27/07/2023
जाने कैसे बदल गए कहलाते थे जो फ़ौलादी (एक संवाद आज़मगढ़ के साहित्यिक-साँस्कृतिक माहौल पर )
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आज आज़मगढ़ शहर में शाम को शहर के प्रतिष्ठित कॉलेज के एक प्रोफेसर मिले। बड़ी गर्मजोशी के साथ उन्होंने कहा और डॉ अजय जी क्या हाल है। कैसे हैं आप लोग। आजकल आप लोग साहित्यिक कार्यक्रम नहीं करवा रहे हैं। " जलवायु " पत्रिका भी आजकल नहीं निकल रही है क्या। आपने बहुत मेहनत से शोध किया है।
प्रोफेसर साहब बोलते ही जा रहे थे जब वे पूरा बोल लिए तो हमने जवाब दिया कि आपने एक साथ कई प्रश्न कर दिए हैं। सबका जवाब एक-एक कर देना होगा।
पहले साहित्यिक कार्यक्रमों की बात कर लेते हैं। हमने कहा कि जिंदगी के 41 वर्षों में हम 36 वर्ष से साहित्यिक कार्यक्रमों को देखते और समझते रहे हैं। लगभग 25 वर्षों से हम साहित्यिक कार्यक्रमों में भागीदारी भी कर रहे हैं। थोड़ी बहुत समझ भी है साहित्य की। जब साहित्यिक कार्यक्रमों में जाना शुरू किया था तब मुझे लगता था कि साहित्य से ही समाज बेहतर होगा। जाति व्यवस्था टूटेगी, ऊंच-नीच की भावना खत्म होगी, महिलाओं और दलितों के ऊपर हो रहे ज़ुल्म को खत्म करने का माहौल बनेगा। बचपन से लेकर हमने जो माहौल देखा था उससे मन में कई बार प्रश्न उठता था कि आखिर समाज ऐसा क्यों है। ऐसे में साहित्य एक उम्मीद की किरण दिखाई दी। उस वक़्त हमने कभी नहीं सोचा था कि हम भविष्य में विज्ञान के विद्यार्थी रहेंगे। (जारी)