17/11/2024
जागो समाज! हादसों का यह दर्द कब तक सहोगे?
आशीष ध्यानी
देहरादून की सड़कों पर हुआ यह भयावह हादसा केवल छह मासूम बच्चों की मौत नहीं है, बल्कि यह समाज के हर व्यक्ति और हर संस्था के लिए एक ऐसा थप्पड़ है, जिसे नजरअंदाज करना अब अपराध से कम नहीं होगा। इन बच्चों की चीखें, उनके माता-पिता की तड़प, और खून से लथपथ सड़कें — ये सब हमारे भीतर एक आग क्यों नहीं जलाते? क्या हम इतने संवेदनहीन हो गए हैं कि मासूमों की मौत को महज एक दुर्घटना मानकर आगे बढ़ जाएं? नहीं, यह समय है जागने का, यह समय है जिम्मेदारी का बोझ उठाने का।
यह हादसा हमारे समाज की उस लापरवाह मानसिकता का नतीजा है, जिसमें यातायात के नियम केवल कागज पर लिखे रहते हैं और सड़कों पर उन्हें तोड़ना शान माना जाता है। माता-पिता अपने बच्चों को बाइक और कार पकड़ा देते हैं, बिना यह सोचे कि यह कदम उनके जीवन के सबसे बड़े पछतावे में बदल सकता है। यह केवल उनके घर का मामला नहीं है; जब कोई बच्चा नशे में या तेज रफ्तार में वाहन चलाता है, तो वह हर राहगीर की जान खतरे में डालता है। क्या यह हमारी जिम्मेदारी नहीं है कि हम अपने आसपास ऐसा कुछ भी होने से रोकें? लेकिन हम क्या करते हैं? चुप रहते हैं। यह चुप्पी एक अपराध है। जब तक हम इस चुप्पी को तोड़ेंगे नहीं, तब तक ऐसी लाशें हमारे सामने आती रहेंगी।
दुःख और आक्रोश के इस समय में DGP अभिनव कुमार की सख्ती एक उम्मीद की किरण बनकर आई है। सघन चेकिंग अभियान, SSP's का सड़कों पर उतरना — ये सभी कदम सराहनीय हैं। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि केवल प्रशासनिक सख्ती से समाधान नहीं होगा। यह बदलाव समाज से शुरू होगा। हमें अपने घरों में, स्कूलों में, और समाज के हर कोने में एक नई चेतना लानी होगी। बच्चों को नशे और तेज रफ्तार के खतरों के बारे में बताना, हेलमेट और सीट बेल्ट के महत्व को समझाना, और उन्हें यह सिखाना कि सड़क पर उनकी एक छोटी-सी गलती कितने लोगों की ज़िंदगी खत्म कर सकती है — यह सब हमारी जिम्मेदारी है।
लेकिन यह जिम्मेदारी केवल बच्चों तक सीमित नहीं है। बड़े, जो खुद नियम तोड़ते हैं, जो हेलमेट और सीट बेल्ट को अनावश्यक मानते हैं, जो सड़कों पर लापरवाही से गाड़ी चलाते हैं — उन्हें अपने व्यवहार में बदलाव लाना होगा। बच्चे वही सीखते हैं जो वे देखते हैं। अगर बड़े यातायात के नियमों का पालन करेंगे, जिम्मेदार बनकर सड़क पर चलेंगे, तो बच्चे खुद-ब-खुद इन नियमों को अपनाएंगे।
यह बदलाव केवल व्यक्तिगत स्तर पर नहीं हो सकता। समाज को जागना होगा। पड़ोसी को पड़ोसी के बच्चों की चिंता करनी होगी। स्कूलों और कॉलेजों को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। पुलिस की सख्ती के साथ-साथ समाज को भी अपनी भूमिका समझनी होगी। यह टोका-टाकी, यह हस्तक्षेप — यह सब जरूरी है। यह किसी की स्वतंत्रता का हनन नहीं, बल्कि एक जीवन बचाने का प्रयास है।
यह समय है खुद से सवाल करने का — क्या मैं अपनी जिम्मेदारी निभा रहा हूं? क्या मैं अपने बच्चों को सड़क पर सुरक्षित रख रहा हूं? क्या मैं अपने समाज को सड़क हादसों से बचाने के लिए कुछ कर रहा हूं? अगर जवाब नहीं है, तो यह वक्त है बदलने का। हमें यह समझना होगा कि यह समस्या केवल प्रशासन या पुलिस की नहीं है। यह हमारी समस्या है। और इसका समाधान भी हमें ही खोजना होगा।
आइए, इस हादसे को एक चेतावनी के रूप में लें। इसे भुलाकर न बैठें। इसे अपने दिल में जिंदा रखें, ताकि हर बार जब हम सड़क पर कदम रखें, तो यह दर्द हमें जिम्मेदारी निभाने के लिए प्रेरित करे। यह समाज हमारा है, और इसे सुरक्षित रखना भी हमारी जिम्मेदारी है। अगर हम आज जाग गए, तो शायद कल कोई और बच्चा हमारी लापरवाही की कीमत अपनी जान देकर नहीं चुकाएगा।
Pushkar Singh Dhami Dhakad Dhami Dhami Ki Dhoom
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