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भारतीय संगीत में आध्यात्मिकता स्रोत भारतीय संगीत में आध्यात्मिकता स्रोत      RaagparichayThu, 20/06/2024 - 14:00भारतीय स...
20/06/2024

भारतीय संगीत में आध्यात्मिकता स्रोत भारतीय संगीत में आध्यात्मिकता स्रोत

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Thu, 20/06/2024 - 14:00

भारतीय संगीत मूल रूप में ही आध्यात्मिक संगीत है। भारतीय संगीत को ईश्वर प्राप्ति का मार्ग माना है तो कहीं साक्षात ईश्वर माना गया है। अध्यात्म अर्थात व्यक्ति के मन को ईश्वर में लगाना व व्यक्ति को ईश्वर का साक्षात्कार कराना अध्यात्म कहलाता है संगीत को अध्यात्मिक अभिव्यक्ति का साधन मानकर संगीत की उपासना की गई है। संगीत को ईश्वर उपासना हेतु मन को एकाग्र करने का सबसे सशक्त माध्यम माना गया है। वेदों में उपासना मार्ग अत्यंत सहज तथा ईश्वर से सीधा सम्पर्क स्थापित करने का सरल मार्ग बताया है। संगीत ने भी उपासना मार्ग को अपनाया है।

भारतीय संस्कृति सुजलाम, सुफलाम एवं शस्यश्यामलाम जैसी विशेषताओं से विश्व में प्रसिद्ध है। और आध्यात्मिकता भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी एवं मूल विशेषता है। भारत का इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि आज भारतीय संस्कृति जीवित है। भारतीय संस्कृति आज जीवित है वह आध्यत्मिक भावना और आस्था के कारण है। भारत पर बार-बार आक्रमण होने के कारण भारतीय संस्कृति का ह्रास होने पर भी वह पुनः प्रतिष्ठित और विकसित हुई है। यहां यह कहना आवश्यक होगा कि भारतीय संस्कृति के उत्थान में संगीत ने प्रमुख भूमिका निभाई है।

भारतीय संगीत का उदेश्य मानव की चंचल वृतियों को शांत करना, ईश्वरीय भावना को उन्नत करना, परमानन्द तथा विश्व कल्याण अर्थात सर्वे भवन्तु सुरवीना व वसुधैव कटुम्बकम् की भावना को सृदृढ़ करना है। भारत के ऋषि मुनियों ने संगीत को ईश्वर प्राप्ति का सबसे उत्तम तथा सरल साधन माना है। इसलिए कहा भी गया है :-

वीणा वादन तत्वक्षः श्रुति जाति विशारदः।

तालज्ञश्या प्रयासेन मोक्षमार्गं निगच्छतिः॥

अर्थात : वीणा वादन करने वाला, श्रुति व जाति अर्थात स्वरों को जानने वालो तथा ताल वादन के अभ्यास में प्रयत्नशील व्यक्ति मोक्षमार्ग की ओर बढ़ जाता है।

भारत में आनन्द व परमानन्द की प्राप्ति हेतु संगीत का प्रयोग दार्शनिकों, योगियों ओर भक्तों ने किया है। आम जनता ने भी संगीत को धार्मिक व सामाजिक उत्सवों तथा व्यक्तिगत मनोरंजन का साधन बनाया। लेकिन इन स्तरों में संगीत का लक्ष्य आध्यत्मिकता ही रहा। संगीत गायन वादन व नृत्य का समावेश है। गायन, वादन और नृत्य का प्रधान लक्ष्य है। आत्मसन्तोष, आत्म-आनन्द व परमानन्द की प्राप्ति कराना। संगीत इस चरम आनन्द और पूर्ण पार्थिव अवस्था का अनुभव कराता है। संगीत का ध्येय भव-बाधाओं से मुक्ति, आत्मा का परमात्मा से मिलन, परमशक्ति तथा मोक्ष प्राप्त करना ही मुख्य ध्यये माना गया है। संगीत में ईश्वर से साक्षात्मकार करने की असीम शक्ति है। जिसका अनुभव भारत के ऋषि-मुनियों व योगियों ने किया है।

संगीत मानव की चंचल मनवृतियों को नियंत्रित करता है। संगीत के स्वर व लय मन को एकाग्रत करके इतना अधिक लीन तथा स्थिर कर देते हैं कि हृदय की समस्त चंचल वृतियां शांत होकर, आत्मा को परमात्मा में लीन करा देती है। भारत के गायकों, वादकों और नर्तकों ने संगीत की आत्मा को पहचाना है। जीवन रूपी संगीत ही नाद ब्रह्म व मां सरस्वती की वीणा है। जिसके स्वरों में विश्व के आनन्द की समस्त धाराएं मूर्त रूप ग्रहण करती है। भारतीय संगीत में सात विशिष्ट स्वर हैं। सा, रे, ग, म, प, ध, नि । इन सात स्वरों के विभिन्न प्रकारके समायोजन से विभिन्न रागों के रूप बने और इन रागों के गायन वादन में उत्पन्न विभिन्न ध्वनि तरंगों का परिणाम मानव, पशु, प्रकृति सब पर पड़ता है इसका भी बहुत सूक्ष्म निरीक्षण हमारे यहां किया गया है। ऐसे ही कुछ उदाहरण यहां प्रस्तुत हैं। पहला उदाहरण-

प्रसिद्ध संगीतज्ञ पं0 ओंकार नाथ ठाकुर 1933 में फ्लोरेन्स (इटली) में आयोजित अखिल विश्व संगीत सम्मेलन में भाग लेने गए। उस समय मुसोलिनी वहां का तानाशाह था। उस समय में मुसोलिनी से मुलाकात के समय पंडित जी ने भारतीय रागों के महत्व के बारे में बताया। इस पर मुसोलिनी ने कहा, मुझे कुछ दिनों से नींद नहीं आ रही है। यदि आपके संगीत में कुछ विशेषता हो तो बताइए। इस पर पं0 ओंकार नाथ ठाकुर ने तानपुरा लिया और राग पूरिया गाने लगे। कुछ समय के अंदर मुसोलिनी को प्रगाढ़ निद्रा आ गई। बाद में उसने भारतीय संगीत की भूटि-भूटि प्रशंसा की तथा रॉयल एकेडमी ऑफ म्यूजिक के प्राचार्य को पंडित जी के स्वर एवं लिपि को रिकार्ड़ करने का आदेश दिया। दूसरा उदाहरण - पांंिडचेरी स्थित श्री अरविंद आश्रम में श्रीमां ने एक प्रयोग किया। एक मैदान में दो स्थानों पर एक ही प्रकार के बीच बोये गये तथा उनमें से एक के आगे पॉप म्यूजिक बजाया और दूसरे के आगे भारतीय संगीत।

परन्तु आश्चर्य यह था कि जहां पॉप म्यूजिक बजता था वह पौधा असंतुलित तथा उसके पते कटे फटे थे। जहां भारतीय संगीत बजता था, वह पौधा संतुलित तथा उसके पते पूर्ण आकार के विकसित थे। यह देख कर श्री माँ ने कहा, दोनों संगीतों का प्रभाव मानव के आन्तरिक व्यक्तित्व पर भी उसी प्रकार पड़ता है। जिस प्रकार इन पौधों पर दिखाई देता है। हमारे यहां विभिन्न रागों के गायन व वादन के परिणाम के अनेक उल्लेख प्राचीन काल से मिलते हैं। सुबह, शाम, हर्ष, शोक, उत्साह, करूणा व भिन्न-भिन्न प्रसंगों के भिन्न-भिन्न राग है। अलग अलग रागों का प्रभाव भी अलग-अलग है जैसे :- दीपक राग से दीपक जलना और मेघ मल्हार से वर्षा होना आदि उल्लेख मिलते हैं।

संगीत आत्मा की सात्विक खुराक है। ब्रह्म के परम पवित्र प्रणव नाद ओंकार (ऊँ) की उत्पत्ति सृष्टि के साथ मानी गई है। भारतीय संगीत के सात स्वर न केवल हमारी शारीरिक तंत्रिकाओं को प्रभावित करते हैं , बल्कि पाशविक वृतियों का दमन भी करते हैं और हमारे अन्दर अध्यात्मिक एवं सात्विक विचारों का संचार भी करते है। भारत के योगियों ने सात स्वरों की उत्पति मानव शरीर के सात यौगिक चक्रों से मानी है। जब स्वरों को गाना बजाया जाता है तो स्वरों में जो आन्दोलन अलग-अलग निश्िचत संख्या में हो…

भारतीय संगीत मूल रूप में ही आध्यात्मिक संगीत है। भारतीय संगीत को ईश्वर प्राप्ति का मार्ग माना है तो कहीं साक्षात ई...

मणिपुर क्षेत्र से आया शास्‍त्रीय नृत्‍य मणिपुरी नृत्‍य है मणिपुर क्षेत्र से आया शास्‍त्रीय नृत्‍य मणिपुरी नृत्‍य है     ...
20/06/2024

मणिपुर क्षेत्र से आया शास्‍त्रीय नृत्‍य मणिपुरी नृत्‍य है मणिपुर क्षेत्र से आया शास्‍त्रीय नृत्‍य मणिपुरी नृत्‍य है

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Thu, 20/06/2024 - 13:49

पूर्वोत्तर के मणिपुर क्षेत्र से आया शास्‍त्रीय नृत्‍य मणिपुरी नृत्‍य है।

* मणिपुरी नृत्‍य भारत के अन्‍य नृत्‍य रूपों से भिन्‍न है।

* इसमें शरीर धीमी गति से चलता है, सांकेतिक भव्‍यता और मनमोहक गति से भुजाएँ अंगुलियों तक प्रवाहित होती हैं।

* यह नृत्‍य रूप 18वीं शताब्‍दी में वैष्‍णव सम्‍प्रदाय के साथ विकसित हुआ जो इसके शुरूआती रीति रिवाज और जादुई नृत्‍य रूपों में से बना है।

* विष्‍णु पुराण, भागवत पुराण तथा गीत गोविंदम की रचनाओं से आई विषयवस्तुएँ इसमें प्रमुख रूप से उपयोग की जाती हैं।

* मणिपुर की मेइटी जनजाति की दंत कथाओं के अनुसार जब ईश्‍वर ने पृथ्‍वी का सृजन किया तब यह एक पिंड के समान थी।

* सात लैनूराह ने इस नव निर्मित गोलार्ध पर नृत्‍य किया, अपने पैरों से इसे मजबूत और चिकना बनाने के लिए इसे कोमलता से दबाया।

* यह मेइटी जागोई का उद्भव है।

* आज के समय तक जब मणिपुरी लोग नृत्‍य करते हैं वे कदम तेजी से नहीं रखते बल्कि अपने पैरों को भूमि पर कोमलता और मृदुता के साथ रखते हैं।

* मूल भ्रांति और कहानियाँ अभी भी मेइटी के पुजारियों या माइबिस द्वारा माइबी के रूप में सुनाई जाती हैं जो मणिपुरी की जड़ हैं।

* महिला "रास" नृत्‍य राधा कृष्‍ण की विषयवस्‍तु पर आधारित है जो बेले तथा एकल नृत्‍य का रूप है।

* पुरुष "संकीर्तन" नृत्‍य मणिपुरी ढोलक की ताल पर पूरी शक्ति के साथ किया जाता है

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जनजातीय और लोक संगीत जनजातीय और लोक संगीत      RaagparichayThu, 20/06/2024 - 13:48जनजातीय और लोक संगीत उस तरीके से नहीं ...
20/06/2024

जनजातीय और लोक संगीत जनजातीय और लोक संगीत

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Thu, 20/06/2024 - 13:48

जनजातीय और लोक संगीत उस तरीके से नहीं सिखाया जाता है जिस तरीके से भारतीय शास्‍त्रीय संगीत सिखाया जाता है । प्रशिक्षण की कोई औपचारिक अवधि नहीं है। छात्र अपना पूरा जीवन संगीत सीखने में अर्पित करने में समर्थ होते हैं । ग्रामीण जीवन का अर्थशास्‍त्र इस प्रकार की बात के लिए अनुमति नहीं देता । संगीत अभ्‍यासकर्ताओं को शिकार करने, कृषि अथवा अपने चुने हुए किसी भी प्रकार का जीविका उपार्जन कार्य करने की इजाजत है।

गावों में संगीत बाल्‍यावस्‍था से ही सीखा जाता है और इसे अनेक सार्वजनिक कार्यकलापों में समाहित किया जाता है जिससे ग्रामवासियों को अभ्‍यास करने और अपनी दक्षताओं को बढ़ाने में सहायता मिलती है ।

संगीत जीवन के अनेक पहलुओं से बना एक संघटक है, जैसे विवाह, सगाई एवं जन्‍मोत्‍सव आदि अवसरों के लिए अनेक गीत हैं । पौधरोपण और फसल कटाई पर भी बहुत से गीत हैं । इन कार्यकलापों में ग्रामवासी अपनी आशाओं और आंकाक्षाओं के गीत गाते हैं ।

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कथक नृत्य― उत्तर भारत कथक नृत्य― उत्तर भारत      RaagparichayThu, 20/06/2024 - 13:47कथक का नृत्‍य रूप 100 से अधिक घुंघरु...
20/06/2024

कथक नृत्य― उत्तर भारत कथक नृत्य― उत्तर भारत

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Thu, 20/06/2024 - 13:47

कथक का नृत्‍य रूप 100 से अधिक घुंघरु‍ओं को पैरों में बांध कर तालबद्ध पदचाप, विहंगम चक्‍कर द्वारा पहचाना जाता है और हिन्‍दु धार्मिक कथाओं के अलावा पर्शियन और उर्दू कविता से ली गई विषयवस्‍तुओं का नाटकीय प्रस्‍तुतीकरण किया जाता है।

* कथक का जन्‍म उत्तर में हुआ किन्‍तु पर्शियन और मुस्लिम प्रभाव से यह मंदिर की रीति से दरबारी मनोरंजन तक पहुंच गया।

* इस नृत्‍य परम्‍परा के दो प्रमुख घराने हैं, इन दोनों को उत्तर भारत के शहरों के नाम पर नाम दिया गया है और इनमें से दोनों ही क्षेत्रीय राजाओं के संरक्षण में विस्‍तारित हुआ - लखनऊ घराना और जयपुरघराना।

* वर्तमान समय का कथक सीधे पैरों से किया जाता है और पैरों में पहने हुए घुंघरुओं को नियंत्रित किया जाता है।

* कथक में एक उत्तेजना और मनोरंजन की विशेषता है जो इसमें शामिल पद ताल और तेजी से चक्‍कर लेने की प्रथा के कारण है जो इसमें प्रभावी स्‍थान रखती है तथा इस शैली की सबसे अधिक महत्‍वपूर्ण विशेषता है।

* इन नृत्‍यों की वेशभूषा और विषयवस्‍तु मुग़ल लघु तस्‍वीरों के समान है। जबकि यह नाट्य शास्‍त्र के समान नहीं हैं फिर भी कथक के सिद्धांत अनिवार्यत: इसके समान ही हैं।

* यहाँ हस्‍त मुद्राओं के भरत नाट्यम में दिए जाने वाले बल की तुलना में पद ताल पर अधिक ज़ोर दिया जाता है।

* बिरजू महाराज इसी नृय से जुड़े हुए है

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भारतीय शास्‍त्रीय नृत्‍य भारतीय शास्‍त्रीय नृत्‍य      RaagparichayThu, 20/06/2024 - 13:45साहित्‍य में पहला संदर्भ वेदों...
20/06/2024

भारतीय शास्‍त्रीय नृत्‍य भारतीय शास्‍त्रीय नृत्‍य

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Thu, 20/06/2024 - 13:45

साहित्‍य में पहला संदर्भ वेदों से मिलता है, जहां नृत्‍य व संगीत का उदगम है । नृत्‍य का एक ज्‍यादा संयोजित इतिहास महाकाव्‍यों, अनेक पुराण, कवित्‍व साहित्‍य तथा नाटकों का समृद्ध कोष, जो संस्‍कृत में काव्‍य और नाटक के रूप में जाने जाते हैं, से पुनर्निर्मित किया जा सकता है । शास्‍त्रीय संस्‍कृत नाटक (ड्रामा) का विकास एक वर्णित विकास है, जो मुखरित शब्‍द, मुद्राओं और आकृति, ऐतिहासिक वर्णन, संगीत तथा शैलीगत गतिविधि का एक सम्मिश्रण है । यहां 12वीं सदी से 19वीं सदी तक अनेक प्रादेशिक रूप हैं, जिन्‍हें संगीतात्‍मक खेल या संगीत-नाटक कहा जाता है । संगीतात्‍मक खेलों में से वर्तमान शास्‍त्रीय नृत्‍य-रूपों का उदय हुआ ।

प्राचीन शोध-निबंधों के अनुसार नृत्‍य में तीन पहलुओं पर विचार किया जाता है- नाटय, नत्‍य और नृत्‍त । नाटय में नाटकीय तत्‍व पर प्रकाश डाला जाता है । कथकली नृत्‍य–नाटक रूप के अतिरिक्‍त आज अधिकांश नृत्‍य-रूपों में इस पहलू को व्‍यवहार में कम लाया जाता है । नृत्‍य मौलिक अभिव्‍यक्ति है और यह विशेष रूप से एक विषय या विचार का प्रतिपादन करने के लिए प्रस्‍तुत किया जाता है । नृत्‍त दूसरे रूप से शुद्ध नृत्‍य है, जहां शरीर की गतिविधियां न तो किसी भाव का वर्णन करती हैं, और न ही वे किसी अर्थ को प्रतिपादित करती हैं । नृत्‍य और नाटय को प्रभावकारी ढंग से प्रस्‍तुत करने के लिए एक नर्तकी को नवरसों का संचार करने में प्रवीण होना चाहिए । यह निवरस हैं- श्रृंगार, हास्‍य, करूणा, वीर, रौद्र, भय, वीभत्‍स, अदभुत और शांत ।



भारत में नृत्‍य की जड़ें प्राचीन परंपराओं में है। इस विशाल उपमहाद्वीप में नृत्‍यों की विभिन्‍न विधाओं ने जन्‍म लिया है। प्रत्‍येक विधा ने विशिष्‍ट समय व वातावरण के प्रभाव से आकार लिया है। राष्‍ट्र शास्‍त्रीय नृत्‍य की कई विधाओं को पेश करता है, जिनमें से प्रत्‍येक का संबंध देश के विभिन्‍न भागों से है। प्रत्‍येक विधा किसी विशिष्‍ट क्षेत्र अथवा व्‍यक्तियों के समूह के लोकाचार का प्रतिनिधित्‍व करती है। भारत के कुछ प्रसिद्ध शास्‍त्रीय नृत्‍य हैं

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कथकली-केरल कथकली-केरलRaagparichayFri, 31/05/2024 - 15:03* मुखौटा नृत्य इसी से सम्बंधित है ,( केवल पुरुष कलाकारों द्वारा)...
31/05/2024

कथकली-केरल कथकली-केरल
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Fri, 31/05/2024 - 15:03

* मुखौटा नृत्य इसी से सम्बंधित है ,( केवल पुरुष कलाकारों द्वारा)

* केरल के दक्षिण - पश्चिमी राज्‍य का एक समृद्ध और फलने फूलने वाला नृत्‍य कथकली यहां की परम्‍परा है।

* कथकली का अर्थ है एक कथा का नाटक या एक नृत्‍य नाटिका।

* कथा का अर्थ है कहानी, यहां अभिनेता रामायण और महाभारत के महाग्रंथों और पुराणों से लिए गए चरित्रों को अभिनय करते हैं।

* कथकली अभिनय, 'नृत्य' (नाच) और 'गीता' (संगीत) तीन कलाओं से मिलकर बनी एक संपूर्ण कला है।

* यह एक मूकाभिनय है, जिसमें अभिनेता बोलता एवं गाता नहीं है, लेकिन बेहद संवेदनशील माध्यमों जैसे- हाथ के इशारे और चेहरे की भावनाओं के सहारे अपनी भावनाओं की सुगम अभिव्यक्ति देता है।

* कथकली नाटकीय और नृत्य कला दोनों है। परंतु मुख्य तौर पर यह नाटक है। यह साधारण नाटकीय कला से कहीं ज्यादा अच्छा प्रस्तुतीकरण है।

* यह यथार्थवादी कला नहीं है, लेकिन अपनी कल्पनाशीलता के चलते यह 'भरत नाट्यशास्त्र' के समानांनतर है।

* इसमें ऑर्केस्ट्रा दो मुखर संगीतकारों द्वारा बनाया जाता है, इनमें से एक 'चेंगला' नामक यंत्र के साथ गीत की तैयारी करता है और दूसरा 'झांझ' और 'मंजीरा' के साथ मिलकर 'इलाथम' नामक जोड़ी की रचना करता है, जिसमें चेन्दा और मदालम भी प्रमुख स्थान रखते हैं।

* 'चेन्दा' एक बेलनाकार ढोल होता है, जो उंची लेकिन मीठी आवाज निकालता है, जबकि 'मदालम' मृदंग का बडा रूप होता है।

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* मुखौटा नृत्य इसी से सम्बंधित है ,( केवल पुरुष कलाकारों द्वारा) * केरल के दक्षिण - पश्चिमी राज्‍य का एक समृद्ध और फलने ...

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29/05/2024

भारत के शास्त्रीय व लोक नृत्य भारत के शास्त्रीय व लोक नृत्य

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Tue, 28/05/2024 - 16:21

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भारत के नृत्य भारत के नृत्यRaagparichayTue, 28/05/2024 - 16:20नृत्य का इतिहास, मानव इतिहास जितना ही पुराना है। इसका का प...
29/05/2024

भारत के नृत्य भारत के नृत्य
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Tue, 28/05/2024 - 16:20

नृत्य का इतिहास, मानव इतिहास जितना ही पुराना है। इसका का प्राचीनतम ग्रंथ भरत मुनि का नाट्यशास्त्र है। लेकिन इसके उल्लेख वेदों में भी मिलते हैं, जिससे पता चलता है कि प्रागैतिहासिक काल में नृत्य की खोज हो चुकी थी। इस काल में मानव जंगलों में स्वतंत्र विचरता था। धीरे-धीरे उसने समूह में पानी के स्रोतों और शिकार बहुल क्षेत्र में टिक कर रहना आरंभ किया- उस समय उसकी सर्वप्रथम समस्या भोजन की होती थी- जिसकी पूर्ति के बाद वह हर्षोल्लास के साथ उछल कूद कर आग के चारों ओर नृत्य किया करते थे। ये मानव विपदाओं से भयभीत हो जाते थे- जिनके निराकरण हेतु इन्होंने किसी अदृश्य दैविक शक्ति का अनुमान लगाया होगा तथा उसे प्रसन्न करने हेतु अनेकों उपायों का सहारा लिया- इन उपायों में से मानव ने नृत्य को अराधना का प्रमुख साधन बनाया।

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नृत्य का इतिहास, मानव इतिहास जितना ही पुराना है। इसका का प्राचीनतम ग्रंथ भरत मुनि का नाट्यशास्त्र है। लेकिन इसके उ...

भरतनाट्यम् ― तमिलनाडु भरतनाट्यम् ― तमिलनाडुRaagparichayTue, 28/05/2024 - 16:20भरत नाट्यम, भारत के प्रसिद्ध नृत्‍यों में ...
28/05/2024

भरतनाट्यम् ― तमिलनाडु भरतनाट्यम् ― तमिलनाडु
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Tue, 28/05/2024 - 16:20

भरत नाट्यम, भारत के प्रसिद्ध नृत्‍यों में से एक है तथा इसका संबंध दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्‍य से है

* भरत नाट्यम में नृत्‍य के तीन मूलभूत तत्‍वों को कुशलतापूर्वक शामिल किया गया है।

* ये हैं भाव अथवा मन:स्थिति, राग अथवा संगीत और स्‍वरमार्धुय और ताल अथवा काल समंजन।

* भरत नाट्यम की तकनीक में, हाथ, पैर, मुख, व शरीर संचालन के समन्‍वयन के 64 सिद्धांत हैं, जिनका निष्‍पादन नृत्‍य पाठ्यक्रम के साथ किया जाता है।

* भरत नाट्यम तुलनात्‍मक रूप से नया नाम है। पहले इसे सादिर, दासी अट्टम और तन्‍जावूरनाट्यम के नामों से जाना जाता था। * भरतनाट्यम् के कुछ प्रमुख कलाकार- लीला सैमसन, मृणालिनी साराभाई इनका अभी निधन हुआ है विगत में इसका अभ्‍यास व प्रदर्शन नृत्‍यांगनाओं के एक वर्ग जिन्‍‍हें 'देवदासी' के रूप में जाना जाता है, द्वारा मंदिरों में किया जाता था।

* भरत नाट्यम के नृत्‍यकार मुख्‍यत: महिलाएं हैं, वे मूर्तियों के अनुसार अपनी मुद्राएं बनाती हैं, सदैव घुटने मोड़ कर नृत्‍य करती हैं।

* यह नितांत परिशुद्ध शैली है, जिसमें मनोदशा व अभिव्‍यंजना संप्रेषित करने के लिए हस्‍त संचालन का विशाल रंगपटल प्रयोग किया जाता है।

* भरत नाट्यम अनुनादी है तथा इसमें नर्तक को बहुत मेहनत करनी पड़ती है

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भरतनाट्यम सॉन्ग

भरतनाट्यम किस राज्य का प्रमुख शास्त्रीय नृत्य है भरतनाट्यम डांस

नृत्य

भरत नाट्यम, भारत के प्रसिद्ध नृत्‍यों में से एक है तथा इसका संबंध दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्‍य से है * भरत नाट्यम .....

राग रागिनी पद्धति राग रागिनी पद्धति      RaagparichayTue, 28/05/2024 - 16:18रागों के वर्गीकरण की यह परंपरागत पद्धति है। ...
28/05/2024

राग रागिनी पद्धति राग रागिनी पद्धति

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Tue, 28/05/2024 - 16:18

रागों के वर्गीकरण की यह परंपरागत पद्धति है। १९वीं सदी तक रागों का वर्गीकरण इसी पद्धति के अनुसार किया जाता था। हर एक राग का परिवार होता था। सब छः राग ही मानते थे, पर अनेक मतों के अनुसार उनके नामों में अन्तर होता था। इस पद्धति को मानने वालों के चार मत थे।

शिव मत

इसके अनुसार छः राग माने जाते थे। प्रत्येक की छः-छः रागिनियाँ तथा आठ पुत्र मानते थे। इस मत में मान्य छः राग-

1. राग भैरव, 2. राग श्री, 3. राग मेघ, 4. राग बसंत, 5. राग पंचम, 6. राग नट नारायण।

कल्लिनाथ मत

इसके अनुसार भी छः राग माने जाते थे। प्रत्येक मत की छः-छः रागिनियाँ तथा आठ पुत्र माने जाते थे। इस मत के अनुसार भी वही छः राग माने गए हैं जो ?शिव मत" के हैं, पर रागिनियाँ व पुत्र-रागों में अन्तर है।

भरत मत

इस मत के अनुसार भी छः राग ही माने जाते थे। प्रत्येक की पाँच-पाँच रागिनियाँ आठ पुत्र-राग तथा आठ वधू मानी जाती थीं। इस मत में मान्य छः राग निम्नलिखित हैं-

1. राग भैरव, 2. राग मालकोश, 3. राग मेघ,

4. राग दीपक, 5. राग श्री, 6. राग हिंडोल

हनुमान मत

इस मत के अनुसार भी वही छः राग माने जाते थे जो ?भरत मत" के हैं, परन्तु इनकी रागिनियाँ पुत्र-रागों तथा पुत्र-वधुओं में अन्तर है।

ये चारों पद्धति बहुत समय तक चलती रही। 1813ई. में इसकी आलोचना होने लगी और आगे चलकर पं॰ भातखंडे जी ने थाट राग पद्धति का प्रचार व प्रसार किया।

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राग वर्गीकरण

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राग सूची

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रागों के वर्गीकरण की यह परंपरागत पद्धति है। १९वीं सदी तक रागों का वर्गीकरण इसी पद्धति के अनुसार किया जाता था। हर ए.....

ऊँची आवाज़ ख़तरनाक भी हो सकती है ऊँची आवाज़ ख़तरनाक भी हो सकती हैRaagparichayTue, 28/05/2024 - 15:51ऊँची आवाज़ में संगीत...
28/05/2024

ऊँची आवाज़ ख़तरनाक भी हो सकती है ऊँची आवाज़ ख़तरनाक भी हो सकती है
Raagparichay
Tue, 28/05/2024 - 15:51

ऊँची आवाज़ में संगीत सुनने से केवल आपके कानों को ही नुक़सान नहीं होता बल्कि इसके कुछ और भी ख़तरे हैं.

वैज्ञानिकों का कहना है कि ऊँची आवाज़ में संगीत सुनने से फेफड़े भी बेकार हो सकते हैं.

श्वास प्रणाली की विशेष स्वास्थ्य पत्रिका थोरेक्स में के ताज़ा अंक में ऐसे चार मामलों के बारे में लिखा गया है जिनमें संगीत प्रेमियों को न्यूमोथोरैक्स नाम की एक बीमारी हुई है.

एक व्यक्ति कार चला रहा था जब उसे न्यूमोथोरैक्स का अनुभव हो हुआ. यह अनुभव था साँस लेने में तकलीफ़ और सीने में दर्द.

डॉक्टरों ने उसे उस व्यक्ति की कार में लगे एक हज़ार वॉट के ‘बॉस बॉक्स’ स्टीरियो सिस्टम से जुड़ा पाया.

न्यूमोथोरैक्स तब होता है जब फेफड़ों की दीवार में छोटे-छोटे छेद होने से फेफड़ों और उसको ढकने वाली एक झिल्ली के बीच हवा घुस जाती है

माना जाता है कि बहुत ऊँची आवाज़ से जो तंरगे निकलती हैं वो फेफड़ों को भेद देती हैं क्योंकि हवा और ऊतक पर ध्वनि का अलग-अलग तरह से असर होता है.

आवाज़ भी बीमारी जैसी

फेफड़ों को नुक़सान होने के कुछ अन्य भी कारण होते हैं, जैसे धूम्रपान, लंबी बीमारी से आई कमज़ोरी, फेफड़ों के अन्य संक्रमण या ऐसी दवाओं का उपयोग जो चेतना पर असर डालती हैं जैसे नींद की दवाएँ और शराब.

और कुछ ऐसे मामले देखे गए हैं जिनमें ज़रूरी अंगों को ऑक्सीजन इतनी कम हो जाती है कि मरीज़ की जान को ख़तरा हो सकता है.

न्यूमोथोरैक्स के इलाज में सीने में एक नली डाल कर हवा निकाली जाती है.

थोरैक्स में एक और मामले की जानकारी देते हुए बताया गया है कि एक 25 साल के सिगरेट पीने वाले व्यक्ति को एक क्लब में एक लाउड स्पीकर के बगल में खड़े होने पर सीने में तीखा दर्द महसूस हुआ.

एक तीसरे व्यक्ति के फेफड़े उस समय बैठ गए जब वो एक पॉप संगीत समारोह में लाउड स्पीकरों के बगल में चुपचाप खड़ा हुआ था.

ब्रिटेन में ब्रिस्टल के साउथमीड अस्पताल के डॉ जॉन हार्वी ने थोरैक्स की अपनी रिपोर्ट में कहा है, “मुझे नहीं लगता कि इसके बाद लोग ऊँचे संगीत वाले क्लबों में जाना बंद कर देंगे लेकिन कम से कम लाउडस्पीकर के बगल में तो खड़े नहीं होंगे और कार में बास बॉक्स नहीं लगाएंगे.”

उन्होंने कहा, “यह स्थिति पुरूषों में महिलाओं के मुक़ाबले तीन गुना ज़्यादा देखी गई है.”

डॉ हार्वी मानते हैं कि इस रिपोर्ट के बाद शायद और ज़्यादा डॉक्टर इस ख़तरे से मरीज़ों को आगाह कर पाएंगे.

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ध्वनि विशेष को नाद कहते हैं ध्वनि विशेष को नाद कहते हैंRaagparichayTue, 28/05/2024 - 15:50ध्वनि, झरनों की झरझर, पक्षियों...
28/05/2024

ध्वनि विशेष को नाद कहते हैं ध्वनि विशेष को नाद कहते हैं
Raagparichay
Tue, 28/05/2024 - 15:50

ध्वनि, झरनों की झरझर, पक्षियों का कूजन किसने नहीं सुना है। प्रकृति प्रदत्त जो नाद लहरी उत्पन्न होती है, वह अनहद नाद का स्वरूप है जो कि प्रकृति की स्वाभाविक प्रक्रिया है। लेकिन जो नाद स्वर लहरी, दो वस्तुओं के परस्पर घर्षण से अथवा टकराने से पैदा होती है उसे लौकिक नाद कहते हैं।

वातावरण पर अपने नाद को बिखेरने के लिये, बाह्य हवा पर कंठ के अँदर से उत्पन्न होने वाली वजनदार हवा जब परस्पर टकराती है, उसी समय कंठ स्थित 'स्वर तंतु' (Vocal Cords) नाद पैदा करते हैं। अत: मानव प्राणी द्वारा निर्मित आवाज लौकिक है।



एक उपनिषद् का नाम है 'नाद बिंदु' उपनिषद। जिसमें बहुत से श्लोक इस नाद पर आधारित हैं। नाद क्या है, नाद कैसे चलता है, नाद के सुनने का क्या लाभ है, इन सब की चर्चा इसमें की गई है। नाद को जब आप करते हो तो यह है इसकी पहली अवस्था। सधने पर : ॐ के उच्चारण का अभ्यास करते-करते एक समय ऐसा आता है जबकि उच्चारण करने की आवश्यकता नहीं होती आप सिर्फ आँखें और कानों को बंद करके भीतर उसे सुनें और वह ध्वनि सुनाई देने लगेगी। भीतर प्रारंभ में वह बहुत ही सूक्ष्म सुनाई देगी फिर बढ़ती जाएगी। साधु-संत कहते हैं

नाद का शाब्दिक अर्थ है -१. शब्द, ध्वनि, आवाज। संगीत के आचार्यों के अनुसार आकाशस्थ अग्नि और मरुत् के संयोग सेनाद की उत्पत्ति हुई है। जहाँ प्राण (वायु) की स्थिति रहती है उसे ब्रह्मग्रंथि कहते हैं। संगीतदर्पण में लिखा है कि आत्मा के द्वरा प्रेरित होकर चित्त देहज अग्नि पर आघात करता है और अग्नि ब्रह्मग्रंधिकत प्राण को प्रेरित करती है। अग्नि द्वारा प्रेरित प्राण फिर ऊपर चढ़ने लगता है। नाभि में पहुँचकर वह अति सूक्ष्म हृदय में सूक्ष्म, गलदेश में पुष्ट, शीर्ष में अपुष्ट और मुख में ...

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नाद के कितने प्रकार हैं

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रागदारी: शास्त्रीय संगीत में घरानों का मतलब रागदारी: शास्त्रीय संगीत में घरानों का मतलब      RaagparichayTue, 28/05/2024...
28/05/2024

रागदारी: शास्त्रीय संगीत में घरानों का मतलब रागदारी: शास्त्रीय संगीत में घरानों का मतलब

Raagparichay
Tue, 28/05/2024 - 16:17

शास्त्रीय संगीत में घरानों की परंपरा बड़ी पुरानी है. आपने जब भी किसी शास्त्रीय कलाकार का नाम सुना होगा ज्यादातर मौकों पर उसके साथ एक घराने का नाम भी सुना होगा. घराना शब्द हिंदी के घर और संस्कृत के गृह शब्द से बना है. क्या आपने कभी सोचा कि इन घरानों का मतलब क्या है? दरअसल इस सवाल का जवाब बहुत आसान है. घराने से सीधा मतलब है एक विशेष किस्म की गायकी.

भारतीय शास्त्रीय संगीत में तमाम घराने हुए हैं. हर घराने में थोड़ा बहुत फर्क है. ये फर्क गायकी के अंदाज से लेकर बंदिशों तक में दिखाई और सुनाई देता है. |

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बंदिश का अर्थ

शास्त्रीय संगीत में बंदिशों का महत्व

बंदिशें का अर्थ

राग

शास्त्रीय संगीत में घरानों की परंपरा बड़ी पुरानी है. आपने जब भी किसी शास्त्रीय कलाकार का नाम सुना होगा ज्यादातर मौ...

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