16/12/2024
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From Dr Ambedkar's writings and speeches Hindi Volume 1 Page 75 :
गैर-हिन्दुओं की जाति-व्यवस्था हिन्दुओं की जाति-व्यवस्था से मूलतः भिन्न है। इसके कई कारण हैं। पहला, ऐसा कोई बंधन नहीं है, जो उन्हें एकता के सूत्र में बांधता हो, जब कि गैर-हिन्दुओं में ऐसे अनेक बंधन हैं, जो उन्हें एकता के सूत्र में बांधते हैं। किसी समाज की शक्ति उसके संपर्क स्थलों तथा उसके विभिन्न वर्गों के बीच अंतरक्रिया की संभावनाओं पर निर्भर है। कार्लाइल ने इन्हें ‘सुव्यवस्थित तंतु‘, अर्थात लचीले तंतु कहा है, जो विखंडित तत्वों को जोड़ने और उनमें पुनः एकता स्थापित करने में मदद करते हैं। हिन्दुओं में ऐसी कोई संघटनकारी शक्ति नहीं है, जो जातिप्रथा द्वारा किए गए विखंडन को समाप्त कर सकें। लेकिन गैर-हिन्दुओं में ऐसे अनेक सुव्यवस्थित तंतु हैं, जो उन्हें एकता के सूत्र में बांधते हैं। इसके अतिरिकत यह भी स्मरण रखना होगा कि हालांकि गैर-हिन्दुओं में भी वैसी ही जातियां हैं जैसी कि हिन्दुओं में हैं, लेकिन उनका गैर-हिन्दुओं के लिए सामाजिक महत्व उतना नहीं हैं, जितना कि हिन्दुओं के लिए है। किसी मुसलमान या सिख से पूछिए कि वह कौन है तो वह यही कहेगा कि वह मुसलमान या सिख है। वह अपनी जाति नहीं बताएगा, हालांकि उसकी जाति है। आप उसके इस उत्तर से संतुष्ट हो जाएंगे। जब वह यह बताता है कि वह मुसलमान है तो उससे आगे यह नहीं पूछते कि वह शिया है या सुन्नी, शेख है या सैयद, खटीक है या पिंजारी। जब वह यह कहता है कि मैं सिख हूं तो आप उससे यह नहीं पूछते कि वह जाट है या रोडा, मजबी है या रामदासी। लेकिन आप इस बात से उस स्थिति में संतुष्ट नहीं होते, जबकोई अपने को हिन्दू बताता है। आप उसकी जाति अवश्य पूछेंगे। इसका कारण यह है कि हिन्दू के विषय में जाति का इतना महत्व है कि उसके जाने बिना आप यह निश्चित नहीं कर सकते कि वह किस तरह का व्यक्ति है। गैर-हिन्दुओं में जाति का उतना महत्व नहीं है, जितना कि हिन्दुओं में है। यह बात उस स्थिति में स्पष्ट हो जाती है, जब आप जाति-व्यवस्था भंग करने के परिणामों पर विचार करते हैं।
सिखों और मुसलमानों में भी जातियां हो सकती हैं, लेकिन वे उस सिख और मुसलमान का जाति-बहिष्कार नहीं करेंगे, जो अपनी जाति तोड़ता है। वास्तव में, सिख और मुसलमान जाति-बहिष्कार के विचार से परिचित नहीं हैं। लेकिन हिन्दुओं के विषय में यह बात एकदम भिन्न है। हिन्दू को यह निश्चित रूप से पता होता है कि यदि वह जाति का बंधन तोड़ेगा तो उसे जाति से निकाल दिया जाएगा। इससे यह प्रकट होता है कि हिन्दुओं और गैर-हिन्दुओं के लिए जाति के सामाजिक महत्व में कितना अंतर है। यह उनके बीच अंतर का दूसरा संकेत है। तीसरा संकेत भी है, जो और अधिक महत्वपूर्ण है। गैर-हिन्दुओं में जाति की कोई धार्मिक पवित्रता नहीं होती, लेकिन हिन्दुओं में तो निश्चित रूप से होती है। गैर-हिन्दुओं में जाति मात्र एक व्यवहार है, न कि एक पवित्र प्रथा। उन्होंने जाति की उत्पत्ति नहीं की। उनके मामले में तो जाति का मात्र अस्तित्व बना हुआ है। वे जाति को धार्मिक सिद्धांत नहीं मानते। धर्म हिन्दुओं को जातियों के पृथक्करण और अलगाव को एक सद्गुण मानने के लिए बाध्य करता है। लेकिन धर्म गैर-हिन्दुओं को जाति के प्रति ऐसा रुख अपनाने के लिए बाध्य नहीं करता है। यदि हिन्दू लोग जाति को समाप्त करना चाहें तो धर्म आड़े आएगा। लेकिन गैर-हिन्दुओं के विषय में यह बात लागू नहीं होती। अतः गैर-हिन्दुओं में जाति के मात्र अस्तित्व से संतुष्ट होना तब तक एक खतरनाक भ्रम साबित होगा, जब तक यह जानकारी प्राप्त न कर ली जाए कि उनके जीवन में जाति का क्या महत्व है और क्या कोई अन्य ऐसे ‘सुव्यवस्थित तंतु‘ हैं, जो सामाजिक-भावना को उनकी जाति-भावना के ऊपर ले आते हों। हिन्दुओं का यह भ्रम जितना शीघ्र दूर हो, उतना ही अच्छा है।
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