07/05/2023
कल कुछ लिखने का मन नहीं किया, आज भी कम ही है। आज कल के करोना काल मैं, ख़ाली दफ़्तर का सनटा भी कुछ करने या लिखने पड़ने की हिम्मत नही देता। ऊँचाई से दूर नीचे देखते देखते ये ही ख़याल आते है की कर क्या रहा हूँ इधर अकेले। दूर सड़क पर दोड़ती गाड़ियाँ बीते हुए जाने कितने सफ़र की याद दिलाती है। मैं न बहुत अजीब हूँ। हमेशा से मुझे मंज़िल से ज्यादा सफ़र में दिलचस्पी रही है। मंज़िल पर पहुँचने के बाद हमेशा से ही मैंने ख़ुद के अंदर एक अजीब सी कमी को महसूस किया हैं । एक ऐसे कमी जो मुझसे पूछ रही होती है की अब क्या? अब तो ये भी हसली कर लिया, अब क्या नया करोगे? लो, एक और मंज़िल पर पहुँच गए हो हो। ऐसे कमी जो मेरी हँसी उड़ा रहा हो और पूछ रही हो कह रहा हो कि ‘क्या तुम ख़ुश हो’ और मेरे पास इसका कोई जवाब नही होता..!!
आज कल भी मैं ऐसे ही किसी कमी से परेशान हूँ। सालों से जब मैं दिन-रात एक कर रहा था,, कोशिश पर कोशिश, चांस पर चांस ले रहा था, देश भर में जिसके लिए भटकता था, पागलों की तरह कभी ये करता था, कभी वो पड़ता था किसी भी तरह एक सफल जीवन बना सकूँ , के कभी किसी के आगे हाथ ना फैलाना पड़े। वो अब मेरे हाथ में है तो मुझे कोई ख़ुशी, कोई रोमांच महसूस नही होता। बचपन से अभी तक जो जो करने का सोच था, लेने का सोच था सब लिया पर कोई रोमांच नही। नौकरी मैं जब एक मुक़ाम पर पहुँचा, मुझे कोई ख़ुशी या रोमांच नही हुआ, और अब ऐसा लगता है कि सब कुछ छोड़ दूँ, कभी कभी इतना परेशान हो जाता हूँ की कुछ सुझता ही नही की क्या करूँ। ये बिलकुल सही बात है की जीवन मैं असफलता सफलता से हमेशा ही ज्यदा होती है। मैं भी बिलकुल सामने से, अपने हाथों से सफलता को फिसलते हुए देखा है। कभी कभी साथ काम करने वालों पर, उनकी ग़लतियों पर इतना ग़ुस्सा आता है की, पर कुछ कर नही पता। अपने काम करने की जगह पर होती राजनीति, मेरी पीठ पीछे होती मेरी बुराई, मेरे चरित्र को लेकर मसखरी करते लोग , वो लोग जो मुझे बिलकुल नही जानते। शायद जो लोग मेरे साथ इस सफ़र मैं है वो लोग मुझे अपने मुक़ाम का रोमांच अनुभव नही होने दे रहे लेकिन मेरा ये सोचना की दूसरे भी मेरी ही तरह सोचे और मेरी ही तरह उनको भी किन्ही बातों से फ़र्क़ पड़े, ये भी बिलकुल ग़लत ही है। जब भी कोई पसंद की हुई चीज़ हासिल की, दिल ने कोई भाव नही दिया। जो भी दिन मेरे अभी तक के जीवन के सबसे बड़े और यादगार दिन थे मैं उन सभी दिन एक दम अकेला था, मैंने शायद किसी को फ़ोन भी नही किया की ऐसा हुआ है मेरे साथ। मेरे दिमाग में यही बात घूमती रहेती है की ये बदलाव मुझें ख़ुशी देगा कि नही,?? कभी कभी ये लागत है की क्या मैं खुद ही सिर्फ़ सबको खुश करने का सोचता हूँ, जो मुझे नही सोचना चाहिए। मुझे मालूम है कि मेरे आस पास के लोग को लिए मैं सिर्फ़ ज़रूरत पड़ने पर काम आने वाला इंसान हूँ, कभी किसी की प्रायऑरिटी या सब कुछ नही बन पाया।। सिर्फ़ दोस्तों मैं वो दोस्त बन पाया जिसका फ़ोन आप जब चाहे बीच मैं काट सकते है क्यूँकि वो ज़रूरी नही है, शायद ज़रूरत से ज्यदा अच्छा है, समझदार है समझ जाएगा। अच्छा आदमी है।
*मैं नही हूँ अच्छा आदमी। अच्छे आदमी बने रहने बहुत मुश्किल हैं.. एक क़िस्म का का बोझ है जिसे ढोते हुए मैं थक चुका हूँ। मैं एक दम साधारण बने रहना चाहता हूँ जिसपर हर चीज़ का असर होता है। बेअसर शरीर मृत होता है। ईर्ष्या, द्वेष, ग़ुस्सा सारे हमारे जीने के भीतर सफ़र करते हैं, जिस तरह हंसी को मैं रोकता नहीं हूँ उसी तरह इन सबके लिए भी मेरे घर के दरवाज़े हमेशा खुले रहते हैं। हम हमेशा बदल रहे हैं… हम रोज़ अलग है। ठीक उसी तरह लगातार खुश रहने की दौड़ भी एकदम झूठी है। लगातार ख़ुशी की ऊँचाइयों पर बने रहने की अपेक्षा क्यों करना है? जब हम साधारण जी सकते हैं। सारा कुछ महसूस करने से क्यों बचते रहना है? जीते रहने की कीचड़ से सिर्फ़ ख़ुशी क्यों बटोरना है लगातार? ये अधूरा जीना है जैसे खाने से भरी थाली से सिर्फ़ मिठाई चुनना। ये शरीर सिर्फ़ मिठाई खाकर जीवित नहीं रह सकता है इसे बराबर मात्रा में सारा कुछ चाहिए। सदा खुश रहें और वो कितना अच्छा आदमी है जैसे वाक्य हमें जीने के अद्भुत घने जंगल में घुसने का डर देते है। और हमने हमारी मिली ज़मीन पर सिर्फ़ ख़ुशी की एक ही फसल उगाने की कोशिश में उसे बंजर बना दिया है। अब जंगल साँस ले रहा है और हम अभी भी बस ख़ुशी के प्यासे हैं।*
हां ये सच है कि हम हमेशा ख़ुशी की तलाश में रहते हैं और शायद ये तलाश सबसे ज़्यादा निराश करती है। अगर जो जैसा है उसे वैसा महसूस करें तो हम हर तरह के जज़्बात का मज़ा ले सकते हैं.. ज़रूरी नहीं कि ख़ुशी सिर्फ़ हंसने या मुस्कुराने में है। रोने में, गुस्से में या जलन में भी अक्सर ख़ुशी होती है, अगर हम समझ पाएं तो…हम ख़ुशी की कई छवियां अपने मन में बना लेते हैं और उनसे बाहर नहीं निकल पाते, इसलिए ख़ुशी पाने की दौड़ कभी ख़त्म नहीं होती। ज़िंदगी हमें जो देती हो उसे बाहें फैला कर स्वीकार करना चाहिए। सिर्फ खुशियों की उम्मीद लगाकर ज़िंदगी का लुत्फ़ नही लिया जा सकता।
इस दिमाग़ मैं हमेशा कुछ ना कुछ रहेता है, जीवन के बारे मैं, इस जीवन से जुड़े लोगों के बारे मैं। कुछ अभी भी दोस्त है, कुछ सिर्फ़ एक नाम बन कर रहे गए है फ़ोन लिस्ट मैं। जैसे जैसे वक्त गुजरता है सब बदल जाता है, एक जैसा कभी कुछ नही रहेता। फिर मन करता है कंही जाने का, किसी अकेली शांत जगह पर। इतना कुछ अंदर भरा है जिसका बाहर आना ज़रूरी है। दिल कहेता है की जाओ कंही और किसी से बोल दो, आज़ाद हो जाओ। अपने अंदर मत रखो कुछ भी, कोई ना कोई रास्ता देखो। ये शायद ज़रूरी है ताकि जब तुम किसी से मिलो और मुस्कुराओ तो वो मुस्कुराहट झूठी ना हो। हम सबके हर तरफ़ एक नयी कहानी बुन रही होती है, लेकिन ख़याल फटें-पुराने के इर्द-गिर्द रहता है। क्या खोया है, क्या कमाया है,क्या कमाया जा सकता है, हर चीज़ का हिसाब लगाते रहते है । हर समय एक अजीब से जोड़ तोड़ में लगे रहते हैं । शायद बेहतर होता अगर हम इस जोड़ तोड़ को अपनी व्यावहारिक ज़िन्दगी का हिस्सा ना बनाते। ज़्यादा और कम के फेर में ना पड़ते। तो शायद इंसान इतना लालची ना होता। शायद तब इंसान अपनी ज़रूरत के अनुसार काम करता और ज़रूरत से ज़्यादा बटोरने में नही लगा रहता। कुदरत की तरह हम भी शायद बिना फायदा या नुक्सान का हिसाब लगाये, हर चीज़ देना सीख जाते। अब मुझसे कोई हिसाब नहीं होता, होगा ही नही, कभी हो सकता भी नहीं।
अपनी आगे की आधी ज़िन्दगी में मैं अच्छा नही एक नया इंसान बनना चाहता हूँ जो अपनी हर महसूस की हुई बात को किसी को बता सके और हस सके अपनी हर उलझन पर और सुलझा ले बिना किसी की मदद लिए और रो सके जितना चाहे जब तक चाहे और चुप हो सके बिना किसी के स्नेह की अपकेशा किए हुए । जो उस चीज़ को धुंडना बन्द करदे जिसे मै अक्सर ढूंढता रहता हूं । मै हमेशा से हर जगह कुछ ढूंढता सा रहता हूं। हर समय उस एक चीज़ की तलाश रहती है जिसके मिल जाने पर ही शायद मै जान सकूँ की वो क्या है। वो कहते है ना की ख़ुशियाँ और ग़म सब दिमाग़ का खेल है, आज़ादी से जीवन ज़ीना ही मेरा सपना है। मैं आधी रात को भी जीया हूँ, अकेले किताबे पड़ता हुआ भी जीया हूँ, सितारों से भरे हुए आसमान को देखते हुए भी जीया हूँ और काले बदलो से ढके हुए आसमान और कुछ ना दिखायी देनी वाली सर्द काली रातों मैं भी किया हूँ। अपने इस नए इंसान बंनने के क्रम मैं मैं चाहता हूँ अपनी बाइक पर कंही बाहर जाऊँ। कुछ नए दोस्त बनाऊँ जो अलग तरह से जीते हो, मेरी तरह नही। वो काम करूँ जिनको हमेशा किसी ना किसी बहने टालता रहा। वो किताब पूरी करूँ जो अधूरी छोड़ दी, अपनी लिखी बातों को, अपने कहे क़िस्सों को किसी को सुनाऊँ। ये सच है की अभी जीवन मैं बहुत से उतार चडव आने बाक़ी है। मेरा मक़सद उन सबके आगे आड़े रहेना, लड़ते रहेना, जीतते रहना और सबसे सीखते रहना ही है। मुझे लगता है जीवन कभी आपसे श्रेष्ट होने की उपेक्षा नही रखता , वो सिर्फ़ इतना चाहता है की आप पूर्ण रूप से अपने हो जाए। खुद को अपना लें, आप जैसे भी हों।
मैं जानता हूँ कि कि मैं हमेशा ही जीत नही सकता। सारी कोशिशें और प्रथना आपको बहुत कुछ सिखाती है और अहसास भी करती है की आप हमेशा नही जीत सकते। जीवन की यही हार जीत की लड़ाई चाहती है की आप आराम भी करो और इस सचाई को भी स्वीकार करो। कभी कभी हमें आराम से बैठ कर कॉफ़ी पीनी चाहिए और और एक अच्छे कल के बारे मैं सोचना चाहिए , जो मैं अब कर रहा हूँ। वैसे मैं कभी कभी ये भी सोचता हूँ कि अगर ऑफ़िस मैं ना हूँ तो क्या मैं कॉफ़ी पीता, शायद नही…….
*मानव कॉल द्वारा लिखित । मैं इतना अच्छा नही लिख सकता था इस बात को बताने के लिए।