मुक्तिकामी छात्रों युवाओं का आह्वान

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‘आह्वान’ विपर्यय के इस कठिन अँधेरे दौर में क्रान्ति के नये संस्करण की तैयारी के लिए युवा वर्ग का आह्वान करता है। यह एक नूतन क्रान्तिकारी नवजागरण और प्रबोधन का शंखनाद करता है। यह नयी क्रान्ति की नेतृत्वकारी शक्ति के निर्माण के लिए, उसकी मार्गदर्शक वैज्ञानिक जीवनदृष्टि और इतिहासबोध की समझ कायम करने के लिए और भारतीय क्रान्ति के रास्ते की सही समझदारी कायम करने के उद्देश्य से विचार-विनिमय और बहस-मुबाहसे के लिए आम जनता के विवेकशील बहादुर युवा सपूतों को आमन्त्रित करता है

📮___________________📮*षड्यंत्र सिद्धान्तों (कॉन्सपिरेसी थियरीज़) के पैदा होने और लोगों के बीच उनके फैलने का भौतिक आधार क...
17/05/2024

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*षड्यंत्र सिद्धान्तों (कॉन्सपिरेसी थियरीज़) के पैदा होने और लोगों के बीच उनके फैलने का भौतिक आधार क्या है*
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✍️ शिशिर
🖥 https://ahwanmag.com/archives/7654
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जब भी समाज किसी संकट से गुज़रता है तो षड्यंत्र सिद्धान्तों की बाढ़-सी आ जाती है। नयी सहस्राब्दी की शुरुआत उस संकट के अभूतपूर्व रूप से गहराने के साथ हुई, जोकि 1970 के दशक से ही जारी था। 2008 में वैश्विक आर्थिक संकट के साथ यह लम्बी महामन्दी एक ऐसे मुक़ाम पर पहुँच गयी, जोकि 1930 के दशक की महामन्दी के बाद सबसे गम्भीर संकट साबित हुई। कुछ मामलों में यह संकट 1930 की महामन्दी से ज़्यादा ढाँचागत और गम्भीर था क्योंकि पूँजीवाद लम्बे समय से किसी समृद्धि (बूम) के दौर का साक्षी नहीं बना था और युद्ध जैसी किसी घटना के ज़रिये बड़े पैमाने पर उत्पादक शक्तियों के विनाश के बिना इस संकट से उबरने के कोई आसार भी नहीं दिख रहे हैं। लेकिन आज के समय में ऐसे बहुत सारे राजनीतिक व सामरिक कारक हैं जो किसी विश्वयुद्ध या किसी बड़े महाद्वीपीय युद्ध को बेहद मुश्किल बना देते हैं। ऐसे में मुनाफ़े के संकट से तात्कालिक तौर पर निजात पाने का भी केवल एक ही रास्ता बचता है: मज़दूरों व मेहनतकशों के शोषण को उनकी औसत मज़दूरी/वेतन को कम करना, शोषण की दर को बढ़ाना और उनसे हर प्रकार के श्रम व जनवादी अधिकार छीनना। लेकिन यह ऐसे क़दम हैं जो समाज में राजनीतिक व सामाजिक संकट को जन्म देते हैं। ऐसे में शासक वर्गों को यह ज़रूरत होती है कि धुर प्रतिक्रियावादी, दक्षिणपंथी व फासीवादी ताक़तें सत्ता में हों ताकि प्रतिरोध के हर स्वर को कुचला जा सके। 2008 के बाद से ही पूरी दुनिया में अलग-अलग देशों में धुर दक्षिणपंथी व फासीवादी ताक़तों का उभार कोई संयोग नहीं था, बल्कि इसी महामन्दी के सामाजिक व राजनीतिक संकट में तब्दील होने का नतीजा था।

इसी दौर में, जबकि जनसंघर्षों को प्रतिक्रियावादी सत्ताओं द्वारा कुचला जा रहा है, नये-नये दमनकारी क़ानून बनाए जा रहे हैं, पर्यावरणीय विनाश अपने आपको भयंकरतम रूपों में पेश कर रहा है, दुनिया कोरोना महामारी के रूप में एक ऐसे स्वास्थ्य संकट का सामना कर रही है, जोकि मौजूदा मुनाफ़ाख़ोर व्यवस्था ने ही अपनी सहज गति से पैदा किया है, बेरोज़गारी और ग़रीबी नये रिकॉर्ड तोड़ रही है और सामाजिक व आर्थिक अनिश्चितता अपने चरम पर है; तो हम षड्यंत्र सिद्धान्तों के उभार को भी देख रहे हैं। ऐसे समय में जब लोगों को लगता है कि वे अपने सामाजिक व आर्थिक अस्तित्व के तमाम पहलुओं पर नियंत्रण खो चुके हैं या खोते जा रहे हैं, उसी समय ऐसे सिद्धान्त पैदा होते हैं। इसके स्पष्ट प्रमाण मौजूद हैं कि नयी सहस्राब्दी की शुरुआत और विशेष तौर पर 2007-8 के बाद से षड्यंत्र सिद्धान्त के मशरूम बड़े पैमाने पर उग रहे हैं। कई अध्ययन इस बात को दिखला चुके हैं।

*षड्यंत्र सिद्धान्तों का भौतिक आधार क्या है?*

कई लोग षड्यंत्र सिद्धान्तों को केवल कुछ व्यक्तियों की मूर्खता का नतीजा मानते हैं। यह सच है कि षड्यंत्र सिद्धान्त मूर्खता से पैदा होते हैं। लेकिन इस मूर्खता का भी एक वर्ग चरित्र और भौतिक आधार होता है।

ये षड्यंत्र सिद्धान्त हार, निराशा, विपर्यय के ऐसे दौर में टटपुँजिया वर्गों के बुद्धिजीवियों में पैदा होते हैं, जब वर्ग संघर्ष में सर्वहारा वर्ग व प्रगतिशील ताक़तें हार रही होती हैं या हार चुकी होती हैं, प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ हावी होती हैं, और संकट का कोई समाधान नज़र नहीं आ रहा होता है। ऐसे मौकों पर विशेष तौर पर टटपुँजिया बौद्धिकों की जमात में यह प्रवृत्ति पैदा होती है। इस प्रवृत्ति के शिकार लोगों को लगता है कि कुछ शक्तिशाली और बुरी ताक़तें दुनिया को नियंत्रित कर रही हैं, यथार्थ को नियंत्रित कर रही हैं; दुनिया में जो कुछ भी हो रहा है वह उनकी योजनाओं का अंग है; इतिहास में संयोग या आकस्मिकता का कोई स्थान नहीं होता है, सबकुछ पूरी तरह से सुनियोजित है और पूरी तरह से शक्तिशाली बुरी ताक़तों की इच्छा से संचालित होता है।

नतीजतन, कोविड-19 तानाशाह सरकारों, फार्मा कम्पनियों, विशालकाय कार्पोरेशंस का षड्यंत्र बन जाता है, जिसके तहत ये कम्पनियां अपने उत्पादों को बेचना चाहती हैं, वैक्सीनेशन करके लोगों के शरीर में कोई चिप डालना चाहती हैं ताकि उन्हें ट्रैक किया जा सके और नियंत्रित किया जा सके, या ये सरकारें लोगों पर दमनकारी कानून थोपना चाहती हैं, एक वैश्विक सर्वसत्तावादी तंत्र बनाना चाहती हैं, जिसमें किसी भी प्रकार का प्रतिरोध न हो, और सत्ता को किसी भी प्रकार की कोई चुनौती न हो। जिस दौर में लोगों के अन्दर अपने जीवन के यथार्थ के किसी भी पहलू पर नियंत्रण का पूरा बोध ही समाप्त हो रहा हो, उस समय ऐसे सिद्धान्तों की अपील काफ़ी बढ़ जाती है।

*क्या करते हैं षड्यंत्र सिद्धान्त?*

ऐसे सिद्धान्त प्रतीतिगत तौर पर जो कुछ हो रहा होता है, उसकी व्याख्या करते प्रतीत होते हैं। लेकिन वास्तव में वे किसी भी प्रकार की वास्तविक व्याख्या का रास्ता बन्द कर देते हैं। उनका असर कुछ वैसा ही होता है जैसाकि एक मरीज़ पर प्लेसीबो पिल का होता है। उसके अन्दर कोई औषधि होती ही नहीं है, लेकिन मरीज़ को लगता है कि इस प्लेसीबो पिल ने उसकी समस्या का समाधान कर दिया है। इस रूप में षड्यंत्र सिद्धान्त न सिर्फ़ वास्तविकता की कोई व्याख्या नहीं पेश करते हैं, बल्कि वे ऐसी किसी भी ढाँचागत व वैज्ञानिक व्याख्या का रास्ता पहले ही बन्द कर देते हैं।

लेकिन ये षड्यंत्र सिद्धान्त केवल भ्रान्पिूर्ण या मूर्खतापूर्ण चिन्तन का नतीजा नहीं है। निश्चित तौर पर, यह भ्रान्तिपूर्ण और मूर्खतापूर्ण तो होता ही है। लेकिन जब ऐसी मूर्खता बड़े पैमाने पर हो रही हो, तो इसका भी हमें ढाँचागत विश्लेषण करना होगा।

क्या दुनिया में षड्यंत्र होते हैं? हाँ, होते हैं! लेकिन अपने आप में और अपने द्वारा वे किसी भी परिघटना की कोई व्याख्या नहीं करते हैं। उल्टे इन षड्यंत्रों की व्याख्या की जानी होती है कि आखिर वे किसी ख़ास बिन्दु पर ख़ास लोगों द्वारा क्यों किये गये। जो इन षड्यंत्रों को ही तमाम परिवर्तनों का बुनियादी कारण मानते हैं, उन्हें ही हम षड्यंत्र सिद्धान्तकार कहते हैं। इनकी ख़ासियत यह होती है कि वे यथार्थ के पीछे के ढाँचागत कारकों की कोई पहचान नहीं करते हैं, बल्कि तमाम परिवर्तनों या घटनाओं को कुछ शक्तिशाली व्यक्तियों, या कॉरपोरेशनों, या सरकारों, सीक्रेट सोसायटी आदि के बुरे, शैतानी इरादों में अपचयित कर देते हैं।

षड्यंत्र सिद्धान्तकारों की यह ख़ासियत होती है कि वे अपने षड्यंत्र सिद्धान्त को कभी ठोस प्रमाण पर परखने की ज़हमत नहीं उठाते हैं क्योंकि अपने स्वभाव से ही ये सिद्धान्त किसी भी प्रकार के प्रमाणन या सत्यापन के प्रति निरोधक क्षमता रखते हैं। मिसाल के तौर पर, ये बुरे, शक्तिशाली लोग, या कारपोरेशन या सरकारें, कोई सबूत नहीं छोड़ती हैं और लोगों को वह सोचने पर बाध्य कर देती हैं, जैसा कि वे चाहती हैं कि वे सोचें! नतीजतन, कोई ठोस और सुसंगत प्रमाण मांगना ही निषिद्ध है। नतीजतन, कुछ बिखरे तथ्यों और बातों को ये षड्यंत्र सिद्धान्तकार अपनी तरीके से एकत्र करते हैं, उनके बीच मनोगत तरीके से कुछ सम्बन्ध स्थापित करते हैं और बस एक षड्यंत्र सिद्धान्त तैयार हो जाता है। और ऐसे सिद्धान्तों की एक अस्पष्ट सी अपील होती है क्योंकि उसमें प्रमाणों, सम्बन्धों, आलोचनात्मक चिन्तन आदि पर आधारित किसी वास्तविक विश्लेषण की कोई आवश्यकता नहीं होती है, जोकि एक वर्ग समाज में हर परिघटना के पीछे काम करने वाले वर्गीय राजनीतिक ढाँचागत कारकों को अनावृत्त कर सकें।

*षड्यंत्र सिद्धान्तों का वर्ग चरित्र और उनकी विचारधारात्मक प्रकृति*

यह बौद्धिक तौर पर टटपुँजिया वर्गों के राजनीतिक बौनेपन की अभिव्यक्ति होती है। यह भी एक प्रकार की विचारधारा (ideology) है। मार्क्स व एंगेल्स ने विचारधारा का चरित्र बेहद स्पष्ट तौर पर समझाया। यह विचारों की एक ऐसी व्यवस्था होती है, जो कि एक वर्ग समाज के फेटिश चरित्र के कारण पैदा होती है, एक छद्म चेतना को जन्म देती है, जिसके ज़रिये या यूँ कहें कि जिसके प्रिज़्म के ज़रिये लोग यथार्थ को देखते और व्याख्यायित करते हैं। फे़टिश को यदि आप मार्क्सवादी अर्थ में समझना चाहते हैं तो वह है कोई भी ऐसी चीज़ जो आपको वास्तविकता को देखने से रोके या जो वास्तविकता पर पर्दा डाले। मार्क्स के शब्दों में दुनिया की जो छवि विचारधारा हमारे मस्तिष्क पर निर्मित करती है, वह भ्रामक होती है, सही नहीं होती, उल्टी या इन्वर्टेड होती है। लेकिन मार्क्स बताते हैं कि एक वर्ग समाज में शोषण के सम्बन्ध वास्तविकता को छिपाते हैं, और पूँजीवादी समाज में यह चीज़ अपने चरम पर पहुँच जाती है क्योंकि यहाँ आर्थिक सम्बन्धों का चरित्र ही फ़ेटिशिस्टिक होता है। क्योंकि श्रमशक्ति के माल बन जाने के साथ पूँजीवादी शोषण का क्षुद्र, घृणित रहस्य छिप जाता है।

मार्क्स के अनुसार, विचारधारा को महज़ बौद्धिक आलोचना के ज़रिये ख़त्म करना सम्भव नहीं है। चूँकि भौतिक यथार्थ का चरित्र ही फेटिशिस्टिक है, इसलिए इस यथार्थ को बदले बग़ैर वैचारिक आलोचना के ज़रिये आप विचारधारा को ख़त्म नहीं कर सकते हैं। जब मनुष्यों के बीच सम्बन्धों का चरित्र फ़ेटिशिस्टिक नहीं रह जायेगा, तो विचारधारा के अस्तित्व का भौतिक आधार भी समाप्त हो जायेगा। इसीलिए मार्क्स ने कहा था कि धर्म-विरोधी प्रचार के ज़रिये धर्म को समाप्त करने की फन्तासियाँ स्वयं विचारधारात्मक हैं क्योंकि धर्म को आलोचना के ज़रिये समाप्त नहीं किया जा सकता है, बल्कि भौतिक समाज में उसकी जड़ों को समाप्त करके ही समाप्त किया जा सकता है, यानी उसे मनुष्यों द्वारा मनुष्यों के शोषण को समाप्त करके ही ख़त्म किया जा सकता है।

षड्यंत्र सिद्धान्तों को भी महज़ कुछ लोगों की मूर्खता का नतीजा नहीं मानना चाहिए। निश्चित तौर पर, मूर्खता और अर्धपागलपन भी है, लेकिन इसका एक सामाजिक वर्गीय आधार है और यह महज़ कोई अव्यवस्थात्मक विसंगति (asystemic anomaly) नहीं है, जो कुछ व्यक्तियों में संयोग से पैदा हो गयी हो। इसका एक भौतिक आधार है।

*षड्यंत्र सिद्धान्त: पराजय और विपर्यय के दौर के टटपुँजिया बौने सिद्धान्त*

षड्यंत्र सिद्धान्तों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि क्या होती है? पराजय, निराशा और वर्ग संघर्ष में विपर्यय और हार के दौरों में, विशेष तौर पर, टटपुँजिया वर्गीय बौद्धिकों के बीच (मगर केवल उन सीमित नहीं) यह प्रवृत्ति पैदा होती है। इसके तहत वे समाज में शासक वर्गों के प्रभुत्व को, जिसे फिलहाल कोई व्यापक सामाजिक चुनौती नहीं मिल रही होती है, शासित वर्गों के जीवन में मौजूद शोषण और दमन को (जिसके ख़िलाफ़ फ़‍िलहाल कोई आवाज़ उठती नज़र नहीं आ रही होती है) कुछ शक्तिशाली व्यक्तियों, कम्पनियों, तानाशाहों, आदि की इच्छा का परिणाम मानते हैं। यह सबकुछ उनकी गुप्त योजनाओं का परिणाम होता है!

चूँकि समाज में वर्ग संघर्ष में प्रगतिशील शक्तियाँ शासक वर्गों को अर्थपूर्ण रूप से कोई चुनौती देती नज़र नहीं आती हैं, इसलिए वर्ग संघर्ष का ढाँचागत कारक परिवर्तन की प्रेरक शक्ति के रूप में स्वत: स्पष्ट नहीं होता और नेपथ्य में चला जाता है। नतीजतन, इतिहास ढाँचागत वर्गीय शक्तियों के अन्तरविरोध की अभिव्यक्ति की बजाय शक्तिशाली, बुरे लोगों, कारपोरेशनों, आदि की इच्छा का परिणाम नज़र आता है, जिनका हर चीज़ पर नियंत्रण होता है। यथार्थ का कोई भी पहलू उनके नियंत्रण से बाहर नहीं होता है। सच यह है कि एक पूँजीवादी व्यवस्था में आर्थिक जगत से लेकर सामाजिक व राजनीतिक जगत तक में सबकुछ स्वयं पूँजीपति वर्ग के भी नियंत्रण में नहीं होता है। यह आर्थिकेतर उत्पीड़न पर आधारित व्यवस्था नहीं होती है (हालाँकि आर्थिकेतर उत्पीड़न पर आधारित व्यवस्थाओं में भी शासक वर्ग का जीवन के हर पहलू पर पूर्ण नियंत्रण नहीं होता है), बल्कि बाज़ार की शक्तियों पर आधारित एक व्यवस्था होती है जिसकी पहचान मार्क्स के शब्दों में प्रतिसन्तुलनकारी असन्तुलनों (turbulent equibration या disturbances that balance each other) से होती है और ठीक इसीलिए स्वयं पूँजीपति वर्ग भी पूँजी की गति से संचालित और नियंत्रित होता है और पूँजीवादी समाज के हर पहलू पर उसका पूर्ण नियंत्रण नहीं होता है, हालाँकि अपनी राज्यसत्ता के द्वारा वह लगातार इन्हें नियंत्रित करने का प्रयास ज़रूर करता है।

जब हम पूँजीवादी व्यवस्था में मौजूद इन ढाँचागत शक्तिशाली कारकों की सही पहचान और विश्लेषण नहीं कर पाते हैं, तो हम आदिम तरीके से बल का सिद्धान्त लगाते हैं। यानी ठीक उसी प्रकार जैसे आदिम कबीले प्राकृतिक परिघटनाओं पर बल का सिद्धान्त लगाते थे, हालाँकि वे इस सिद्धान्त के अस्तित्व में प्रति सचेत नहीं थे। वे जब कोई भी प्राकृतिक परिघटना देखते थे, तो उसके पीछे किसी व्यक्ति की कल्पना करते थे जो अतिशक्तिशाली था। इसकी वजह यह थी कि वह प्रकृति में सक्रिय संरचनात्मक शक्तियों की अन्तर्क्रिया के प्रति अनजान थे। यह अज्ञान ही ऐसे देवताओं व अन्त में ईश्वर की रचना की तरफ गया जिसकी इच्छा प्रकृति को संचालित करती थी। उसी प्रकार आज के टटपुँजिया षड्यंत्र सिद्धान्तकार पूँजीवादी समाज में होने वाली परिघटनाओं या परिवर्तनों के पीछे सक्रिय ढाँचागत कारकों को नहीं समझते हैं और उस पर बल का सिद्धान्त लगाते हैं! परिणामस्वरूप वे इस नतीजे पर पहुँच ते हैं कि कोई तो यह सब कर रहा है, संयोग तो कुछ भी नहीं होता। इसलिए जब कोविड-19 जैसी कोई महामारी फैलती है तो वह तुरन्त चीख़ उठते हैं: “यह अचानक कैसे हो गया! इसके पीछे ज़रूर इज़ारेदार वैश्विक कारपोरेशनों और उनके इशारों पर काम करने वाली तानाशाह सरकारों व राज्यसत्ताओं की ‘डीप स्टेट’ के षड्यंत्र हैं!” इसलिए षड्यंत्र सिद्धान्तकारों के बारे में कहा जा सकता है कि समझदारी की बात करें, तो वे आदिम कबीलों के आदिम मनुष्य की तर्क-क्षमता के स्तर पर ही रह गये हैं, हालाँकि अपनी मूर्खताओं का प्रचार वे आधुनिकतम माध्यमों से करते हैं!

पूँजीवादी समाज के संकट के पीछे जटिल ढाँचागत कारक मौजूद होते हैं। एक टटपुँजिया फ़िलिस्टाइन बुद्धिजीवी के पास न तो यह क्षमता होती है और न ही उसका ऐसा रुझान होता है कि वह इन जटिल कारकों के अन्तर्सम्बन्धों का सावधानी के साथ वैज्ञानिक विश्लेषण करे। इसके विपरीत, समूचे संकट को ही एक षड्यंत्र बता देना ज़्यादा आसान और आकर्षक प्रतीत होता है।

*समाज के कुछ हिस्सों में षड्यंत्र सिद्धान्तों के प्रति आकर्षण का भौतिक आधार*

अपने जीवन के रोज़मर्रा के ऊबाऊ रूटीनी काम में लगी आम मध्यवर्गीय आबादी के एक हिस्से को और यहाँ तक कि रोज़ी-रोटी की जद्दोजहद में लगी मेहनतकश आबादी के एक हिस्से को भी ये सिद्धान्त अपील करते हैं। उन्हें भी अपने सामने मौजूद जटिल, संश्लिष्ट सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक परिघटनाओं को समझना होता है जो कि बेहद भ्रामक नज़र आती हैं। उन्हें अपने जीवन का संकट भी बेहद भ्रामक दिखता है और यह सहज स्पष्ट नहीं होता कि इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है! ऐसे लोगों को भी एक व्याख्या की आवश्यकता होती है। जैसा कि हमने पहले इंगित किया था, षड्यंत्र सिद्धान्त ऐसे लोगों के लिए वही काम करता है, जो कि मरीज़ों के लिए एक प्लेसीबो पिल करती है। वह उन्हें एक छद्म व्याख्या देती है, जो कि वास्तव में व्याख्या है ही नहीं बल्कि मूर्खतापूर्ण अटकलबाजियों का एक समुच्चय है।

षड्यंत्र सिद्धान्त इसलिए भी ख़तरनाक होते हैं कि वे ऐसे प्रतीत होते हैं मानो वे तथ्यों व प्रमाणों पर आधारित हों, हालाँकि वास्तव में वह कुछ बिखरे तथ्यों व प्रमाणों, जिन्हें कि मनोगत तरीक़े से चुना गया होता है, का समुच्चय होते हैं, जिन्हें फ़ैण्टास्टिक तरीके से जोड़कर कुछ अटकलबाजियाँ की जाती हैं। इनके मुताबिक़, सारी वैक्सीनें वास्तव में साज़िश हैं, कोरोना साज़िश है, 5जी साज़िश है, बिल गेट्स दुनिया के लोगों के शरीर में चिप डालकर उन्हें नियंत्रित करना चाहता है, संकट भी एक साज़िश है जो जॉर्ज सोरोस जैसे अतिशक्तिशाली, अतिधनाढ्य सट्टेबाज़ आदि अंजाम देते हैं, इत्यादि।

षड्यंत्र सिद्धान्तों की अपील का एक कारण यह भी होता है कि वे यह मानते हैं कि दुनिया असमान सत्ता सम्बन्धों पर आधारित है, कि दुनिया में कुछ शक्तिशाली लोग हैं जो अपने हितों के लिए काम करते हैं और आम लोगों के ख़िलाफ़ काम करते हैं। वे मानते हैं कि मानव इतिहास में शुरू से ही कुछ शक्तिशाली लोग रहे हैं और बाकी अज्ञानी जनता रही है। कुछ शक्तिशाली लोगों का गिरोह सारी चीज़ें नियंत्रित करता है, उन्हें तय करता है और जनता को इसके बारे में भनक नहीं लगने देता जोकि यह भी नहीं जान पाती है कि वह क्या नहीं जानती है! नतीजतन, सारे अन्तरविरोध को इस घटाकर इस बाइनरी (जोड़े) में समेट दिया जाता है: ‘1 प्रतिशत बनाम 99 प्रतिशत’। यानी, शक्तिशाली और कमज़ोर में अन्तरविरोध की बात होती है और इसलिए ये षड्यंत्र सिद्धान्त आकर्षक होते हैं लेकिन वास्तविक ढाँचागत अन्तरविरोध की पहचान करने की बजाय, यानी ऐतिहासिक, राजनीतिक व सामाजिक शक्तियों के बीच ढाँचागत वर्गीय अन्तरविरोध की प्रेरक शक्ति के रूप में पहचान करने की बजाय, षड्यंत्र सिद्धान्त इसे कुछ बुरे, शैतानी, शक्तिशाली लोगों, कारपोरेशनों, तानाशाहों, सरकारों तथा बाकी अज्ञानी जनता के अन्तरविरोध में अपचयित कर देते हैं। नतीजतन, अन्तरविरोध बन जाता है बिल गेट्स बनाम ‘जनता’, जॉर्ज सोरोस बनाम ‘जनता’, ‘फ़ार्मा कम्पनियाँ’ बनाम ‘जनता’, ‘डीप स्टेट’ बनाम ‘जनता’, ‘बैंक्स’ बनाम ‘जनता’, इत्यादि।

षड्यंत्र सिद्धान्त की टटपुँजिया बुद्धिजीवियों और टटपुँजिया जनसमुदायों की बीच अपील होने का एक कारण यह भी है कि उनके भीतर बुर्जुआ व्यक्तिवाद व कल्ट की विचारधारा गहराई से जड़ जमाए होती है। उनकी सहज वर्ग प्रवृत्ति होती है कि वे संरचनात्मक वर्गीय शक्तियों के बीच अन्तरविरोध को देखने की बजाय, इतिहास को कुछ शक्तिशाली व्यक्तियों या व्यक्तियों के समूहों तथा ‘जनता’ के बीच अन्तरविरोध के तौर पर देखते हैं, जिसमें कि ‘जनता’ इन शक्तिशाली व्यक्तियों की साज़िश का शिकार होती है और वह यह जानती तक नहीं है कि वह साज़िश की शिकार है! यह तो कुछ षड्यंत्र सिद्धान्तकार होते हैं जो इस सच्चाई को समझ जाते हैं!

*आज की दुनिया में षड्यंत्र सिद्धान्त और उसकी कुछ सामान्य विशिष्टताएँ*

षड्यंत्र सिद्धान्तों के इतिहास में काम करने वाले तमाम अध्येताओं ने दिखलाया है कि षड्यंत्र सिद्धान्तों का स्वर्ण युग पूँजीवाद के साथ शुरू होता है, हालाँकि इनके इतिहास को हम मध्ययुग से ही देख सकते हैं। आरम्भिक मध्ययुग में ही ‘नाइट्स टेम्प्लार’, यहूदियों, ‘इल्यूमिनाटी’, फ्रीमेसनरी आदि को लेकर बहुत से षड्यंत्र सिद्धान्त अस्तित्व में आने लगे थे, जिन सबके पीछे ठोस सामाजिक अन्तरविरोध मौजूद थे। इसके पूरे इतिहास को जानने के लिए आप डेनियल पाइप्स के शोध को पढ़ सकते हैं, क्योंकि हम यहाँ इसके विस्तार में नहीं जा सकते हैं। लेकिन अपने समकालीन पूँजीवादी विश्व में हम तमाम षड्यंत्र सिद्धान्तों को देख सकते हैं।

जब ब्रेक्जि़ट के लिए जनमत संग्रह हो रहा था तो 28 प्रतिशत लोगों को लगता था कि ब्रिटेन का ‘डीप स्टेट’ इस जनमत संग्रह में घोटाला कर देगी और ब्रेक्जि़ट नहीं होगा। बताने की आवश्यकता नहीं है कि इसमें से अधिकांश दक्षिणपंथी टटपुँजिया आबादी थी, जोकि वहां की दक्षिणपंथी पार्टी यूकेआईपी (UKIP) के समर्थक थे। 26 प्रतिशत लोगों का मानना था कि वे दावे से नहीं कह सकते कि जनमत संग्रह में घोटाला होगा या नहीं। यानी ‘डीप स्टेट’ एक षड्यंत्र के ज़रिये इस प्लेबिसाइट में गड़बड़ करने वाली थी। अभी भी कई लोगों का मानना है कि गड़बड़ की गयी थी। हालाँकि यह बात सिद्ध हो चुकी है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ था। ब्रेक्जि़ट के पूरे प्रकरण में जो हुआ, उसे वर्ग शक्तियों के सन्तुलन से समझाया जा सकता है, उसके लिए किसी षड्यंत्र सिद्धान्त का सहारा लेने की कोई आवश्यकता नहीं है।

इसी प्रकार शार्ली एब्दो गोलीकाण्ड को मोसाद व सीआईए की साज़िश बताया गया था। कुछ षड्यंत्र सिद्धान्तकारों को मानना है कि चाँद पर कभी मनुष्य उतरा ही नहीं है और अमेरिका ने वह दृश्य हॉलीवुड में बनाया था। इसी प्रकार, बहुत-से षड्यंत्र सिद्धान्त हैं जो कि आज की दुनिया में प्रचलित हैं। फिलहाल, कोरोना को षड्यंत्र बताने वाले बहुत से लोग षड्यंत्र सिद्धान्तों के बाज़ार में अपनी-अपनी फेरी लगाकर बैठे हुए हैं! मज़ेदार बात यह है कि इनमें से कई “मार्क्सवादी” होने का दावा भी करते हैं!

जो बातें सभी षड्यंत्र सिद्धान्तों में साझा दिखती हैं वे इस प्रकार हैं:

ये इस अन्तरविरोध पर केन्द्रित करते हैं: मुट्ठी भर बुरे, शैतानी, कुलीन अति धनाढ्य लोग बनाम ‘जनता’। दूसरा, कारपोरेशनों व उनके इशारों पर काम करने वाले ‘डीप स्टेट’ का रहस्यमयी हस्तक्षेप। तीसरा, ‘जनता’ भेड़ों के समान इन षड्यंत्रकारियों द्वारा ठगी जाती रहती है और ये तो केवल कुछ प्रबुद्ध षड्यंत्र सिद्धान्तकार हैं, जो वह सच्चाई देख लेते हैं, जिन्हें देखने की आज्ञा ‘जनता’ को नहीं होती है।

जिस देश में आम तौर पर मेहनतकश वर्गों का अज्ञान जितना अधिक गम्भीर होता है, वहाँ पर इन सिद्धान्तों में भरोसा करने वाले उतने ज़्यादा होते हैं। मसलन, अमेरिका में 2.2 करोड़ लोग मानते हैं कि चाँद पर उतरना वास्तव में नकली था; 16 करोड़ लोगों का मानना है कि जॉन एफ़. केनेडी को ‘डीप स्टेट’ ने मारा था; 37 प्रतिशत अमेरिकी मानते हैं कि ‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ एक फ़र्ज़ी बात है और 28 प्रतिशत लोग मानते हैं कि कोई गोपनीय सत्ताधारी वैश्विक कुलीन वर्ग है जो कि एक वैश्विक षड्यंत्र के ज़रिये पूरी दुनिया में एक सर्वसत्तावादी सरकार बनाना चाहता है।

क्या दुनिया में साज़िशें होती हैं?

ज़ाहिरा तौर पर, दुनिया में वास्तविक साज़िशें भी हुई हैं। मिसाल के तौर पर 1964 की ‘गल्फ़ ऑफ टोंकिन’ घटना जिसने अमेरिका को वियतनाम युद्ध में सीधे हस्तक्षेप का मौक़ा दिया; 1931 की मुकदेन घटना जिसने जापान को मंचूरिया पर हमले का अवसर दिया; 1939 की ‘ग्लाइविट्ज़ घटना’ जिसने नात्सियों को पोलैण्ड पर हमला करने का अवसर दिया। लेकिन ये षड्यंत्र अपने आप में कुछ भी व्याख्यायित नहीं करते। उल्टे इनकी व्याख्या व्यक्तियों के इरादों के आधार पर नहीं की जा सकती है बल्कि उन ढाँचागत कारकों के आधार पर की जा सकती है, जिसे हम राजनीतिक वर्ग संघर्ष का नाम देते हैं। वर्ग अन्तरविरोधों के तीव्र होते जाने के साथ एक ऐसी मंजिल आती है जबकि उनका समाधान करने के लिए किसी उथल-पुथल की आवश्यकता होती है, जो युद्ध या क्रान्ति या गृहयुद्ध हो सकता है। ऐसे में, कई बार आकस्मिक घटनाएँ वे ‘टिपिंग प्वाइण्ट’ या ‘ट्रिगर’ साबित होती हैं, जो इस प्रकार की उथल-पुथल को शुरू कर देती हैं, जैसे कि हंगरी के राजकुमार की हत्या जिसने पहले विश्वयुद्ध की शुरुआत कर दी।

लेकिन कई बार ऐसी कोई आकस्मिक घटना घटित नहीं होती है, जिस सूरत में जो वर्ग राजनीतिक रूप से ज़्यादा संगठित होता है, वह केवल तात्कालिक ट्रिगर के तौर पर कोई साज़िश भी रच सकता है। लेकिन दोनों ही सूरत में साज़िश अपने आप में कुछ भी नहीं बताती या किसी भी ढाँचागत कारक की व्याख्या नहीं करती। उल्टे किसी विशेष बिन्दु पर कुछ विशेष व्यक्तियों या सरकारों ने कोई विशेष षड्यंत्र क्यों रचना, स्वयं इसकी व्याख्या ढाँचागत कारकों के द्वारा की जानी होती है। अन्यथा हमारे पास एक ही रास्ता बचता है कि हम इनकी व्याख्या व्यक्तिगत प्रेरणाओं के आधार पर करें, जिसे सही अर्थों में हम विश्लेषण या व्याख्या कह भी नहीं सकते हैं!

षड्यंत्र सिद्धान्त वास्तव में वर्ग संघर्ष पर आधारित वैज्ञानिक विश्लेषण के अभाव में पैदा होते हैं। इस बात को तमाम उत्कृष्ट अध्येताओं ने इतिहास के तथ्यों व प्रमाणों समेत सिद्ध किया है कि जिन दौरों में शासक वर्गों के विरुद्ध प्रगतिशील व क्रान्तिकारी वर्ग शक्तियां पराजित हुई हैं, उन्हीं दौरों में षड्यंत्र सिद्धान्त इधर-उधर कुकुरमुत्ते की तरह बड़े पैमाने पर उग आते हैं। उनकी लोकप्रियता ऐसे दौरों में इसलिए बढ़ती है क्योंकि लोगों के पास वास्तविक वैज्ञानिक विश्लेषण तक पहुँच नहीं होती है और वास्तविकता निराशाजनक और रहस्यमयी दिखती है। षड्यंत्र सिद्धान्त पराजय और विपर्यय के दौर में पैदा होने वाली एक फ़ेटिश के समान होती है। वर्ग संघर्षों के तीव्र होने के दौर में लोग उन वास्तविक कारकों व शक्तियों को देखने में समर्थ हो जाते हैं जिनके अन्तरविरोध के कारण इतिहास गतिमान होता है। वे अपने जीवन और सामाजिक जीवन को भी बेहतर समझ पाते हैं और उनकी व्याख्या के लिए उन्हें किसी षड्यंत्र सिद्धान्त की आवश्यकता नहीं होती है। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि कमज़ोरी और हार के दौरों में, सिद्धान्त और व्यवहार के बीच एक अन्तर पैदा हो जाता है।

षड्यंत्र सिद्धान्त: व्यवस्था के प्रति रोष, अलगाव और पराजयबोध की अवैज्ञानिक व अज्ञानतापूर्ण टटपुँजिया अभिव्यक्ति

षड्यंत्र सिद्धान्त राज्यसत्ता और पूँजी के प्रति कोई दयनीय स्वीकारोक्ति नहीं है, बल्कि यह उससे नफ़रत, शिकायत और उससे अलगाव की एक अभिव्यक्ति है, लेकिन विचारधारात्मक व विकृत रूप में, न कि वैज्ञानिक रूप में। वे वास्तविक वैज्ञानिक विश्लेषण के एक प्लेसीबो या स्थानापन्न के रूप में काम करती हैं, और आम जनसमुदायों द्वारा अपनी मौजूदा बेबसी या शक्तिहीनता को “समझने” या “व्याख्यायित” करने की एक कोशिश होते हैं। चूँकि वे व्यवस्था-विरोधी दिखते हैं इसलिए आम लोगों के एक हिस्से को वे प्रभावित करते हैं, क्योंकि ऐसे लोग सत्ता के प्रति असन्तोष, ग़ुस्सा व नाराज़गी रखते हैं। लेकिन चूँकि ये सिद्धान्त सामाजिक यथार्थ से कटे होते हैं इसलिए उनके आधार पर कोई राजनीतिक कार्यक्रम नहीं बनाया जा सकता है। यह एक प्रकार से सबवर्सिव रूप में टटपुँजिया वर्गों द्वारा हार का स्वीकार होते हैं; इस बात का स्वीकार कि हम यथार्थ को नहीं समझते, उसका वैज्ञानिक विश्लेषण नहीं कर सकते, हालाँकि हम यथास्थिति से रुष्ट व असन्तुष्ट हैं।

षड्यंत्र सिद्धान्तों का नज़रिया एक ऐसी दुनिया का नज़रिया है जिसमें सबकुछ कुछ शक्तिशाली लोगों/गिरोहों द्वारा निर्धारित किया जाता है और किसी अन्य के पास कोई अभिकरण नहीं होता है। वास्तव में षड्यंत्र सिद्धान्त इस रूप में क्रान्तिकारी विज्ञान यानी मार्क्सवाद की एक घटिया पैरोडी होते हैं। ये क्रान्तिकारी सिद्धान्त से यह समानता रखते हैं कि ये मानते हैं कि दुनिया में असमानता और अन्याय का बोलबाला है। लेकिन वे पैरोडी हैं क्योंकि वे वर्गीय शक्तियों के बीच व्यापक पैमाने पर जारी संरचनात्मक अन्तरविरोध के जटिल यथार्थ का एक बचकाना, घटिया और मूर्खतापूर्ण सरलीकरण करके उसे कुछ लोगों/गिरोहों की इच्छा से संचालित कठपुतली बना देते हैं। इस प्रस्तुति में राज्यसत्ता में बैठे शासक वर्ग के फ़ंक्शनरी स्वयं मनुष्य, कमज़ोर, त्रुटियाँ करने वाले या अयोग्य कभी नहीं नज़र आते बल्कि वे सर्वज्ञाता, सर्वशक्तिमान, त्रुटियों से परे और योग्यतम होते हैं। इस रूप में षड्यंत्र सिद्धान्त निराशा, अकर्मण्यता और पराजय के स्वीकार का तर्कपोषण भी बन जाते हैं। वे शक्तिहीनता के अहसास को बढ़ावा देते हैं, लेकिन रोमांचक तरीके से! क्योंकि षड्यंत्र करने वाली शक्तियाँ इतनी शक्तिशाली और परफ़ेक्ट हैं कि दुनिया को बदलने का प्रयास भी करने का कोई तुक नहीं रह जाता है।

वजह यह है कि षड्यंत्र सिद्धान्त पूँजीवाद द्वारा ढाँचागत तौर पर अंजाम दी जाने वाली घटनाओं व परिघटनाओं को एक छोटे से गिरोह के सचेतन षड्यंत्र के रूप में देखते हैं। संकट के दौरों में व्यवस्था व शासक वर्गों के प्रति अविश्वास में आप वास्तविक विश्लेषण के अभाव, वर्ग संघर्ष में पराजय व विपर्यय को मिला दें, तो आपको नतीजे के तौर पर विविध प्रकार के षड्यंत्र सिद्धान्त प्राप्त होंगे।

कोरोना षड्यंत्र सिद्धान्त के विषय में कुछ बातें

अन्त में, आज के दौर में सबसे ज़्यादा प्रचलित और सम्भवत: समकालीन पूँजीवादी विश्व के सबसे मूर्खतापूर्ण षड्यंत्र सिद्धान्तों में से एक पर संक्षिप्त चर्चा करना उपयोगी होगा। यह है कोरोना महामारी के एक षड्यंत्र होने का षड्यंत्र सिद्धान्त। मज़ेदार बात यह है कि कुछ अपढ़ “मार्क्सवादी” षड्यंत्र सिद्धान्त का खोमचा लगाये बैठे हैं!

दुनिया में कोरोना को होक्स व षड्यंत्र बताने वाले लोगों का 95 प्रतिशत हिस्सा दक्षिणपंथी व दक्षिणपंथी समर्थक समूह हैं। इनमें वैक्सीनेशन विरोधियों से लेकर, 5जी कोरोना सिद्धान्तकार और कोरोना को जेफ बेज़ोस, जॉर्ज सोरोस, बिल गेट्स आदि का षड्यंत्र बताने वाले मूर्ख और अवैज्ञानिक लोग भरे हुए हैं। ऐसे ही लोगों में हमारे देश के दक्षिणपंथी टटपुँजिया समूहों के अलावा कुछ तथाकथित वामपंथी व मार्क्सवादी भी शुमार हैं। विदेशों में भी इस प्रकार के कुछ षड्यंत्र सिद्धान्तकार “मार्क्सवादी” जैसे कि चोसुदोव्स्की जैसे लोग मौजूद हैं। लेकिन पूरी दुनिया में ही जेनुइन मार्क्सवादी व्यक्ति, ग्रुप, संगठन व पार्टी इस प्रकार के दृष्टिकोण और दक्षिणपंथियों के ख़िलाफ़ खड़े हैं।

लेकिन कोरोना महामारी के षड्यंत्र सिद्धान्तों का भी एक भौतिक आधार है, ठीक उसी प्रकार जैसे कि सभी षड्यंत्र सिद्धान्तों का एक भौतिक आधार होता है। जब कोरोना फैला तब से ही बहुत से लोगों में इस बीमारी के जानलेवा होने, इसके तेज़ी से फैलने और इसके मूल को लेकर तमाम सवाल पैदा हो गये थे। दुनिया भर में कई देशों के सरकारों द्वारा इस पर बेहद ढीली प्रतिक्रिया दिये जाने को लेकर भी लोग तरह-तरह की अटकलबाजियाँ कर रहे थे। ऐसे में जो भ्रम की और नाराज़गी की पूरी स्थिति बनी, उसमें यह बिल्कुल भी ताज्जुब की बात नहीं थी कि कई ऐसे ‘सिद्धान्त’ पैदा हो गये, जोकि वैज्ञानिक ‘आम सहमति’ के विपरीत इस महामारी की कोई रोमांचक ‘व्याख्या’ पेश कर रहे थे। मीडिया और शासक वर्ग के अन्य प्रसारण माध्यमों के प्रति जनता का अविश्वास पुराना है। मसलन, 40 प्रतिशत से ज़्यादा ब्रिटिश लोग बीबीसी पर भरोसा नहीं करते, लगभग आधे अमेरिकन सीएनएन व फ़ॉक्स न्यूज़ आदि पर भरोसा नहीं करते। और ज़ाहिरा तौर पर इसकी वजह है क्योंकि ये पूँजीवादी माध्यम जनता को शासक वर्ग और व्यवस्था के बारे में प्रातिनिधिक सच्चाइयाँ नहीं बताते हैं और उसके पक्ष में अफ़वाहें फैलाने और गुमराह करने की हद तक जाते हैं। ऐसे में, कोरोना महामारी के विषय में भी तमाम षड्यंत्र सिद्धान्तों का पैदा होना स्वाभाविक ही था, विशेष तौर पर टटपुँजिया जनसमुदायों और उसमें भी दक्षिणपंथ के सामाजिक आधार के बीच म

🌅🌄 *सुबह की शुरुआत* 🌅🌄📚 *बेहतरीन कविताओं के साथ* 📚_________________________*हमारे समय के दो पहलू*✍सत्यव्रत, परिकल्पना प्...
12/02/2024

🌅🌄 *सुबह की शुरुआत* 🌅🌄
📚 *बेहतरीन कविताओं के साथ* 📚
_________________________
*हमारे समय के दो पहलू*
✍सत्यव्रत, परिकल्पना प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘इस रात्रि श्यामला बेला में’ से
📱 https://ahwanmag.com/archives/7016
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*बुरा है हमारा यह समय*

क्योंकि
हमारे समय के सबसे सच्चे युवा लोग
हताश हैं,
निरुपाय महसूस कर रहे हैं खुद को
सबसे बहादुर युवा लोग
सबसे ज़िन्दादिल युवा लोगों के
चेहरे गुमसुम हैं
और
आँखें बुझी हुई।
एकदम चुप हैं
सबसे मज़ेदार किस्सागोई करने वाले
युवा लोग,
एकदम अनमने से।
बुरा है हमारा यह समय
एक कठिन अँधेरे से
भरा हुआ,
खड़ा है
सौन्दर्य, नैसर्गिक, गति और जीवन की
तमाम मानवीय परिभाषाओं के ख़िलाफ़,
रंगों और रागों का निषेध करता हुआ।

*अच्छा है हमारा यह समय*

उर्वर है
क्योंकि यह निर्णायक है
और इसने
एकदम खुली चुनौती दी है
हमारे समय के सबसे उम्दा युवा लोगों को,
उनकी उम्मीदों और सूझबूझ को,
बहादुरी और ज़िन्दादिली को,
स्वाभिमान और न्यायनिष्ठा को।
“खोज लो फ़िर से अपने लिए,
अपने लोगों के लिए
जिन्हें तुम बेइन्तहां प्यार करते हो,
और आने वाले समय के लिए
कोई नयी रौशनी”
-अन्धकार उगलते हुए
इसने एकदम खुली चुनौती दी है
जीवित, उष्ण ह्रदय वाले युवा लोगों को।
कुछ नया रचने और आने वाले समय को
बेहतर बनाने के लिए
यह एक बेहतर समय है,
या शायद, इतिहास का एक दुर्लभ समय।
बेजोड़ है यह समय
जीवन-मरण का एक नया,
महाभीषण संघर्ष रचने की तैयारी के लिए,
अभूतपूर्व अनुकूल है
धारा के प्रतिकूल चलने के लिए।
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📮___________________📮*धरती पर जीवन का उद्भव और उद्विकास (इवोल्यूशन)*➖➖➖➖➖➖➖➖✍️ सनी सिंह🖥 https://ahwanmag.com/archives/7...
05/12/2023

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*धरती पर जीवन का उद्भव और उद्विकास (इवोल्यूशन)*
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✍️ सनी सिंह
🖥 https://ahwanmag.com/archives/7644
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इन्सान और उसका समाज धरती पर जन्मा है और उसने प्राकृतिक शक्तियों को काबू में किया है। हमारी धरती खुद हमारे सितारे सूरज का टुकड़ा है और कार्ल सैगन के शब्दों में धरती पर जन्मा इन्सान सितारों की धूल ही है। वही सितारे जिनकी टिमटिमाहट छतों पर दिलों को सुकून देती है। भले ही वह रोशनी किसी ख़त्म हो चुके सितारे की हो, क्योंकि जो आसमान हम रात में देखते हैं वह और कुछ नहीं बल्कि उन सितारों की रोशनी के हम तक पहुँचने में हुई देरी से उभरता चित्र है। इन बुझे हुए और निरन्तर जल रहे सितारों का जीवन से क्या वास्ता?
प्रसिद्ध सोवियत कवि मयाकोव्स्की ने एक जगह कहा है कि कोई तो अर्थ होता होगा तारों के जलने का और किसी को तो होती होगी इनकी ज़रूरत। यह प्रश्न मानवता के समक्ष आदिम काल से मौजूद है कि सितारों की दुनिया और हमारी दुनिया के बीच क्या सम्बन्ध है? धरती पर मौजूद पेड़-पौधों से लेकर नदी, पहाड़, जंगल ज़मीन का मनुष्य से क्या वास्ता है? मनुष्य अपने उद्भव पर आदिकाल से चिन्तन करता रहा है। आधुनिक काल में प्राकृतिक विज्ञान ने अपने विकासक्रम में इस सवाल पर तरह-तरह के धार्मिक मकड़जालों को हटाकर साफ़ कर दिया है। इतिहास में पहले सितारों और धरती पर भौतिक वस्तुओं की गतिकी के अध्ययन से साफ़ नज़र होने के बाद इन्सान ने जैव जगत और अपने उद्गम का वैज्ञानिक विश्लेषण किया। जीवन के रूपों के बदलाव को उद्विकास (इवोल्यूशन) कहते हैं और यह सवाल जीवन की उत्पत्ति से जुड़ा हुआ है। जीवाश्म, डीएनए और क्लैडिस्टिक्स के अध्ययन से जीवन के रूपों और उनके उद्विकास के नियमों को जाना गया है। 19वीं शताब्दी में जाकर ही उद्विकास और जीवन के उद्भव पर विज्ञान निर्णायक कदम उठा सका। कोपरनिकस ने सौर मण्डल को धर्म की बेड़ियों से काट तर्क के क्षेत्र में प्रवेश कराने का रास्ता खोला। जीव जगत में यह क़दम 19वीं शताब्दी में उठ सका या यूँ कहें कि यह तभी ही उठ सकता था। डार्विन के सिद्धान्त के लिए जिन प्रेक्षणों की ज़रूरत थी उनका भौतिक व वैचारिक आधार न्यूटन, गैलीलियो के बाद लायल ने ग्रहों और तारों व खुद धरती की सतह की गति के नियमों की पड़ताल के ज़रिये किया। 19वीं शताब्दी में ऊर्जा के रूपान्तरण के सिद्धान्त और कोशिका की खोज हो चुकी थी। लायल ने धरती की परतों और उनके कम्पन व उसकी भिन्नताओं और उनके विकास के विज्ञान को भूगर्भशास्त्र के रूप में स्थापित किया। इन सभी खोजों ने पुराने दर्शन जगत की बेड़ियों को काट विज्ञान के लिए यह नज़रिया साफ़ किया कि इन्सान से लेकर ब्रह्माण्ड जगत की समस्त अस्तित्वमान और ख़त्म हो चुकी सत्ताएँ पदार्थ जगत का हिस्सा हैं और वे निरन्तर बदलाव में हैं। इन बदलावों का अध्ययन ही प्राकृतिक विज्ञान में यांत्रिकी भौतिकी, रसायन शास्त्र व अन्य विशिष्ट विषयों को पैदा करता है।
ख़ैर, कोशिका और उद्विकास की खोज ने पदार्थ जगत से जीवन के उद्भूत होने पर मुहर लगा दी। चेतना पदार्थ जगत का ही एक गुण है इसे 19वीं शताब्दी के जीववैज्ञानिकों ने पुष्ट कर दिया। निश्चित ही उद्विकास के सिद्धान्त पर और जीवन के उद्भव पर समझ और गहरी होनी बाक़ी थी। आज 21वीं शताब्दी में हम डार्विन से आगे बढ़ चुके हैं, परन्तु वैज्ञानिको की जमात का एक हिस्सा विज्ञान जगत की नई खोजों की दुव्याख्या करके जीवन के उद्भव के सवाल और पदार्थ जगत को रहस्यमयी बना रहे हैं। क्वाण्टम इण्टेंगलमेन्ट पर हुए प्रयोगों पर शोध का ज्विंलिंगर सरीख़े वैज्ञानिक मूल्यांकन कर बता रहे हैं कि ‘सूचना’ आदिकाल से मौजूद है जिसके ज़रिये पदार्थ अस्तित्व में आता है व इस तरह वे चेतना के पदार्थ से पहले मौजूद होने की बात कहते हैं। पेनरोज़ भी शिद्दत से ऐसे भ्रम फैला रहे हैं। हाकिंग हालाँकि प्रगतिशील कहे जायेंगे और कई जगह उन्होंने ईश्वर पर चोट की है, परन्तु इसके बावजूद उनके चिन्तन में मौजूद संशयवाद से भाववादी दर्शन को काफ़ी जगह मिल जाती है। दूसरी तरफ़ वैज्ञानिकों का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जो कि भौंडे भौतिकवादी दृष्टिकोण से प्रस्थान करता है और यांत्रिक व रिडक्शनिस्ट नज़रिये से भौतिकवादी दुनिया को गतिहीन बना देता है और यदि गति स्वीकार करता भी है, तो उसके लिए बदलाव एकरेखीय और क्रमिक होता है। डॉकिंस नास्तिक हैं और नास्तिकता का प्रचार करते हैं लेकिन उनका दर्शन भौंडा भौतिकवादी दर्शन है । जीन में इन्सान के गुणों द्वारा तय होना बताकर वे असल में रिडक्शनिज़्म का सहारा लेते हैं और समाज की बुराइयों और अच्छाइयों को जीन में अपचयित कर देते हैं। मतलबी (सेल्फ़िश) जीन्स के ज़रिये वे सामाजिक डार्विनवाद के नये संस्करण पेश करते हैं मौजूदा व्यवस्था में ग़ैर-बराबरी को सही ठहराते हैं। साथ ही वे डार्विन की भी जो व्याख्या पेश करते हैं वह छलाँग के ज़रिये विकास की जगह क्रमिक विकास को मानते हैं। खुद को प्राकृतिक दार्शनिक कहने वाले डॉकिंस सरीख़े कई भौंडे भौतिकवादी हैं जो लगातार ही विज्ञान जगत में धुँध फैला रहे हैं। यह एक आम परिघटना है।
आज फिर से विज्ञान को अधिक रहस्यवादी और अज्ञात में दैवीय शक्तियों को घुसाने के चलते वैज्ञानिक अन्धे रास्तों में भटक रहे हैं। वहीं सामाजिक ग़ैरबराबरी को वैज्ञानिक सिद्धान्तों का जामा पहनाने के प्रयास भी किये जा रहे हैं । यह बुर्जुआ विचारधारा का भी संकट है जिसकी अभिव्यक्ति डॉकिन्स और ज्विंलिंगर सरीख़े लोग करते हैं। मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के बीच मौजूद ऐतिहासिक दीवार, ज्ञान और व्यवहार के बीच दरार, व शासक वर्ग के सचेतन प्रयास की वजह से भ्रमित दर्शनों को विज्ञान जगत में अभिव्यक्ति मिलती है। नज़रिये की यह अन्धता वैज्ञानिकों को बन्द दरवाज़ों पर सिर पटकने के लिए अभिशप्त करती है। वहीं विज्ञान व्यवस्थागत तौर पर गतिरोध का शिकार है। इसके पीछे मूल कारण वैचारिक अन्धता नहीं बल्कि व्यवस्थागत संकट है। बड़े शोध संस्थान से लेकर कॉलेजों तक विज्ञान में निवेश मुनाफ़े के आधार पर होता है। शोध भी मुनाफ़े की शर्त पर ही होता है। विज्ञान पूँजी की पूँछ पकड़कर चलने को मजबूर है। वहीं मुनाफ़ा-आधारित व्यवस्था युद्धों को जन्म देती है जिसमें विज्ञान, जो खुद एक उत्पादक शक्ति है, वह दुनिया के कोने-कोने में उत्पादक शक्तियों को तबाह करती है। इन दोनों कारणों के चलते ही विज्ञान जगत संकट का शिकार है।
वैज्ञानिकों का विभ्रम मीडिया चैनल व पॉपुलर पल्प फ़िक्शन के रूप में आम जनता के मानस पर ट्रिकल डाउन प्रभाव छोड़ता है। भारत जैसे उत्तर-औपनिवेशिक पिछड़े पूँजीवादी देश में तो यह परिघटना और साफ़ देखने को मिलती है। भारत जैसे समाजों में सामन्ती मूल्य मान्यताओं के अवशेष आज भी बरकरार हैं, बल्कि उनका पूँजीवादी व्यवस्था ने तन्तुबद्धीकरण (आर्टिकुलेशन) किया है। कूपमण्डूकता और अन्धविश्वास हमारे समाज की पोर-पोर में समायी हुई है। इसरो से लेकर बड़े शोध संस्थानों में वैज्ञानिक अन्धविश्वासी होते हैं। आज भारत की सत्ता में बैठे संघी सोशल मीडिया, गोदी मीडिया, बस्ती से लेकर वैज्ञानिक मंचों तक अन्धविश्वास फैला रहे हैं और भारत की रीढ़विहीन वैज्ञानिकों की क़ौम महज़ काग़ज़ी प्रतिरोध कर चुप बैठी है।
इस लेख को लिखने का मक़सद यह उद्घाटित करना है कि वैज्ञानिक जगत में विचारधारात्मक धुन्ध मौजूद है जिसे साफ़ किये जाने की ज़रूरत है। इस लेख के ज़रिये हम धरती पर जीवन के उद्भव और उद्विकास पर द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी अवस्थिति पेश करेंगे। पृथ्वी पर जीवन का उद्भव कैसे हुआ यह सवाल विज्ञान का सवाल तो है ही, साथ ही दर्शन के जगत में अस्तित्व मीमांसा के प्रश्न पर भी यह सही समझदारी बनाता है। धरती पर जीवन की शुरूआत का जवाब भौतिकवादी दर्शन से ही सही दिया जा सकता है। उद्विकास और मानव के उद्भव के कुछ प्रश्नों पर भी आज बहसें जारी हैं। यह स्वाभाविक ही है। विज्ञान के सामने हमेशा एक क्षितिज होता है जिसे वह भेदता है और नए प्रश्नों और संदेहों का क्षितिज विज्ञान की प्रगति के साथ और आगे बढ़ जाता है। यही उसका द्वन्द्ववाद है। परन्तु आज विज्ञान द्वारा हासिल मुक़ामों पर भी धूल की परत चढ़ाई जा रही है। और ऐसे में यह महत्वपूर्ण कार्यभार बनता है कि उसे खोने न दिया जाये। 19वीं शताब्दी जिन प्रश्नों को सुलझा चुकी है उसपर दार्शनिक चाशनी डुबोकर नए रहस्यवादी विमर्श किए जा रहे हैं। 19वीं शताब्दी में लायल की भूविज्ञान की खोज, डार्विन की बीगल जहाज की यात्रा और हैकेल द्वारा धार्मिक पण्डों की बकवास का विरोध- यह वह काल है जब आधुनिक जीवविज्ञान ने जन्म लिया। इससे पहले की शताब्दियों में कोपरनिकस, गैलीलियो, न्यूटन और अन्य लागों ने ब्रहमाण्ड में सितारों, आकाशगंगाओं के बारे में समझदारी साफ़ की थी। पूरे भौतिक जगत के अस्तित्व में आने की और गुज़रते जाने की एक प्रक्रिया के रूप में तस्वीर खींची जा रही थी। विज्ञान ने कोशिका की खोज के ज़रिये, ऊर्जा के रूपान्तरण से विकास की खोज के ज़रिये प्रकृति की द्वन्द्वात्मकता को सत्यापित किया। जीवाश्मों का अध्ययन और जीवन के रूपों का अध्ययन 19 वीं शताब्दी में विकसित होता है और इन्सान अपने उद्गम पर पहली बार वैज्ञानिक नज़रिया हासिल करता है।
उद्विकास और जीवन का उद्गम
मनुष्य की प्रजाति होमो होमो सेपिएन्स सहित तमाम प्रजातियाँ विकसित हो रही हैं। मनुष्य का उद्भव एक ऐसी प्रजाति से हुआ जो अब विलुप्त हो चुकी है। जैव जगत में तमाम प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं और आज का जीव जगत वैसा नहीं है जैसे यह पहले था। वायरस, बैक्टिरिया, लंगूर से लेकर केकड़ा सभी प्रजातियाँ पहले मौजूद प्रजातियों से विकसित होकर अस्तित्व में आई हैं। कई प्रजातियाँ एक ही प्रजाति से फूट कर पैदा हुई हैं जैसे पेड़ के तने से कई शाखाएं निकलती हैं। समुद्र की गहराई से लेकर रेगिस्तान की तपिश में जीवन अपनी विविधता के साथ मौजूद है। जीवन की इस विविधता की इकाई प्रजाति है। एक प्रजाति के जीवों के बीच भी अन्तर मौजूद होते हैं जबकि समानता आनुवंशिकता के कारण दिखती है। समानता और अन्तर का द्वन्द्व आनुवंशिकता और अनुकूलन के द्वन्द्व के रूप में उभरकर आता है। आज धरती पर नई प्रजातियों के साथ ही कई ऐसी प्रजातियाँ भी मौजूद हैं जो बेहद पुरानी हैं और कई प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। समुद्र की लहरों में बहकर आती सीपियाँ, जेली फिश की भिन्न प्रजातियों से लेकर गौरेया, कियारियों में मौजूद गिरगिट और रेगिस्तान के कैक्टस अलग प्राकृतिक परिस्थिति में रहते हैं और यह अपनी परिस्थितियों को भी अलग तरीके से प्रभावित करते हैं। जीवन के ही विकासक्रम में मानव का उद्भव हुआ जिसका मष्तिष्क उसे अन्य प्रजातियों से अलग करता है। मानव ने श्रम की प्रक्रिया से पर्यावरण व अपने बीच भौतिक अंतरक्रिया को समझा और सचेतन तौर पर उसका इस्तेमाल किया। जीवन की आंतरिक गति को उसका पर्यावरण (जो कि कुल मिलाकर बेहद जटिल और निरन्तर परिवर्तनीय है) प्रभावित करता है और जीवन पलटकर इस बाह्य जगत को प्रभावित करता है। जीवजगत की सभी प्रजातियों में मानव न सिर्फ़ पर्यावरण को प्रभावित करता है अपितु वह जिस कदर प्रकृति को बदलता व प्रभावित करता वह कोई अन्य जीव नहीं कर सकता है। इस अर्थ में कहा जा सकता है कि मनुष्य ही वास्तव में पर्यावरण को पलटकर प्रभावित करता है जबकि अन्य जीव इसके अनुसार खुद को अनुकूलित करते हैं। वैसे देखा जाये तो बेहद सूक्ष्म स्तर पर असल में हर जीव अपने पर्यावरण को जैविक तौर पर प्रभावित करता है मसलन मकड़ी जाला बनाती है, चिड़िया घोसला बनाती है और ऊदबिलाव बाँध बनाते हैं। परन्तु ये उनकी नैसर्गिक जैविक क्रियाएँ है और इसके लिए वे सचेतन योजना नहीं बनाते हैं। परन्तु मनुष्य किसी कार्य को करने से पहले अपने दिमाग़ में उस कार्य की परिकल्पना कर उसे अंजाम देता है। इस अर्थ में मनुष्य जीवजगत की विशिष्ट प्रजाति बन जाता है। परन्तु मनुष्य और उसका समाज प्रकृति का ही विस्तार है। डार्विन ने मनुष्य और अन्य जीवों के उनके पर्यावरण के बीच सम्बन्ध को यांत्रिक तौर पर व्याख्यायित किया था। उनके अनुसार प्रकृति जीव का प्राकृतिक चयन करती है परन्तु उपरोक्त चर्चा से साफ़ है कि जीव भी पर्यावरण को प्रभावित कर उसका एक प्रकार से ‘चयन’ करता है। डार्विन से पहले जीवविज्ञान धर्मशास्त्रों के अवलोकन में ही समझा जाता था।
सभी धर्मों के शास्त्रों में जीवन के उद्भव को ईश्वरीय कारनामा बताया जाता है। परन्तु 19वीं शताब्दी के अन्त तक यह समझदारी बदल गयी। वैज्ञानिक इस बात से सहमत थे कि प्रकृति जीवन के अस्तित्व में आने से पहले से मौजूद है। पाश्चर से लेकर हक्सली और हैकल के ज़रिये जीवविज्ञान स्थापित हो रहा था। लायल ने भूगर्भशास्त्र के विज्ञान का आधार रखा जिसने जीवविज्ञान के लिए राह खोलने का काम किया। धरती की सतहों और परतों के बनने और ख़त्म होने की वैज्ञानिक प्रक्रिया ने ही जीवन के उद्भव के सिद्धान्तों के लिए आधारशिला रखने का काम किया। पहले जीवन के रूपों को स्थैथिक माना जाता था। इसे लैमार्क और डार्विन के साथ 19वीं शताब्दी के कई वैज्ञानिकों ने चुनौती दी। सबसे महत्वपूर्ण क़दम डार्विन ने उठाया और उन्होंने यह दर्शाया कि जीवन के रूप बदलते हैं और यह बदलाव नियमों से बँधा है। डार्विन ने हर प्रजातियों में अन्तर और साथ ही एक प्रजाति के जीवों में अन्तर को रेखांकित किया। इस अन्तर को उन्होंने वैरिएशन कहा। जीव और उसके शावक में यह अन्तर कम होता है, हालांकि शावकों के बीच भी वैरिएशन मौजूद होते हैं। इसे ही आनुवंशिकता कहते हैं कि जीव अपने गुण अपने शावक को देते हैं। यह प्रक्रिया भी एककोशिकीय जीव और बहुकोशिकीय जीव जैसे मनुष्य में अलग तरीके से होती है। आनुवंशिकता और वैरिएशन का द्वन्द्व ही प्रजातियों के विस्तृत जटिल झुरमुट के विकास को नियम में बाँधता है।
डार्विन ने पर्यावरणीय, अन्तरजातीय, सजातीय प्रतियोगिता के ज़रिये प्राकृतिक चयन को उद्विकास का आधार बताया जिसके अनुसार प्रजातियों में क्रमिक बदलाव आते हैं। हालाँकि आज यह सिद्ध हो चुका है कि बदलाव सिर्फ़ क्रमिक नहीं बल्कि छलाँग के रूप में भी होते हैं। साथ ही जीवों में केवल प्रतियोगिता नहीं बल्कि सहयोगिता भी होती है। जीव, डार्विन की व्याख्या अनुसार, एटमाइज़्ड इंडिविजुअल न होकर ग्रुप व तमाम तरह से आपसी सम्बन्धों का एक व्यापक तानाबाना खड़ा करते हैं। हाँ, निश्चित ही इन सभी प्रक्रियाओं में जो अधिक ‘फिट’ होगा वह जिंदा रहता है। डार्विन की कमज़ोरियों की चर्चा पर हम आगे आयेंगे। डार्विन ने उद्विकास के पीछे जीवन के आन्तरिक कारण को उद्घाटित किया। उनके अनुसार कोई जीव अपने गुण अपने बच्चों में कुछ परिवर्तनों के साथ थमाता है। इन गुणों में परिवर्तन के पीछे डार्विन ने आनुवांशिक तत्वों को बताया जिनकी आपसी मिलावट से ही बच्चों के गुणों में मामूली परिवर्तन आते हैं। आज जीवविज्ञान इस बुनियादी समझदारी से आगे विकसित हो चुका है। डार्विन के कई तर्क ग़लत साबित हुए हैं। डार्विन उद्विकास के पीछे कार्यरत प्रेरक शक्तियों को, कार्य-कारण सम्बन्धों को समझने में और कुल मिलाकर पद्धति में यांत्रिक/अधिभूतवादी रहते हैं। लेकिन डार्विन का योगदान यह रहा कि उन्होंने जीवन के विकास में किसी भी दैवीय शक्ति के लिए हमेशा के लिए दरवाज़ा बन्द कर दिया।
डार्विन से अगला कदम मेंडल ने उठाया। मेंडल के सिद्धान्त के अनुसार एक जीव अपने बच्चों में जिन ‘ट्रेट’ यानी शारीरिक गुणों (फ़िनोटाइप कैरेक्टरस्टिक्स) को प्रदान करता है वह जीन पर निर्भर करते हैं। मेंडल ने डार्विन की इस अवधारणा को ग़लत साबित किया कि आनुवांशिक गुण पैनजैनेसिस के ज़रिये शावक में जाते हैं। मेंडल के अनुसार जीन की प्रकृति कण सरीख़ी होती है और हर पृथक जीन अलग गुण को व्याख्यायित करती है। हालाँकि आज यह अवधारणा विकसित हो चुकी है जिसपर हम आगे आयेंगे। मेंडल ने इस अवधारणा को सिद्ध करने के लिए 8000 से अधिक मटर के पौधों पर शोध किया। 20वीं शताब्दी में जीन की पहचान हुई जिससे वैरिएशन और नैचुरल सेलेक्शन को समझने का आधार मिल गया। जैनेटिक थ्योरी जो डार्विन के फ्रेमवर्क को मुख्यत: समाहित कर लेती है वह मॉडर्न सिंथेसिस कहलाती है। इसके बरक्स आधुनिक एक्सटेंडेड एवोल्यूशनरी सिंथेसिस का सैद्धान्तिक फ्रेमवर्क उद्विकास की अधिक संतुलित व्याख्या करता है। इस फ्रेमवर्क में द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया है जहाँ प्रजातियों में क्रमिक प्रक्रिया से ही नहीं बल्कि छलाँग के ज़रिये भी बदलाव होते हैं। हम इस पर लेख की तीसरी कड़ी में बात करेंगे जब हम डार्विन, मेंडल और लैमार्क की अवधारणाओं पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
डार्विन से भी पहले लैमार्क ने कहा था कि प्रजातियों का उद्विकास होता है। हालाँकि उन्होंने कहा कि एक जीव अपने पर्यावरण के अनुरूप ढलने का प्रयास करता है और इस प्रकार से ही एक प्रजाति दूसरी प्रजाति में तब्दील हो जाती है। जैसे जिराफ़ ऊँचे पेड़ से पत्तियाँ खाने का प्रयास करता है तो उसकी गर्दन लम्बी हो जाती है। यह बदलाव जो एक जीव ने अर्जित किये हैं वह सन्तानों में चले जाते हैं। परन्तु यहाँ ऐसा प्रतीत होता है कि जिराफ़ के अपने प्रयासों ने और परिस्थितियों ने उसे ढाल दिया है। साथ ही वे जीव जो प्रयास कर रहे थे उनकी सन्तानें भी पर्यावरण में अधिक फिट होंगी। परन्तु डार्विन ने इसे ग़लत बताया और कहा कि लम्बे और छोटे जिराफ़ वैरियेशन के कारण होते हैं और चूँकि लम्बे जिराफ़ ही पत्ती तक पहुँच सकते थे, इसलिए वे ही बच पाते हैं। डार्विन मुख्यत: इस बहस में सही साबित हुए। डार्विन के सिद्धान्त के अनुसार एक जीव अपने जीवन काल में जो पर्यावरण के अनुरूप बदलाव करता है और जो गुण हासिल करता है वह उसकी सन्तानों में नहीं जाते हैं। जीवों में बदलाव का कारण वैरिएशन है जोकि जीव की सभी सन्तानों में होता है। इनके कारणों पर हम आगे विस्तारपूर्वक बात करेंगे। 1930 के दौर में यह व्याख्या हुई कि आनुवंशिकता के बुनियादी तत्व जीन होते हैं। जीवन की हर प्रजाति का हर जीव एक-दूसरे के अधिक समान होता है और दूसरी प्रजाति के जीव से अधिक असमान होता है। इस समानता और अन्तर का मापक जीन ही होता है। इन समानताओं और अन्तरों की एकता ही जीवन को व्याख्यायित करती है। यह अन्तर बदली हुई पर्यावरण की परिस्थितियों में बदलते फ़िनोटाइप (शारीरिक गुणों का कुल समुच्चय) जोकि जीनोटाइप (आनुवांशिक जीनों का कुल समुच्चय) और पर्यावरण के अन्तरसम्बन्ध पर निर्भर करता है। जीनोटाइप, फ़िनोटाइप के मतलब को हम आगे विस्तारपूर्वक समझाएंगे। जीवन और उसके उद्विकास को केवल डार्विन और मेंडल की अवधारणाओं के फ्रेमवर्क में नहीं समझा जा सकता है।
अगर फिलहाल कुछ बातें निचोड़ के तौर पर कहें तो जीव के शारीरिक गुण (फ़िनोटाइप) केवल जीन से नहीं तय होते हैं। वह पर्यावरण से अन्तरक्रिया में भी अपने गुण हासिल करता है। परन्तु ये गुण जीनोटाइप द्वारा सीमित (कन्सट्रेंड) होते हैं। गुण की अभिव्यक्ति परिमाणात्मक तौर पर जीन में होती है। गुण परिमाण में अभिव्यक्त होता है और परिमाण गुण में तब्दील होता है। यहाँ द्वन्द्ववाद का नियम खुद को बेहद सरल रूप में अभिव्यक्त करता है। यह होगा ही। इस अन्तरविरोध के विकसित होने, उसके तीव्र होने व नए में तब्दील होने की प्रक्रिया को समझने के लिए हमें इस अन्तरविरोध के उद्भव को समझना होगा।
किसी भी जीव का आन्तरिक विकास पर्यावरण से जीवन के लिए आवश्यक तत्वों को सोखकर मेटाबोलिज़्म के ज़रिये होता है। यह मेटाबोलिज़्म ही जीव को विकसित करता है और यही इसे मृत्यु तक लेकर जाता है। यह जीवन के सभी रासायनिक तत्वों की क्रिया जिसमें बड़े तत्वों का टूटना और छोटे रासायनिक तत्वों से बड़े रासायनिक तत्वों का बनना जारी रहता है। मेटाबोलिज़्म जीवन की परिभाषा में ज़रूरी है। यह एक जीव के भीतर जीवन और मृत्यु के अंतरविरोध का विकास ही है। जीवन की प्रक्रिया का अन्तरविरोध यही है कि जीवन अजैविक तत्वों को जीवन के तत्वों में तब्दील करता है। इस अन्तरविरोध का उद्भव ही जीवन के उद्भव के वक़्त होता है। इसलिए जीवन के उद्भव को समझना एक ज़रूरी कार्यभार बन जाता है। पुरानी प्रजातियों, जिनसे आज की प्रजातियाँ विकसित हुई हैं, के जीवित जीवाश्म मौजूदा प्रजातियाँ हैं। जीवन के सभी रूपों में बुनियादी रासायनिक यौगिक और उनकी संरचना में समानता होती है। इसलिए हम पहले जीवन की उत्पत्ति पर सही समझ बनाएंगे ताकि उद्विकास को ठीक तरीके से समझा जा सके। लेख के अगले हिस्से में हम इस प्रश्न पर ही विस्तारपूर्वक बात करेंगे कि जीवन की उत्पत्ति किस प्रकार हुई।
(अगले अंक में जारी)
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-अक्‍टूबर 2020 अंक में प्रकाशित
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