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शास्त्रीय संगीत के बढ़े हैं श्रोता-जसराज शास्त्रीय संगीत के बढ़े हैं श्रोता-जसराज      AnandMon, 10/02/2025 - 11:52मेवाती ...
10/02/2025

शास्त्रीय संगीत के बढ़े हैं श्रोता-जसराज शास्त्रीय संगीत के बढ़े हैं श्रोता-जसराज

Anand
Mon, 10/02/2025 - 11:52

मेवाती घराने के हिन्दुस्तानी शैली के जाने माने शास्त्रीय गायक पंडित जसराज ने कहा कि चैनलों पर आने वाले कार्यक्रमों की वजह से शास्त्रीय संगीत के श्रोताओं की संख्या बढ़ रही है।

अपने जन्म दिन की पूर्व संध्या पर पद्म विभूषण पंडित जसराज ने कहा पंडाल लगाकर आयोजित किए जाने वाले शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रमों में तीन-चार हजार लोग ही आ पाते हैं। इस बात के लिए चैनलों का शुक्रिया अदा किया जाना चाहिए कि उन्होंने शास्त्रीय संगीत को घर- घर तक पहुँचाया।

शास्त्री संगीत के प्रति सच्ची लगन कब जागृत हुई इस बारे में पूछने पर पंडित जसराज ने अपनी स्मृतियों के वर्क पलटते हुए दिसंबर 1946 की एक घटना का जिक्र किया। उन्होंने बताया मैं दो साल से शास्त्रीय संगीत सीख रहा था। भाई साहब के कार्यक्रम में मैंने राग यमन पेश करने की जिद की और अंतरे के बाद मैं नहीं गा सका, जिसके बाद मैंने शास्त्रीय संगीत सीखने की जिद कर ली और आज आप सबके सामने हूँ।

हालाँकि उन्होंने आजकल संगीत के कार्यक्रमों की बढ़ती संख्या की ओर इशारा करते हुए कहा कि अति सर्वत्र वर्जते संगीत कार्यक्रमों की अति लाभदायक ही होगी ऐसा नहीं सोचना चाहिए।

शास्त्रीय संगीत की नयी पीढ़ी के बारे में उन्होंने कहा नई पीढ़ी सही रास्ते पर है और कभी भी पाँच-छह से अधिक बड़े शास्त्रीय गायक नहीं रहे हैं। दूसरी पंक्ति में 15 से 16 शास्त्रीय गायक होते हैं। इससे ज्यादा के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता।

पंडित जसराज ने कहा भगवान जिसे बेहद प्यार करता है उसे ही संगीत की इस नियामत से नवाजता है। शास्त्रीय संगीत से जुड़ा व्यक्ति अपनी संतान को संगीत की विरासत देने के बारे में सोचता है। इसके बाद ही बाकी शास्त्रीय संगीत सीखने वालों की बारी आती है।

उन्होंने भारत रत्न को लेकर चल रहे विवाद से बचते हुए कहा कि जिसको सरकार चाहती है, उसका नाम पहले ही तय हो जाता है। इस बारे में हमें बात भी नहीं करना चाहिए।

शास्त्रीय संगीत में पंडित भीमसेन जोशी और पंडित हरिप्रसाद चौरसिया जैसी महान संगीत विभूतियों के साथ जुगलबंदी कर चुके पंडित जसराज ने कहा मुझे तो सभी के साथ जुगलबंदी करके मजा आया क्योंकि हम प्रतिद्वंद्वी नहीं बल्कि एक दूसरे के पूरक थे। हाल में एक जनवरी को कोलकाता में डॉ. बाल मुरली कृष्णन के साथ जुगलबंदी करने में बड़ा आनंद आया।

शास्त्रीय संगीत के श्रोताओं के बारे में उन्होंने कहा आनंद लेने वाले श्रोता बहुत अच्छे होते हैं। मगर शास्त्रीय संगीत के अल्पज्ञ श्रोता संगीत का सही आनंद नहीं ले पाते क्योंकि उनका ध्यान गायक की गलती निकालने में ही लगा रहता है।

मल्हार और बसंत राग की प्रस्तुति से संबंधित दो घटनाओं को जिक्र करते हुए उन्होंने बताया आनंद में महाराजा जसवंतसिंह की समाधि पर मुझे आवाज आई कि मियाँ की मल्हार क्यों नहीं गाते। मैंने अहमदाबाद के सप्तक कार्यक्रम में उसे गया और वहाँ बेमौसम तीन दिन तक लगातार बारिश हुई।

दूसरी घटना 1998 में दिल्ली की है। जहाँ ढाई घंटे की प्रस्तुति के बाद मैने गर्मी के मौसम में धूलिया मल्हार प्रस्तुत किया और तकरीबन 25 मिनट बाद बादल झूमकर बरसने लगे।



शख्सियत

मेवाती घराने के हिन्दुस्तानी शैली के जाने माने शास्त्रीय गायक पंडित जसराज ने कहा कि चैनलों पर आने वाले कार्यक्रम.....

किशोरी अमोनकर के शास्त्रीय संगीत में भारतीय संस्कृति की आत्मा बसती थी किशोरी अमोनकर के शास्त्रीय संगीत में भारतीय संस्कृ...
10/02/2025

किशोरी अमोनकर के शास्त्रीय संगीत में भारतीय संस्कृति की आत्मा बसती थी किशोरी अमोनकर के शास्त्रीय संगीत में भारतीय संस्कृति की आत्मा बसती थी

Anand
Mon, 10/02/2025 - 11:49

किशोरी अमोनकर एक भारतीय शास्त्रीय गायक थीं जिन्होंने अपने शास्त्रीय संगीत के बल पर दशकों तक हिन्दुस्तान के संगीतप्रेमियों के दिल में अपनी जगह बनाए रखी। किशोरी अमोनकर का जन्म 10 अप्रैल 1932 को मुंबई में हुआ था।

किशोरी अमोनकर को हिन्दुस्तानी परंपरा के अग्रणी गायकों में से एक माना जाता है। किशोरी अमोनकर जयपुर-अतरौली घराने की प्रमुख गायिका थीं। किशोरी अमोनकर एक विशिष्ट संगीत शैली के समुदाय का प्रतिनिधित्व करती थीं जिसका देश में बहुत मान है। किशोरी अमोनकर जब 6 वर्ष की थी तब उनके पिता की मृत्यु हो गई थी।

किशोरी अमोनकर की मां एक सुप्रसिद्ध गायिका थीं जिनका नाम मोघूबाई कुर्दीकर था। किशोरी अमोनकर की मां मोघूबाई कुर्दीकर जयपुर घराने की अग्रणी गायिकाओं में से प्रमुख थीं। मोघूबाई कुर्दीकर ने जयपुर घराने के वरिष्ठ गायन सम्राट उस्ताद अल्लादिया खां साहब से प्रशिक्षण प्राप्त किया था।

किशोरी अमोनकर ने अपनी मां मोघूबाई कुर्दीकर से संगीत की शिक्षा ली थी। किशोरी अमोनकर को अपने बचपन से ही संगीतमय माहौल में पली-बढ़ी थीं। किशोरी अमोनकर ने न केवल जयपुर घराने की गायकी की बारीकियों और तकनीकों पर अधिकार प्राप्त किया, बल्कि उन्होंने अपने कौशल, बुद्धिमत्ता और कल्पना से एक नई शैली का भी सृजन किया।

अपनी माता के अलावा युवा किशोरी ने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में भिंडी बाजार घराने से ताल्लुक रखने वाली गायिका अंजनीबाई मालपेकर से भी संगीत की शिक्षा प्राप्त की और बाद में कई घरानों के संगीत शिक्षकों से प्रशिक्षण प्राप्त किया जिनमें प्रमुख रूप से आगरा घराने के अनवर हुसैन खान, ग्वालियर घराने के शरदचन्द्र अरोल्कर और बालकृष्ण बुवा पर्वतकार शामिल थे। इस प्रकार से उनकी संगीत शैली और गायन में अन्य प्रमुख घरानों की झलक भी दिखती है।

किशोरी अमोनकर की प्रस्तुतियां ऊर्जा और सौन्दर्य से भरी हुई होती थीं। उनकी प्रत्येक प्रस्तुति प्रशंसकों सहित संगीत की समझ न रखने वालों को भी मंत्रमुग्ध कर देती थी। उन्हें संगीत की गहरी समझ थी। उनकी संगीत प्रस्तुति प्रमुख रूप से पारंपरिक रागों- जैसे जौनपुरी, पटट् बिहाग, अहीर पर होती थी। इन रागों के अलावा किशोरी अमोनकर ठुमरी, भजन और खयाल भी गाती थीं। किशोरी अमोनकर ने फिल्म संगीत में भी रुचि ली और उन्होंने 1964 में आई फिल्म ‘गीत गाया पत्थरों ने’ के लिए गाने भी गाए।

लेकिन जल्दी ही किशोरी अमोनकर फिल्म इंडस्ट्री के खराब अनुभवों के साथ शास्त्रीय संगीत की तरफ लौट आईं। 50 के दशक में किशोरी अमोनकर की आवाज चली गई थी। उनकी आवाज को वापस आने में 2 साल लगे। किशोरीजी ने एक इंटरव्यू में बताया है कि उन्हें इस वजह से करीब 9 साल गायन से दूर रहना पड़ा। वो फुसफुसाकर गाती थीं लेकिन उनकी मां ने उन्हें ऐसा करने से मना किया और कहा कि मन में गाया करो इससे तुम संगीत के और संगीत तुम्हारे साथ रहेगा।

किशोरी अमोनकर ने तय किया था कि वे फिल्मों में नहीं गाएंगी। उनकी मां मोघूबाई कुर्दीकर भी फिल्मों में गाने के सख्त खिलाफ थीं, हालांकि उसके बाद उन्होंने फिल्म 'दृष्टि' में भी गाया। किशोरीजी ने एक इंटरव्यू में कहा भी है कि माई ने धमकी दी थी कि फिल्म में गाया तो मेरे दोनों तानपूरे को कभी हाथ मत लगाना लेकिन उन्हें दृष्टि फिल्म का कॉन्सेप्ट बहुत पसंद आया और उन्होंने इसके लिए भी अपनी आवाज दी।

किशोरी अमोनकर का अपनी मां मोघूबाई कुर्दीकर के साथ एक आत्मीय रिश्ता था। किशोरी अमोनकर ने एक बार कहा था कि ‘मैं शब्दों और धुनों के साथ प्रयोग करना चाहती थी और देखना चाहती थी कि वे मेरे स्वरों के साथ कैसे लगते हैं। बाद में मैंने यह सिलसिला तोड़ दिया, क्योंकि मैं स्वरों की दुनिया में ज्यादा काम करना चाहती थी। मैं अपनी गायकी को स्वरों की एक भाषा कहती हूं।’

उन्होंने कहा, ‘मुझे नहीं लगता कि मैं फिल्मों में दोबारा गाऊंगी। मेरे लिए स्वरों की भाषा बहुत कुछ कहती हैं। यह आपको अद्भुत शांति में ले जा सकती है और आपको जीवन का बहुत-सा ज्ञान दे सकती है। इसमें शब्दों और धुनों को जोड़ने से स्वरों की शक्ति कम हो जाती है।’ वे कहती हैं, ‘संगीत का मतलब स्वरों की अभिव्यक्ति है। इसलिए यदि सही भारतीय ढंग से इसे अभिव्यक्त किया जाए तो यह आपको असीम शांति देता है।'

वास्तव में किशोरी अमोनकर के अंदर संगीत कूट-कूटकर भरा हुआ था। यह सिर्फ और सिर्फ उनकी संगीत के प्रति कड़ी साधना से प्राप्त हुआ था। किशोरी अमोनकर कहती थीं कि संगीत पांचवां वेद है। इसे आप मशीन से नहीं सीख सकते। इसके लिए गुरु-शिष्य परंपरा ही एकमात्र तरीका है। संगीत तपस्या है। संगीत मोक्ष पाने का एक साधन है। यह तपस्या उनके गायन में दिखती थी।

सन् 1957 से किशोरी अमोनकर ने स्टेज प्रस्तुति देनी शुरू की। उनका पहला स्टेज कार्यक्रम पंजाब के अमृतसर शहर में हुआ, जो कि काफी सफल हुआ। इसके साथ ही किशोरी अमोनकर सन 1952 से आकाशवाणी के लिए गाना प्रारंभ किया।

इसके अलावा किशोरी अमोनकर अपने जीवन में अनेक प्रभावशाली प्रस्तुतियां दीं और अपने संगीत का लोहा मनवाया। किशोरी अमोनकर को ‘श्रृंगेरी मठ’ के जगतगुरु ‘महास्वामी’ ने ‘गान सरस्वती’ की उपाधि से सम्मानित किया है। किशोरी अमोनकर के शिष्यों में मानिक भिड़े, अश्विनी देशपांडे भिड़े, आरती अंकलेकर, गुरिंदर कौर जैसी जानी-मानी प्रख्यात गायिकाएं हैं, जो कि उनके परंपरागत संगीत को आगे बढ़ा रहे हैं।

ख्याल गायकी, ठुमरी और भजन गाने में माहिर किशोरी अमोनकर की ‘प्रभात’, ‘समर्पण’ और ‘बॉर्न टू सिंग’ सहित कई एलबम जारी हो चुके हैं जिनमें उनका शुद्ध और सात्विक संगीत झलकता है। किशोरी अमोनकर को संगीत के क्षेत्र में अथाह योगदान के लिए 1985 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

इसके अलावा भारतीय शास्त्रीय संगीत को दिए गए उनके …

किशोरी अमोनकर एक भारतीय शास्त्रीय गायक थीं जिन्होंने अपने शास्त्रीय संगीत के बल पर दशकों तक हिन्दुस्तान के संगीत...

भारतीय शास्‍त्रीय नृत्‍य भारतीय शास्‍त्रीय नृत्‍य      RaagparichayMon, 10/02/2025 - 11:45साहित्‍य में पहला संदर्भ वेदों...
10/02/2025

भारतीय शास्‍त्रीय नृत्‍य भारतीय शास्‍त्रीय नृत्‍य

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Mon, 10/02/2025 - 11:45

साहित्‍य में पहला संदर्भ वेदों से मिलता है, जहां नृत्‍य व संगीत का उदगम है । नृत्‍य का एक ज्‍यादा संयोजित इतिहास महाकाव्‍यों, अनेक पुराण, कवित्‍व साहित्‍य तथा नाटकों का समृद्ध कोष, जो संस्‍कृत में काव्‍य और नाटक के रूप में जाने जाते हैं, से पुनर्निर्मित किया जा सकता है । शास्‍त्रीय संस्‍कृत नाटक (ड्रामा) का विकास एक वर्णित विकास है, जो मुखरित शब्‍द, मुद्राओं और आकृति, ऐतिहासिक वर्णन, संगीत तथा शैलीगत गतिविधि का एक सम्मिश्रण है । यहां 12वीं सदी से 19वीं सदी तक अनेक प्रादेशिक रूप हैं, जिन्‍हें संगीतात्‍मक खेल या संगीत-नाटक कहा जाता है । संगीतात्‍मक खेलों में से वर्तमान शास्‍त्रीय नृत्‍य-रूपों का उदय हुआ ।

प्राचीन शोध-निबंधों के अनुसार नृत्‍य में तीन पहलुओं पर विचार किया जाता है- नाटय, नत्‍य और नृत्‍त । नाटय में नाटकीय तत्‍व पर प्रकाश डाला जाता है । कथकली नृत्‍य–नाटक रूप के अतिरिक्‍त आज अधिकांश नृत्‍य-रूपों में इस पहलू को व्‍यवहार में कम लाया जाता है । नृत्‍य मौलिक अभिव्‍यक्ति है और यह विशेष रूप से एक विषय या विचार का प्रतिपादन करने के लिए प्रस्‍तुत किया जाता है । नृत्‍त दूसरे रूप से शुद्ध नृत्‍य है, जहां शरीर की गतिविधियां न तो किसी भाव का वर्णन करती हैं, और न ही वे किसी अर्थ को प्रतिपादित करती हैं । नृत्‍य और नाटय को प्रभावकारी ढंग से प्रस्‍तुत करने के लिए एक नर्तकी को नवरसों का संचार करने में प्रवीण होना चाहिए । यह निवरस हैं- श्रृंगार, हास्‍य, करूणा, वीर, रौद्र, भय, वीभत्‍स, अदभुत और शांत ।



भारत में नृत्‍य की जड़ें प्राचीन परंपराओं में है। इस विशाल उपमहाद्वीप में नृत्‍यों की विभिन्‍न विधाओं ने जन्‍म लिया है। प्रत्‍येक विधा ने विशिष्‍ट समय व वातावरण के प्रभाव से आकार लिया है। राष्‍ट्र शास्‍त्रीय नृत्‍य की कई विधाओं को पेश करता है, जिनमें से प्रत्‍येक का संबंध देश के विभिन्‍न भागों से है। प्रत्‍येक विधा किसी विशिष्‍ट क्षेत्र अथवा व्‍यक्तियों के समूह के लोकाचार का प्रतिनिधित्‍व करती है। भारत के कुछ प्रसिद्ध शास्‍त्रीय नृत्‍य हैं

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मणिपुर क्षेत्र से आया शास्‍त्रीय नृत्‍य मणिपुरी नृत्‍य है मणिपुर क्षेत्र से आया शास्‍त्रीय नृत्‍य मणिपुरी नृत्‍य है     ...
10/02/2025

मणिपुर क्षेत्र से आया शास्‍त्रीय नृत्‍य मणिपुरी नृत्‍य है मणिपुर क्षेत्र से आया शास्‍त्रीय नृत्‍य मणिपुरी नृत्‍य है

Raagparichay
Mon, 10/02/2025 - 11:42

पूर्वोत्तर के मणिपुर क्षेत्र से आया शास्‍त्रीय नृत्‍य मणिपुरी नृत्‍य है।

* मणिपुरी नृत्‍य भारत के अन्‍य नृत्‍य रूपों से भिन्‍न है।

* इसमें शरीर धीमी गति से चलता है, सांकेतिक भव्‍यता और मनमोहक गति से भुजाएँ अंगुलियों तक प्रवाहित होती हैं।

* यह नृत्‍य रूप 18वीं शताब्‍दी में वैष्‍णव सम्‍प्रदाय के साथ विकसित हुआ जो इसके शुरूआती रीति रिवाज और जादुई नृत्‍य रूपों में से बना है।

* विष्‍णु पुराण, भागवत पुराण तथा गीत गोविंदम की रचनाओं से आई विषयवस्तुएँ इसमें प्रमुख रूप से उपयोग की जाती हैं।

* मणिपुर की मेइटी जनजाति की दंत कथाओं के अनुसार जब ईश्‍वर ने पृथ्‍वी का सृजन किया तब यह एक पिंड के समान थी।

* सात लैनूराह ने इस नव निर्मित गोलार्ध पर नृत्‍य किया, अपने पैरों से इसे मजबूत और चिकना बनाने के लिए इसे कोमलता से दबाया।

* यह मेइटी जागोई का उद्भव है।

* आज के समय तक जब मणिपुरी लोग नृत्‍य करते हैं वे कदम तेजी से नहीं रखते बल्कि अपने पैरों को भूमि पर कोमलता और मृदुता के साथ रखते हैं।

* मूल भ्रांति और कहानियाँ अभी भी मेइटी के पुजारियों या माइबिस द्वारा माइबी के रूप में सुनाई जाती हैं जो मणिपुरी की जड़ हैं।

* महिला "रास" नृत्‍य राधा कृष्‍ण की विषयवस्‍तु पर आधारित है जो बेले तथा एकल नृत्‍य का रूप है।

* पुरुष "संकीर्तन" नृत्‍य मणिपुरी ढोलक की ताल पर पूरी शक्ति के साथ किया जाता है

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10/02/2025

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गन्धर्व संगीत महाविद्यालय: संगीत का महा मंदिर गन्धर्व संगीत महाविद्यालय: संगीत का महा मंदिरAnandSun, 09/02/2025 - 12:06द...
09/02/2025

गन्धर्व संगीत महाविद्यालय: संगीत का महा मंदिर गन्धर्व संगीत महाविद्यालय: संगीत का महा मंदिर
Anand
Sun, 09/02/2025 - 12:06

देश में संगीत शिक्षा के क्षेत्र में गंधर्व महाविद्यालय का स्थान सर्वोपरि है। यहां से प्रशिक्षित कई संगीतकारों ने संगीत की दुनिया में अपना नाम किया है। गंधर्व महाविद्यालय की विशेषताएं बता रहे हैं शरद अग्रवाल



गन्धर्व संगीत महाविद्यालय की स्थापना 1901 में

पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर द्वारा लाहौर में की गई थी। यह भारत का पहला ऐसा संगीत विद्यालय था, जो जनता के सहयोग और दान-दक्षिणा से संचालित हो रहा था, न कि किसी तरह के राज्य आश्रय के रूप में तथा यहां पर सभी लोगों को संगीत की शिक्षा देने की व्यवस्था की गयी थी। उन दिनों में यह बहुत कठिन था कि ऐसा कोई संगीत संस्थान हो, जहां पारम्परिक रूप से शिष्य और गुरु एक ही स्थान पर रह कर संगीत साधना कर सकें, वो भी बिना राज्य सहायता के। इसीलिए दिगम्बर जी द्वारा बहुत सी संगीत प्रस्तुतियां दी जाती थीं, ताकि विद्यालय के काम काज में कोई बाधा न आए। वर्ष 1931 में पंडितजी ने अपने सभी शिष्यों के साथ अहमदाबाद में एक गोष्ठी की और इस प्रकार गन्धर्व संगीत महाविद्यालय मंडल की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ, जिसकी कार्यकारी परिषद् और अन्य सदस्यों को चुनाव के माध्यम से पद दिया जाता था। इतना ही नहीं, उनके सभी शिष्यों ने देश के विभिन्न भागों में अपने संगीत विद्यालय स्थापित किये और उन्हें गन्धर्व संगीत मंडल से संबद्ध कर लिया। 1931 में ही पंडित जी की मृत्यु हो गयी, जिससे सारे विद्यालयों को संचालित करने का काम इस गन्धर्व संगीत मंडल का हो गया।



मंडल की स्थापना

भारत में संगीत की शिक्षा को समरूपता देने और संगठित करने के लिए इस मंडल ने कार्य करना प्रारंभ कर दिया। मंडल द्वारा संगीत से जुड़े पाठय़क्रमों को निर्मित किया गया। इसमें सभी केंद्र के विद्यार्थियों को एक ही तरह की शिक्षा और परीक्षा से गुजरना होता था। इस प्रकार 1950 तक गन्धर्व संगीत मंडल से जुड़े 50 से भी ज्यादा विद्यालय तत्कालीन लगभग सभी प्रेसीडेंसीज में खोले जा चुके थे। 1946 में इसे सरकार द्वारा सोसाइटी के रूप में रजिस्टर किया गया, जिससे इसकी ख्याति और भी बढ़ गई।



दिल्ली इकाई

दिल्ली के गन्धर्व संगीत महाविद्यालय की स्थापना 1939 में ग्वालियर घराने के संगीतज्ञ पद्म श्री विनयचन्द्र मुद्गल द्वारा की गयी। पहले यह कनॉट प्लेस के प्रेम हाउस में संचालित होता था। इसी की एक शाखा के रूप में यह कमला नगर में दिल्ली विश्वविद्यालय के पास भी संचालित होने लगा। 1972 में इसे इसके वर्तमान स्थान दिल्ली के आईटीओ के पास दीन दयाल उपाध्याय मार्ग पर स्थानांतरित कर दिया गया और कमला नगर वाला केंद्र अलग से चतुरंग संगीत संस्थान के रूप में कार्य करने लगा। आज भी मुद्गल परिवार के मधुप मुद्गल इसके प्रमुख के रूप कार्य करते हैं। दिल्ली का गन्धर्व महाविद्यालय संगीत के क्षेत्र में अपना एक अलग मुकाम रखता है। यह प्रतिवर्ष विष्णु दिगम्बर उत्सव का भी आयोजन करता है।



कोर्सेज

गन्धर्व संगीत मंडल से जुड़े सभी विद्यालयों में संगीत में शिक्षा हेतु संगीत प्रवेशिका (सीनियर सेकेंडरी समकक्ष), संगीत विशारद (स्नातक समकक्ष) और संगीत अलंकार (परास्नातक समकक्ष) जैसे डिप्लोमा और सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम उपलब्ध हैं। इस प्रकार इन सभी पाठ्यक्रमों के माध्यम से आपको संगीत में पारंगत होने के लिए 8 वर्ष का समय देना होता है। गन्धर्व संगीत मंडल के सभी पाठ्यक्रमों को विभिन्न राज्य सरकारों और शिक्षा बोर्डो ने मान्यता प्रदान की हुई है और इस प्रकार आज भी संगीत के विद्यालयों का यह संगठन सम्पूर्ण देश में संगीत की सेवा करते हुए संगीत शिक्षा को उपलब्ध करा रहा है। अब तक लाखों कलाकारों ने यहां प्रशिक्षण लिया है। उन्होंने देश की सांस्कृतिक विरासत की गहरी छाप विश्व पटल पर छोड़ी है। 2007 में मंडल से संबद्ध विद्यालयों में पंजीकृत कुल शिक्षार्थियों की संख्या 1 लाख को भी पार कर गई थी।



प्रशिक्षण व पहुंच

गंधर्व महाविद्यालय में संगीत और नृत्य की इन कुछ शाखाओं का प्रशिक्षण दिया जाता है:

हिन्दुस्तानी संगीत: गायन

हिन्दुस्तानी संगीत (वाद्य यंत्र): सितार, बांसुरी, तबला, हारमोनियम और वायलिन

भारतीय शास्त्रीय नृत्य: कथक, भरतनाट्य़म व ओडिसी

देश भर में महाविद्यालय से संबद्ध 1200 संस्थान और 800 परीक्षा केंद्र हैं।

देश में संगीत शिक्षा के क्षेत्र में गंधर्व महाविद्यालय का स्थान सर्वोपरि है। यहां से प्रशिक्षित कई संगीतकारों ने...

रामविलास का संगीत दर्शन रामविलास का संगीत दर्शन      AnandSun, 09/02/2025 - 11:02रामविलास शर्मा हमारे समय के एक गम्भीर अ...
09/02/2025

रामविलास का संगीत दर्शन रामविलास का संगीत दर्शन

Anand
Sun, 09/02/2025 - 11:02

रामविलास शर्मा हमारे समय के एक गम्भीर अध्येता, मर्मी आलोचक और विचारक रहे हैं। दीर्घ काल तक व्याप्त उनके महत् कार्य का, उसके विभिन्न पक्षों-पहलुओं का ईमानदार मूल्यांकन शायद अब शुरू होगा।



उनके लेखन और उनकी सोच के रूबरू तो छिटपुट ढंग से हिंदी का सामान्य से सामान्य पाठक भी होता रहा है - कभी छायावादी कवि निराला पर उन्हें पढ़ते हुए, तो कभी नयी कविता और अस्तित्ववाद से गुज़रते हुए। वे एक ओर वृन्दावन लाल वर्मा, प्रेमचंद और नागर जी पर लिख रहे थे तो दूसरी ओर बंगला के कृती पुरुषों रवीन्द्र और शरत् पर भी बेहद बेबाक ढंग से सोच रहे थे। अंग्रेज़ी साहित्य के तो मर्मी अध्येता वे थे ही, रूसी लेखकों में लियो तोलस्तोय से लेकर बोरिस पास्तरेनाक के साहित्य की भी व्याख्याएँ कर रहे थे। संस्कृत में वाल्मीकि और भवभूति और कालिदास पर लिख रहे थे दूसरी ओर युनानी त्रासदियों और शेक्सपियर के नाटकों के पात्रों की मूल्य चेतनाओं की पड़ताल करते दिखते थे।



साहित्य तो उनके चिंतन-मनन का केन्द्र था ही - लेकिन भाषाविज्ञान, दर्शन, इतिहास, और कलाएँ भी उनका विषय थी। फिर देश और काल के ओर-छोर तक पसरा उनका यह लेखन साधारण लेखन या एकायामी समीक्षा भर न था। वे कृतियों की दुनिया में अपनी समाज दृष्टि और इतिहास दृष्टि के साथ प्रवेश कर रहे थे, कुछ ऐसे कि साहित्य के पात्रों, उनके भावों, उनके स्वप्नों, शब्दों और तमाम उपकरणों में एक समाज, एक युग एवं दौर की तमाम प्रवृत्तियों का प्रतिबिंब गोचर रूप में उभर आता था।



मार्क्सवाद या फिर द्वन्द्वात्मक ऐतिहासिक भौतिकवाद की मूल चेतनाओं को आत्मसात कर उसे अपने चिंतन-विश्लेषण का आधार बनाकर आगे बढ़ रहे थे - आज तक भी जब बडे़ बडे़ धुरंधर इस सब पर शास्त्रीय बहस-मुवाहिसों में लगे हैं - और वितंडा कर रहे हैं, रामविलास उसे प्रखरता से 'एप्लाई' कर रहे थे। लेकिन ऐसा भी नहीं कि मार्क्सवाद के यथार्थ की मिररिंग वाले सिद्धांत को अपना कर वे सरलीकरण कर रहे थे - वे काफ़ी सतर्क और सावधान विचारक रहे हैं। सामन्त युग की रौशनी में जब वे कालिदास को पढ़ते हैं या कालिदास में सामन्त युग को पढ़ते हैं तो यह भी कहते हैं - ''कालिदास का साहित्य उस काल की समाज व्यवस्था को प्रतिबिंबित करता है, साथ ही उसका बहुत बडा़ भाग उस व्यवस्था से मुक्त होकर एक कल्पनालोक की सृष्टि भी करता है। इसलिए कालिदास में जो कुछ भी मिले, उस सभी को हम उस युग का सामाजिक यथार्थ नहीं मान सकते।''1



इसी तरह वे शेक्सपियर के दुखांत नाटकों के पात्रों ब्रूटस, हैमलेट, क्लौडियस, मैकवेथ, लेडी मैकवेथ, किंग लियर की बेटियाँ और डेस्डीमोना, इआगो नैतिक बोध और द्वन्द्व की व्याख्या कर यूरोप के नवजागरण के अंधेरे उजले कोने उभार देते हैं। और द्वन्द्ववाद और ऐतिहासिकता के दर्शन के आधार पर ही वे सदा चीज़ों में, कलाओं में, प्रघटनाओं में संबंध-सूत्रों की तलाश करते रहे। क्योंकि कोई भी चीज़ नितांत स्वायत्त और कट कर जन्म नहीं लेती। इसीलिए यूरोप के नवजागरण को समग्रता में समझने के लिए वे विभिन्न कलाओं, दर्शनों, विज्ञान एवं अर्थव्यवस्था को जोड़ कर देखा करते हैं। और भारतीय नवजागरण के बारे में कहते थे कि यह अकारण नहीं कि ताजमहल, तुलसी और तानसेन एक ही युग की उपज हैं। वे निरन्तर तुलनाएँ करते, पूर्व और पश्चिम की, वहाँ की कृतियों और व्यक्तियों की, (भरत के साथ प्लेटो अरस्तू) साहित्य एवं संगीत की, दर्शन एवं साहित्य की, लोकभाषाओं और लोकसंगीत की, ... और तब कोई स्थापना रखते।



ऐसे संवेदनशील और जिज्ञासु रामविलास अगर संगीत के इतिहास और नवजागरण से उसके संबंधों के बाबत गैर मामूली स्थापनाएँ करते हैं, तो हैरानी क्यों होनी चाहिए। संगीत ही नहीं उन्होंने नाटक, चित्र से भी गहरा प्रेम किया था। संगीत के प्रति उनका अनुराग इतना ज्यादा था कि वे हर कीमत पर गायन सीखना चाहते थे, वायलिन और तबला भी वे बजाते थे। वे लिखते हैं - ''मैंने तय कर लिया है कि मुझे म्यूज़िक सीखना है, म्यूज़िक उतना ही सुंदर है जितनी कि कविता, शायद उससे भी सुंदर। कविता के आनन्द का चाहे आप वर्णन कर दें ... मुख्य कारणों को भी ढूंढ़ निकालें, पर संगीत का आनन्द केवल हृदय से ही जाना जा सकता है।''2 या ''हर कला का अपना माध्यम होता है। हर कला का अपना स्थापत्य होता है, अपनी चित्रमय व्‍यंजना होती है। संगीत का माध्यम नाद है। नाद ऐसी संवेदनाओं को जगा सकता है, जिन तक अन्य कलाओं की पहँच मुश्किल है।''3



संगीत पर लिखी इस पुस्तक में रामविलास जी के बेटे विजय मोहन शर्मा ने उनके संगीत के निजी संग्रह की भी बानगी प्रस्तुत की है। उसमें हिन्दुस्तानी संगीत के दिग्गज गायकों और वादकों के कैसेट हैं (मल्लिकार्जुन मंसूर, पलुस्कर, उ. फैयाज़ खां, बडे़ गुलाम अली खाँ, भीमसेन जोशी, सिद्धेश्वरी देवी, किशोरी अमोनकर, रविशंकर, बिस्मिल्लाह खां, अलाऊद्दीन खाँ) तो कर्नाटक संगीत की विभूतियाँ भी हैं, शास्त्रीय संगीत के साथ श्मशाद बेगम और मुहम्मद रफ़ी के भी वे प्रेमी थे। पाश्चात्य संगीत की सिम्फनी रचनाओं को भी वे विभोर होकर सुनते थे और सुनते हुए प्रकृति के भू दृश्यों की कल्पना करने लगते थे। उन्हें बारव और मैण्डलसौन जिन्होंने ब्रिटेन के उत्तर में समुद्र तट पर बैठ कर संगीत रचा था, बेहद पसंद थे।



और इसी अनुराग का सहज फल यह था कि न केवल संगीत के अनुभव में वह डूबते, उतराते, भीगते रहे बल्कि वह संगीत के विषय में निरन्तर पढ़ते, सोचते और लिखते रहे। बचपन से लेकर जीवन के अंतिम वर्षों तक संगीत उनके अंग संग रहा। यहाँ तक कि वे संगीत की थरोप्यूटिक भूमिका को भी अपने पर आज़मा रहे थे। उनको निकट से जानने वालों ने यह भी लिखा है कि वे जब संगीत सुनते थे तो बाकी सब काम बंद कर देते थे- सभी इन्द्रियों को साथ ले, मन और आत्मा के संग वे संगीत के लोक में कदम धरते थे।



ऐसे मनस्वी रामविलास जी संगीत के इतिहास की खोज में ॠग्वेद क…

रामविलास शर्मा हमारे समय के एक गम्भीर अध्येता, मर्मी आलोचक और विचारक रहे हैं। दीर्घ काल तक व्याप्त उनके महत् कार्य...

भारत में संगीत-शिक्षण भारत में संगीत-शिक्षणAnandSun, 09/02/2025 - 00:12१८ वीं शताब्दी में घराने एक प्रकार से औपचारिक संग...
09/02/2025

भारत में संगीत-शिक्षण भारत में संगीत-शिक्षण
Anand
Sun, 09/02/2025 - 00:12

१८ वीं शताब्दी में घराने एक प्रकार से औपचारिक संगीत-शिक्षा के केन्द्र थे परन्तु ब्रिटिश शासनकाल का आविर्भाव होने पर घरानों की रूपरेखा कुछ शिथिल होने लगी क्योंकि पाश्चात्य संस्कृति के व्यवस्थापक कला की अपेक्षा वैज्ञानिक प्रगति को अधिक मान्यता देते थे और आध्यात्म की अपेक्षा इस संस्कृति में भौतिकवाद प्रबल था।

भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि के अन्तर्गत कला को जो पवित्रता एवं आस्था का स्थान प्राप्त था तथा जिसे कुछ मुसलमान शासकों ने भी प्रश्रय दिया और संगीत को मनोरंजन का उपकरण मानते हुए भी इसके साधना पक्ष को विस्मृत न करते हुए संगीतज्ञों तथा शास्त्रकारों को राज्य अथवा रियासतों की ओर से सहायता दे कर संगीत के विकासात्मक पक्ष को विस्मृत नहीं किया। परन्तु ब्रिटिश राज्य के व्यस्थापकों ने संगीत कला के प्रति भौतिकवादी दृष्टिकोण अपना कर उसे यद्यपि व्यक्तित्व के विकास का अंग माना परन्तु यह दृष्टिकोण आध्यात्मिकता के धरातल पर स्थित न था। उन्होंने अन्य विषयों के समान ही एक विषय के रूप में ही इसे स्वीकार किया, परन्तु वैज्ञानिक प्रगति की प्रभावशीलता के कारण यह विषय अन्य पाठ्य विषयों के बीच लगभग उपेक्षित ही रहा।

शास्त्रीय संगीत का पुनरुत्त्थान

संगीत के पुनरुत्थान की दृष्टि से इस समय में घरानों की अन्तिम कड़ी के रूप में पं. भारतखण्डे एवं पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर यह दो ऐसे महान संगीतज्ञ हुए जिन्होंने संगीत के पुनरुद्धार के लिए परिश्रम किए और संगीत के आध्यात्मिक धरातल को सुदृढ़ रखते हुए ही उसको सर्वजन सुलभ बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

पं. भातखण्डे जी स्वयं एक शिक्षित व्यक्ति थे जिन्होंने प्रमुख रूप से 'विधि' (law) शिक्षा ग्रहण की थी परन्तु संगीत में विशेष रूचि रखने के कारण उन्होंने संगीत के ग्रन्थों का अध्ययन तथा विशद विश्लेषण करके संगीत को वर्तमान स्थिति के अनुकूल बनाने की दृष्टि से संगीत के कुछ मान्य सिद्धान्तों एवं क्रियात्मक प्रयोगों में परिवर्तन व परिवर्द्धन किए। 'संगीत शास्त्र' (१-४) 'संगीत पद्धतियों का तुलनात्मक अध्ययन', 'उत्तररभारतीय संगीत का इतिहास', 'श्री मल्लक्ष्य संगीतम्', 'क्रमिक पुस्तक मालिका' (१-६) आदि ग्रन्थ लिखकर संगीत को विद्यार्थियों के लिए सुलभ बनाने का प्रयत्न किया। अनेकानेक संगीतज्ञों से मिलकर प्राचीन बन्दिशें एकत्रित करने तथा सरल स्वरलिपि पद्धति का निर्माण कर उन बन्दिशें के संरक्षण प्रदान किया। आप ही ने रागों को दस थाटों में वर्गीकृत करने का सफल प्रयास किया।

इसी प्रकार पं॰ विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने भिन्न-भिन्न स्थानों का भ्रमण करके संगीत का प्रचार एवं प्रसार करते हुए समाज में पुन: संगीत के प्रति सम्मानीय भाव स्थापित किया जो सम्भवत: मध्यकाल एवं उत्तर मध्यकाल की राजनीतिक परिस्थितियों के कारण लुप्त हो चुका था और संगीत साधारण जनता के लिए केवल मात्र विलासिता का उपकरण ही रह गया था। पं॰ विष्णु दिगम्बर ने भी 'संगीत बाल प्रकाश', 'संगीत बाल बोध' आदि पुस्तकें लिखकर विद्यार्थियों के लिए संगीत सामग्री को उपलब्ध कराया तथा स्वतंत्र रूप से एक स्वरलिपि पद्धति का निर्माण करके उसके माध्यम से स्वर व लय के सूक्ष्म विभाजनों को सांकेतिक चिन्हों द्वारा इंगित करने तथा प्राप्त बन्दिशों को संरक्षण प्रदान करने का कार्य किया। इसके अतिरिक्त इन दोनों महान विभूतियों के प्रयत्नों से अनेक संगीत विद्यालय स्थापित किए गए।

संगीत का संस्थागत शिक्षण

१८ वीं शताब्दी का अन्त तथा बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ भारतीय संगीत के पुनरुत्थान का काल माना जाता है। इस समय वह कला जो सभ्य समाज से बहिष्कृत व तिरस्कृत होकर राजा महाराजाओं की विलासपूर्ण मनोरंजन का साधन बन कर रह गई थी। अनुकूल धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक वातावरण से एक अपूर्व चेतना का कारण बनी जिसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण बड़ौदा में स्वर्गीय मौलाबख्श विस्से खां द्वारा १८८६ ई. में प्रस्थापित सर्वप्रथम संगीत विद्यालय था जो बाद में 'बड़ौदा स्टेट म्यूजिक स्कूल' के नाम जाना गया। यह विद्यालय बड़ौदा रियासत की ओर से प्रदान की गई आर्थिक सहायता से संचालित किया जाता था।

सन् १९०१ में लाहौर में की गई 'गान्धर्व महाविद्यालय' की स्थापना संगीत शिक्षा के क्षेत्र में एक क्रान्तिकारी परीक्षण था जिसमें प्राचीन गुरुकुल प्रणाली तथा आधुनिक संस्थागत शिक्षण प्रणाली का अदभुत समन्वय था। इस विद्यालय में निश्चित समय पर आकर सीखने वाले जिज्ञासुओं के अतिरिक्त कुछ ऐसे भी विद्यार्थी थे जो आश्रमवासियों के रूप में रह कर गुरु के साइनध्य में दीर्घकाल तक संगीत की साधना करते थे।

वास्तव में पं विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के समक्ष एक और भारतीय संगीत आध्यात्मिकता थी तो दूसरी ओर तत्कालीन ब्रिटिश सरकार द्वारा स्थापित ईसाई मिशनरी संस्थाओं के रूप में चलाए गए कालेज आदि की व्यवस्था थी जिसमें शिक्षा प्रदान करना एक मानवीय लक्ष्य (mission) था तथा सेवा-भाव की प्रधानता थी, अत: पांच मई १९०१ को लाहौर में 'गान्धर्व महाविद्यालय' की स्थापना इसी उद्देश्य से की गई कि जिस में सात्विक वृत्ति से युक्त संगीत के कलाकार विशुद्ध भारतीय संगीत का शिक्षण मानवीय सेवा भावना (missionary) के उद्देश्य से करे। इसके लिए सुव्यवस्थित अभ्यास क्रम तथा सुसंस्कृति निर्व्यसनी एवं चरित्रवान, कुशल संगीत शिक्षकों का प्रबन्ध भारत के बड़े-बड़े शहरों में स्थापित गान्धर्व महाविद्यालय की अनेक शाखाओं के लिए किया गया। इन शिक्षकों को 'उपदेशक' की संज्ञा दी गई। १९०८ में गान्धर्व महाविद्यालय का ही एक केन्द्र बम्बई में खोला गया। प्रयोगात्मक रूप में यहां विद्यार्थियों के भोजन-वस्त्रादि का प्रबन्ध विद्यालय की ओर से किया। विद्यालय की साफ-सफाई, भोजन प्रबन्ध, सामग्री संचय आदि सभी व्यवस्थाओं का भार विद्यार्थियों पर डाला गया और एक प्रकार से विद्यालयीन वातावरण को गुरूकुल वातावरण के स…

१८ वीं शताब्दी में घराने एक प्रकार से औपचारिक संगीत-शिक्षा के केन्द्र थे परन्तु ब्रिटिश शासनकाल का आविर्भाव होने ....

संत/सन्यासी काशी कथा संत/सन्यासी काशी कथा      AnandSun, 09/02/2025 - 00:12शख्सियत
09/02/2025

संत/सन्यासी काशी कथा संत/सन्यासी काशी कथा

Anand
Sun, 09/02/2025 - 00:12

शख्सियत

Anand Sun, 09/02/2025 - 00:12 संत/सन्यासी संत/सन्यासी रामानंद – (1299-1411) रामानंद जी प्रख्यात वैष्णव संत और आचार्य थे इनका जन्म प्रयाग के ...

भारतीय शास्त्रीय संगीत सबसे अधिक पुराना भारतीय शास्त्रीय संगीत सबसे अधिक पुरानाAnandSun, 09/02/2025 - 00:07प्रख्यात सरोद...
09/02/2025

भारतीय शास्त्रीय संगीत सबसे अधिक पुराना भारतीय शास्त्रीय संगीत सबसे अधिक पुराना
Anand
Sun, 09/02/2025 - 00:07

प्रख्यात सरोद वादक उस्ताद अमजद अली खान के युवा बेटे अमान और अयान अली खान महसूस करते हैं कि भारतीय शास्त्रीय संगीत सबसे अधिक पुराना है।

अमान ने कहा कि, "भारतीय शास्त्रीय संगीत प्राचीन है। ऋग्वेद काल में इस संगीत का उद्भव हुआ है। हमें नहीं लगता कि यह कहना ठीक है कि भारतीय संगीत अन्य प्रकार के संगीत से श्रेष्ठ है। हमारे यहां संगीत और आध्यात्मिकता में बहुत निकट का संबंध है, जो इसे अन्य संस्कृतियों में अनूठा बनाता है।"

सोमवार को खान भाइयों की दूसरी किताब ‘50 मेस्ट्रोज, 50 परफॉर्मेंसेस’ का लोकार्पण हुआ है। राजधानी के ‘द अशोक’ होटल में विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर ने इस किताब का लोकार्पण किया। इस अवसर पर दोनों भाइयों ने संगीत की प्रस्तुति दी। यह किताब 20वीं सदी के भारतीय संगीत के इतिहास को प्रस्तुत करती है।

इसमें बेगम अख्तर, भीमसेन जोशी, इनायत खान, रवि शंकर, बिस्मिल्लाह खान, शिव कुमार शर्मा, सिमानगुड़ी श्रीनिवास अय्यर और एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी जैसे कलाकारों के संबंध में जानकारी दी गई है।

दोनों भाइयों ने कहा की यह किताब भारतीय संगीत के उन श्रेष्ठ संगीतकारों, गायकों के संबंध में चर्चा करती है, जिन्होंने संगीत परम्परा को आकार दिया है। किताब में उन्हें शामिल किया गया है, जिन्होंने दूसरों से अलग काम किया है और जो भारतीय संगीत में आनेवाली नई पीढ़ी का मार्गदर्शन कर सकते हैं।

प्रख्यात सरोद वादक उस्ताद अमजद अली खान के युवा बेटे अमान और अयान अली खान महसूस करते हैं कि भारतीय शास्त्रीय संगीत .....

काशी के संगीतकार काशी के संगीतकार      AnandSun, 09/02/2025 - 00:05काशी के संगीतकारकाशी की अपनी एक विशेषता है। इस विशेषत...
09/02/2025

काशी के संगीतकार काशी के संगीतकार

Anand
Sun, 09/02/2025 - 00:05

काशी के संगीतकार

काशी की अपनी एक विशेषता है। इस विशेषता में संगीत एक महत्वपूर्ण कड़ी रही है। भगवान शिव के ताण्डव नृत्य के अभिव्यक्ति में और उसमें धारण किये हुए डमरू के ध्वनि से संगीत व नृत्य कला का स्रोत माना जा सकता है। संगीत स्थान, समय, भाव व्यक्ति के अन्दर अन्तरर्निहित तरंगों की उच्च अवस्था से संगीत में निहित विभिन्न स्वरूपों की रचना होती है और वो विभिन्न रूपों में भावाभिव्यक्त होता है। काशी में शुरू से ही परम्पराओं के आदान-प्रदान हुए जिसके फलस्वरूप धार्मिक सत्संग, भजन-कीर्तन तथा अनेक विविध प्रकार के कार्यक्रमों के आयोजन होने लगे जिसमें सगीतज्ञों को अपनी कला को निखारने का अवसर प्रदान हुआ। साथ ही काशी और आस-पास के क्षेत्रों के आम लोगों का जीवन व लोक परम्परा, लोक जीवन (धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक) समृद्ध रहा है। जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि निश्चित रूप से संगीत विद्या में संगीतज्ञों को सृजनात्मक रूप देने में सहायक हुआ होगा। काशी में बड़े-बड़े संगीतकारों ने संगीत की सेवा की यहां के संगीत को देश-विदेश में पहचान दिलाई संगीत के शिखर पर पहुँचे संगीतकारों का परिचय –

काशी के राजा बलवंत सिंह ने 1739 से 1770 ई0 तक अपने यहां चतुर बिहारी मिश्र, जगराज दास शुक्ल, कलावंत खां जैसे संगीतकारों को संरक्षण दिया। इन संगीतकारों ने अपनी कला से संगीत को नया आयाम दिया।

पण्डित शिवदास – पण्डित शिवदास एवं प्रयाग जी दोनों भाई संगीत में सिद्धहस्त थे। दोनों भाइयों को महाराजा ईश्वरीनारायण सिंह के दरबार में गायन का संरक्षण मिला था।

पण्डित मिठाई लाल मिश्र – मिठाई लाल मिश्र पण्डित प्रयाग के पुत्र थे। अपने पिता की विरासत यानी संगीत को आगे बढ़ाने में अमूल्य योगदान दिया। इनका गायन तथा वीणा वादन बेहद प्रसिद्ध था। एक बार पंजाब के प्रसिद्ध अली खां व फत्ते अली खां काशी में आये यहां मिठाई लाल मिश्र का गाना सुनकर वे इतने प्रभावित हुए कि तुरन्त उन्हें गले से लगा लिया।

पण्डित जगदीप मिश्र – काशी के ठुमरी सम्राट कहे जाने वाले जगदीप मिश्र की संगीत के क्षेत्र में बहुत ख्याति थी। पण्डित जगदीप मिश्र उस्ताद मौजूद्दीप के गुरू थे। इन्होंने ठुमरी को नया आयाम दिया।

बड़े रामदास – बड़े रामदास (1877-1960) को संगीत की प्रारम्भिक शिक्षा अपने पिता शिव नन्दन मिश्र से प्राप्त हुई। बाद में अपने ससुर धुपदाचार्य पण्डित जयकरण मिश्र के मुख्य शिष्य हुए। बड़े रामदास बंदिशे, बनाने में बेजोड़ थे। ‘मोहन प्यारे’, ‘गोविन्द स्वामीं’ उपनाम से अनेक बंदिशों की रचनायें की। पण्डित बड़े रामदास भारत के प्रमुख संगीतज्ञों में स्थान रखते थे।

छोटे रामदास – पण्डित छोटे रामदास जी कन्हैयालाल के पुत्र थे। इन्होंने अपने नाना पण्डित ठाकुर प्रसाद मिश्र से संगीत की शिक्षा ख्याल टप्पा को सीखा। संगीत की इस विद्या में छोटे रामदास सिद्धहस्त थे। इन्होंने धुपद में नाम अर्जित किया।

पण्डित दरगाही मिश्र – पण्डित दरगाही मिश्र ऐसे कलाकार थे जिनके अन्दर गायन, तंत्रवादन, तबला व नृत्य जैसी विधाओsं का एक साथ समन्वय था।

पण्डित मथुरा जी मिश्र – पण्डित मथुरा जी मिश्र धुपद, ख्याल, टप्पा, ठुमरी के उच्चतम कोटि के कलाकार थे।



काशी में संगीतकारों में बहुत से नाम जो प्रमुख हैं।

भूषत खां

जीवन साह अंगुलीकत प्यारे खां

ठाकुर दयाल मिश्र

निर्मल साह

जफर खां

रबाबी

बासत खां

धुपदिये प्यारे खां

उमराव खां

मोहम्मद अली

शोरी मियां

शिवसहाय

सादिक अली

राआदत अली खा

जाफर खां

प्यारे खां

बासत खां

अली मोहम्मद

मोहम्मद अली वारिस अली

पण्डित मनोहर मिश्र

पण्डित हरि प्रसाद मिश्र

घीरेन बाबू

बेनी माधव भट्ट

दाऊ मिश्र

पं0 चन्द्र मिश्र

हरिशंकर मिश्र

रामप्रसाद मिश्र ‘रामजी’

महादेव मिश्र

गणेश प्रसाद मिश्र

जालपा प्रसाद मिश्र

छोटे मियां

उमा दत्त शर्मा

काशी के संगीतकार

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