24/09/2022
#ईरानहिज़ाबऔरतें --
नैतिकता पुलिस (गश्त-ए-इरशाद) की हिरासत में एक युवा ईरानी-कुर्द महिला की मौत के बाद, ईरानी इस्लामिक गणराज्य में देशव्यापी प्रदर्शन शुरू हो गया है। इस प्रदर्शन के बाद एक बार फिर मौलवी की सत्ता पर जनदबाव बढ़ा है। बाईस वर्षीय महसा अमिनी को इस महीने की शुरुआत में कथित तौर पर “अनुचित” तरीके से हिजाब पहनने के आरोप में हिरासत में लिया गया था। अधिकारियों ने तीन दिन बाद दावा किया कि हिजाब से जुड़े नियमों का प्रशिक्षण लेते समय, दिल का दौरा पड़ने से उनकी मौत हुई, लेकन अमिनी के परिवार और सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि उन्हें पीट-पीटकर मार डाला गया। इस घटना ने देश में व्यापक आक्रोश पैदा कर दिया, जहां महिलाओं के अधिकारों का राजकीय दमन और उसके खिलाफ प्रतिरोध हमेशा एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा रहा है। इसके बाद शुरू हुए विरोध प्रदर्शनों में कई शहरों में लोगों को धार्मिक सत्ता के खिलाफ नारे लगाते हुए और महिलाओं को सार्वजनिक तौर पर हिजाब जलाते हुए देखा गया। इसमें राजधानी तेहरान और रुढ़िवादी शहर मशहद भी शामिल हैं। मशहद वह शहर है जहां शिया इस्लाम के सबसे पवित्र तीर्थस्थलों में से एक स्थित है। नागरिक अधिकार समूहों का दावा है कि सात दिनों में सुरक्षाकर्मियों समेत करीब 36 लोग मारे जा चुके हैं। वर्ष 2019 में ईंधन की कीमतों में वृद्धि की वजह से हुए प्रदर्शन के बाद, यह सबसे तगड़ा विरोध प्रदर्शन है। पिछले साल ही सत्ता में आए राष्ट्रपति इब्राहिम रइसी के लिए यह एक बड़ी राजनीतिक चुनौती है। पहले की तरह ही इस बार भी सरकार ने साफ कर दिया कि वह प्रदर्शनकारियों से सख्ती से निपटेगी। रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (ईरान में अंदरूनी मामले संभालने वाली सेना) ने प्रदर्शनकारियों को “देशद्रोही” करार दिया और सरकार से उन्हें “कुचलने” की अपील की
अनिवार्य हिजाब का नियम इस्लामी क्रांति के दो साल बाद 1981 में लागू किया गया था। इस क्रांति में पहलवी राजशाही के पतन के बाद शिया धर्मगुरु सत्ता पर काबिज हुए थे। मुल्लाओं ने तब से सीमित लोकतांत्रिक अधिकारों के साथ मौलवियों की तानाशाही की व्यवस्था बनाई है, लेकिन दो चीजें हमेशा स्थिर बनी रहीं- राज्य प्रायोजित रुढ़िवाद और सामाजिक दमन। इस मॉडल की वजह से सत्ता और जनता के बीच लगातार तनाव पैदा हुआ और हाल के वर्षों में यह
ज्यादा स्पष्ट रूप से दिखने लगा है। ईरान में आंतरिक सुधार लाने के राजनीतिक प्रयोग की नाकामयाबी और अमेरिकी प्रतिबंधों की वजह से बढ़ता आर्थिक संकट इसकी मुख्य वजह है। पिछले 25 वर्षों में ईरानियों ने दो सुधारवादी राष्ट्रपतियों को दो बार मौका दिया- 1997 में मोहम्मद खतामी और 2013 में हसन रूहानी। लेकिन मौलवियों की गिरफ्त वाली राजनीतिक व्यवस्था में कोई भी महत्वपूर्ण सुधार लाने में वे नाकाम रहे। सामाजिक-राजनीतिक सुधारों की कमी और बढ़ते आर्थिक एवं राजनीतिक दबाव की वजह से वहां अक्सर व्यापक विरोध और हिंसक दमन देखने को मिले- 2009, 2019 और अब 2022 में। विरोध, लोकतंत्र में राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा हैं। लेकिन, राजनीतिक-धार्मिक क्रांति की विरासत संभालने का दावा करने वाली तानाशाही में बार-बार होने वाले विरोध प्रदर्शन और इनमें “तानाशाह मुर्दाबाद” जैसे नारे इस बात का संकेत दे रहे हैं कि इस्लामी क्रांति की उम्र ढल रही है। ईरान के मौलवियों को इन सामाजिक संघर्षों से सबक लेना चाहिए और देश-समाज के सामने मौजूद बड़ी समस्याओं के समाधान के लिए तैयार होना चाहिए।
(द हिन्दू से साभार )