22/04/2017
प्रश्न यही है कि क्या आजीवन कारावास को मृत्यु-पर्यंत कारावास के रूप में भारतीय दंड संहिता की धारा 53 में परिभाषित किया जाना चाहिए? अगर उत्तर हां में है तो अकेले इस एक संशोधन से काम नहीं चलेगा। इस संबंध में संवैधानिक मुखियाओं के अनुच्छेद 72 और अनुच्छेद 161 में दिए गए अधिकारों, संबंधित सरकारों के धारा 433, 433 ए और 432 दंड प्रक्रिया संहिता में दिए गए अधिकारों और सजा में छूट देने के जेल नियमावली के प्रावधानों को भी संशोधित करना पड़ेगा।दूसरा प्रश्न समाजविज्ञानियों, अपराधशास्त्रियों, जेल प्रशासकों और मानवतावादियों की जिज्ञासा से उत्पन्न होता है। अगर आजीवन कारावास को मृत्यु-पर्यंत कारावास बनाना है तो कैदियों को सुधारने और उनके पुनर्वास की व्यवस्था करने की अवधारणा व्यर्थ नजर आती है। जिस कैदी को पता हो कि उसे पूरी जिंदगी सलाखों के पीछे काटनी है वह भला क्यों सुधरेगा? वह एक ऐसा मनोरोगी बन जाएगा जो जेल अधिकारियों के लिए विकराल समस्या ही नहीं, कैदियों की सुरक्षा के लिए बहुत बड़ा खतरा साबित होगा। उसके लिए जेल में अच्छे आचरण और सुधरने की प्रक्रिया से जुड़े प्रोत्साहन बेमानी होकर रह जाएंगे। जेलों में हर दिन हंगामा होगा। ऐसे आजीवन कैदी बेलगाम व्यवहार करेंगे। इन परिस्थितियों में तीसरा प्रश्न यह उभर कर सामने आता है कि ऐसे कैदियों के लिए क्या मृत्युदंड आजीवन कारावास से बेहतर विकल्प नहीं है? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए कैदी को आजीवन जेल में मरने के लिए छोड़ देने के पीछे के प्रयोजन को समझना जरूरी है। अगर सभ्य समाज को खतरनाक अपराधी से बचाना मृत्यु-पर्यंत कारावास का उद््देश्य है तो मृत्युदंड बेहतर विकल्प है। अगर कैदी को पश्चाताप की अग्नि में झुलसाना जीवन-पर्यंत कारावास का उद््देश्य है तो इसका क्या लाभ होगा? पश्चाताप करके उसे क्या प्राप्त होगा? अगर एक घिनौने अपराध के सजायाफ्ता कैदी की जेल में त्रस्त दशा से बाहर के समाज की बदले की भूख शांत करना मृत्यु-पर्यंत कारावास का उद््देश्य है तो यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है।आधुनिक सभ्य समाज में दोषियों को कारावास की सजा देने के पीछे एक सार्थक उद््देश्य है। अपराधशास्त्रियों का मत है कि कारावास का एकमात्र उद््देश्य कैदी को सुधार कर पुन: समाज में रहने योग्य बनाना होता है। कारावास समाज-विरोधी तत्त्व को सभ्य समाज में रहने लायक बनाने की प्रयोगशाला है। अंग्रेजों द्वारा वर्ष 1920 में बनाई गई ‘इंडियन जेल कमेटी’ ने सिफारिश की थी कि कैदियों का सुधार और पुनर्वास करना कारावास का उद््देश्य होना चाहिए। भारत ने संयुक्त राष्ट्र के नागरिक और राजनीतिक अधिकारों से संबंधित अंतरराष्ट्रीय घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए हैं। इसमें कहा गया है कि सजा का विधान ऐसा हो जिसमें कैदियों के सुधार और पुनर्वास की संभावना बनी रहे। कारावास व्यक्तित्व सुधारने का साधन है, व्यक्ति को नष्ट करने का नहीं।अपराधशास्त्रियों और जेल सुधार से संबंधित अनेक समितियों की एक ही राय रही है कि कारावास की सजा तभी सार्थक है जब इससे समाज को अपराधों से मुक्ति मिलती हो। यह उद््देय तभी प्राप्त किया जा सकता है जब कारावास काटने के बाद एक कैदी कानून की सत्ता मानने वाला स्वावलंबी व्यक्ति बन कर जेल से बाहर आए। गांधीजी ने भी कहा था कि अपराधी एक रुग्ण व्यक्ति होता है। जेल उसके लिए एक अस्पताल की तरह होनी चाहिए। ऐसे में चौथा प्रश्न यह है कि क्या मृत्यु-पर्यंत कारावास किसी कैदी के व्यक्तित्व को इस प्रकार परिवर्तित कर सकता है, जैसा कि अभिवांछित है? संगीन अपराधों में आजीवन कारावास को मृत्यु-पर्यंत कारावास बना देने की सिफारिश एक घिनौने अपराध की पृष्ठभूमि में उपजे जनाक्रोश को संजोए हुए है। स्वाभाविक है कि सभी परामर्श-दाताओं ने एक मत से ऐसी ही सिफारिश की होगी। आपराधिक विधि-शास्त्र मध्ययुगीन ‘जैसे को तैसा’ वाली दंड प्रणाली को पीछे छोड़ कर बहुत आगे बढ़ चुका है। आधुनिक न्याय-व्यवस्था आपराधिकता के कारणों का निवारण करने की ओर लगातार बढ़ रही है। ऐसे में छठा प्रश्न सामने आता है कि आजीवन कारावास को मृत्यु-पर्यंत कारावास बना देने से कहीं हम मध्ययुगीन सजा के क्रूर तौर-तरीकों की ओर वापसी का कदम तो नहीं बढ़ा रहे हैं?वीभत्स अपराध बीमार मानसिकता का परिचायक है। सोच-समझ कर कोई व्यक्ति ऐसे अपराध नहीं करता। और जो सोचने-समझने की कुव्वत खो बैठता है उसके लिए कोई भी सजा कारगर नहीं है। या तो ऐसे लोगों की मानसिकता बदलने के उपाय किए जाएं, और अगर ऐसा करना संभव नहीं है, तो उन्हें मृत्यु-दंड दिया जाए। किसी को भी मरने के लिए जेल में बंद कर देने से न्याय का परचम नहीं फहराया जा सकता।वर्मा समिति की रिपोर्ट पर गहन विचार-विमर्श करके ही सरकार कानून में संशोधन का कोई फैसला करेगी। कानून में संशोधन ऐसा होना चाहिए जिसमें सभी को राष्ट्र की प्रगतिश्ील विचारधारा के दर्शन हों। कानून न्याय-व्यवस्था की मूलभूत अवधारणाओं का संदेशवाहक होता है। इन अवधारणाओं की सुसंगत रक्षा करना प्रत्येक जिम्मेदार नागरिक का कर्तव्य है। भोपाल में बंद कैदीयो को मुक्त कराओ पैरौल की अविध बढाओ आजीवन सजा वाले कैदीयो को १४ साल में रिहा करो प्लीज नही तो आधे कैदी पागल हो जायेगें डर ओर पागलपन में जी रहे है कैदी जेलो में