31/01/2025
बीसवीं शताब्दी की पहाड़ी किशोरियाँ
‘वो लड़की गाँव की’ और ‘मल्यो की डार’
‘वो लड़की गाँव की’ को पढ़ते-पढ़ते, ‘मल्यों की डार’ किताब फिर से पढ़ने का मन हुआ। तब, ये किताबें एक-दूसरे पर अपनी पीठ टिकाये धार में बैठी दो लेखिकायें नज़र आने लगी। विगत शताब्दी के साठ के दशक के कुमाऊँ-गढ़वाल की ये बालिकायें अपने-अपने हिस्से के बचपन को जैसे न्योली/खुदेड़ गीतों में ढालकर मुझे बताने को आतुर हैं।
वे बिल्कुल भी आश्चर्य व्यक्त नहीं करती हैं कि दोनों के दर्दों का मर्म एक ही है। क्योंकि, बचपन के बाद के पिछले पाँच दशकों की जीवन-यात्रा ने उन्हें यह बखूबी सिखाया और समझाया है कि स्त्रियों की वेदना का मूल स्त्रोत और स्वर एक ही है।
फिर जगह वो, पिथौरागढ़ का नैनी गाँव हो अथवा पौड़ी (गढ़वाल) का भट्टी गाँव।
‘‘...इस धरती पर औरतें शायद दर्द सहने के लिए भेजी जाती हैं। दुनिया बनाने वाला भी तो पुरुष ही था, उसने सारे अधिकार, ताकत, ऐशो-आराम, शारीरिक बेफ़िक्री अपने पास रखी, औरतों के हिस्से पीड़ा, दर्द, लज्जा सब कुछ देकर वह मस्त हो गया।’’
(वो लड़की गाँव की, पृष्ठ- 25)
‘‘...हम पेड़ से टूटे पत्तों की तरह इधर-उधर भटक रहे हैं ना, ये भी एक बहुत बड़ा त्रास है, अपनी जड़ों से उखड़ जाने का। हमारी जड़ें कहाँ हैं? हमारे बच्चों की जड़ें कहाँ है? हम बिना जड़ों के कब तक जी पायेंगे? हमारी पहचान क्या है? बिना जड़ों के भटकते पत्तों की भी कोई पहचान होती है। हम समाज के वो वंचित समूह हैं, जिन्हें औरत कहते हैं। जो बिना जड़ों के, बिना खाद पानी के, किसी भी मिट्टी में, किसी भी जलवायु में पनपने का भ्रम पैदा करती है...’’
(मल्यो की डार, पृष्ठ- 13)
पिथौरागढ़ के देवलथल के निकटवर्ती नैनी गाँव की एम. जोशी हिमानी और पौड़ी (गढ़वाल) के मुण्डनेश्वर के पास भट्टी गांव की गीता गैरोला वर्तमान हिन्दी साहित्य जगत में सुपरिचित व्यक्तित्व हैं। एम. जोशी हिमानी की ‘वो लड़की गाँव की’ और गीता गैरोला की ‘मल्यो की डार’ संस्मरणात्मक पुस्तकें चर्चित हुई हैं।
संयोग से, ये दोनों पुस्तकें समय साक्ष्य प्रकाशन, देहरादून से क्रमशः वर्ष- 2024 और वर्ष -2015 में प्रकाशित हुई हैं।
उत्तराखण्ड के दो छोरों पर बसे नैनी गाँव और भट्टी गाँव हैं। इन गाँवों का आधी सदी पहले का जन-जीवन इन किताबों में जीवन्त हुआ है। भौगोलिक स्थितियों से इन गाँवों की आपसी दूरियाँ भले ही आज़ भी लम्बी हों। पर आम ग्रामीणों की दिनचर्या के शाश्वत कष्ट दोनों गाँवों में आज़ भी एक जैसे ही हैं। इन्हीं कष्टों से निज़ात पाने और जीवन की बेहतरी के भ्रम में वे मैदानी महानगरों में समाने लगे हैं।
लिहाजा, आज़ आदमियों की चहल-पहल से ये गाँव वीरान होने के कगार पर हैं।
‘‘अपनी आंखें मैंने जिस ‘नैनी’ में खोलीं थी और जीवन के प्रारंभिक प्रन्द्रह बरस जद्दोजेहद व बेइंतहा कठिनाइयों के साथ बीते, शायद वह सच्चा जीवन था। बाद के पचास साल के शहरी जीवन में वे पन्द्रह बरस आज भी भारी हैं। मैं स्वप्न देखती हूँ, याद करती हूँ तो उसी नैनी को किया करती हूँ। जबकि उस नैनी में अब मेरा कुछ नहीं है। लड़की का किसी खसरा-खतौनी में कहाँ नाम होता है?’’
(वो लड़की गाँव की-07)
‘‘वाह! गाँव के मकानों पर ताले लगे हैं, दरारें पड़ी हैं पर मन्दिर की खूब अच्छी मरम्मत की गई है। इन्सान चाहे रहे न रहे, भगवान का घर तो होना ही चाहिए। पर बिना इन्सानों के भगवान यहाँ क्या कर रहा है, बेचारे भगवान का दिल कैसे लगता होगा अकेले, यह जरा सोचने वाली बात है।’’
(मल्यो की डार, पृष्ठ- 153)
आज़ वीरान हो रहे अपने इन्हीं गाँवों में बीता इनका बचपन। किशोरावस्था की दलहीज पर आते ही गाँव जो छूटा वो जीवन में छूटता ही गया। परन्तु, उनसे गाँव जरूर छूटा पर उसकी यादें आज़ भी उनमें तरोताजा है। इसी ताजगी में उनकी उस गाँव को फिर से जीने की बेकरारी छुपी हुई है।
यही बैचेनी इन किताबों का केन्द्रीय भाव है।
‘‘अठारह बरस बाद जब मैं मैत गई तो मेरे माता-पिता, काका-काकी और कोई भी बुजुर्ग नहीं बचा था और मुझे वहाँ गाँव में ठीक से पहचानने वाला कोई नहीं था। उफ कितना मार्मिक जीवन था उस समय की स्त्रियों का।’’
(वो लड़की गाँव की, पृष्ठ- 20)
‘‘...बेटियाँ मल्यों की डार ही होती हैं। अपने मैत में चार दिन रुकी और फिर चल देती हैं, दूसरी मुलक। ठीक ही कहती थी दादी हम सब मल्यो की डार ही तो हैं। पर मल्यो तो केवल जाड़े में भावर जाते हैं, घाम तापने। शीत ऋतु खत्म होते ही अपने डेरों में लौट आते हैं। ये हैं असली प्रवासी। हम खुद को प्रवासी किस मुँह से कहते हैं, हम भगोड़े हैं, भगोड़े, जो एक बार गए और दुबारा पलट के नहीं लौटे। हम तो हरे-भरे पहाड़ों की विलुप्त होती नस्लें हैं।’’
(मल्यों की डार, पृष्ठ- 19)
हिमानी और गीता के संस्मरण उनके केवल अपने नहीं हैं। ये बीसवीं शताब्दी की पहाड़ी किशोरियों के मन-मस्तिष्क की सोच-समझ और अनकही बातों और घटनाओं का भी खुलासा है। इस संदर्भ में वे अपने-अपने परिवारों से मिली जीवनीय जीवटता के साथ उनके रूढ़िवादिता और अन्यायी व्यवहार को भी बार-बार रेखांकित करती हैं। इसमें, वे उस दौर के पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों के आपसी अपनेपन और अपमान को बेहिचक बताती जाती हैं। बड़े-बुजुर्गों की बातें भले ही तब उनकी समझ से परे थी पर उनके अन्तःमन के दर्द को वो भाँप तो जाती थी।
वे समझ गई थी कि मानवीय विसंगतियाँ से भरा समाज इतनी सुन्दर प्रकृति में भी सामान्यतया अपनी अनचाही ज्यादतियों और सामाजिक भेदभाव से संचालित होता है।
‘’मां के वे शब्द आज भी मेरे कानों में गूंजते हैं- ‘चेली! हमारे जमाने में भगवान को औरतों को पैदा ही नहीं करना चाहिए था। उस समय सभी स्त्रियों की जिंदगी किसी नर्क से कम न थी। खुद नर्क भोग चुकी स्त्रियाँ ही अपनी अगली पीढ़ी को वह नर्क परोसती थी।’’
(वो लड़की गाँव की- 56)
‘‘मैं जब कभी बीमार होती, बड़ी दादी मेरी गुदगुदी पीठ में एक धौल जमा कर कहती, ‘अरे इस गदोरी का कुछ नहीं होगा। लड़कियाँ जीने के मामले में बड़ी छित्ती होती हैं।’ हर घर की बड़ी बूढ़ी औरतें अपनी जिन्दगी जीने का सबक ऐसे ही सिखाती हैं। उसी सबक की घुट्टी पीने से हर औरत पूरी जिन्दगी जायज और बेजायज सब कुछ सहती ही चली जाती हैं।’’
(मल्यो की डार, पृष्ठ- 33)
ये दोनों किताबें महिलाओं के एक जैसे दुःख-दर्द, कथा-व्यथा का सामुहिक हलफनामे हैं।
इन किताबों में कुन्ती, तारा, कौशल्या, भागीरथी, छाया, धौली, दुर्गा दी, मदुर दी, देबुली, लीला, भूती आमा, माई फूफू, सुनीता, सूमा, लाटी और भी अनेक और अनाम नामों ने तब की महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक स्थिति और अस्तित्व को बताया है।
यह कहना सच है कि सादगी भरे उस समयकाल में सामान्यतया महिलाओं के हिस्से सदमें ही सदमें थे। विडम्बना ये है कि यह प्रवृत्ति समाज में कमोवेश आज़ भी जारी हैं।
‘‘हमारी रीतियाँ, परम्परायें भी कितनी बेरहम हुआ करती हैं...माँ गाँव में थी, पिता के मरने की खबर...भी उसको तीन दिन बाद मिली। खबर मिलते ही आस-पास इकट्ठा स्त्रियों ने ढांढस बंधाने के बजाय माँ के गले में पड़ा चरेऊ (मंगलसूत्र) तोड़ने के लिए उस पर झपट्टा मारा था, बिना समय गवाएं। नाक में वर्षों से पहनी सोने की कील निकाल फेंकने के लिए खींचातानी शुरू कर दी थी।’’
(वो लड़की गाँव की, पृष्ठ- 17)
‘‘...वो बच्चा जनने के लिए लाई गई थी। अब उसका बच्चा जनने का काम पूरा हो गया, उसकी जरूरत भी खत्म हो गई। लाटी केवल दूर से ही बच्चे को देख सकती थी। उसके लिए बच्चे पर हाथ लगाने की सख्त मनाही थी। हाँ, इतना जरूर था कि घर का मालिक रात-बेरात लाटी के शरीर को झिंझोड़ने गोठ में पहुंच जाता था। लाटी अपना पत्नी धर्म निभाती रही।’’
(मल्यो की डार, पृष्ठ- 137)
बचपन में देखे और महसूस किए सामाजिक रिश्तों के लगाव और निर्ममता का भाव ता-उम्र कहीं नहीं जाता है। वह मन-मस्तिष्क के किसी नाजुक कोने में सिमटा रहता है। वक्त-वे-वक्त वह हमें कुतगली (गुदगुदी) लगाने अथवा टीस पहुँचाने बाहर आ ही जाता है।
तब की इन किशोरियों के ऐसे ही खट्टे-मीठे किस्से रोचकता से इन किताबों है।
हकीकत ये भी है कि इन्हीं देखे-सुने किस्सों ने बाद में उनके लेखकीय व्यक्तित्व को मजबूत पहचान दी है।
‘‘मैं दादा जी से पूछती ‘क्या मैं चाँद को छू सकती हूँ।’ वो बिना सोचे कहते, ‘हाँ बाबा क्यों नहीं छू सकती, जरूर छू सकती है। इसके लिए तुझे चाँद जितना लम्बा रास्ता पार करना होगा। उस रास्ते को पार करने में बहुत साल लगेंगे।’ गाँव की वो सहेलियाँ, वो खेल, वो शैतानी सब इतनी शिद्दत से क्यों याद आते हैं, मुझे ही याद आते हैं या सब ऐसे ही अपने बचपन को याद करते हैं।’’
(मल्यो की डार, पृष्ठ- 13)
‘‘लछिम दत्त लड़की को लखनऊ ले जा रहा है, अब लड़की कलेक्टर बनेगी, ही ही ही.... लड़की जब बदनामी कराएगी, नाक कटाएगी, तब अक्ल ठिकाने आएगी, खी खी खी... ओह! किस कदर गाल बजाने के इंतजार में रहता है यह समाज...मैं मानती हूँ, मैं अपने पिता के दिए हौसले के कारण आत्मनिर्भर बन सकी। लेकिन उस हौसले के साथ जब मेरा भी हौसला मिला, तभी बात बन पाई...
ओ बेटियों!
तुम कभी हौसला न हारना
खुद को कभी कमतर न समझना
नीला गगन तुम्हारा भी है
पता अपना कभी उसको देना जरूर।’’ (वो लड़की गाँव की, पृष्ठ, 07-10)
एम. जोशी हिमानी जी और गीता गैरोला जी को शुभकामना और शुभाशीष।
अरुण कुकसाल
ग्राम- चामी, पोस्ट- सीरौं- 246163
पट्टी- असवालस्यूं, विकासखण्ड- कल्जीखाल
जनपद- पौड़ी (गढ़वाल), उत्तराखण्ड