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Mythological  Stories Stories that will Let You Think

18/10/2024

नारद मुनि – तू किसके भाग्य का खा रहा है?

एक आदमी ने नारदमुनि से पूछा मेरे भाग्य में कितना धन है.

नारदमुनि ने कहा – भगवान विष्णु से पूछकर कल बताऊंगा

नारदमुनि ने कहा- 1 रुपया रोज तुम्हारे भाग्य में है.

आदमी बहुत खुश रहने लगा, उसकी जरूरते 1 रूपये में पूरी हो जाती थी.

एक दिन उसके मित्र ने कहा में तुम्हारे सादगी जीवन और खुश देखकर बहुत प्रभावित हुआ हूं और अपनी बहन की शादी तुमसे करना चाहता हूँ.

आदमी ने कहा मेरी कमाई 1 रुपया रोज की है इसको ध्यान में रखना। इसी में से ही गुजर बसर करना पड़ेगा तुम्हारी बहन को.

मित्र ने कहा कोई बात नहीं मुझे रिश्ता मंजूर है।

अगले दिन से उस आदमी की कमाई 11 रुपया हो गई।

उसने नारदमुनि को बुलाया की हे मुनिवर मेरे भाग्य में 1 रूपया लिखा है फिर 11 रुपये क्यो मिल रहे है?

नारदमुनि ने कहा – तुम्हारा किसी से रिश्ता या सगाई हुई है क्या?

हाँ हुई है

तो यह तुमको 10 रुपये उसके भाग्य के मिल रहे है।

इसको जोड़ना शुरू करो तुम्हारे विवाह में काम आएंगे।

एक दिन उसकी पत्नी गर्भवती हुई और उसकी कमाई 31 रूपये होने लगी।

फिर उसने नारदमुनि को बुलाया और कहा है मुनिवर मेरी और मेरी पत्नी के भाग्य के 11 रूपये मिल रहे थे लेकिन अभी 31 रूपये क्यों मिल रहे है। क्या मै कोई अपराध कर रहा हूँ?

मुनिवर ने कहा- यह तेरे बच्चे के भाग्य के 20 रुपये मिल रहे है।

हर मनुष्य को उसका प्रारब्ध (भाग्य) मिलता है। किसके भाग्य से घर में धन दौलत आती है हमको नहीं पता।

लेकिन मनुष्य अहंकार करता है कि मैने बनाया,मैंने कमाया, मेरा है, मै कमा रहा हूँ, मेरी वजह से हो रहा है।

हे प्राणी तुझे नहीं पता तू किसके भाग्य का खा रहा है।।

20/07/2024

*🌳 प्रत्येक का मनुष्य का प्रारब्ध🌳*

एक व्यक्ति ने नारदमुनि से पूछा नारद जी आप तो परम् ज्ञानी है कृपया बताएं मेरे भाग्य में कितना धन है...

नारदमुनि ने कहा - वत्स ये में भगवान विष्णु से पूछकर तुम्हे कल बताऊंगा...

अगले दिन उस व्यक्ति के पास पहुँच कर नारदमुनि ने कहा- वत्स भगवान विष्णु ने बताया 100 रुपये प्रतिदिन तुम्हारे भाग्य में है...

व्यक्ति बहुत खुश रहने लगा...
उसकी जरूरते 100 रूपये में पूरी हो जाती थी...

एक दिन उसके मित्र ने कहा में तुम्हारे सादगी भरे जीवन और तुम्हे खुश देखकर बहुत प्रभावित हुआ हूं और अपनी बहन का विवाह तुमसे करना चाहता हूँ...

व्यक्ति ने कहा मित्र मेरी कमाई 100 रुपये प्रतिदिन की है इसको ध्यान में रखना...
इसी में से ही गुजर बसर करना पड़ेगा तुम्हारी बहन को...

मित्र ने कहा कोई बात नहीं मुझे रिश्ता मंजूर है...

विवाह के अगले दिन से उस व्यक्ति की कमाई 1000 रुपये प्रतिदिन होने लगी...

उसने नारदमुनि को बुलाया की हे मुनिवर मेरे भाग्य में तो केवल 100 रूपये लिखे है फिर 1000 रुपये क्यो मिल रहे है...??

नारदमुनि ने कहा - तुम्हारा विवाह हुआ है क्या...??

उसने कहा हाँ हुआ है...

तो यह तुमको 900 रुपये उसके भाग्य के मिल रहे है...
इसको जोड़ना शुरू करो तुम्हारे ग्रहस्थ जीवन में काम आएंगे...

एक दिन उसकी पत्नी गर्भवती हुई और उसकी कमाई 1000 से बढ़कर 2000 रूपये होने लगी...

फिर उसने नारदमुनि को बुलाया और कहा है मुनिवर मेरी और मेरी पत्नी के भाग्य के 1000 रूपये मिल रहे थे लेकिन अभी 2000 रूपये क्यों मिल रहे है...
क्या मै कोई अपराध कर रहा हूँ...??

मुनिवर ने कहा- यह तेरे बच्चे के भाग्य के 1000 रुपये मिल रहे है...

हर मनुष्य को उसका प्रारब्ध (भाग्य) मिलता है...
किसके भाग्य से घर में धन दौलत आती है हमको नहीं पता...

लेकिन मनुष्य अहंकार करता है कि मैने बनाया,,,मैंने कमाया,,,
मेरा है,,,
मै कमा रहा हूँ,,, मेरी वजह से हो रहा है...

हे प्राणी तुझे नहीं पता तू किसके भाग्य का खा कमा रहा है...।।

08/06/2024

*🌳 त्याग का रहस्य 🌳*

*एक बार महर्षि नारद ज्ञान का प्रचार करते हुए किसी सघन बन में जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने एक बहुत बड़ा घनी छाया वाला सेमर का वृक्ष देखा और उसकी छाया में विश्राम करने के लिए ठहर गये।*

*नारदजी को उसकी शीतल छाया में आराम करके बड़ा आनन्द हुआ, वे उसके वैभव की भूरि भूरि प्रशंसा करने लगे।*

*उन्होंने उससे पूछा कि.. “वृक्ष राज तुम्हारा इतना बड़ा वैभव किस प्रकार सुस्थिर रहता है? पवन तुम्हें गिराती क्यों नहीं?”*

*सेमर के वृक्ष ने हंसते हुए ऋषि के प्रश्न का उत्तर दिया कि- “भगवान्! बेचारे पवन की कोई सामर्थ्य नहीं कि वह मेरा बाल भी बाँका कर सके। वह मुझे किसी प्रकार गिरा नहीं सकता।”*

*नारदजी को लगा कि सेमर का वृक्ष अभिमान के नशे में ऐसे वचन बोल रहा है। उन्हें यह उचित प्रतीत न हुआ और झुँझलाते हुए सुरलोक को चले गये।*

*सुरपुर में जाकर नारदजी ने पवन से कहा.. ‘अमुक वृक्ष अभिमान पूर्वक दर्प वचन बोलता हुआ आपकी निन्दा करता है, सो उसका अभिमान दूर करना चाहिए।‘*

*पवन को अपनी निन्दा करने वाले पर बहुत क्रोध आया और वह उस वृक्ष को उखाड़ फेंकने के लिए बड़े प्रबल प्रवाह के साथ आँधी तूफान की तरह चल दिया।*

*सेमर का वृक्ष बड़ा तपस्वी परोपकारी और ज्ञानी था, उसे भावी संकट की पूर्व सूचना मिल गई। वृक्ष ने अपने बचने का उपाय तुरन्त ही कर लिया। उसने अपने सारे पत्ते झाड़ डाले और ठूंठ की तरह खड़ा हो गया। पवन आया उसने बहुत प्रयत्न किया पर ढूँठ का कुछ भी बिगाड़ न सका। अन्ततः उसे निराश होकर लौट जाना पड़ा।*

*कुछ दिन पश्चात् नारदजी उस वृक्ष का परिणाम देखने के लिए उसी बन में फिर पहुँचे, पर वहाँ उन्होंने देखा कि वृक्ष ज्यों का त्यों हरा भरा खड़ा है। नारदजी को इस पर बड़ा आश्चर्य हुआ।*

*उन्होंने सेमर से पूछा- “पवन ने सारी शक्ति के साथ तुम्हें उखाड़ने की चेष्टा की थी पर तुम तो अभी तक ज्यों के त्यों खड़े हुए हो, इसका क्या रहस्य है?”*

*वृक्ष ने नारदजी को प्रणाम किया और नम्रता पूर्वक निवेदन किया- “ऋषिराज! मेरे पास इतना वैभव है पर मैं इसके मोह में बँधा हुआ नहीं हूँ। संसार की सेवा के लिए इतने पत्तों को धारण किये हुए हूँ, परन्तु जब जरूरत समझता हूँ इस सारे वैभव को बिना किसी हिचकिचाहट के त्याग देता हूँ और ठूँठ बन जाता हूँ। मुझे वैभव का गर्व नहीं था वरन् अपने ठूँठ होने का अभिमान था इसीलिए मैंने पवन की अपेक्षा अपनी सामर्थ्य को अधिक बताया था। आप देख रहे हैं कि उसी निर्लिप्त कर्मयोग के कारण मैं पवन की प्रचंड टक्कर सहता हुआ भी यथा पूर्व खड़ा हुआ हूँ।“*

*नारदजी समझ गये कि संसार में वैभव रखना, धनवान होना कोई बुरी बात नहीं है। इससे तो बहुत से शुभ कार्य हो सकते हैं। बुराई तो धन के अभिमान में डूब जाने और उससे मोह करने में है। यदि कोई व्यक्ति धनी होते हुए भी मन से पवित्र रहे तो वह एक प्रकार का साधु ही है। ऐसे जल में कमल की तरह निर्लिप्त रहने वाले कर्मयोगी साधु के लिए घर ही तपोभूमि है।*

03/05/2024

*🌳 कोन है राधा 🌳*

आखिर ये राधा है कोन और श्री कृष्ण से इनका क्या सम्बंध है।*

*जबकि भगवान श्री कृष्ण जी और श्री रुक्मणी जी को नारायण और लक्ष्मी जी को अवतार बताया गया है।*

*प्रेम से बोलो--राधे-राधे*

राधा मात्र एक नाम नहीं है, जिसे कृष्ण नाम के पहले लगाया जाता है। आज भी जब कहीं शाश्वत व आध्यात्मिक प्रेम की चर्चा होगी तो राधे-कृष्ण की मन-मोहक छवि ही मन-मष्तिष्क में आती है। राधा वास्तव में वह पवित्र नाम है, जहाँ द्वैत से अद्वैत का मिलन या विलय होता है।

आप देखते हैं कि किसी भी मंदिर में श्री कृष्ण का दर्शन राधा रानी के साथ ही होता है। इस मामले में लोगों के मन में प्रायः यह प्रश्न उठता है कि खुद भगवान की ऐसी क्या मजबूरी थी कि उन्होंने राधा से विवाह न करके रुक्मिणी से विवाह किया। यह प्रश्न भी उठता है कि जैसे राम के साथ सीता, शिव के साथ पार्वती एवं विष्णु के साथ लक्ष्मी की पूजा होती है, उसी प्रकार कृष्ण के साथ उनकी पत्नी रुक्मिणी की पूजा न होकर मंदिरों में राधा की मूर्ति होती है तथा उन्हीं की पूजा भी होती है। कृष्ण भजन में भी राधा का ही नाम होता है। ऐसा क्यों ?

यह विषय इतना गूढ़ है कि इसे बुद्धि तत्व से समझना और कुछ पंक्तियों में लिखना किसी के लिए भी संभव नहीं है। राधा-कृष्ण के प्रेम को जानने में तो जन्म-जन्मांतर लग जाते हैं। यहाँ पर मैंने तो संक्षेप में सिर्फ थोड़ा सा लिखने भर का प्रयास किया है।

मैंने स्वयं अनुभव किया है कि सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र मात्र कृष्णमय नहीं , बल्कि राधा-कृष्णमय है। वृन्दावन और बरसाना के तो कण-कण में राधा हीं राधा है। यहाँ तो सम्बोधन भी राधे-राधे ही बोलकर किया जाता है। यहाँ कोई भी शुभ कार्य राधे नाम के बिना हो ही नहीं सकता है।

राधा का अर्थ ही है-"मोक्ष की प्राप्ति" । "रा" का एक अर्थ मोक्ष भी है तथा "धा" का अर्थ है प्राप्ति। राधा का एक अर्थ प्रीति और अनुराग भी है। राधा का कृष्ण से मिलन भक्तिमार्ग से आत्मा का परमात्मा से मिलन है। राधा-कृष्ण नाम ही शाश्वत प्रेम का प्रतीक है।

एक कथा के अनुसार माता यशोदा ने एक बार राधा से उनके नाम की व्युत्पत्ति के विषय में पूछा तो राधा जी ने उन्हें आदर सहित बताया कि "रा" तो महाविष्णु हैं और "धा" विश्व के प्राणियों कि धाय है। पूर्वकाल में श्रीहरि ने ही उनका नाम राधा रखा था ।

विवेचना हेतु सर्वप्रथम प्राचीन ग्रंथों पर दृष्टि डालनी होगी । राधा का जिक्र महाभारत, श्रीमद भागवत, हरिवंश पुराण तथा गीता में नहीं है। राधा का जिक्र पद्म-पुराण, ब्रह्मवैवर्त-पुराण तथा गर्ग-संहिता में अवश्य है।

पद्म-पुराण एवं ब्रह्मवैवर्त-पुराण की रचना महर्षि वेदव्यास द्वारा तथा गर्ग-संहिता यदुवंशियों के कुलगुरु ऋषि गर्ग द्वारा की गयी है ।

राधा और कृष्ण के प्रेम का सबसे अधिक वर्णन गर्ग-संहिता में मिलता है । यदुवंशियों के कुलगुरु गर्ग मुनि अपने ही काल में हो रही कृष्ण-लीला में किसी भी काल्पनिक किरदार का चित्रण कैसे कर सकते हैं ? यहीं से मिलता है राधा के सत्य होने का प्रमाण ।

पद्म-पुराण की एक कथा के अनुसार जब भगवान श्री विष्णु ने द्वापर में श्री कृष्ण का अवतार लिया तब उन्होंने अन्य देवताओं को सहायता के लिए स्वयं अथवा अपने अंशरूप में पृथ्वी पर जन्म लेने का निर्देश दिया। तब भगवान श्री विष्णु की पत्नी श्री लक्ष्मी ने राधा रानी के रूप में यमुना जी के निकट रावल गांव में अवतरण लिया। इसी तरह त्रेता में भी माता लक्ष्मी ने सीता के रूप में अवतरण लेकर प्रभु श्री विष्णु के रामावतार में श्री राम का साथ दिया था।

पद्म-पुराण में एक जगह कहा गया है कि राधा ही श्री कृष्ण की आत्मा हैं। जब राधा श्रीकृष्ण की आत्मा हैं तो स्वयं श्री कृष्ण परमात्मा हैं। महर्षि वेद-व्यास जी ने भी एक जगह लिखा है कि श्रीकृष्ण आत्माराम हैं और राधा उनकी आत्मा हैं। हरिवंश महाप्रभु ने तो राधा को कृष्ण से भी अधिक प्रधानता दी है। उन्होंने तो अपने सम्प्रदाय का नाम ही राधावल्लभ संप्रदाय रखा। यहाँ बता दें कि वल्लभ का अर्थ होता है - प्रिय। राधा-चालीसा में तो कहा गया है कि जब तक राधा का नाम नहीं लिया जाय तब तक श्री कृष्ण का प्रेम नहीं मिलता है। वैष्णव संप्रदाय में राधा रानी को तो भगवान श्रीकृष्ण की शक्ति स्वरूपा भी माना गया है।

ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खंड अध्याय ४८ तथा गर्ग संहिता की एक कथा के अनुसार राधा और कृष्ण का विवाह उनके बचपन में ही हो गया था। जहाँ यह विवाह हुआ था ल, वह स्थान भांडीरवन था जो अब संकेत तीर्थ कहलाता है। यह स्थान बरसाना और नंदगांव के बीच में है। यह विवाह स्वयं ब्रह्मा जी ने विशाखा तथा ललिता की उपस्थिति में कराया था। यहाँ हर वर्ष राधा के जन्म-दिन अर्थात राधाष्टमी से लेकर अनंत चतुर्दशी के दिन तक मेला लगता है। जब श्रीकृष्ण कंश-वध हेतु मथुरा चले गए थे तो राधा जी अपने स्थान पर अपनी छाया को स्थापित करके स्वयं गोलोक चली गयी थीं । राधा जी की जो छाया रह गयी थी , उसी का विवाह रायण नामक गोप से हुआ। रायण श्रीकृष्ण की माता यशोदा के भाई थे। वे भी श्रीकृष्ण के अंशभूत गोप ही थें। अपने स्थान पर अपनी छाया को स्थापित करने की कथा प्राचीन ग्रंथों में अन्य कई जगहों पर भी की गयी है।

जैसे - राम-कथा में जब भगवान श्री राम अपनी पत्नी सीता के अनुरोध पर सुनहरे मृग को पकड़ने के लिए जा रहे थे तो माता सीता ने अपने स्थान पर अपनी छाया को स्थापित कर स्वयं अग्नि-देव के साथ चली गयी थीं तथा लंका-विजय के पश्चात् अग्नि-परीक्षा के उपरांत प्रकट हुईं। अपने स्थान पर अपनी छाया को स्थापित करने की एक कथा और भी मुझे याद है और वह कथा सूर्यदेव की पत्नी संज्ञा देवी की है । एक बार उन्होंने भी तपस्या हेतु जाते वक्त अपनी जगह अपनी छाया को स्थापित किया था।

ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार राधा का जन्म भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को हुआ था। महर्षि गर्ग के अनुसार राधा भी कृष्ण की तरह अनादि और अजन्मी है। अर्थात उनका जन्म भी माता के गर्भ से नहीं हुआ था।

एक पौराणिक कथा के अनुसार गोलोक धाम में एक बार राधा जी ने कुपित होकर श्रीदामा को गोलोक से बाहर पृथ्वी पर जाने तथा राक्षस हो जाने का श्राप दिया तो क्रोध में श्रीदामा ने भी प्रत्युत्तर में राधा जी को श्राप दिया कि परमात्मा श्रीकृष्ण से पृथ्वीलोक पर आपका भी वियोग हो जाएगा। तब श्रीकृष्ण ने वहां प्रकट होकर श्रीदामा को आश्वासन दिया कि तुम पृथ्वी पर शंखचूड़ नामक दानवराज बनकर राज करोगे और बाद में भगवान शिव के हाथों मृत्यु प्राप्त कर पुनः गोलोक धाम आ जाओगे। फिर देवी राधा से कहा कि आप पृथ्वी पर माता कृति और वृषभानु की पुत्री के रूप में जन्म लेने के बाद मेरे आस-पास हीं रहेंगी। बाद में श्राप के कारण कुछ समय तक मेरा विछोह स्वरुप आपका लौकिक विवाह रायण नामक गोप से होगा। सांसारिक दृष्टि में आप रायण की पत्नी कहलाएंगी परन्तु वह भी मेरा ही अंश होगा।

राधा-कृष्ण का प्रेम दैहिक एवं लौकिक न होकर शाश्वत एवं पारलौकिक है। महर्षि वेदव्यास, गर्ग ऋषि, जयदेव आदि की रचना का सही अर्थ न निकालकर कुछ आधुनिक साहित्यकारों ने राधा-कृष्ण के प्रेम को लौकिक दृष्टि से देखते हुए एक व्याहता स्त्री से श्रीकृष्ण का प्रेम दिखलाया है।

अगर हम श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण जीवन-काल को देखें तो इसे मुख्यतया तीन भागों में बाँट सकते हैं :-

सर्वप्रथम बाल्यकाल, जिसमें समस्त कृष्ण-लीला का वर्णन ऋषि-मुनियों, भक्तों एवं कवियों ने किया है । यह काल भगवान ने गोकुल और वृन्दावन में बिताया। भक्तिकाल का साहित्य तो इन्हीं लीलाओं से ओत-प्रोत है। इस काल के श्री कृष्ण की पहचान वंशीवाले कृष्ण के रूप में की जाती है । राधा-कृष्ण के प्रेम का युग भी यही काल था। भक्तिकाल या पूर्वमध्यकाल जिसकी अवधि संवत १३४३ से १६४३ तक मानी जाती है, में राधाकृष्ण भक्ति का तो निरंतर विस्तार होता गया। चैतन्य महाप्रभु, निम्बार्क सम्प्रदाय, राधावल्लभ सम्प्रदाय, सखीभाव सम्प्रदाय , जयदेव आदि ने तो इस भाव को और भी पुष्ट किया।

चूंकि भक्ति-काल का समस्त साहित्य राधा-कृष्ण के शाश्वत प्रेम से भरा है इसलिए मंदिरों की मूर्तियां भी राधा-कृष्ण की ही है, न कि रुक्मिणी-कृष्ण की ।

कंश-वध के बाद जीवन का दूसरा भाग गुरु-कुल में बीता तथा तीसरा भाग श्रीकृष्ण का योद्धा चरित्र एवं कुशल राजनीतिज्ञ का है। इस काल में इन्होंने द्वारका पर शासन किया, कई युद्ध लड़े तथा सबसे चर्चित कार्य महाभारत का युद्ध था।

अर्जुन को गीता-ज्ञान देते समय की छवि तो श्रीकृष्ण की अकेली छवि है , इसमें राधा या रुक्मिणी कोई भी नहीं हैं ।

संसार में अधिकतर मंदिरों में भगवान श्रीकृष्ण राधा रानी के साथ पूजित हैं तो कुछ मंदिरों में बालरूप में अकेले और कुछ में अपने बड़े भाई बलराम जी के साथ। परन्तु, कुछ मंदिरों में अपनी पत्नी रुक्मिणी के साथ भी पूजित हैं। इनमें से दो मंदिर की जानकारी मुझे भी है- ये मंदिर हैं मथुरा का द्वारकाधीश मंदिर तथा महाराष्ट्र के पंढरपुर गाँव का विट्ठल-रुक्मिणी मंदिर ।

श्री राधा कोई अवतार नहीं हैं। परब्रह्म श्रीकृष्ण का वाम अंग ही श्रीराधा का स्वरूप है। ये ब्रह्म के समान ही गुण और तेज से सम्पन्न हैं। इन्हें परावरा, सारभूता, परमाद्या, सनातनी, परमानन्दरूपा, धन्या, मान्या और पूज्या कहा जाता है। ये नित्यनिकुंजेश्वरी रासक्रीड़ा की अधिष्ठात्री देवी हैं। रासमण्डल में ही इनका आविर्भाव हुआ। गोलोकधाम में रहने वाली श्रीराधा ‘रासेश्वरी’ और ‘सुरसिका’ भी कहलाती हैं। नीले रंग के दिव्य वस्त्र धारण करने वाली और सम्पूर्ण ऐश्वर्यों से सम्पन्न हैं। ये भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति और दास्य प्रदान करने वाली तथा सम्पूर्ण सम्पत्तियों को देने वाली हैं।

श्री राधा प्रभु श्री कृष्ण की आत्मा है । प्रेम को समझाने के लिए ही उनका और कृष्ण का अवतार हुआ था। दोनों एक ही है…आप कह सकते हैं कि दोनों रूप कृष्ण के ही है। राधा वो तत्व है जो हर मनुष्य में प्रेम के रूप में वास करती है। राधा जी किसी का अवतार नहीं वो खुद ही देवी है। प्रेम का स्वरूप है।

बरहमवेवर्त पुराण के अनुसार कृष्ण ही परब्रह्म है और राधा उनकी शक्ति कही गई है।

देवी भागवत के अनुसार राधा मूल प्रकृति के पांच मुख्य रूप में से एक है यह प्रेम का और सौंदर्य का रूप है।

06/04/2024

*🌳कर्मों का फल तो भोगना पडे़गा🌳*

भीष्म पितामह रणभूमि में शरशैया पर पड़े थे। हल्का सा भी हिलते तो शरीर में घुसे बाण भारी वेदना के साथ रक्त की पिचकारी सी छोड़ देते।

ऐसी दशा में उनसे मिलने सभी आ जा रहे थे। श्री कृष्ण भी दर्शनार्थ आये।
उनको देखकर भीष्म जोर से हँसे और कहा.... आइये जगन्नाथ।..

आप तो सर्व ज्ञाता हैं। सब जानते हैं,
बताइए मैंने ऐसा क्या पाप किया था
जिसका दंड इतना भयावह मिला ?

कृष्ण: पितामह! आपके पास वह शक्ति है, जिससे आप अपने पूर्व जन्म देख सकते हैं। आप स्वयं ही देख लेते।

भीष्म: देवकी नंदन!
मैं यहाँ अकेला पड़ा और कर ही क्या रहा हूँ ?

मैंने सब देख लिया ...
अभी तक 100 जन्म देख चुका हूँ।
मैंने उन 100 जन्मो में एक भी कर्म ऐसा नहीं किया जिसका परिणाम ये हो कि मेरा पूरा शरीर बिंधा पड़ा है, हर आने वाला क्षण ...
और पीड़ा लेकर आता है।

कृष्ण: पितामह ! आप एक भव और
पीछे जाएँ, आपको उत्तर मिल जायेगा।

भीष्म ने ध्यान लगाया और देखा कि 101 भव पूर्व वो एक नगर के राजा थे। ...
एक मार्ग से अपनी सैनिकों की एक टुकड़ी के साथ कहीं जा रहे थे।

एक सैनिक दौड़ता हुआ आया और बोला "राजन! मार्ग में एक सर्प पड़ा है।
यदि हमारी टुकड़ी उसके ऊपर से गुजरी
तो वह मर जायेगा।"

भीष्म ने कहा " एक काम करो।
उसे किसी लकड़ी में लपेट कर
झाड़ियों में फेंक दो।"
सैनिक ने वैसा ही किया।...
उस सांप को एक बाण की नोक पर में
उठाकर कर झाड़ियों में फेंक दिया।

दुर्भाग्य से झाडी कंटीली थी।
सांप उनमें फंस गया।
जितना प्रयास उनसे निकलने का करता और अधिक फंस जाता।...

कांटे उसकी देह में गड गए।
खून रिसने लगा जिसे झाड़ियों में मौजूद
कीड़ी नगर से चीटियाँ रक्त चूसने लग गई।
धीरे धीरे वह मृत्यु के मुंह में जाने लगा।...
5-6 दिन की तड़प के बाद
उसके प्राण निकल पाए।

भीष्म: हे त्रिलोकी नाथ।
आप जानते हैं कि मैंने जानबूझ कर
ऐसा नहीं किया।
अपितु मेरा उद्देश्य उस सर्प की रक्षा था।
तब ये परिणाम क्यों ?

कृष्ण: तात श्री! हम जान बूझ कर क्रिया करें
या अनजाने में ...किन्तु क्रिया तो हुई न।

उसके प्राण तो गए ना।...
ये विधि का विधान है कि जो क्रिया हम करते हैं उसका फल भोगना ही पड़ता है।....

आपका पुण्य इतना प्रबल था कि
101 भव उस पाप फल को उदित होने में लग गए। किन्तु अंततः वह हुआ।....

जिस जीव को लोग जानबूझ कर मार रहे हैं...

उसने जितनी पीड़ा सहन की..
वह उस जीव (आत्मा) को इसी जन्म अथवा अन्य किसी जन्म में अवश्य भोगनी होगी।

ये बकरे, मुर्गे, भैंसे, गाय, ऊंट आदि वही जीव हैं जो ऐसा वीभत्स कार्य पूर्व जन्म में करके आये हैं।... और इसी कारण पशु बनकर,
यातना झेल रहे हैं।

अतः हर दैनिक क्रिया सावधानी पूर्वक करें।
कर्मों का फल तो झेलना ही पडे़गा...
*राधे राधे ।*

24/03/2024

*🌳 भगवान की माया 🌳*

सुदामा ने एक बार श्रीकृष्ण ने पूछा कान्हा, मैं आपकी माया के दर्शन करना चाहता हूं कैसी होती है” श्री कृष्ण ने टालना चाहा, लेकिन सुदामा की जिद पर श्री कृष्ण ने कहा,

“अच्छा, कभी वक्त आएगा तो बताऊंगा” और फिर एक दिन कहने लगे… सुदामा, आओ, गोमती में स्नानकरने चलें। दोनों गोमती के तट पर गए। वस्त्र उतारे। दोनों नदी में उतरे… श्रीकृष्ण स्नान करके तट पर लौट आए

पीतांबर पहनने लगे… सुदामा ने देखा, कृष्ण तो तट पर चला गया है, मैं एक डुबकी और लगा लेता हूं… और जैसे ही सुदामा ने डुबकी लगाई… भगवान ने उसे अपनी माया का दर्शन कर दिया
सुदामा को लगा, गोमती में बाढ़ आ गई है, वह बहे जा रहे हैं, सुदामा जैसे-तैसे तक घाट के किनारे रुके। घाट पर चढ़े। घूमने लगे। घूमते-घूमते गांव के पास आए। वहां एक हथिनी ने उनके गले में फूल माला पहनाई।

ऐसे दिखाई थी श्रीकृष्ण ने सुदामा को अपनी माया
सुदामा हैरान हुए। लोग इकट्ठे हो गए। लोगों ने कहा, “हमारे देश के राजा की मृत्यु हो गई है। हमारा नियम है, राजा की मृत्यु के बाद हथिनी, जिस भी व्यक्ति के गले में माला पहना दे, वही हमारा राजा होता है

हथिनी ने आपके गले में माला पहनाई है, इसलिए अब आप हमारे राजा हैं "सुदामा हैरान हुआ। राजा बन गया। एक राजकन्या के साथ उसका विवाह भी हो गया। दो पुत्र भी पैदा हो गएएक दिन सुदामा की पत्नी बीमार पड़ गई… आखिर मर गई… सुदामा दुख से रोने लगा… उसकी पत्नी जो मर गई थी, जिसे वह बहुत चाहता था, सुंदर थी, सुशील थी… लोग इकट्ठे हो गए… उन्होंने सुदामा को कहा, आप रोएं नहीं, आप हमारे राजा हैं… लेकिन रानी जहां गई है, वहीं आप को भी जाना है, यह मायापुरी का नियम है

आपकी पत्नी को चिता में अग्नि दी जाएगी… आपको भी अपनी पत्नी की चिता में प्रवेश करना होगा… आपको भी अपनी पत्नी के साथ जाना होगा। सुना, तो सुदामा की सांस रुक गई… हाथ-पांव फुल गए… अब

मुझे भी मरना होगा… मेरी पत्नी की मौत हुई है, मेरी तो नहीं… भला मैं क्यों मरूं… यह कैसा नियम है? सुदामा अपनी पत्नी की मृत्यु को भूल गया… उसका रोना भी बंद हो गया

ऐसे डूबे गए चिंता में
अब वह स्वयं की चिंता में डूब गया… कहा भी, ‘भई, मैं तो मायापुरी का वासी नहीं हूं… मुझ पर आपकी नगरी का कानून लागू नहीं होता… मुझे क्यों जलना होगा।’ लोग नहीं माने, कहा, ‘अपनी पत्नी के साथ आपको भी चिता में जलना होगा… मरना होगा… यह यहां का नियम है

आखिर सुदामा ने कहा, ‘अच्छा भई, चिता में जलने से पहले मुझे स्नान तो कर लेने दो…’ लोग माने नहीं… फिर उन्होंने हथियारबंद लोगों की ड्यूटी लगा दी… सुदामा को स्नान करने दो… देखना कहीं भाग न जाए… रह-रह कर सुदामा रो उठता

सुदामा इतना डर गया कि उसके हाथ-पैर कांपने लगे… वह नदी में उतरा… डुबकी लगाई… और फिर जैसे ही बाहर निकला… उसने देखा, मायानगरी कहीं भी नहीं, किनारे पर तो कृष्ण अभी अपना पीतांबर ही पहन रहे थे… और वह एक दुनिया घूम आया है।

मौत के मुंह से बचकर निकला है…सुदामा नदी से बाहर आया… सुदामा रोए जा रहा था। श्रीकृष्ण हैरान हुए… सबकुछ जानते थे… फिर भी अनजान बनते हुए पूछा, "सुदामा तुम रो क्यों रो रहे हो सुदामा ने कहा, "कृष्ण मैंने जो देखा है, वह सच था या यह जो मैं देख रहा हूं

श्रीकृष्ण मुस्कराए, कहा, “जो देखा, भोगा वह सच नहीं था। भ्रम था… स्वप्न था… माया थी मेरी और जो तुम अब मुझे देख रहे हो… यही सच है… मैं ही सच हूं…मेरे से भिन्न, जो भी है, वह मेरी माया ही है
और जो मुझे ही सर्वत्र देखता है, महसूस करता है, उसे मेरी माया स्पर्श नहीं करती। माया स्वयं का विस्मरण है…माया अज्ञान है, माया परमात्मा से भिन्न… माया नर्तकी है… नाचती है… नचाती है…

लेकिन जो श्रीकृष्ण से जुड़ा है, वह नाचता नहीं… भ्रमित नहीं होता… माया से निर्लेप रहता है, वह जान जाता है, सुदामा भी जान गया था… जो जान गया वह श्रीकृष्ण से अलग कैसे रह सकता है !

18/03/2024

🌺💫 *वास्तव में सुखी कौन??*💫🌺
*एक भिखारी किसी किसान के घर भीख माँगने गया। किसान की स्त्री घर में थी, उसने चने की रोटी बना रखी थी। किसान जब घर आया, उसने अपने बच्चों का मुख चूमा, स्त्री ने उनके हाथ पैर धुलाये, उसके बाद वह रोटी खाने बैठ गया। स्त्री ने एक मुट्ठी चना भिखारी को डाल दिया, भिखारी चना लेकर चल दिया।* *रास्ते में भिखारी सोचने लगा:- “हमारा भी कोई जीवन है? दिन भर कुत्ते की तरह माँगते फिरते हैं। फिर स्वयं बनाना पड़ता है। इस किसान को देखो कैसा सुन्दर घर है। घर में स्त्री हैं, बच्चे हैं, अपने आप अन्न पैदा करता है। बच्चों के साथ प्रेम से भोजन करता है। वास्तव में सुखी तो यह किसान है।* *इधर वह किसान रोटी खाते-खाते अपनी स्त्री से कहने लगा:- “नीला बैल बहुत बुड्ढा हो गया है, अब वह किसी तरह काम नहीं देता, यदि कही से कुछ रुपयों का इन्तजाम हो जाये, तो इस साल का काम चले। साधोराम महाजन के पास जाऊँगा, वह ब्याज पर दे देगा।”*
*भोजन करके वह साधोराम महाजन के पास गया। बहुत देर चिरौरी बिनती करने पर 1रु. सैकड़ा सूद पर साधों ने रुपये देना स्वीकार किया। एक लोहे की तिजोरी में से साधोराम ने एक थैली निकाली। और गिनकर रुपये किसान को दे दिये।*
*रुपये लेकर किसान अपने घर को चला, वह रास्ते में सोचने लगा- ”हम भी कोई आदमी हैं, घर में 5 रु. भी नकद नहीं। कितनी चिरौरी विनती करने पर उसने रुपये दिये है।*
*साधो कितना धनी है, उस पर सैकड़ों रुपये है “वास्तव में सुखी तो यह साधो राम ही है। साधोराम छोटी सी दुकान करता था, वह एक बड़ी दुकान से कपड़े ले आता था। और उसे बेचता था।*
*दूसरे दिन साधोराम कपड़े लेने गया, वहाँ सेठ पृथ्वीचन्द की दुकान से कपड़ा लिया। वह वहाँ बैठा ही था, कि इतनी देर में कई तार आए कोई बम्बई का था। कोई कलकत्ते का, किसी में लिखा था 5 लाख मुनाफा हुआ, किसी में एक लाख का। साधो महाजन यह सब देखता रहा, कपड़ा लेकर वह चला आया। रास्ते में सोचने लगा “हम भी कोई आदमी हैं, सौ दो सौ जुड़ गये महाजन कहलाने लगे। पृथ्वीचन्द कैसे हैं, एक दिन में लाखों का फायदा “वास्तव में सुखी तो यह है। उधर पृथ्वीचन्द बैठा ही था, कि इतने ही में तार आया कि 5 लाख का घाटा हुआ। वह बड़ी चिन्ता में था, कि नौकर ने कहा:- आज लाट साहब की रायबहादुर सेठ के यहाँ दावत है। आपको जाना है, मोटर तैयार है।” पृथ्वीचन्द मोटर पर चढ़ कर रायबहादुर की कोठी पर चला गया। वहाँ सोने चाँदी की कुर्सियाँ पड़ी थी, रायबहादुर जी से कलक्टर-कमिश्नर हाथ मिला रहे थे। बड़े-बड़े सेठ खड़े थे। वहाँ पृथ्वी चन्द सेठ को कौन पूछता, वे भी एक कुर्सी पर जाकर बैठ गया। लाट साहब आये, राय बहादुर से हाथ मिलाया, उनके साथ चाय पी और चले गये।*

*पृथ्वी चन्द अपनी मोटर में लौट रहें थे, रास्ते में सोचते आते है, हम भी कोई सेठ है 5 लाख के घाटे से ही घबड़ा गये। राय बहादुर का कैसा ठाठ है, लाट साहब उनसे हाथ मिलाते हैं। “वास्तव में सुखी तो ये ही है।”*

*अब इधर लाट साहब के चले जाने पर रायबहदुर के सिर में दर्द हो गया, बड़े-बड़े डॉक्टर आये एक कमरे वे पड़े थे। कई तार घाटे के एक साथ आ गये थे। उनकी भी चिन्ता थी, कारोबार की भी बात याद आ गई। वे चिन्ता में पड़े थे, तभी खिड़की से उन्होंने झाँक कर नीचे देखा, एक भिखारी हाथ में एक डंडा लिये अपनी मस्ती में जा रहा था। राय बहदुर ने उसे देखा और बोले:- ”वास्तव में तो सुखी यही है, इसे न तो घाटे की चिन्ता न मुनाफे की फिक्र, इसे लाट साहब को पार्टी भी नहीं देनी पड़ती सुखी तो यही है।”*
*इस कहानी से हमें यह पता चलता है, कि हम एक दूसरे को सुखी समझते हैं। पर वास्तव में सुखी कौन है, इसे तो वही जानता है। जिसे आन्तरिक शान्ति है।जिसे अंतरिक्ष सुकून है। आप चाहे भिखारी हो, चाहे करोड़पति हो। लेकिन आप के मन में जब तक शांति नहीं है तब तक आपको सुकून नहीं मिल सकता।*
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*सुन मन भूले बावरे ,गुर की चरणी लाग,*
*हरि जप नाम धियाइ तू ,जम डरपै दुख भाग*
*।। जय सियाराम जी।।*
*।। ॐ नमः शिवाय।।*

08/03/2024

*🪷 महाशिवरात् विशेष 🪷*

*क्यों मनाई जाती है महाशिवरात्रि? जानें इससे जुड़ी कथाएं, महूर्त, विधि*

पौराणिक कथा के अनुसार, देवों के देव महादेव और मां पार्वती का विवाह फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को हुआ था। इसी वजह से हर साल फाल्गुन माह में महाशिवरात्रि के पर्व को बेहद उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस विशेष अवसर पर शिव भक्त भगवान शिव की बारात निकालते हैं। साथ ही भगवान भोलेनाथ और मां पार्वती की विशेष पूजा-अर्चना करते हैं। साथ ही व्रत करते हैं। कहा जाता है कि इस दिन भगवान शिव की पूजा करने से वे जल्द प्रसन्न होते हैं

मान्यता के अनुसार, ऐसा करने से साधक को वैवाहिक जीवन से संबंधित सभी परेशानियों से छुटकारा मिलता है। साथ ही दांपत्य जीवन में सुख-समृद्धि का आगमन होता है।

महाशिवरात्रि शिव और शक्ति के अभिसरण का विशेष पर्व है। फाल्गुन माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को महाशिवरात्रि के नाम से जाना जाता है।

अमांत पञ्चाङ्ग के अनुसार माघ माह की शिवरात्रि को महाशिवरात्रि कहते हैं। परन्तु पुर्णिमांत पञ्चाङ्ग के अनुसार फाल्गुन माह की मासिक शिवरात्रि को महा शिवरात्रि कहते हैं। दोनों पञ्चाङ्गों में यह चन्द्र मास की नामाकरण प्रथा है जो इसे अलग-अलग करती है। हालाँकि दोनों, पूर्णिमांत और अमांत पञ्चाङ्ग एक ही दिन महा शिवरात्रि के साथ सभी शिवरात्रियों को मानते हैं।

पौराणिक कथा के अनुसार एक बार भगवान शिव अत्यंत क्रोधित हो गए। उनके क्रोध की ज्वाला से समस्त संसार जलकर भस्म होने वाला था किन्तु माता पार्वती ने महादेव का क्रोध शांत कर उन्हें प्रसन्न किया इसलिए हर माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को भोलेनाथ ही उपासना की जाती है और इस दिन को मासिक शिवरात्रि कहा जाता है।

माना जाता है कि महाशिवरात्रि के बाद अगर प्रत्येक माह शिवरात्रि पर भी मोक्ष प्राप्ति के चार संकल्पों भगवान शिव की पूजा, रुद्रमंत्र का जप, शिवमंदिर में उपवास तथा काशी में देहत्याग का नियम से पालन किया जाए तो मोक्ष अवश्य ही प्राप्त होता है। इस पावन अवसर पर शिवलिंग की विधि पूर्वक पूजा और अभिषेक करने से मनवांछित फल प्राप्त होता है।

अन्य भारतीय पौराणिक कथाओं के अनुसार महाशिवरात्रि के दिन मध्य रात्रि में भगवान शिव लिङ्ग के रूप में प्रकट हुए थे। पहली बार शिव लिङ्ग की पूजा भगवान विष्णु और ब्रह्माजी द्वारा की गयी थी। इसीलिए महा शिवरात्रि को भगवान शिव के जन्मदिन के रूप में जाना जाता है और श्रद्धालु लोग शिवरात्रि के दिन शिव लिङ्ग की पूजा करते हैं। शिवरात्रि व्रत प्राचीन काल से प्रचलित है। हिन्दु पुराणों में हमें शिवरात्रि व्रत का उल्लेख मिलता हैं। शास्त्रों के अनुसार देवी लक्ष्मी, इन्द्राणी, सरस्वती, गायत्री, सावित्री, सीता, पार्वती और रति ने भी शिवरात्रि का व्रत किया था।जो श्रद्धालु मासिक शिवरात्रि का व्रत करना चाहते है, वह इसे महा शिवरात्रि से आरम्भ कर सकते हैं और एक साल तक कायम रख सकते हैं। यह माना जाता है कि मासिक शिवरात्रि के व्रत को करने से भगवान शिव की कृपा द्वारा कोई भी मुश्किल और असम्भव कार्य पूरे किये जा सकते हैं। श्रद्धालुओं को शिवरात्रि के दौरान जागी रहना चाहिए और रात्रि के दौरान भगवान शिव की पूजा करना चाहिए। अविवाहित महिलाएँ इस व्रत को विवाहित होने हेतु एवं विवाहित महिलाएँ अपने विवाहित जीवन में सुख और शान्ति बनाये रखने के लिए इस व्रत को करती है।

महाशिवरात्रि अगर शनिवार के दिन पड़ती है तो वह बहुत ही शुभ होती है। शिवरात्रि पूजन मध्य रात्रि के दौरान किया जाता है। मध्य रात्रि को निशिता काल के नाम से जाना जाता है और यह दो घटी के लिए प्रबल होती है।

*महाशिवरात्रि पूजा विधि*

इस दिन सुबह सूर्योंदय से पहले उठकर स्नान आदि कार्यों से निवृत हो जाएं। अपने पास के मंदिर में जाकर भगवान शिव परिवार की धूप, दीप, नेवैद्य, फल और फूलों आदि से पूजा करनी चाहिए। सच्चे भाव से पूरा दिन उपवास करना चाहिए। इस दिन शिवलिंग पर बेलपत्र जरूर चढ़ाने चाहिए और रुद्राभिषेक करना चाहिए। इस दिन शिव जी रुद्राभिषेक से बहुत ही जयादा खुश हो जाते हैं. शिवलिंग के अभिषेक में जल, दूध, दही, शुद्ध घी, शहद, शक्कर या चीनी इत्यादि का उपयोग किया जाता है। शाम के समय आप मीठा भोजन कर सकते हैं, वहीं अगले दिन भगवान शिव के पूजा के बाद दान आदि कर के ही अपने व्रत का पारण करें। अपने किए गए संकल्प के अनुसार व्रत करके ही उसका विधिवत तरीके से उद्यापन करना चाहिए। शिवरात्रि पूजन मध्य रात्रि के दौरान किया जाता है। रात को चार पहाड़ जागकर यदि संभव ना हो तो कम से कम रात्रि 12 बजें के बाद थोड़ी देर जाग कर भगवान शिव की आराधना करें और श्री हनुमान चालीसा का पाठ करें, इससे आर्थिक परेशानी दूर होती हैं। इस दिन सफेद वस्तुओं के दान की अधिक महिमा होती है, इससे कभी भी आपके घर में धन की कमी नहीं होगी। अगर आप सच्चे मन से मासिक शिवरात्रि का व्रत रखते हैं तो आपका कोई भी मुश्किल कार्य आसानी से हो जायेगा. इस दिन शिव पार्वती की पूजा करने से सभी कर्जों से मुक्ति मिलने की भी मान्यता हैं।

*शिवरात्रि पर रात्रि जागरण और पूजन का महत्त्व*

माना जाता है कि आध्यात्मिक साधना के लिए उपवास करना अति आवश्यक है। इस दिन रात्रि को जागरण कर शिवपुराण का पाठ सुनना हर एक उपवास रखने वाले का धर्म माना गया है। इस अवसर पर रात्रि जागरण करने वाले भक्तों को शिव नाम, पंचाक्षर मंत्र अथवा शिव स्रोत का आश्रय लेकर अपने जागरण को सफल करना चाहिए।

उपवास के साथ रात्रि जागरण के महत्व पर संतों का कहना है कि पांचों इंद्रियों द्वारा आत्मा पर जो विकार छा गया है उसके प्रति जाग्रत हो जाना ही जागरण है। यही नहीं रात्रि प्रिय महादेव से भेंट करने का सबसे उपयुक्त समय भी यही होता है। इसी कारण भक्त उपवास के साथ रात्रि में जागकर भोलेनाथ की पूजा करते है।

शास्त्रों में शिवरात्रि के पूजन को बहुत ही महत्वपूर्ण बताया गया है। कहते हैं महाशिवरात्रि के बाद शिव जी को प्रसन्न करने के लिए हर मासिक शिवरात्रि पर विधिपूर्वक व्रत और पूजा करनी चाहिए। माना जाता है कि इस दिन महादेव की आराधना करने से मनुष्य के जीवन से सभी कष्ट दूर होते हैं। साथ ही उसे आर्थिक परेशनियों से भी छुटकारा मिलता है। अगर आप पुराने कर्ज़ों से परेशान हैं तो इस दिन भोलेनाथ की उपासना कर आप अपनी समस्या से निजात पा सकते हैं। इसके अलावा भोलेनाथ की कृपा से कोई भी कार्य बिना किसी बाधा के पूर्ण हो जाता है।

*शिवपुराण कथा में छः वस्तुओं का महत्व*

बेलपत्र से शिवलिंग पर पानी छिड़कने का अर्थ है कि महादेव की क्रोध की ज्वाला को शान्त करने के लिए उन्हें ठंडे जल से स्नान कराया जाता है।

शिवलिंग पर चन्दन का टीका लगाना शुभ जाग्रत करने का प्रतीक है। फल, फूल चढ़ाना इसका अर्थ है भगवान का धन्यवाद करना।

धूप जलाना, इसका अर्थ है सारे कष्ट और दुःख दूर रहे।

दिया जलाना इसका अर्थ है कि भगवान अज्ञानता के अंधेरे को मिटा कर हमें शिक्षा की रौशनी प्रदान करें जिससे हम अपने जीवन में उन्नति कर सकें।

पान का पत्ता, इसका अर्थ है कि आपने हमें जो दिया जितना दिया हम उसमें संतुष्ट है और आपके आभारी हैं।

*समुद्र मंथन की कथा*

समुद्र मंथन अमर अमृत का उत्पादन करने के लिए निश्चित थी, लेकिन इसके साथ ही हलाहल नामक विष भी पैदा हुआ था। हलाहल विष में ब्रह्मांड को नष्ट करने की क्षमता थी और इसलिए केवल भगवान शिव इसे नष्ट कर सकते थे। भगवान शिव ने हलाहल नामक विष को अपने कंठ में रख लिया था। जहर इतना शक्तिशाली था कि भगवान शिव बहुत दर्द से पीड़ित थे और उनका गला बहुत नीला हो गया था। इस कारण से भगवान शिव 'नीलकंठ' के नाम से प्रसिद्ध हैं। उपचार के लिए, चिकित्सकों ने देवताओं को भगवान शिव को रात भर जागते रहने की सलाह दी। इस प्रकार, भगवान भगवान शिव के चिंतन में एक सतर्कता रखी। शिव का आनंद लेने और जागने के लिए, देवताओं ने अलग-अलग नृत्य और संगीत बजाने लगे। जैसे सुबह हुई, उनकी भक्ति से प्रसन्न भगवान शिव ने उन सभी को आशीर्वाद दिया। शिवरात्रि इस घटना का उत्सव है, जिससे शिव ने दुनिया को बचाया। तब से इस दिन, भक्त उपवास करते है

*शिकारी की कथा*

एक बार पार्वती जी ने भगवान शिवशंकर से पूछा, 'ऐसा कौन-सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिससे मृत्युलोक के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर लेते हैं?' उत्तर में शिवजी ने पार्वती को 'शिवरात्रि' के व्रत का विधान बताकर यह कथा सुनाई- 'एक बार चित्रभानु नामक एक शिकारी था। पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुम्ब को पालता था। वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधित साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी।'

शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव-संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि व्रत की कथा भी सुनी। संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया। अपनी दिनचर्या की भांति वह जंगल में शिकार के लिए निकला। लेकिन दिनभर बंदी गृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल-वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा। बेल वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो विल्वपत्रों से ढका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला।

पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियां तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए। एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने पहुंची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, 'मैं गर्भिणी हूं। शीघ्र ही प्रसव करूंगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो जाऊंगी, तब मार लेना।' शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी जंगली झाड़ियों में लुप्त हो गई।

कुछ ही देर बाद एक और मृगी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख मृगी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, 'हे पारधी! मैं थोड़ी देर पहले ऋतु से निवृत्त हुई हूं। कामातुर विरहिणी हूं। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूं। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी।' शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली। शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर नहीं लगाई। वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, 'हे पारधी!' मैं इन बच्चों को इनके पिता के हवाले करके लौट आऊंगी। इस समय मुझे शिकारी हंसा और बोला, सामने आए शिकार को छोड़ दूं, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूं। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे। उत्तर में मृगी ने फिर कहा, जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी। इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान मांग रही हूं। हे पारधी! मेरा विश्वास कर, मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूं।

मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के अभाव में बेल-वृक्षपर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हृष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्य करेगा। शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृगविनीत स्वर में बोला, हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है, तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि मुझे उनके वियोग में एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन मृगियों का पति हूं। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण का जीवन देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे समक्ष उपस्थित हो जाऊंगा।

मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटनाचक्र घूम गया, उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, 'मेरी तीनों पत्नियां जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएंगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूं।' उपवास, रात्रि-जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष तथा बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गया। भगवान शिव की अनुकंपा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा। थोड़ी ही देर बाद वह मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आंसुओं की झड़ी लग गई। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया। देवलोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहे थे। घटना की परिणति होते ही देवी देवताओं ने पुष्प वर्षा की। तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को प्राप्त हुए'।

*भगवान गंगाधर की आरती*

ॐ जय गंगाधर जय हर जय गिरिजाधीशा।
त्वं मां पालय नित्यं कृपया जगदीशा॥ हर...॥

कैलासे गिरिशिखरे कल्पद्रमविपिने।
गुंजति मधुकरपुंजे कुंजवने गहने॥
कोकिलकूजित खेलत हंसावन ललिता।

रचयति कलाकलापं नृत्यति मुदसहिता ॥ हर...॥
तस्मिंल्ललितसुदेशे शाला मणिरचिता।
तन्मध्ये हरनिकटे गौरी मुदसहिता॥

क्रीडा रचयति भूषारंचित निजमीशम्‌।
इंद्रादिक सुर सेवत नामयते शीशम्‌ ॥ हर...॥

बिबुधबधू बहु नृत्यत नामयते मुदसहिता।
किन्नर गायन कुरुते सप्त स्वर सहिता॥

धिनकत थै थै धिनकत मृदंग वादयते।
क्वण क्वण ललिता वेणुं मधुरं नाटयते ॥हर...॥

रुण रुण चरणे रचयति नूपुरमुज्ज्वलिता।
चक्रावर्ते भ्रमयति कुरुते तां धिक तां॥

तां तां लुप चुप तां तां डमरू वादयते।
अंगुष्ठांगुलिनादं लासकतां कुरुते ॥ हर...॥

कपूर्रद्युतिगौरं पंचाननसहितम्‌।
त्रिनयनशशिधरमौलिं विषधरकण्ठयुतम्‌॥

सुन्दरजटायकलापं पावकयुतभालम्‌।
डमरुत्रिशूलपिनाकं करधृतनृकपालम्‌ ॥ हर...॥

मुण्डै रचयति माला पन्नगमुपवीतम्‌।
वामविभागे गिरिजारूपं अतिललितम्‌॥

सुन्दरसकलशरीरे कृतभस्माभरणम्‌।
इति वृषभध्वजरूपं तापत्रयहरणं ॥ हर...॥

शंखनिनादं कृत्वा झल्लरि नादयते।
नीराजयते ब्रह्मा वेदऋचां पठते॥

अतिमृदुचरणसरोजं हृत्कमले धृत्वा।
अवलोकयति महेशं ईशं अभिनत्वा॥ हर...॥
ध्यानं आरति समये हृदये अति कृत्वा।

रामस्त्रिजटानाथं ईशं अभिनत्वा॥
संगतिमेवं प्रतिदिन पठनं यः कुरुते।

शिवसायुज्यं गच्छति भक्त्या यः श्रृणुते ॥ हर...॥

*त्रिगुण शिवजी की आरती*

ॐ जय शिव ओंकारा,भोले हर शिव ओंकारा।
ब्रह्मा विष्णु सदा शिव अर्द्धांगी धारा ॥ ॐ हर हर हर महादेव...॥

एकानन चतुरानन पंचानन राजे।
हंसानन गरुड़ासन वृषवाहन साजे ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥

दो भुज चार चतुर्भुज दस भुज अति सोहे।
तीनों रूपनिरखता त्रिभुवन जन मोहे ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥

अक्षमाला बनमाला मुण्डमाला धारी।
चंदन मृगमद सोहै भोले शशिधारी ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥

श्वेताम्बर पीताम्बर बाघम्बर अंगे।
सनकादिक गरुणादिक भूतादिक संगे ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥

कर के मध्य कमंडलु चक्र त्रिशूल धर्ता।
जगकर्ता जगभर्ता जगपालन करता ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका।
प्रणवाक्षर के मध्ये ये तीनों एका ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥

काशी में विश्वनाथ विराजत नन्दी ब्रह्मचारी।
नित उठि दर्शन पावत रुचि रुचि भोग लगावत महिमा अति भारी ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥

लक्ष्मी व सावित्री, पार्वती संगा ।
पार्वती अर्धांगनी, शिवलहरी गंगा ।। ॐ हर हर हर महादेव..।।
पर्वत सौहे पार्वती, शंकर कैलासा।

भांग धतूर का भोजन, भस्मी में वासा ।। ॐ हर हर हर महादेव..।।

जटा में गंगा बहत है, गल मुंडल माला।
शेष नाग लिपटावत, ओढ़त मृगछाला ।। ॐ हर हर हर महादेव..।।

त्रिगुण शिवजीकी आरती जो कोई नर गावे।
कहत शिवानन्द स्वामी मनवांछित फल पावे ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥

ॐ जय शिव ओंकारा भोले हर शिव ओंकारा
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव अर्द्धांगी धारा ।। ॐ हर हर हर महादेव....।।

*हर हर महादेव ॐ नमः शिवाय*
*आपका दिन मंगलमय हो*

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