10/04/2024
जय माता दी 🙏🙏🙏
कुदरगढ़िन माई, कुदरगढ़
वन देवी का निवास स्थल कुदरगढ़ अत्यंत मनोहारी है। यहां कल-कल करते झरने की आवाज, नाचते मोरों और बंदरों की टोली बरबस मन को मोहित करने वाली है। पहले इस घनाघेर जंगल में शेर की दहाड़ भी सुनाई देती थी। वर्तमान में भी यदा-कदा शेर भ्रमण के निशान दिखाई पड़ते हैं। कुदरगढ़ पहाड़ी पर लंबे-लंबे साल वृक्ष, गगनचुंबी पहाड़ी चोटियां केतकी पुष्पों से युक्त नाले, केले का बगीचे लगे हुए है। कुदरगढ़ की पहाड़ी पर प्राचीन गुफा, भित्ति चित्र और शैल चित्र इसके इतिहास को प्रमाणित करते हैं। कुदरगढ़ धाम में आने वाला हर व्यक्ति प्राकृतिक सौंदर्य और मां की आराधना से भाव विभोर हो उठता है।
कुदरगढ़ का नामकरण-
छत्तीसगढ़ को रामायण काल में दंडकारण्य के नाम से जाना जाता था। इसी सघन वन के लगभग 1500 फीट की ऊंचाई पर शक्तिपीठ मां बागेश्वरी बाल रूप में कुदरगढ़ी देवी के नाम से विराजमान हैं। सरगुजिहा बोली में दौड़ना को कुदना कहा जाता है। स्थानीय लोगों की मान्यता है कि जो व्यक्ति इस पहाड़ पर कूदते – कूदते चढ़ता है, वही चढ़ पाता है और मां कुदरगढ़ी का दर्शन पाता है।
किंवदंतियां एवं मान्यताएं-
सरगुजा अंचल में जनश्रुति प्रचलित है कि बनवास काल में भगवान श्री राम लक्ष्मण और माता सीता ने इस पर्वत पर मां वन देवी की पूजा अर्चना की थी। यह संपूर्ण भू-भाग त्रेता युग में दंडकारण्य के नाम से जाना जाता था। जहां अनेक राक्षसों का निवास था। इस क्षेत्र में खरदूषण, त्रिसरा और सुपणखा का राज्य था।
वनवास काल में भगवान श्रीराम छत्तीसगढ़ में प्रवेश सरगुजा अंचल के वर्तमान कोरिया जिले के सीतामढ़ी हर चौका से किए थे। यहां इनसे संबंधित अनेक स्थल विख्यात हैं। ऐसा उल्लेखित है कि सुतिक्षण ऋषि के आश्रम में भगवान श्री राम, माता सीता और लक्ष्मण सहित विश्राम किए थे।
जनमान्यता है कि प्रभु श्रीराम के विश्राम करने के कारण यह अंचल (अम्बिकापुर,सरगुजा) विश्रामपुर के नाम से जाना जाता था। वर्तमान अंबिकापुर सन 1904 तक विश्रामपुर के नाम से जाता था। सरगुजा अंचल के विभिन्न क्षेत्रों में भगवान श्री राम से संबंधित स्थल किंवदंतिया सुनने और देखने को मिलते हैं।
इनमें सीतामढ़ी, हर चौका, कुदरगढ़, जोगीमाड़ा,लक्ष्मण पंजा, सीता लेखनी, रक्सगंडा, सारासोर, प्रतापपुर के पास शिवपुर। शिवपुर के संबंध में लोक मान्यता प्रचलित है कि भगवान श्रीराम ने शिवलिंग की स्थापना अपने कर कमलों से कर पूजा अर्चना की थी। यहीं नाले के समीप सीता पांव जगह भी है। इसके बाद मरहट्ठा का लक्ष्मण पंजा, विलद्वार गुफा, विश्रामपुर (वर्तमान अंबिकापुर), देवगढ़, महेशपुर, लक्ष्मणगढ़ और रामगढ़ का सीता बइंगरा, लक्ष्मण बइंगरा, जोगीमाड़ा, सीता कुंड, जानकी तालाब, आदि स्थल श्री राम के निवास को प्रमाणित करते हैं।
राजा बालंद और कुदरगढ़ के संबंध में किंवदंतियां-
कुदरगढ़ के संबंध में एक मान्यता प्रचलित है कि मध्य प्रदेश के सीधी जिला के मड़वास का खैरवार क्षत्रिय राजा बालंद कुदरगढ़ी माता बाल देवी का प्रथम सेवक था। इसका राज्य काफी फैला था। राजा बालंद अन्य राजाओं से युद्ध में पराजित होकर शहडोल जिला के बिछी नामक स्थान पर रहता था।
राजा बालंद ने शहडोल से सरगुजा अंचल के कोरिया जिले के चांगभखार, पटना और सूरजपुर जिले के कुदरगढ़ क्षेत्र में अपना अधिकार फैलाया था। कोरिया जिले के पटना क्षेत्र में बालम पोखरा बालम तालाब आज भी है। सूरजपुर जिले के ओड़गी विकासखंड के कुदरगढ़ पहाड़ पर बालमगढ़, तमोर पिंगला अभ्यारण क्षेत्र के पुतकी गांव के बालमगढ़ पहाड़ी पर गढ़ के अवशेष, चांदनी बिहारपुर क्षेत्र के महोली गांव की गढ़वतिया पहाड़ी पर बालमगढ़ के अवशेष बिखरे पड़े हैं।
राजा बालंद दुर्गा जी का भक्त था, और शक्ति की उपासना करता था। लोक मान्यता प्रचलित है कि राजा बालंद आल्हा उदल के समय में था। वह भी शक्ति का उपासक था। राजा बालंद कुदरगढ़ पहाड़ी पर मां बागेश्वरी देवी की आराधना करता था। राजा बालंद अपनी इष्ट देवी बागेश्वरी माता कुदरगढ़ी को मानता था। माता के आज्ञा के बिना कोई कार्य नहीं करता था।
श्री भूमिनाथ चतुर्वेदी ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि राजा बालंद बहादुरी से राज्य की सीमा बढ़ाना चाहता था। इसके लिए वह कभी-कभी आतंक मचाता था, जिससे लोगों में चिंता बनी रहती थी। राजा के निवास के बारे में किसी को पता नहीं रहता था। इसी आयाम में चौहान वंश के राजपूत तीर्थ यात्रा हेतु सरगुजा पधारे अपनी बहादुरी से भैया बहादुर की उपाधि प्राप्त की तथा वर्तमान शासन (लगभग 17 वी शताब्दी) व्यवस्था को ना मानने वालों को भी तथा आतंक फैलाने वाले कई बहादुरों को उन्होंने परास्त किया। साथ ही बालंद को भी हरा कर के क्षेत्र को प्राप्त कर लिया। राजा बालंद की चौहान वंश से युद्ध की बात भैया महावीर सिंह चांगभखार ने भैया बहादुर शिवप्रसाद सिंह को पत्र लिखकर बताया था कि राजा बालम को हराकर उसे राज्य को लिया गया है।
पुजारी के संबंध में किंवदंतियां-
एक किंवदंती है कि राजा बालंद देवी की आराधना एवं आरती के लिए ब्राह्मण नियुक्त किया रहा होगा। कुदरगढ़ पहाड़ी के नीचे आज भी बभना बस्ती है। सरगुजिहा बोली में ब्राह्मण को बाभन कहा जाता है। और बाभन के निवास वाला गांव बभना कहा गया। 1 जुलाई 2002 में भारी वर्षा के कारण भूस्खलन हुआ जिसमें बभना ग्राम में एक स्थान पर जाता, चक्की के साथ चंदन घिसने वाला हेरिस भी निकला था। इससे प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में इस गांव में बाभन (ब्राम्हण) निवास करते रहे होंगे। संभवतः इसी गांव के ब्राम्हण को राजा बालंद ने पुजारी नियुक्त किया रहा होगा।
श्री भूमिनाथ चतुर्वेदी की पुस्तक कुदरगढी़ का महात्म्य में उल्लेखित है कि सरगुजा जिले का बहुत बड़ा भू-भाग राजा बालंद के कब्जे में था। भैयाथान के चौहान वंश के महावीर एवं प्रतापी भैया जलथम्मन साह एवं भैया भंवरेल साह के साथ राजा बालंद का भीषण संग्राम हुआ, जिसमें राजा बालंद हार कर भाग गया। और वह लौटकर इस क्षेत्र में कभी नहीं आया। उसके साथ सभी कार्यकर्ता और संभवत पुजारी भी चले गए होंगे।
मां कुदरगढ़ी की खोज के संबंध में किंवदंतियां-
इस संबंध अनेक अलग-अलग किंवदंतियां प्रवलित है। एक किंवदंती प्रवलित है कि चौहान वंश के पहले माता कुदरगढ़ी, राजा बालंद शाह की इष्ट देवी थीं। राजा बालंद के बाद मां कुदरगढ़ी घनाघोर जंगलों में पड़ी थी। माता की आराधना करने वाला कोई नहीं था। किसी को यह मालूम नहीं था कि माता कुदरगढ़ पहाड़ पर निर्जन वन में विराजमान हैं। एक लोक मान्यता प्रचलित है कि मां भगवती कुदरगढ़ी ने चौहान राज परिवार को स्वपन दिया कि मैं कुदरगढ़ के बालम पहाड़ पर हूं। मेरी सेवा और आराधना से तुम्हारे क्षेत्र में सुख शांति और खुशहाली आएगी।
माता के बताए हुए स्थान पर खोज प्रारंभ हुआ। अथक प्रयास और खोज के बाद वह पुराना धाम मिला जहां आदिशक्ति चतुर्भुजी बागेश्वरी देवी मां कुदरगढ़ी विराजमान थीं। सभी लोगों ने हर्षित मन से माता का दर्शन किया। और उसी दिन से विधिवत पूजा-अर्चना प्रारंभ हो गई। उसी समय कुदरगढ़ क्षेत्र के जमींदार श्री हरिहर शाह ने चैत्र रामनवमी में माँ बागेश्वरी की प्रथम पूजा करने का संकल्प लिया एवं भैया बहादूर 105 फते नारायण सिंह के परिवार द्वारा जो प्रथम पूजा की जाती है। तब से लेकर वर्तमान तक कुदरगढ़ धाम में सत्तासीन चौहान जमीदारों के (स्वर्गीय इलाकेदार भैयाबहादूर इन्द्रप्रताप सिंह देव के वंशजों) द्वारा हर वर्ष चैत्र नवरात्रि अष्टमी की प्रथम पूजा बड़े धूम धाम से की जाती है।
चौहान राज परिवार के वर्तमान उत्तराधिकारी श्री दिपेन्द्र प्रताप सिंह हैं। जिनके द्धारा वर्तमान में चैत्र नवरात्रि अष्टमी की प्रथम पूजा बड़े धूम धाम से की जाती है। जिस दिन से चौहान राज परिवार ने माता का दर्शन किया, उसी दिन से मां कुदरगढ़ी चौहान वंश की इष्ट देवी मानी जाने लगी। देवी की सेवा हेतु चेरवा जाति के लूंदरू चेरवा को नियुक्त किया गया और पूजा हेतु भूमि दी गई।
सरगुजा का ऐतिहासिक पृष्ठ द्वितीय संस्करण में पृष्ठ क्रमांक 217 में लेख है कि कहावत है कि कुदरगढी भगवती ने स्वप्न में एक बैगा पुजारी को वर्तमान स्थान पर अपनी मूर्ति की स्थापना और पूजन का आदेश दिया तब से ही पहले के स्थान से थोडा नीचे पहाड़ी पर देवी मां की पूजा होती हैं। ग्राम कुदरगढ़ के बैगों के अनुसार दूसरी बार स्वप्न हुआ था कि पुराने स्थान के बजाय नये स्थान पर पूजा अर्चना हो । नये स्थान का विवरण भी स्वयं देवी मां ने स्वप्न में ही वर्णित किया था।
चेरवा पुजारी के संबबंध में किंवदंतियां –
मैने दिनांक 20 अक्टूबर 2020 को पूजारी समाज से उनके पूर्वजों के इस गढ़ पर आने के संबंध में कुदरगढ़ धाम के मुख्य पुजारी श्री राम कुमार बंछोर ग्राम कुदरगढ़ से साक्षात्कार लिया तो उन्होने बताया कि सबसे पहले हमारे पूर्वज श्री जागन पिता कमरजिहा परिवार सहित गढ़ पर आकर बसे थे। उनके साथ उनका परिवार भाई झीगरा भी परिवार सहित आया। वे दोनो गढ़ पहाड के नीचे जंगल काटकर झोपडी बनाकर जंगली जानवर का शिकार करने लगें। शिकार करते हुए पहाड पर उन्हें माता का दर्शन हुआ और माता ने उन्हे पूजारी बनाया। प्रथम पूजारी श्री जागन के बाद उनका लडका भिखारी पूजारी बना। श्री भिखारी के बाद उनका लडका श्री सोनसाय, सोनसाय के बाद उनका लडका श्री लुन्दरू पूजारी बना। लुन्दरू के बाद उनका लड़का श्री जय मोहर इसके बाद उनका बडा लडका श्री बहादुर पूजारी बना। मै (बहादुर का छोटा भाई राम कुमार बंछोर) सन 2000 से पूजारी बनकर आज तक निरंतर काम कर रहा हूँ।
श्री नंदकुमार सोनपाकर की पुस्तक “कुदरगढ़ी माता“ के पृष्ठ 41 में भी उल्लेखित है कि सन 1680 में श्री जागन पिता श्री कमरजिहा बैगा कुदरगढ़ी धाम का प्रथम पुजारी बना।
मां कुदरगढ़ी का पुराना धाम (लगोरी घुटरा) –
मां कुदरगढ़ी का पुराना धाम (लगोरी घुटरा) –
मां कुदरगढ़ी देवी का पुराना धाम कुदर पर्वत की लगभग 2000 फीट की ऊंची चोटी पर स्थापित था। पुराने धाम के किले तक पहुंचने में श्रद्धालुओं को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था। पुराने धाम के आस-पास आज भी पुरातन मूर्तियों के भाग्नावशेष बिखरे पड़े है। पुराने धाम की तरफ जाने के लिये सुगम एवं सरल पहाडी रास्ता विजय कुण्ड के समीप झगराखांड देव स्थान से हैं। विजय कुण्ड से झगराखाण्ड देवधाम लगभग 100 मीटर की दूरी पर है, जहां से 50 मी0 दूरी पर केतकी झारिया है। जिसका पानी पीने के लिये भी उपयोग किया जाता है, इसी नाला का पानी पाईप के माध्यम से नाग डबरा तक ले जाया जाता गया है। जहा इसे टंकी में एकत्रित कर पीने के उपयोग में लाया जाता। केतकी झरिया के उपर पहाड़ी चढ़ना पड़ता है। उपर में समतल रास्ता हैं। 1.5 कि०मी० की दूरी पर मुरगी गोडारी स्थान है। इससे आधा कि0मी0 की दूरी पर लगोरी घुटरा में कुदरगढ़ी माता का पुराना धाम है। जहां से 01 कि०मी० उत्तर- पूर्व दिशा में बालन्द राजा के समय का बाध हैं । गढी से ही लगा हुआ कोहबर गुफा है। गढ़ी से उपर उत पर जाने के लिये आधा कि0मी० चलना पड़ता हैं। गढी से तालाब की दुरी आधा कि0मी0 है।
कुदरगढ़ी मैया का नया पावन धाम (बरूवा झूला)
नये धाम में मनोहरी सघन वनों के बीच कुदरगढ़ की ऊपरी चोटी पर बरूवा झूला के नीचे एक विशाल बरगद वृक्ष के नीचे एक बहुत बड़ी चट्टान को काटकर चतुर्भुजी कुदरगढ़ माता की प्रतिमा स्थापित की गई है। नवरात्र के समय यहां विशाल मेला लगता है। मंदिर में स्थापित देवी की मूर्ति को चांदी के मुकुट एवं सोने के छत्र से सुसज्जित किया जाता है। मां कुदरगढ़ी जब अपने भक्तों को मनोवांछित फल देने लगी तो पुराने धाम में माता के भक्तों का तांता लगने लगा और भीड़ बढ़ने लगी। यह स्थल सकरा और खतरनाक था।
स्थानीय पुजारी लोग इस संबंध में एक किंवदंति बताते हैं कि भक्तों की आस्था एवं दिक्कतों को देखते हुए मां कुदरगढ़ी ने पुरान धाम को छोड़ने की इच्छा बैगा को सपने में दी थी। आज भी बैगा नवरात्र के प्रथम दिवस पुराने धाम में जाकर विधिवत पूजा अर्चना करते हुए नवरात्रि की शुरूआत करते हैं। इसलिए माता को नये धाम में लाया गया। अब भक्तों को पूजा-अर्चना और दर्शन में सुविधाएं होती हैं। नये धाम में ऊपर टीन की छाजन लगी हुई है। और सामने ईंट की दीवार है। यहां भक्त जब 900 सीढ़ी चढ़कर ऊपर देवी धाम पहुंचता है तो बरगद वृक्ष के नीचे ठंडी हवा लेता है। और मां की चरणों में पहुंचकर सारा थकान दूर हो जाता है। बरगद वृक्ष के नीचे आंगन में विभिन्न आकार की कुर्सी, पीढ़ा और खड़ाऊ रखे हुए हैं, जिसमें चार-पांच सौ लोहे के खिले गड़े हुए हैं। नुकीला भाग उपर की तरफ है। श्रद्धालु देवी चढ़ने पर नंगा पैर खडाउ पर खड़े होते हैं।. तथा कुर्सी एवं पीढ़ा पर बैठते हैं। यहाँ पर हजारों की संख्या में त्रिशूल, बाण चढ़ाये जाते हैं।
कुदरगढ़ी मां का खप्पर (रक्त कुंड)-
पाषाण खंड की बैठक नुमा कुर्सी
कुदरगढ़ धाम में बरगद वृक्ष के नीचे आंगन में एक रक्त कुंड है। यहीं बलि दी जाती है। कुण्ड का उपरी आकार अण्डाकार है। गड्ढे की लंबाई 9 इंच, चौड़ाई 8 इंच, गहराई 8 इंच है। यहां नवरात्रि में अनगिनत बकरों की बलि दी जाती हैं। श्रद्धालु गण बकरे की बलि साल भर करते रहते हैं। लोक मान्यता है और प्रत्यक्ष देखने को भी मिलता है कि नवरात्रि के समय हजारों बकरे की बलि दी जाती है। उस समय उसका रक्त उसी गड्ढे में डाला जाता है। किंतु वह गड्ढा कभी भी नहीं भरता है। इस जगह और गड्ढे की सफाई नहीं की जाती है, फिर भी न तो गंदगी होती है और ना ही वहां मक्खियां बैठती हैं। इसे श्रद्धालू भक्त माता का चमत्कार मानते हैं। यहीं पर आंगन में ही एक विशाल त्रिशुल है।
विशाल गुफा बालम राजा की गढ़ी का पहला पड़ाव-
बालम गढी के समीप एक विशाल गुफा है, जो बालम राजा की गढी का पहला पड़ाव है। यह गुफा काफी बड़ी है, जिसमें 500 आदमी की बैठने की जगह है। इसकी दीवाल पर देवी की शिल्पकारी की गई है। यहाँ पर आज भी गोड़वाना समाज के लोग आकर अपनी श्रद्धा प्रदर्शित करते हैं। संभवतः उस जमाने में यह राज-काज चलाने का महत्वपूर्ण स्थल रहा होगा। जहा एक साथ बैठ कर सभाएं की जाती रही होगी।
राजा बालंद के गढ़ी का अवशेष-
कुदरगढ़ के बालंद पहाड़ पर पत्थर निर्मित सुंदर दीवार, सिपाहियों के रहने के स्थान, पत्थरें पर शिल्पकारी और गढ़ के अवशेष बिखरे हुए हैं। यहीं पर बैठने का स्थान पत्थर को काटकर सोफा जैसा बनाया गया है। यह स्थल माता के पुराने धाम के पास है। यहां से माता का आमने-सामने दर्शन होता रहा होगा। यहीं पर कुछ आगे काफी गहरी पानी का झील भी है। इसके समीप लगभग 300 फीट गहरी खाई है। यहां पर अंग्रेजी के एल आकार में एक पत्थर को काटकर बनाया गया है। संभवतः यह स्थल सुरक्षाकर्मियों के लिए बनाया गया रहा होगा। इन स्थलों को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि पहले यह निवास स्थल रहा होगा। कुदरगढ़ी माता के पुराना धाम से 01 कि०मी० उत्तर- पूर्व दिशा में बालन्द राजा के समय का बाध हैं। गढी से ही लगा हुआ कोहबर गुफा (विवाह स्थल जहाँ कुलदेवता की स्थापना होती है) है। गढ़ी से उपर छत पर जाने के लिये आधा कि0मी० चलना पड़ता हैं। गढी से बालम तालाब की दुरी आधा कि0मी0 है ।
बालन्द राजा के गढ़ी के उपर का दृश्य-
यहां जाने के लिये भी कठिन रास्ता है। यह बालन्द राजा के गढी के ठीक उपर 200 फीट उचाई पर हैं। उपर सपाट मैदान है, जिसमे लगभग 05 हजार व्याक्ति रह सकते हैं। इसके ठीक उपर एक दीवाल है, जो 1.5×1 फीट के पत्थर से बनी हैं। इसकी उंचाई 15 फीट लंबाई 15 फीट, मोटाई 02 फीट है। इसके आगे गहरी खाई है, जिसकी गहराई लगभग 250 फीट हैं।
बलमगढ़ का कोहबर गुफा-
कोहबर गुफ़ा
पुराने धाम में गढ़ी के समीप खंडहरों में विवाह के मांगलिक चिन्ह जैसे कोहबर (विवाह स्थल जहाँ कुलदेवता की स्थापना होती है) शादी विवाह आयोजन स्थल का प्रमाण मिलता है। कोहबर गुफा नामक स्थल पर जाने के लिये दुर्गम रास्ता हैं। कोहबर गुफा के दक्षिण भाग में समान ऊंचाई पर स्थित है। इस स्थान पर उत्तर तरफ की दीवाल में अमिट रंगो से चित्रण किया गया एक चौखट है, और उसके किनारे-किनारे अमिट रंगों से रंग किया गया है, जिसमें लाल एवं पीला रंग का उपयोग किया गया है। उसमें करैला पत्ता के आकार का बड़े साईज में अमिट रंग से चित्रण किया गया है। और लाल – पीला रंग से रंगा गया है। यहीं पर नौ खूटे गाड़ने के लिए गड्ढे समानांतर में खुदे हुए है। संमवतः यह विवाह मण्डप रहा होगा। स्थानीय लोगों की मान्यता है कि राजा बालन्द के साथ कन्या आई थी, जिसका विवाह सप्तपदी विधि से यहां हुआ था। श्री श्याम विहारी पाण्डेय (एस.डी.ओ.वन विभाग) ने बताया कि वे 1999 में कुदरगढ़ क्षेत्र में वन परिक्षेत्राधिकारी थे। उस समय बालंद गढी और कोहबर गुफा का सघन सर्वे करवाए थे।
माता कुदरगढ़ी की महिमा-
पहाड़ों वाली माता वनदेवी कुदरगढ़ी की महिमा अपरंपार है। कलकत्ता में जो महत्व मां काली का है, वही महत्व सरगुजा अंचल में माता बागेश्वरी कुदरगढ़ी का है। श्रद्धालू भक्तों की मान्यता है कि जो भी भक्त माता के दरबार में झोली फैलाता है, वह खाली नहीं लौटता है। कुदरगढ़ी माता के पावन तीर्थ स्थल पर भक्तों को मुंह मांगी मुरादें मिलती हैं। यहां भक्तजन अपनी मनोकामना सिद्धि के लिए मन्नतें मांगते हैं। नारियल चुनरी का धरना रखते है। कार्य पूर्ण होने पर धरना उतारते हैं। माता रानी सबकी इच्छा पूर्ण करती हैं। इस स्थल पर वर्ष भर मुंडन संस्कार तथा हवन, नवरात्रि के अवसर पर श्री दुर्गा सप्तशती का पाठ, मां वन दुर्गा का अनुष्ठान, रतजगा कार्यक्रम और भक्त जनों के द्वारा मन्नत पूर्णता पर भंडारे का आयोजन किया जाता है। माता को खुश रखने के लिए बकरे की बलि दी जाती है।
कुदरगढ़ की सूरज धारा-
कुदरगढ़ की पहाड़ी से लगभग 100 फीट की ऊंचाई से गिरता सूरज जल धारा पर्यटकों को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करता है। यह स्थल कुदरगढ़ के पहाड़ी पर 225 सीढ़ियां चढ़ने के बाद बाएं ओर पड़ता है। इस जल की औषधीय गुण की देखते हुए ऐसा लगता है कि पहले यह स्वर्ग धारा रहा होगा। आंचलिक बोली के प्रभाव में आकर सूरज धारा नाम प्रचलित हुआ होगा। यह भी माना जाता है कि काफी ऊंचाई से गिरने के कारण इस जल धारा का नाम सूरज धारा पड़ा होगा। इस धारा का जल अमृत्तुल्य है। इसमें हजारों प्रकार की जंगली जड़ी बूटियां समाहित है। लोगों की मान्यता है कि इस जलधारा से स्नान करते ही थकान दूर हो जाती है। औषधि गुण होने के कारण पेट के मरीजों के लिए इसे रामबाण औषधि माना जाता है। औषधि गुण का कारण स्थानीय वैद्य बताते हैं कि कुदरगढ़ पहाड़ में औषधि गुण वाला “मरोड़ फली“ नामक एक वृक्ष पाया जाता है। जिसका जड़ सूरज धारा में मिली होने के कारण पेट दर्द में लिए औषधि के रूप में सेवन किया जाता है। मरोड़ फली का फल रिंग की तरफ घुमावदार होता है इसलिए इसका नाम मरोड़ फली है।
नाग डबरा का इतिहास-
नाग डबरा
माता कुदरगढ़ी के प्रवेश द्वार के समीप एक जल स्रोत है। इसे नाग डबरा के नाम से जाना जाता है। नाग डबरा के पास एक पत्थर है, जो झांपी नुमा बना है जिसे झांपी पखना कहते हैं। उन्हीं की पूजा यहां की जाती हैं। लोगों की मान्यता है कि इस स्थल पर नाग देवता निवास करते हैं। नाग पंचमी के दिन विधिवत पूजा अर्चना की जाती है। सच्चे मन से पूजा अर्चना करने वाले भक्तों को नाग देवता नाग राज का दर्शन अवश्य प्राप्त होता है। लोगों की मान्यता है कि नाग देवता कुदरगढ़ धाम के द्वारपाल हैं। जो अनिष्टकारी शक्तियों से रक्षा करते हैं। इस स्थल पर पानी टंकी बनाया गया है। इसी नाग डबरा के जल से पवित्र होकर भक्त मां का दर्शन पाने ऊपर जाते हैं।
झगड़ा खांड़ देवता-
कुदरगढ़ की पहाड़ी पर लड़ाई झगड़े से मुक्ति दिलाने वाले देवता विजय कुंड के पूर्व दिशा में पुराने धाम में जाने वाली मार्ग पर विराजमान है। सरगुजिहा बोली में लड़ाई – झगड़े को झगरा कहा जाता है। और खांड़ का मतलब खंडन या समाप्त करना होता है। अर्थात वह देवता जो लड़ाई झगड़े से छुटकारा दिलाए उन्हें झगड़ा खांड़ देवता कहा जाता है।
झगरा खाड़ देवता
जनश्रुति है कि देव झगराखाड़ देवी मां के छोटे भाई हैं। और देवी के चरणों में अर्पित सुमन इन पर नहीं चढ़ाया जाते हैं। ग्रामीणों की ऐसी मान्यता है कि यदि किसी के साथ कोई झगड़ा हो तो इस स्थल पर शांति हेतु मान्नतें करने पर झगड़ा समाप्त हो जाता है। इनकी पूजा सफेद मुर्गा, बकरा, नारियल फल चढ़ाकर करते हैं। एक शिला पर कुछ प्राचीन मूर्तियां रखी हुई हैं। इन्हीं मूर्ति समूह को झगड़ा खांड़ देवता के नाम से पूजा जाता है।
कुदरगढ़ पहाड़ी पर यह स्थल भी झगड़ा खांड़ के नाम से प्रसिद्ध है। यहीं पर कुछ और अन्य प्राचीन प्रतिमाएं रखी हुई हैं। जहां श्रद्धालु भक्ता मत्था टेकते हुए आगे मां कुदरगढ़ी के दर्शन के लिए बढ़ते हैं। श्रद्धालु भक्त आस्था और विश्वास के साथ लाल चुनरी, चावल और फूल अगरबत्ती से झगड़ा खांड़ देवता की पूजा कर मनवांछित वरदान पाते हैं।
लोगों की मान्यता है कि इनकी पूजा से आपसी विवाद, रंजिस वैमनस्यता, झगड़ा आदि से छुटकारा मिलती है। केस, मुकदमा, जेल आदि संकट में फंसे लोग झगड़ा खांड़ देवता की शरण में आकर मुरादे मांगते हैं। बहुत पुरानी मान्यता यह भी प्रचलित है कि राजा बालंद ने भी विजय प्राप्त करने के लिए माता कुदरगढ़ी की शक्ति आराधना और झगड़ा विवाद को समाप्त करने के लिए झगड़ा खांड़ देवता की आराधना करता था। लोगों की आस्था है कि झगड़ा खांड देवता की आराधना से प्रेम और भाई चारे की भावना विकसित होती है।
सरगुजिहा लोकगीतों में माता कुदरगढ़ी-
सरगुजा अंचल की मनोकामना पूर्ति आराध्य देवी मां कुदरगढ़ी यहां के रहवासियों के कण-कण में विराजमान हैं। सरगुजिहा पारंपरिक लोकगीतों में माता का गुणगान बखूबी सुनने को मिलता है। सरगुजिहा पारंपरिक सेवा गीतों के माध्यम से माता की सेवा यहां के आदिवासियों के द्वारा की जाती है-
काके ला मय अरजी लगावों हो माई,
सेवा ला ले ले मोर कुदरगढ़ी दाई।
तोर सेवा लागों महारानी,
ए दाई काके मय अरजी लगावों हो माई।
राम के गाए माता, लक्षन बजाए महारानी गे,
ए दाई बूढ़ी माई के अरजी लगाओ हो माई।
माता कुदरगढ़ी की सेवा गीत के लिए डमफा नामक प्राचीन लोक वाद्य का प्रयोग किया जाता था। अब यह वाद्य यंत्र विलुप्त होता जा रहा है इनकी मान्यता है कि चंदन की लकड़ी और बंदर के चमड़े से बने डमफा बाजे की आवाज में माता कुदरगढ़ी जल्दी खुश होती हैं-
चंदन काठ माता मेडरा छोलावे महारानी,
ए दाई झुके हो बांदर छाला डफा हो माई
तोर सेवा लागों कुदरगढ़ी महारानी गे,
ए दाई झुके बांदर छाला डफा हो माई।।
वर्तमान समय में ढोल, मांदर, मृदंग, झाल, मजीरा, के साथ सेवा गीत गाये जाते हैं। नवरात्रि के अवसर पर ग्रामीण लोग नौ दिनों तक जमारा के माध्यम से अपनी आस्था मां के प्रति व्यक्त करते हैं। जमारा में कुछ लोग खप्पर पकड़ कर त्रिशूल से अपने शरीर के विभिन्न अंगों को जैसे बांह, गाल, जीभ को छेद कर गांव में भ्रमण करते हैं। देवी सेवा गीत गाते मां के दरबार में पहुंचते है। शरीर को त्रिशूल से छेदते हैं उसे बना लेना कहते हैं। इनको देवी रूप मानकर ग्रामीण लोग घी, सिन्दूर सकला से पूजा करते हैं।
बालंद गुफ़ा
सरगुजा अंचल में माता कुदरगढ़ी द्वारा राजा बालम की परीक्षा लेने, आरूग दूध मांगने, कारी वन, केदली वन, सुरही गाय, कोयली गाय को ढूंढने और सेवक बालम को कोयली गाय द्वारा आरूग दूध देने, आरूग दूध से माता कुदरगढ़ी को स्नान कराने और राजा बालम, धन्नू बालक और आल्हा से संबंधित पारंपरिक लोक गीत भी गाए जाते हैं। धन्नू बालक से संबंधित पारंपरिक लोकगीत इस प्रकार है-
तोर चरन बांधों कुदरगढ़ी महारानी गे,
ए दाई चुटका पहिरत बड़ा देर गे दाई।
सपरी पखरी गे माता,
भइले तियार महारानी गे।
चल जाबो जहूं जम्मो दीप गे दाई।
पूरबे ला बुढ़े तो, पश्चिम खूंट ला भूले महारानी गे दाई,
धूमी फिरी धन्नू असथान गे दाई।
परंपरिक लोक गीत गायकों कहना है कि नवरात्रि के समय नौ दिनों तक कुदरगढ़ी माता की सेवा करने के बाद विधिवत विदाई दी जाती है। जिसका वर्णन इस सरगुजिहा सेवा लाक गीत में सुनने को मिलता है-
सेवा ला बजाएं महारानी गे,
ए दाई चला माता अपन असथान गे दाई।
तोर सेवा लागों महारानी गे,
ए दाई चला माता अपन असथान गे दाई।
डतर बोली ला सुनै बारहो बहिन गे,
इससे स्पष्ट होता है कि दाई कुदरगढ़ी प्राचीन काल से सरगुजा वासियों के मन और दिल में काफी गहराई तक बसी हुई हैं।
जनपद स्तर पर कुदरगढ़ की पूजा व्यवस्था-
कुदरगढ़ के बढ़ते महत्व और भीड़ को देखते हुए प्रशासन द्वारा जनपद स्तर पर मेला और पूजा व्यवस्था करने का निर्णय लिया गया। सन 1987 से जनपद पंचायत ओड़गी द्वारा मां कुदरगढ़ी की पूजा व्यवस्था कराई जाती है। तथा मेले की व्यवस्था हेतु ओड़गी विकासखंड द्वारा कमेटी बनाई गई है। कुदरगढ़ की सभी व्यवस्थाएं समिति द्वारा होती है।
कुदरगढ़ ट्रस्ट का निर्माण-
सन 2003 से कुदरगढ़ को ट्रस्ट बनाया गया है। इस ट्रस्ट के अध्यक्ष माननीय जिला अध्यक्ष सूरजपुर रहते हैं। कुदरगढ़ ट्रस्ट में 214 आजीवन सदस्य हैं। ट्रस्ट की स्थाई सदस्यता शुल्क 11000 रूपये मात्र है। अब कुदरगढ़ में तेजी से विकास कार्य हो रहे हैं। यहां पहुंच मार्ग, धर्मशाला, पानी, बिजली, ऊपर चढ़ाई हेतु सिढ़ी का निर्माण कार्य हो चुका है। यहां वर्ष भर श्रद्धालु भक्तों का आना जाना लगा रहता है। कुदरगढ़ में रोप-वे का काम अभी निर्माणाधीन है। मनोहारी कुदरगढ़ धाम, धार्मिक स्थल के साथ-साथ एक मनोहारी पर्यटन स्थल के रूप में प्रसिद्ध है।
कुदरगढ़ धाम पहुंच मार्ग-
कुदरगढ़ धाम पहुंचने के लिये विभिन्न रास्ते हैं, जिनका विवरण निम्नानुसार हैं – सूरजपुर से कुदरगढ़ 44 कि०मी०, अम्बिकापुर से कुदरगढ़ रोड 80 कि०मी० पटना से कुदरगढ़ 40 कि0मी0, बिहारपुर-बाक से कुदरगढ 70 कि०मी० और छतरंग-बांकी से कुदरगढ़ पैदल पहाड़ी मार्ग 25 कि0मी0 है।