारें चलने लगी, जुलूस दोपहर बाद हाट मैदान में जाकर सभा में तब्दील हो गया.आदिवासी महासभा के नेताओं ने दूर-दराज से आए आदिवासियों को संबोधित किया. लेकिन मरंग गोमके जयपाल सिंह मुंडा खरसावां की सभा में शामिल नहीं हो सके. आदिवासियों का एक जत्था खरसावां के तत्कालीन राजा से मिलना चाहता था ताकि विलय निर्णय पर पुनर्विचार का अनुरोध किया जा सके लेकिन संभव नहीं हुआ.सभा के समाप्त होने के कुछ ही देर बाद अचानक बिना किसी चेतावनी के ओडिशा सरकार के आदेश पर आधुनिक हथियारों से लैस ओडिशा सुरक्षा बल और पुलिस ने आदिवासियों पर अंधाधुंध गोलीबारी शुरू कर दी.लोग जान बचाने के लिए इधर से उधर भागने लगे, कुछ जमीन पर लेट गए, कुछ मैदान में बने कुएं में कूद गए, कुछ भगदड़ में मारे गए. इनमें बच्चे, बुजुर्ग और महिलाओं की तादाद सबसे अधिक थी. पूरा मैदान लाशों से पट गया था और अब मैदान को ओडिशा मिलिट्री और पुलिस ने चारों तरफ से घेर लिया.घायलों को न तो मैदान से बाहर जाने दिया गया और न इलाज के लिए अस्पताल ले लाया गया. सेना और पुलिस के जवानों ने लाशों को ट्रकों में भरकर सारंडा के जंगलो में फेंक दिया. मैदान स्थित लाशों से भरे कुएं को रात में ही स्थायी रूप से बंद कर दिया गया. भारत सरकार ने भी अपनी और से कोई जांच नही बैठाई.ओडिशा सरकार ने आदिवासियों के इस नरसंहार को छुपाने के लिए पत्रकारों के घटनास्थल पर जाने से प्रतिबंध लगा दिया. यहां तक कि बिहार सरकार द्वारा भेजे गए चिकित्सा दल और सेवा दल को वापस कर दिया गया. आजादी के मात्र 133 दिन बाद ही खरसावां में कर्फ्यू लगा दिया गया.अंग्रेजी अख़बार द स्टेट्समेन ने 3 जनवरी को घटना को रिपोर्ट करते हुए 35 आदिवासियों के मारे जाने की सूचना दी, ओडिशा सरकार के अनुसार 32 और बिहार सरकार के आंकड़ों के अनुसार मरने वालों की संख्या 48 थी. लेकिन प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार इनकी संख्या कई हजारों में थी.प्रताप केशरी देव अपनी पुस्तक मेमोरी ऑफ बाईगोन एरा में मरने वालों की संख्या दो हजार से अधिक बताते हैं.संतोष किरो की किताब द लाइफ एंड टाइम्स ऑफ जयपाल सिंह मुंडा में बताया गया है कि इस घटना के बारे में डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा था, ‘यह दूसरा जलियांवाला बाग है. जलियांवाला बाग गोलीकांड को पूरा भारत स्वाधीनता संग्राम के महत्वपूर्ण पृष्ठ के रूप में जानता है. जहां विदेशी शासक और विदेशी जनरल डायर ने गोलियां चलाई थीं, आज़ाद भारत की ओडिशा सरकार, जो अपने ही देशवासियों की थी, ने खरसावां में अपने ही देशवासियों पर गोली चलाई. इससे शर्मनाक और अफ़सोस की बात क्या हो सकती हैं.’हजारों आदिवासियों की शहादत ने आदिवासी बाहुल्य इलाकों का ओडिशा में विलय को रोक दिया था. यही वो दौर था जब आदिवासियों के लिए अलग राज्य ‘झारखंड’ की मांग अपने चरम पर थी.खरसावां नरसंहार के बाद 28 फरवरी 1948 को आदिवासी महासभा ने अपने स्थापना दिवस (30- 31 मई 1938) के अवसर पर ‘छोटा नागपुर और संथाल परगना को मिलकर नए आदिवासी बाहुल्य प्रांत के गठन’ और ‘आदिवासी पूर्ण स्वराज से एक कदम पीछे नहीं हटेंगे’ के संकल्प को दोहराया.आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों को बंगाल, ओडिशा और मध्य प्रदेश में सम्मिलित किए जाने का विरोध किया गया. परिणामस्वरूप आदिवासी महासभा ने अपने आप को राजनीतिक संगठन ‘झारखंड पार्टी’ में परिवर्तित कर लिया.मतय हेंब्रम, हरी सरदार, मानकी पा, खेरसे पूर्ति, मड़की सोय, लखन हेंब्रम, धनेश्वर बानरा, कुंबर डांगिल, रघुनाथ पांडया, सुभाष हेंब्रम, बिटू राम सोय, मोराराम हेंब्रम, सूरा बोदरा, बुधराम सांडिल इत्यादि वो गिने-चुने नाम हैं जिनकी पहचान हो पाई. ज्यादातर शहीदों की लाशें कभी बरामद ही नहीं हुई.नरसंहार में सरकारी गोली के शिकार आदिवासियों को शहीद का दर्जा भी नहीं दिया गया, यहां तक कि एफआईआर तक दर्ज नहीं हुई. न किसी को इस घटना में सजा दी गई.बिहार सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह ने ओडिशा सरकार की इस पुलिस कार्यवाही पर केंद्र सरकार से दखल देने की मांग की और दोनों रियासतोंं का ओडिशा में विलय रोक दिया गया. इस नरसंहार पर एक जांच कमेटी का गठन भी किया लेकिन कभी उसकी रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई और न उस रिपोर्ट पर कभी चर्चा ही हुई.केंद्र सरकार ने बुधकर आयोग की सिफ़ारिशों के आधार पर सरायकेला और खरसावां रियासतोंं का 18 मई 1948 को बिहार में विलय कर दिया.खरसावां नरसंहार से मात्र 133 दिन पूर्व आजादी की पूर्व संध्या पर संविधान सभा की बैठक को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, ‘कई वर्षो पहले हमने नियति के साथ वादा किया था और अब समय आ गया हैं कि हम अपने उस वादे को निभाए, आज आधी रात को जब पूरी दुनिया सो रही होगी तब भारत जिंदगी और आज़ादी के साथ उठेगा.’लेकिन आदिवासी समाज को आज़ादी की ये सुबह उतनी खुशनुमा नहीं थी जितनी बाकियों के लिए थी. आजादी का जश्न आदिवासी समाज मना नहीं पाया, यही स्थिति आज भी बदस्तूर जारी हैं.खरसावां नरसंहार के 74 वर्ष बाद आदिवासियों के जख्म अभी भी ताजा हैं. आदिवासी आज भी एक जनवरी नये साल के रूप में नहीं बल्कि काला-शोक दिवस के रूप में याद करते हैं. प्रतिवर्ष घटना स्थल पर शहीदों का ‘दुल सुनुम’ श्राद्ध का आयोजन करके शहीदों को याद किया जाता हैं.जलियावाला बाग़ को भारतीय इतिहास में जो स्थान प्राप्त हुआ वह खरसावां नरसंहार को नहीं दिया गया. उसे छुपाने की कोशिशें आज भी जारी हैं. लेकिन आदिवासियों की स्मृतियों, कहानियों, गीतों में आज भी यह नरसंहार जीवंत हैं.यह पहला आदिवासी हत्याकांड नहीं है, जिसे इतिहास की किताबों से दूर किया गया बल्कि इसी तरह मानगढ़ (1913, राजस्थान ) नरसंहार को भी उचित स्थान नहीं दिया गया.(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के श्याम लाल कॉलेज में पढ़ाते हैं.)