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#पितृदोष!!
यदि आपके कर्म अच्छे हैं तो आपको किसी से भी डरने की जरूरत नहीं। किसी भी प्रकार के दोष निवारण करने की जरूरत नहीं।

पितृ बाधा का मतलब यह होता है कि आपके पूर्वज आपसे कुछ अपेक्षा रखते हैं, दूसरा यह कि आपके पूर्वजों के कर्म का आप भुगतान कर रहे हैं। यह भी कि यह हमारे पूर्वजों और कुल परिवार के लोगों से जुड़ा दोष है। हमारे पूर्वजों का लहू, हमारी नसों में बहता है। हमारे पूर्वज कई प्रकार के होते हैं, क्योंकि हम आज यहां जन्में हैं तो कल कहीं ओर। पितृदोष का अर्थ है कि आपके पिता या पूर्वजों में जो भी दुर्गुण या रोग रहे हैं वह आपको भी हो सकते हैं।

पितृदोष का लक्षण-कारण-
पूर्वजों के कारण वंशजों को किसी प्रकार का कष्ट ही पितृदोष माना गया है।
कोई आकस्मिक दुख या धन का अभाव बना रहता है, तो फिर पितृ बाधा पर विचार करना चाहिए।
पितृदोष के कारण हमारे सांसारिक जीवन में और आध्यात्मिक साधना में बाधाएं उत्पन्न होती हैं।

आपको ऐसा लगता है कि कोई अदृश्य शक्ति आपको परेशान करती है तो पितृ बाधा पर विचार करना चाहिए।

पितृ दोष और पितृ ऋण से पीड़ित व्यक्ति अपने मातृपक्ष अर्थात माता के अतिरिक्त मामा-मामी मौसा-मौसी, नाना-नानी तथा पितृपक्ष अर्थात दादा-दादी, चाचा-चाची, ताऊ-ताई आदि को कष्ट व दुख देता है और उनकी अवहेलना व तिरस्कार करता है।

ऐसा माना जाता है कि यदि किसी को पितृदोष है तो उसकी तरक्की रुकी रहती है। समय पर विवाह नहीं होता है। कई कार्यों में रोड़े आते रहते हैं। घर में कलह बढ़ जाती है। जीवन एक उत्सव की जगह संघर्ष हो जाता है। रुपया पैसा होते हुए भी शांति और सुकून नहीं मिलता है। शिक्षा में बाधा आती है, क्रोध आता रहता है, परिवार में बीमारी लगी रहती है, संतान नहीं होती है, आत्मबल में कमी रहती है आदि कई कारण या लक्षण बताए जाते हैं।

ज्योतिष के अनुसार पितृदोष के प्रकार-
1- कुंडली में पितृदोष का सृजन दो ग्रहों सूर्य व मंगल के पीड़ित होने से भी होता है क्योंकि सूर्य का संबंध पिता से व मंगल का संबंध रक्त से होता है। सूर्य के लिए पाप ग्रह शनि, राहु व केतु माने गए हैं। अतः जब सूर्य का इन ग्रहों के साथ दृष्टि या युति संबंध हो तो सूर्यकृत पितृदोष का निर्माण होता है। इसी प्रकार मंगल यदि राहु या केतु के साथ हो या इनसे दृष्ट हो तो मंगलकृत पितृ दोष का निर्माण होता है। सूर्यकृत पितृदोष होने से जातक के अपने परिवार या कुटुंब में अपने से बड़े व्यक्तियों से विचार नहीं मिलते। वहीं मंगलकृत पितृदोष होने से जातक के अपने परिवार या कुटुंब में अपने छोटे व्यक्तियों से विचार नहीं मिलते।

2- कुंडली का नौवां घर यह बताता है कि व्यक्ति पिछले जन्म के कौन से पुण्य साथ लेकर आया है। यदि कुंडली के नौवें में राहु, बुध या शुक्र है तो यह कुंडली पितृदोष की है।

3- लाल किताब में कुंडली के दशम भाव में गुरु के होने को शापित माना जाता है।

4- सातवें घर में गुरु होने पर आंशिक पितृदोष हैं।

5- लग्न में राहु है तो सूर्य ग्रहण और पितृदोष, चंद्र के साथ केतु और सूर्य के साथ राहु होने पर भी पितृदोष होता है।

6- पंचम में राहु होने पर भी कुछ ज्योतिष पितृदोष मानते हैं।

7- जन्म पत्री में यदि सूर्य पर शनि राहु-केतु की दृष्टि या युति द्वारा प्रभाव हो तो जातक की कुंडली में पितृ ऋण की स्थिति मानी जाती है।

8- विद्वानों ने पितर दोष का संबंध बृहस्पति (गुरु) से बताया है। अगर गुरु ग्रह पर दो बुरे ग्रहों का असर हो तथा गुरु 4-8-12वें भाव में हो या नीच राशि में हो तथा अंशों द्वारा निर्धन हो तो यह दोष पूर्ण रूप से घटता है और यह पितर दोष पिछले पूर्वज (बाप दादा परदादा) से चला आता है, जो सात पीढ़ियों तक चलता रहता है।

9- जन्म पत्री में यदि सूर्य पर शनि राहु-केतु की दृष्टि या युति द्वारा प्रभाव हो तो जातक की कुंडली में पितृ ऋण की स्थिति मानी जाती है।

- पितृ ऋण कई प्रकार का होता है जैसे हमारे कर्मों का, आत्मा का, पिता का, भाई का, बहन का, मां का, पत्नी का, बेटी और बेटे का। आत्मा का ऋण को स्वयं का ऋण भी कहते हैं। हालांकि इसके अलावा व्यक्ति अपने कर्मों से भी पितृदोष निर्मित कर लेता है।

जब कोई जातक अपने जातक पूर्व जन्म में धर्म विरोधी कार्य करता है तो वह इस जन्म में भी अपनी इस आदत को दोहराता है। ऐसे में उस पर यह दोष स्वत: ही निर्मित हो जाता है।

धर्म विरोधी का अर्थ है कि आप भारत के प्रचीन धर्म हिन्दू धर्म के प्रति जिम्मेदार नहीं हो। पूर्व जन्म के बुरे कर्म, इस जन्म में पीछा नहीं छोड़ते। अधिकतर भारतीयों पर यह दोष विद्यमान है। स्वऋण के कारण निर्दोष होकर भी उसे सजा मिलती है। दिल का रोग और सेहत कमजोर हो जाती है। जीवन में हमेशा संघर्ष बना रहकर मानसिक तनाव से व्यक्ति त्रस्त रहता है।

इसी तरह हमारे पितृ धर्म को छोड़ने या पूर्वजों का अपमान करने आदि से पितृ ऋण बनता है, इस ऋण का दोष आपके बच्चों पर लगता है जो आपको कष्ट देकर इसके प्रति सतर्क करते हैं। पितृ ऋण के कारण व्यक्ति को मान प्रतिष्ठा के अभाव से पीड़ित होने के साथ-साथ संतान की ओर से कष्ट, संतानाभाव, संतान का स्वास्थ्य खराब रहने या संतान का सदैव बुरी संगति में रहने से परेशानी झेलना होती है। पितर दोष के और भी दुष्परिणाम देखे गए हैं। जैसे कई असाध्य व गंभीर प्रकार का रोग होना। पीढ़ियों से प्राप्त रोग को भुगतना या ऐसे रोग होना जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहे। पितर दोष का प्रभाव घर की स्त्रियों पर भी रहता है।

इसके अलावा मातृ ऋण से आप कर्ज में दब जाते हो और ऐसे में आपके घर की शांति भंग हो जाती है। मातृ ऋण के कारण व्यक्ति को किसी से किसी भी तरह की मदद नहीं मिलती है। जमा धन बर्बाद हो जाता है। फिजूल खर्जी को वह रोक नहीं पाता है। कर्ज उसका कभी उतरना नहीं।

दूसरी ओर बहन के ऋण से व्यापार-नौकरी कभी भी स्थायी नहीं रहती। जीवन में संघर्ष इतना बढ़ जाता है कि जीने की इच्छा खत्म हो जाती है। बहन के ऋण के कारण 48वें बर्ष तक संकट बना रहता है। ऐसे में संकट काल में कोई भी मित्र या रिश्तेदार साथ नहीं देते भाई के ऋण से हर तरह की सफलता मिलने के बाद अचानक सब कुछ तबाह हो जाता है। 28 से 36 वर्ष की आयु के बीच तमाम तरह की तकलीफ झेलनी पड़ती है।

स्त्री के ऋण का अर्थ है कि आपने किसी स्त्री को किसी भी प्रकार से प्रताड़ित किया हो, इस जन्म में या पूर्जजन्म में तो यह ऋण निर्मित होता है। स्त्री को धोखा देना, हत्या करना, मारपीट करना, किसी स्त्री से विवाह करके उसे प्रताड़ित कर छोड़ देना आदि कार्य करने से यह ऋण लगता है। इसके कारण व्यक्ति को कभी स्त्री और संतान सुख नसीब नहीं होता। घर में हर तरह के मांगलिक कार्य में विघ्न आता है।

इसके अलावा गुरु का ऋण, शनि का ऋण, राहु और केतु का ऋण भी होता है। इसमें से शनि के ऋण उसे लगता है जो धोके से किसी का मकान, भूमि या संपत्ति आदि हड़प लेता हो, किसी की हत्या करवा देता हो या किसी निर्दोष को जबरन प्रताड़ित करता हो। ऐसे में शनिदेव उसे मृत्यु तुल्य कष्ट देते हैं और उसका परिवार बिखर जाता है।

राहु के ऋण के अजन्मे का ऋण कहते हैं। इस ऋण के कारण व्यक्ति मरने के बाद प्रेत बनता है। किसी संबंधी से छल करने के कारण या किसी अपने से ही बदले की भावना रखने के कारण यह ऋण उत्पन्न होता है। इसके कारण आपने सिर में गहरी चोट लग सकती है। निर्दोष होते हुए भी आप मुकदमे आदि में फंस जाते हैं। बच्चों को इससे कष्ट होता है। इसी तरह केतु के ऋण अनुसार संतान का जन्म मुश्किल से होता है और यदि हो भी जाता है तो वह हमेशा बीमार रहती है। यदि आपने किसी कुत्ते को मारा हो तो भी यह ऋण लगता है।

पितृ ऋण या दोष के अलावा एक ब्रह्मा दोष भी होता है। इसे भी पितृ के अंर्तगत ही माना जा सकता है। ब्रह्मा ऋण वो ऋण है जिसे हम पर ब्रह्मा का कर्ज कहते हैं। ब्रह्मा जी और उनके पुत्रों ने हमें बनाया तो किसी भी प्रकार के भेदवाव, छुआछूत, जाति आदि में विभाजित करके नहीं बनाया लेकिन पृथ्वी पर आने के बाद हमने ब्रह्मा के कुल को जातियों में बांट दिया। अपने ही भाइयों से अलग होकर उन्हें विभाजित कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ की हमें युद्ध, हिंसा और अशांति को भोगना पड़ा और पड़ रहा है।

ब्रह्मा दोष हमारे पूर्वजों, हमारे कुल, कुल देवता, हमारे धर्म, हमारे वंश आदि से जुड़ा है। बहुत से लोग अपने पितृ धर्म, मातृभूमि या कुल को छोड़कर चले गए हैं। उनके पीछे यह दोष कई जन्मों तक पीछा करता रहता है। यदि कोई व्यक्ति अपने धर्म और कुल को छोड़कर गया है तो उसके कुल के अंत होने तक यह चलता रहता है, क्यों‍कि यह ऋण ब्रह्मा और उनके पुत्रों से जुड़ा हुआ है। मान्यता अनुसार ऐसे व्यक्ति का परिवार किसी न किसी दुख से हमेशा पीड़ित बना रहता है और अंत: मरने के बाद उसे प्रेत योनी मिलती है।

ऋण मुक्ति के कुछ उपाय-
1. कर्पूर जलाने से देवदोष व पितृदोष का शमन होता है। प्रतिदिन सुबह और शाम घर में संध्यावंदन के समय कर्पूर जरूर जलाएं।

2. तेरस, चौदस, अमावस्य और पूर्णिमा के दिन गुड़ और घी के मिश्रण को कंडे (उपले) पर चलाने से भी देव और पितृदोष दूर होते हैं।

3.प्रतिदिन हनुमान चालीसा का पाठ पढ़ना।

4.श्राद्ध पक्ष के दिनों में तर्पण आदि कर्म करना और पूर्वजों के प्रति मन में श्रद्धा रखना भी जरूरी है।

5.घर का वास्तु सुधारे और ईशान कोण को मजबूत एवं वास्तु अनुसार बनाएं।

6.अपने कर्म को सुधारें, क्रोध और शराब को छोड़कर परिवार में परस्पर प्रेम की स्थापना करें।

7.घृणा, छुआछूत, जातिवाद, प्रांतवाद इत्यादि की भावना से मुक्त होकर पिता, दादा, गुरु, स्वधर्मी और देवताओं का सम्मान करना सीखें।

9.परिवार के सभी सदस्यों से बराबर मात्रा में सिक्के इकट्ठे करके उन्हें मंदिर में दान करें।

10. देश के धर्म अनुसार कुल परंपरा का पालन करना, संतान उत्पन्न करके उसमें धार्मिक संस्कार डालना।

11. दरअसल, हमारा जीवन, हमारे पुरखों का दिया है। हमारे पूर्वजों का लहू, हमारी नसों में बहता है। हमें इसका कर्ज चुकाना चाहिए। इसका कर्ज चुकता है पुत्र और पुत्री के जन्म के बाद।
यदि हमने अपने पिता को एक पोता और माता को एक पोती दे दिया तो आधा पितृदोष तो वहीं समाप्त हो जाता है।

12.दूसरा हमारे ऊपर हमारे माता पिता और पूर्वजों के अलावा हम पर स्वऋण (पूर्वजन्म का), बहन का ऋण, भाई का ऋण, पत्नी का ऋण, बेटी का ऋण आदि ऋण होते हैं। उक्त सभी का उपाय किया जा सकता है। पहली बात तो यह की सभी के प्रति विनम्र और सम्मानपूर्वक रहें।

13. कौए, चिढ़िया, कुत्ते और गाय को रोटी खिलाते रहना चाहिए। पीपल या बरगद के वृक्ष में जल चढ़ाते रहना चाहिए। केसर का तिलक लगाते रहना चाहिए। कुल कुटुंब के सभी लोगों से बराबर मात्रा में सिक्के लेकर उसे मंदिर में दान कर देना चाहिए। दक्षिणमुखी मकान में कदापी नहीं रहना चाहिए। विष्णु भगवान के मंत्र जाप, श्रीमद्‍भागवत गीता का पाठ करने से पितृदोष चला जाता है। एकादशी के व्रत रखना चाहिए कठोरता के साथ।

*🕉हिन्दू संस्कार 🕉**होली क्यों मनाते हैं ?पौराणिक मान्यता* 1-नृसिंह रूप में भगवान इसी दिन प्रकट हुए थे और हिरण्यकश्यप ना...
08/03/2023

*🕉हिन्दू संस्कार 🕉*
*होली क्यों मनाते हैं ?पौराणिक मान्यता*

1-नृसिंह रूप में भगवान इसी दिन प्रकट हुए थे और हिरण्यकश्यप नामक असुर का वध कर भक्त प्रहलाद को दर्शन दिए थे।

2-हिन्दू मास के अनुसार होली के दिन से नए संवत की शुरुआत होती है।

3-चैत्र कृष्ण प्रतिपदा के दिन धरती पर प्रथम मानव मनु का जन्म हुआ था।

4 -इसी दिन कामदेव का पुनर्जन्म हुआ था। इन सभी खुशियों को व्यक्त करने के लिए रंगोत्सव मनाया जाता है।

5 -त्रेतायुग में विष्णु के 8वें अवतार श्री कृष्ण और राधारानी की होली ने रंगोत्सव में प्रेम का रंग भी चढ़ाया। श्री कृष्ण होली के दिन राधारानी के गांव बरसाने जाकर राधा और गोपियों के साथ होली खेलते थे। कृष्ण की रंगलीला ने होली को और भी आनंदमय बना दिया और यह प्रेम एवं अपनत्व का पर्व बन गया

6-भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था।

*सामाजिक मान्यता*

होली बसंत का त्यौहार है और इसके आने पर सर्दी ख़त्म हो जाती है | कुछ हिस्सों में इस त्यौहार का संमंध बसंत की फसल पकने से भी है |किसान अच्छी फसल पैदा होने की खुसी में होली मनाते है |होली को वसंत महोत्सव या काम महोत्सव भी कहते हे |

इस दिन लोग आपसी कटुता और वैरभाव को भुलाकर एक-दूसरे को इस प्रकार रंग लगाते हैं कि लोग अपना चेहरा भी नहीं पहचान पाते हैं। रंग लगने के बाद मनुष्य शिव के गण के समान लगने लगते हैं जिसे देखकर भोलेशंकर भी प्रसन्न होते हैं।

इस दिन शिव और शिवभक्तों के साथ होली के प्यारभरे रंगों का आनंद लेते हैं व प्रेम एवं भक्ति के आनंद में डूब जाते हैं।

*भगवान नृसिंह द्वारा हिरण्यकशिपु का वध*

होली के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है प्रह्लाद की। माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के दर्प में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर

हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है। प्रतीक रूप से यह भी माना जता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुर्ण
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युधिष्‍ठिर ने करवाया था होली का आरंभसतरंगी है होलीहोली एक ऐसा त्यौहार है जिस की सांस्कृतिक विरासत अत्यंत समृद्ध है इसी क...
08/03/2023

युधिष्‍ठिर ने करवाया था होली का आरंभ

सतरंगी है होली
होली एक ऐसा त्यौहार है जिस की सांस्कृतिक विरासत अत्यंत समृद्ध है इसी कारण इसे सतरंगी त्योहार कहा जाता है एक और जहां इसकी पौराणिक धार्मिक महत्‍ता है। वहीं दूसरी ओर साहित्य संगीत चित्रकला सामाजिक समरसता इत्यादि से संबंधित परंपराएं भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। जानें कि किस तरह से महत्वपूर्ण है होली का पौराणिक धार्मिक स्‍वरूप और इसकी समृद्ध परंपरा।
नारद का आग्रह
होली में माघ पूर्णिमा पर सूंते गए डंडे से सटा करके लकड़ियों और कंडों का ढेर लगा जाता है इससे बने स्वरूप को ही होलिका कहते हैं। होलिका का विधि विधान से पूजन किया जाता है और सामूहिक रूप से विधि विधान से दहन किया जाता है। भविष्य पुराण के अनुसार नारद के आग्रह पर युधिष्ठिर ने इस त्यौहार को आरंभ कराया था। नारद जी ने युधिष्ठिर से कहा था महाराज फाल्गुन पूर्णिमा के दिन प्रजा को अभयदान मिलना चाहिए ताकि सभी पूरे उल्लास के साथ यह दिन व्यतीत कर सकें।

होली का उत्‍सव
तब युधिष्‍ठिर ने कहा कि बालक, युवा गांव के बाहर से लकड़ी और एपन मिलाकर ढेर लगा के होलिका बनाएं। इसका पूर्ण विधि से पूजन करके दहन करें। ऐसा करने से अनिष्ट का नाश होगा। द्वापर युग में अंतर से युधिष्ठिर के आदेश पर यह परंपरा शुरू हुई। इस दिन भारत में जहां रवि की फसल खेत में तैयार हो जाती है वहां नव निष्ठा यज्ञ पर्व भी मनाया जाता है। कुछ जगह इसको सुला कहा जाता है। कुछ लोग होलीका यज्ञ में हवन करके प्रसाद बांटते हैं और उसे चाय के साथ खाया जाता है।

28/02/2023

भगवान का नाम जपने से मुक्ति की मान्यता क्यों ?
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भगवन नाम जप की महिमा अनंत अतुलनीय है। इसीलिए इसे माधुर्य, ऐश्वर्य और सुख की खान कहा गया है। भक्तशिरोमणि नारद, भक्त प्रह्लाद, ध्रुव, जटायु, अजामिल, केवट, हनुमान, शबरी, अम्बरीष, गणिका आदि ने इस भगवन्नाम जप के द्वारा भगवत्प्राप्ति की है। इस नाम जप के प्रभाव से शिवजी अविनाशी हैं। मुनिजन, समस्त योगीजन, शुकदेव, सनकादि नाम जप के प्रभाव से ही ब्रह्मानंद का भोग करते हैं। वेद-पुराणादि धार्मिक ग्रंथों एवं संतों के वचनामृत में नाम की महिमा का उल्लेख मिलता है। इसमें भगवान् के नाम स्मरण-जप को कलियुग का मुख्य धर्म (ऐहिक-पारलौकिक कल्याणकारी कर्तव्य) माना गया है, क्योंकि कलियुग में मानव कल्याण और विश्वशांति के लिए श्री हरि के नाम के अतिरिक्त दूसरा सुलभ साधन नहीं है।

गोस्वामी तुलसीदास का कहना है

नाम निरूपन नाम जतन तें।
सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें ॥ रामचरितमानस 1/22/8 =

अर्थात् नाम के यथार्थ स्वरूप, महिमा, रहस्य और प्रभाव को जानकर श्रद्धापूर्वक नाम जप करने से वही ब्रह्म ऐसे प्रकट हो जाता है, जैसे रत्न को जानने से उसका मूल्य।

श्रीमद्भागवत में कहा गया है

सांकेत्यं पारिहास्यं वा स्तोत्रं हेलनमेव वा। वैकुण्ठनाम ग्रहणमशेषाघहरं विदुः ॥ पतितः स्खलितो भग्नः संदष्टस्तप्त आहत: ।
त्वामनुबध्नामि हरिरित्यवशेनाह पुमानार्हति यातनाम् ॥

-श्रीमद्भागवत 6 214-15

अर्थात् भगवान् का नाम चाहे जैसे लिया जाए यानी किसी बात का संकेत करने के लिए, हंसी करने के लिए अथवा तिरस्कारपूर्वक ही क्यों न हो, वह संपूर्ण पापों का नाश करने वाला होता है। पतन होने पर, गिरने पर, कुछ टूट जाने पर, डसे जाने पर, बाह्य या आंतर ताप होने पर और घायल होने पर जो पुरुष विवशता से भी हरि' नाम का उच्चारण करता है, वह यम यातना के योग्य नहीं। भगवान् वेदव्यास का कहना है।

हरेर नाम हरेर नाम हरे नामैव केवलम् । कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥

-बृहन्नारदीयपुराण 38/127

अर्थात् इस नानाविध आदि-व्याधि से ग्रस्त कलियुग में हरिनाम जप संसार सागर से पार होने का एकमात्र उत्तम सहारा है। महर्षि पतंजलि कहते हैं

स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोगः ।

-योगदर्शन 2/44

अर्थात् नामोच्चारण से इष्ट देव परमेश्वर के साक्षात् दर्शन होते हैं।

पद्मपुराण में लिखा है कि जो मनुष्य परमात्मा के 'हरि' नाम का नित्य उच्चारण करता है, उसके उच्चारण मात्र से वह मुक्त हो जाता है। भगवान् वेदव्यास ने श्रीमद्भागवत 12.3.52 में कहा है कि सत्युग में भगवान् विष्णु के ध्यान से, त्रेता में यज्ञ से और द्वापर में भगवान् की पूजा-अर्चना से जो फल मिलता था, वह सब कलियुग में भगवान् के नाम-कीर्तन मात्र से ही प्राप्त हो जाता है। गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस के उत्तरकांड 102, ख में कहा है कि कलियुग में तो केवल भगवान् के नाम से वही गति मिलती है जो सत्युग, त्रेता और द्वापर में पूजा, यज्ञ और योग से है। तुलसीदास भगवान् श्रीराम के नाम जपने पर विशेष बल देते हैं।

भाव कुभाव अनख आलसहू।
नाम जपत मंगल दिसि दसहू ॥

भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥

-श्रीमद्भगवद्गीता 8/5 |

अर्थात् जो पुरुष अंतकाल में भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरूप को प्राप्त होता है-इसमें कोई भी संदेह नहीं है।

अजामिल की कथा आपने सुनी होगी वह बहुत बड़ा पापी था । संयोग से उसने अपने छोटे बेटे का नाम नारायण रख दिया था। अंत समय में अजामिल ने यमदूतों के भय और प्यास के कारण अपने बेटे नारायण को पुकारा। श्रीमद्भागवत 6/2/8, 18 के अनुसार जिस समय उसने 'ना-रा-य-ण' इन चार अक्षरों का उच्चारण किया, उसी समय (केवल नामोच्चारण मात्र से ही) उस पापी के समस्त पापों का प्रायश्चित हो गया। जैसे जाने या अनजाने में ईंधन से अग्नि का स्पर्श हो जाए तो वह भस्म हो जाता है, वैसे ही जानबूझ कर या अनजाने में भगवान् के नामों का संकीर्तन करने से मनुष्य के सारे पाप भस्म हो जाते हैं। नारायण का नाम लेने मात्र से नारायण के दूत आ गए और यमदूतों से छुड़ाकर उसे स्वर्ग ले गए। अंतिम समय की मानसिक स्थिति के विषय में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं।

यं यं वाऽपि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥

-श्रीमद्भगवद्गीता 8/6

अर्थात् जो मनुष्य अंतकाल में जिस-जिस भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह उसको ही प्राप्त होता है, क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहा है, अर्थात् अंत समय में देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष आदि सजीव पदार्थों का स्मरण करते हुए मरने वाला मनुष्य उन-उन योनियों को प्राप्त हो जाता है।
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20/11/2022

*।।राधे - राधे ॥*

*" मनोनिग्रह "*
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*जिस प्रकार मन को मुट्ठी में कैद रखना बहुत दुष्कर है ठीक इसी प्रकार धन को भी कैद रखना अति दुष्कर होता है। चित्त और वित्त की स्थिति लगभग सदैव एक जैसी ही है। लक्ष्मी जी का एक नाम चंचला भी है। यह नारायण के चरणों के सिवा एक जगह पर कभी स्थिर रह ही नहीं पाती है।*
*हमारा मन वहीं ज्यादा जाता है जहाँ हम इसे रोकना चाहते हैं। इसीलिए ही कहा गया है कि मन के लिए निषेध ही निमंत्रण का काम करता है। जहाँ से हटाना चाहोगे यह उसी तरफ भागेगा। ठीक ऐसे ही धन जब आता है तो शांति भी बाहर की और भागने लगती है। धन के साथ-साथ स्वयं की शांति और पारिवारिक सद्भाव बना रहे, यह वर्तमान परिपेक्ष्य में थोड़ा मुश्किल काम है।*
*चित्त और वित्त दोनों चंचल हैं, दोनों जायेंगे ही, इसलिए दोनों को जाने भी दो मगर कहाँ ? जहाँ सत्संग हो, साधु सेवा हो, परोपकार हो, जहाँ प्रभु का द्वार हो और जहाँ से हमारा उद्धार हो। चित्त और वित्त जब नारायण के चरणों में जाते हैं तो वहाँ उनमें सहज स्थिरता भी आ आती है।*

*श्री राधे राधे जी!!*

23/07/2022

💦🌸एक गाय घास चरने के लिए एक जंगल में चली गई। शाम ढलने के करीब थी। उसने देखा कि एक बाघ उसकी तरफ दबे पांव बढ़ रहा है।
वह डर के मारे इधर-उधर भागने लगी। वह बाघ भी उसके पीछे दौड़ने लगा। दौड़ते हुए गाय को सामने एक तालाब दिखाई दिया। घबराई हुई गाय उस तालाब के अंदर घुस गई।🌸💦

💦🌸वह बाघ भी उसका पीछा करते हुए तालाब के अंदर घुस गया। तब उन्होंने देखा कि वह तालाब बहुत गहरा नहीं था। उसमें पानी कम था और वह कीचड़ से भरा हुआ था।🌸💦

💦🌸उन दोनों के बीच की दूरी काफी कम थी। लेकिन अब वह कुछ नहीं कर पा रहे थे। वह गाय उस कीचड़ के अंदर धीरे-धीरे धंसने लगी। वह बाघ भी उसके पास होते हुए भी उसे पकड़ नहीं सका। वह भी धीरे-धीरे कीचड़ के अंदर धंसने लगा। दोनों ही करीब करीब गले तक उस कीचड़ के अंदर फंस गए।
दोनों हिल भी नहीं पा रहे थे। गाय के करीब होने के बावजूद वह बाघ उसे पकड़ नहीं पा रहा था।🌸💦

💦🌸थोड़ी देर बाद गाय ने उस बाघ से पूछा, क्या तुम्हारा कोई गुरु या मालिक है?
बाघ ने गुर्राते हुए कहा, मैं तो जंगल का राजा हूं। मेरा कोई मालिक नहीं। मैं खुद ही जंगल का मालिक हूं।🌸💦

💦🌸गाय ने कहा, लेकिन तुम्हारी उस शक्ति का यहां पर क्या उपयोग है?
उस बाघ ने कहा, तुम भी तो फंस गई हो और मरने के करीब हो। तुम्हारी भी तो हालत मेरे जैसी ही है।🌸💦

💦🌸गाय ने मुस्कुराते हुए कहा,.... बिलकुल नहीं। मेरा मालिक जब शाम को घर आएगा और मुझे वहां पर नहीं पाएगा तो वह ढूंढते हुए यहां जरूर आएगा और मुझे इस कीचड़ से निकाल कर अपने घर ले जाएगा। तुम्हें कौन ले जाएगा?

💦🌸थोड़ी ही देर में सच में ही एक आदमी वहां पर आया और गाय को कीचड़ से निकालकर अपने घर ले गया।🌸💦

💦🌸जाते समय गाय और उसका मालिक दोनों एक दूसरे की तरफ कृतज्ञता पूर्वक देख रहे थे। वे चाहते हुए भी उस बाघ को कीचड़ से नहीं निकाल सकते थे, क्योंकि उनकी जान के लिए वह खतरा था।🌸💦

❤गाय ----समर्पित ह्रदय का प्रतीक है।
❤बाघ ----अहंकारी मन है।
❤और मालिक---- ईश्वर का प्रतीक है।
❤कीचड़---- यह संसार है।
❤और
❤यह संघर्ष---- अस्तित्व की लड़ाई है।

💦🌸किसी पर निर्भर नहीं होना अच्छी बात है,
लेकिन मैं ही सब कुछ हूं, मुझे किसी के सहयोग की आवश्यकता नहीं है
यही अहंकार है, और यहीं से विनाश का बीजारोपण हो जाता है🌸💦।

💦🌸ईश्वर से बड़ा इस दुनिया में सच्चा हितैषी कोई नहीं होता, क्यौंकि वही अनेक रूपों में हमारी रक्षा करता है।🌸💦
——————😌
💦🌸💦 💦🌸💦

10/04/2022

Hare Krishna

04/03/2022

हे भगवान

18/07/2020

श्रावण मास महात्म्य (सातवाँ अध्याय)
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मंगलागौरी व्रत का वर्णन तथा व्रत कथा

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! अब मैं अत्युत्तम भौम व्रत का वर्णन करूँगा, जिसके अनुष्ठान करने मात्र से वैधव्य नहीं होता है. विवाह होने के पश्चात पाँच वर्षों तक यह व्रत करना चाहिए. इसका नाम मंगला गौरी व्रत है. यह पापों का नाश करने वाला है. विवाह के पश्चात प्रथम श्रावण शुक्ल पक्ष में पहले मंगलवार को यह व्रत आरंभ करना चाहिए. केले के खम्भों से सुशोभित एक पुष्प मंडल बनाना चाहिए और उसे अनेक प्रकार के फलों तथा रेशमी वस्त्रों से सजाना चाहिए. उस मंडप में अपने सामर्थ्य के अनुसार देवी की सुवर्णमयी अथवा अन्य धातु की बनी प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए. उस प्रतिमा को सोलह उपचारों से, सोलह दूर्वा दलों से सोलह चावलों से तथा सोलह चने की दालों से मंगला गौरी नामक देवी की पूजा करनी चाहिए और सोलह बत्तियों से सोलह दीपक जलाने चाहिए. दही तथा भात का नैवेद्य भक्तिपूर्वक अर्पित करना चाहिए. देवी के पास ही पत्थर का सील तथा लोढ़ा स्थापित करना चाहिए. पाँच वर्ष तक इस प्रकार से करने के पश्चात उद्यापन करना चाहिए।

माता को वायन प्रदान करना चाहिए जिसकी विधि आप सुनिए – अपने सामर्थ्य अनुसार एक पल प्रमाण सुवर्ण की अथवा उसके आधे प्रमाण की अथवा उसके भी आधे प्रमाण की मंगला गौरी की प्रतिमा निर्मित करानी चाहिए. अपनी शक्ति के अनुसार स्वर्ण आदि के बने तंडुलपूरित पात्र पर वस्त्र तथा रमणीय कंचु की ओढ़नी रखकर उन दोनों के ऊपर देवी की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए. पास में चाँदी से निर्मित सिल तथा लोढ़ा रखकर माता को वायन प्रदान करना चाहिए. इसके बाद सोलह सुवासिनियों को प्रयत्नपूर्वक भोजन कराना चाहिए. हे विप्र ! इस विधि से व्रत करने पर सात जन्मों तक सौभाग्य बना रहता है और पुत्र, पुत्र आदि के साथ संपदा विद्यमान रहती है।

सनत्कुमार बोले – सर्वप्रथम इस व्रत को किसने किया था और किसको इसका फल प्राप्त हुआ? हे शम्भो ! जिस तरह से मुझे इसके प्रति निष्ठा हो जाए, कृपा करके वैसे ही बताइए।

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! पूर्वकाल में कुरु देश में श्रुतकीर्ति नामक एक विद्वान्, कीर्तिशाली, शत्रुओं का नाश करने वाला, चौसंठ कलाओं का ज्ञाता तथा धनुर्विद्या में कुशल राजा हुआ था. पुत्र के अतिरिक्त अन्य सभी शुभ चीजें उस राजा के पास थी. अतः वह राजा संतान के विषय में अत्यंत चिंतित हुआ और जप-ध्यानपूर्वक देवी की आराधना करने लगा तब उसकी कठोर तपस्या से देवी प्रसन्न हो गई और उस से यह वचन बोली – हे सुव्रत ! वर माँगों।

श्रुतकीर्ति बोला – हे देवी ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे सुन्दर पुत्र दीजिए. हे देवी ! आपकी कृपा से अन्य किसी भी वस्तु का अभाव नहीं है. उसका यह वचन सुनकर पवित्र मुसकान वाली देवी ने कहा – हे राजन ! तुमने अत्यंत दुर्लभ वर माँगा है, फिर भी कृपा वश मैं तुम्हें अवश्य दूंगी. किन्तु हे राजेंद्र ! सुनिए, यदि परम गुणी पुत्र चाहते हो तो वह केवल सोलह वर्ष तक जीवित रहेगा और यदि रूप तथा विद्या से विहीन पुत्र चाहते हो तो दीर्घजीवी होगा. देवी का यह वचन सुनकर राजा चिंतित हो उठा और पुनः अपनी पत्नी से परामर्श कर के उसने गुणवान तथा सभी शुभ लक्षणों से संपन्न सोलह वर्ष की आयु वाला पुत्र माँगा तब देवी ने भक्ति संपन्न राजा से कहा – हे नृपनन्दन ! मेरे मंदिर के द्वार पर आम का वृक्ष है, उसका एक फल लाकर मेरी आज्ञा से अपनी भार्या को उसे भक्षण करने हेतु प्रदान करो. जिससे वह शीघ्र ही गर्भ धारण करेगी, इसमें संदेह नहीं है.
प्रसन्न होकर राजा ने वैसा ही कियाऔर उसकी पत्नी ने गर्भ धारण कर लिया. दसवें महीने में उसने देवतुल्य सुन्दर पुत्र को जन्म दिया तब हर्ष तथा शोक से युक्त राजा ने बालक का जातकर्म आदि संस्कार किया और शिव का स्मरण करते हुए उसका नाम चिरायु रखा. इसके बाद पुत्र के सोलह वर्ष के होने पर पत्नी सहित राजा चिंता में पड़ गए और वे विचार करने लगे कि यह पुत्र बड़े कष्ट से प्राप्त हुआ है और मैं इसकी दुःखद मृत्यु अपने ही सामने कैसे देख सकूंगा, ऐसा विचार कर के राजा ने पुत्र को उसके मामा के साथ काशी भेज दिया. प्रस्थान के समय राजा की पत्नी ने अपने भाई से कहा कि कार्पटिक का वेश धारण कर के आप मेरे पुत्र को काशी ले जाइए. मैंने भगवान् मृत्युंजय से पूर्व में पुत्र के लिए प्रार्थना की थी और कहा था कि – “हे विश्वेश ! आप जगत्पति की यात्रा के लिए मैं उस पुत्र को अवश्य भेजूंगी”. अतः आप मेरे पुत्र को आज ही ले जाइए और सावधानीपूर्वक इसकी रक्षा कीजिएगा. अपनी बहन की यह बात सुनकर भांजे के साथ वह चल पड़ा।

कई दिनों तक चलते-चलते वह ‘आनंद’ नामक नगर में पहुंचा. वहाँ सभी प्रकार की समृद्धियों से संपन्न वीरसेन नाम वाला राजा रहता था. उस राजा की एक सर्वलक्षण संपन्न, युवावस्था प्राप्त, मनोहर तथा रूपलावण्यमयी मंगलागौरी नामक कन्या थी. सभी उपमानों को तुच्छ कर के सौंदर्य-अभिवृद्धि को प्राप्त वह कन्या किसी समय सखियों के साथ नगर के उपवन में क्रीड़ा करने के लिए गई हुई थी. उसी समय वह चिरायु तथा उसका मामा वे दोनों भी वहाँ पहुँच गए और उन कन्याओं को देखने की लालसा से वहीँ विश्राम करने लगे. इसी बीच विनोदपूर्वक क्रीड़ा करती हुई उन कन्याओं में से किसी एक ने कुपित होकर राजकुमारी को रांडा – यह कुवचन कह दिया तब उस अशुभ वचन को सुनकर राजकुमारी ने कहा – “तुम अनुचित बात क्यों बोल रही हो, मेरे कुल में तो इस प्रकार की कोई नहीं है. मंगला गौरी की कृपा से तथा उनके व्रत के प्रभाव से विवाह के समय जिस के सर पर मेरे हाथ से अक्षत पड़ेंगे, हे सखी ! वह यदि अल्प आयु वाला होगा तो भी चिरंजीवी हो जाएगा.” इसके बाद वह सभी कन्याएं अपने-अपने घर चली गई।

उसी दिन राजकुमारी का विवाह था. बाह्लीक देश के दृढ़धर्मा नामक राजा के सुकेतु नाम वाले पुत्र के साथ उसका विवाह निश्चित किया गया था. वह सुकेतु विद्याहीन, कुरूप तथा बहरा था तब सुकेतु के साथ आए हुए उन लोगों ने विचार किया कि इस समय कोई दूसरा श्रेष्ठ वर ले जाना चाहिए और विवाह संपन्न हो जाने के बाद वहाँ सुकेतु पहुँच जाए. उन लोगों ने चिरायु के मामा के पास जाकर याचना की कि आप इस बालक को हमें दे दीजिए, जिस से हमारा कार्य सिद्ध हो जाए. इस पृथ्वी पर परोपकार के समान दूसरा कोई धर्म नहीं है. उनकी बात सुनकर चिरायु का मामा मन ही मन बहुत प्रसन्न हुआ क्योंकि इसने उपवन में पहले ही कन्या मंगला गौरी की बात सुन ली थी फिर भी उसने एक बार कहा कि आप लोग इसे किसलिए मांग रहे हैं? कार्य की सिद्धि हेतु वस्त्र, अलंकार आदि मांगे जाते हैं, वर तो कहीं भी नहीं माँगा जाता तथापि आप लोगों का सम्मान रखने के लिए मैं इसे दे रहा हूँ।

इसके बाद चिरायु को वहाँ ले जाकर उन लोगों ने विवाह संपन्न कराया. सप्तपदी आदि के हो जाने पर रात्रि में शिव-पार्वती की प्रतिमा के समक्ष उस चिरायु ने हर्षयुक्त होकर मंगलागौरी के साथ शयन किया. उसी दिन चिरायु के सोलह वर्ष पूर्ण हो चुके थे और अर्धरात्रि में साक्षात काल सर्परूप में वहाँ आ गया. इसी बीच संयोगवश राजकुमारी जाग गई. उसने उस महासर्प को वहाँ देखा और वह भय से व्याकुल होकर कांपने लगी तभी उस कन्या ने धैर्य धारण सोलह उपचारों से सर्प की पूजा की और पीने के लिए उसे दूध दिया. उसने दीनता भरी वाणी में उस सर्प की प्रार्थना तथा स्तुति की. मंगलागौरी प्रार्थना करने लगी कि मैं उत्तम व्रत को करुँगी जिससे मेरे पति जीवित रहें, ये जिस तरह से चिरकाल तक जीवित रहें, आप वैसा कीजिए.
इतने में सर्प वहाँ स्थित एक कमण्डलु में प्रवेश कर गया और उस मंगलागौरी ने अपनी कंचुकी से उस कमण्डलु का मुँह बाँध दिया. इसी बीच उसका पति अंगड़ाई लेकर जाग गया और अपनी पत्नी से बोला – हे प्रिये ! मुझे भूख लगी है तब वह अपनी माता के पास जाकर खीर, लड्डू आदि ले आई और उसके द्वारा दिए भोज्य पदार्थ को उसने प्रसन्न मन होकर खाया. भोजन के पश्चात् हाथ धोते समय उसके हाथ से अँगूठी गिर पड़ी. ताम्बूल खाकर वह पुनः सो गया. इसके बाद मंगलागौरी कमण्डलु को फेंकने के लिए जाने लगी. विधि की कैसी गति है कि उस कमण्डलु में से बाहर की ओर जगमग करती हुई हारकान्ति को देखकर वह आश्चर्यचकित हो गई. घट में स्थित उस हार को उसने अपने कंठ में धारण कर लिया. इसके बाद कुछ रात शेष रहते ही चिरायु का मामा आकर उसे ले गया. इसके बाद वर पक्ष के लोग सुकेतु को वहाँ ले आए. उसे देख मंगलागौरी ने कहा कि यह मेरा पति नहीं है तब उन सभी ने उससे कहा – हे शुभे ! तुम यह क्या बोल रही हो? यहाँ तुम्हारा कोई परिचायक हो तो उसे हम लोगों को बताओ।

मंगलागौरी बोली – जिसने रात्रि में नौ रत्नों से बानी अँगूठी दी है, उसकी अंगुली में इसे डालकर परिचायक निशानी देख लें. मेरे पति ने रात्रि में मुझे जो हार दिया था, उसके रत्नों का समुदाय कैसा है, इस बात को यह बताए, यह तो कोई अन्य ही है. इसके अतिरिक्त रात्रि में आम सींचते समय उनका पैर कुमकुम से लिप्त हो गया था, वह मेरी जांघ पर अब भी विद्यमान है, उसे आप लोग शीघ्र देख लें. साथ ही रात में परस्पर भाषण तथा भोजन आदि जो कुछ किया गया था, उसे भी यह बता दें तब यह निश्चय ही मेरा पति है।

इस प्रकार उसका वचन सुनकर सभी ठीक है-ठीक है कहने लगे किन्तु जब एक भी बात न मिली तब सभी ने सुकेतु को उसका पति होने से निषिद्ध कर दिया और वर पक्ष वाले जिस तरह से आए थे उसी तरह से चले गए. उसके बाद अपने वंश को बढ़ाने वाले, महान यश से संपन्न तथा परम मनस्वी मंगलागौरी के पिता ने अन्न, पान आदि का सत्र चलाया. उन्होंने वर पक्ष का वृत्तांत कानों-कान सुन लिया कि स्वरुप से कुरूप होने के कारण लोगों के द्वारा किसी अन्य को वर के रूप में आदरपूर्वक लाया गया था तब उन्होंने अपनी कन्या को परदे के भीतर बिठा दिया. उसके बाद एक वर्ष बीतने पर यात्रा करके चिरायु अपने मामा के साथ यह देखने आया कि विवाह के बाद वहाँ क्या हुआ? तब उसे गवाक्ष के भीतर से देखकर वह मंगलागौरी अत्यंत प्रसन्न हुई और माता-पिता से बोली कि मेरे पति आ गए हैं।

राजा ने अपने सुहृज्जनों को बुलाकर पूर्व में कहे गए सभी परिचायकों को निशानी को देखकर मंद मुस्कान वाली अपनी कन्या चिरायु को सौंप दी. राजा ने शिष्टजनों को साथ लेकर विवाह का उत्सव कराया. इसके बाद राजा वीरसेन ने वस्त्र, आभूषण आदि, सेना, घोड़े, रथ और अन्य भी बहुत-सी सामग्रियां देकर उन्हें विदा किया।

उसके बाद कुल को आनंदित करने वाला वह चिरायु पत्नी तथा मामा को साथ लेकर सेना के साथ अपने नगर पहुँचा. लोगों के मुख से उसे आया हुआ सुनकर उसके माता-पिता को विशवास नहीं हुआ, उन्होंने सोचा कि प्रारब्ध अन्यथा कैसे हो सकता है! इतने में वह अपने माता-पिता के पास आ गया और स्नेह से परिपूर्ण वह चिरायु भक्तिपूर्वक उनके चरणों में गिर पड़ा, तब अपने पुत्र का मस्तक सूंघ कर उन दोनों ने परम आनंद प्राप्त किया. पुत्रवधु मंगलागौरी ने भी सास-ससुर को प्रणाम किया. तब सास उसे अपनी गोद में बिठाकर सारा वृत्तांत शीघ्रतापूर्वक पूछने लगी।

हे महामुने ! तब पुत्रवधु ने भी मंगलागौरी के उत्तम व्रत माहात्म्य तथा जो कुछ घटित हुआ था वह सब वृत्तांत बताया. हे सनत्कुमार ! मैंने आपसे इस मंगलागौरी व्रत का वर्णन कर दिया. जो कोई भी इसका श्रवण करता है अथवा जो इसे कहता है, उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं, इसमें संदेह नहीं है.
सूतजी बोले – हे ऋषियों ! इस प्रकार शिवजी ने सनत्कुमार को यह मंगलागौरी व्रत बताया और उन्होंने सभी कार्यों को पूर्ण करने वाले इस व्रत को सुनकर महान आनंद प्राप्त किया।

||इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमार संवाद में
श्रावण मास माहात्म्य में “मंगलागौरी व्रत कथन” नामक सातवाँ अध्याय
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14/07/2020

*जय श्री कृष्ण*

*ये हैं धर्म ग्रंथों के 8 महान गुरु, ये 2 आज भी हैं जीवित..*

हिंदू धर्म में शुरू से ही गुरुओं के सम्मान की परंपरा रही है। हमारे धर्म ग्रंथों में ऐसे अनेक गुरुओं का वर्णन मिलता है, जिन्होंने गुरु-शिष्य परंपरा को नई ऊंचाइयां प्रदान की। *इनमें से परशुराम और महर्षि वेदव्यास को आज भी जीवित माना जाता है*

*1 परशुराम*
परशुराम महान योद्धा व गुरु थे। ये जन्म से ब्राह्मण थे, लेकिन इनका स्वभाव क्षत्रियों जैसा था। ये भगवान विष्णु के अंशावतार थे। इन्होंने भगवान शिव से अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा प्राप्त की थी।

*2 महर्षि वेदव्यास*
धर्म ग्रंथों के अनुसार, महर्षि वेदव्यास भगवान विष्णु के अवतार थे। इनका पूरा नाम कृष्णद्वैपायन था। इन्होंने ने ही वेदों का विभाग किया। इसलिए इनका नाम वेदव्यास पड़ा। महाभारत जैसे श्रेष्ठ ग्रंथ की रचना भी इन्होंने ही की है। इनके पिता महर्षि पाराशर तथा माता सत्यवती थीं। पैल, जैमिन, वैशम्पायन, सुमन्तु मुनि, रोमहर्षण आदि महर्षि वेदव्यास के महान शिष्य थे।

*3 देवगुरु बृहस्पति*
देवताओं के गुरु बृहस्पति हैं। महाभारत के आदि पर्व के अनुसार, बृहस्पति महर्षि अंगिरा के पुत्र हैं। ये अपने ज्ञान से देवताओं को उनका यज्ञ भाग प्राप्त कराते हैं। ग्रंथों के अनुसार, जब असुर देवताओं को हराने का प्रयास करते थे, तब देवगुरु बृहस्पति रक्षा मंत्रों का प्रयोग कर देवताओं का पोषण एवं रक्षा करते थे।

*4 शुक्राचार्य*
शुक्राचार्य दैत्यों के गुरु हैं। ये भृगु ऋषि तथा हिरण्यकशिपु की पुत्री दिव्या के पुत्र हैं। इनका जन्म का नाम शुक्र उशनस है। इन्हें भगवान शिव ने मृत संजीवन विद्या का ज्ञान दिया था, जिसके बल पर यह मृत दैत्यों को पुन: जीवित कर देते थे।

*5 वशिष्ठ ऋषि*
वशिष्ठ ऋषि सूर्यवंश के कुलगुरु थे। इन्हीं के परामर्श पर राजा दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ किया था, जिसके फलस्वरूप श्रीराम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न का जन्म हुआ। भगवान राम ने सारी वेद-वेदांगों की शिक्षा वशिष्ठ ऋषि से ही प्राप्त की थी। श्रीराम के वनवास से लौटने के बाद इन्हीं के द्वारा उनका राज्याभिषेक हुआ और रामराज्य की स्थापना संभव हो सकी। इन्होंने वशिष्ठ पुराण, वशिष्ठ श्राद्धकल्प, वशिष्ठ शिक्षा आदि ग्रंथों की रचना भी की।

*6 गुरु सांदीपनि*
महर्षि सांदीपनि भगवान श्रीकृष्ण के गुरु थे। श्रीकृष्ण व बलराम इनसे शिक्षा प्राप्त करने मथुरा से उज्जयिनी (वर्तमान उज्जैन) आए थे। महर्षि सांदीपनि ने ही भगवान श्रीकृष्ण को 64 कलाओं की शिक्षा दी थी। श्रीकृष्ण ने ये कलाएं 64 दिन में सीख ली थीं। मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर में आज भी गुरु सांदीपनि का आश्रम है।

*7 ब्रह्मर्षि विश्वामित्र*
धर्म ग्रंथों के अनुसार विश्वामित्र जन्म से क्षत्रिय थे, लेकिन इनकी घोर तपस्या से प्रसन्न भगवान ब्रह्मा ने इन्हें ब्रह्मर्षि का पद प्रदान किया था। अपने यज्ञ को पूर्ण करने के लिए ऋषि विश्वामित्र श्रीराम व लक्ष्मण को अपने साथ वन में ले गए थे, जहां उन्होंने श्रीराम को अनेक दिव्यास्त्र प्रदान किए थे। रामचरितमानस के अनुसार भगवान श्रीराम को सीता स्वयंवर में ऋषि विश्वामित्र ही लेकर गए थे।

*8 द्रोणाचार्य*
द्रोणाचार्य महान धनुर्धर थे। उन्होंने ही कौरव व पांडवों को अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा दी थी। महाभारत के अनुसार द्रोणाचार्य देवगुरु बृहस्पति के अंशावतार थे। इनके पिता का नाम महर्षि भरद्वाज था। द्रोणाचार्य का विवाह शरद्वान की पुत्री कृपी से हुआ था। इनके पुत्र का महान अश्वत्थामा था। महान धनुर्धर अर्जुन इनका प्रिय शिष्य था
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