06/06/2021
बहुत सारे मित्रों ने इंटिग्रेटेड पैथी की बात की है। यानी एलोपैथी और आयुर्वेद को मिला कर चिकित्सा। इससे एलोपैथ वालों का क्या आशय होता है, यह उन मित्रों को पता नहीं है। एक उदाहरण से समझाता हूँ।
कैंसर के इलाज के लिए एलोपैथ ने आयुर्वेद वालों से समझौता किया। संस्थानों का नाम नहीं लूंगा, हमारे कई मित्रगण आहत होंगे। तो एलोपैथ के चिकित्सकों ने वैद्यों को कीमियो अथवा रेडियो थेरेपी से होने वाले कुप्रभावों को दूर करने में उन्हें सहायता करने को कहा। यानी आयुर्वेद से कैंसर की चिकित्सा करने में सहायता नहीं ली, चिकित्सा के दुष्प्रभावों को दूर करने मात्र के लिए कहा। मैंने उस प्रोजेक्ट में लगे एक वैद्य से बात की। उन्होंने कहा कि आयुर्वेद में तो कैंसर का इलाज नहीं है, इसलिए हम केवल एलोपैथ के सहयोगी हो सकते हैं, चिकित्सा नहीं कर सकते। वे वैद्य सरकारी कर्मचारी हैं।
तो क्या आयुर्वेद में कैंसर की चिकित्सा नहीं है? है मित्रों, बिल्कुल है। मेरे संपर्क में 4-5 वैद्य हैं जिन्होंने कैंसर के चौथे चरण के रोगियों को ठीक किया है। उनके पास पूरे केस स्टडीज भी हैं। एक नहीं, दर्जनों मामले हैं। इसलिए आप यह नहीं कह सकते कि तुक्का लग गया था। अनेक प्रकार के कैंसरों को उन्होंने ठीक किया है और ऐसे रोगियों को ठीक किया है, जिन्हें एलोपैथ ने उत्तर दे दिया था कि बस, कुछ महीने और।
इंटीग्रेशन का वास्तविक अर्थ क्या होगा, यह मैं बताता हूँ।
1. सरकारी पदों जैसे कि डीजी, हैल्थ पर केवल एलोपैथ के डॉक्टरों की बजाय आयुर्वेद, होमियोपैथ, योग, प्राकृतिक चिकित्सा आदि के विशेषज्ञों की भी नियुक्ति की जानी चाहिए। स्वास्थ्य पर किसी का एकाधिकार नहीं रहे।
2. चिकित्सा की सभी विधाओं के पाठ्यक्रम में आयुर्वेद के शरीररचना शास्त्र का अध्यापन कराया जाए। वात, पित्त और कफ की अवधारणा, उसके प्रभाव, उसके आधार पर चिकित्सा की विधा एलोपैथ वालों को भी सिखाया जाए।
3. देश के सभी प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों पर वैद्यों की नियुक्ति हो। इसके लिए एक सामान्य सा परीक्षण तय किया जाए ताकि गैर BAMS यानी पारंपरिक वैद्य भी इसमें नियुक्त किए जा सकें। देश में व्याप्त पारंपरिक वैद्यों के विशाल संजाल का देश को सही लाभ मिल सकेगा।
4. गाँव-गाँव में फैले विशेषज्ञ आयुर्वेदिक चिकित्सकों क्वैक कहा जाना बंद किया जाए। उन्हें चिकित्सक की मान्यता दी जाए। उदाहरण के लिए बड़ी संख्या में ऐसे वैद्य हैं जो बवासीर का इलाज करते हैं, कुछ पैरालिसिस का इलाज करते हैं, कुछ लीवर के रोगों का इलाज करते हैं, कुछ हड्डियों को जोड़ते हैं। इन्हें उपयुक्त सम्मान मिलना चाहिए।
5. जिस प्रकार आयुर्वेदिक औषधियों पर आधुनिक विज्ञानानुसार शोध की बात होती है, उसी प्रकार एलोपैथिक औषधियों पर आयुर्वेदानुसार शोध करवाया जाए। यानी पारासिटामोल जैसी दवाओं के #वात, #पित्त और #कफ पर क्या प्रभाव पड़ता है? दर्दनिवारक तथा एंटीबॉयोटिक दवाओं के #किडनी और #लीवर पर क्या प्रभाव पड़ते हैं? इत्यादि।
6. सरकारी बजट में सभी पैथियों को समान बजट मिलना चाहिए।
7. आयुष मंत्रालय को समाप्त कर दिया जाए। सभी पैथियां स्वास्थ्य से संबंधित हैं और उनके लिए स्वास्थ्य मंत्रालय काफी है।
एलोपैथ की आलोचना करने से डॉक्टर विशेषकर स्वयं को राष्ट्रवादी माननेवाले तथा संगठन से जुड़े डॉक्टर बहुत आहत हैं। एक ने मुझसे पूछा कि क्या हम ईसाइयत फैलाने वाले हो गए हैं?
ऐसे सभी मित्रों से कहना चाहता हूँ कि वे इस गंभीर चर्चा को ऐसे हल्का न बनाएं। सोचें, हम सभी की पुस्तकों में व्याप्त भारतविरोधी सामग्री को उजागर करते रहते हैं। तो क्या के पाठ्यक्रम को पढ़ाने वाले शिक्षक यह कहें कि हम NCERT की आलोचना न करें, क्योंकि इससे उन पर भारतविरोधी फैलाने का आरोप लगता है।
अरे भाई, डॉक्टरों और शिक्षकों का दोष नहीं है। दोष इस पैथी में है। यह पैथी एक इकोसिस्टम की उपज है। आधुनिक मशीनीकरण से यह पैदा हुई है। शुष्क तथा आत्महीन विचार से यह प्रेरित है। आपने तो इसे केवल एक आजीविका के रूप में अपनाया है। इतना समझने में आपको इतनी परेशानी क्यों हो रही है?
देश के प्रशासन तंत्र का आधार एंग्लोसैक्शन क्रिश्चियन लॉ है। ऐसा कहने से प्रशासन तंत्र में कार्यरत सभी लोग ईसाइयत के प्रचारक थोड़े ही कहे जा रहे हैं।उसमें कार्यरत लगभग सभी लोग तो एक अच्छी आजीविका के लिए उसमें कार्यरत हैं। उन्हें तो इसका संज्ञान तक नहीं है कि जिस तंत्र में वे कार्य कर रहे हैं, वह है क्या और उसका परिणाम क्या है।
फिर से कह रहा हूँ। ठीक से समझ लें। व्यक्तियों का नहीं, व्यवस्था, तंत्र तथा पैथी का दोष बतलाया जा रहा है। ओवररिएक्ट न करें।
अभी तक शायद ही किसी एलोपैथ के डॉक्टर को के विरुद्ध बोलते सुना होगा । प्रखर से प्रखर राष्ट्रवादी डॉक्टर भी इस प्रसंग में आयुर्वेद के खिलाफ बोलते नजर आए। जिन्होंने आयुर्वेद को महान बताया, उन्होंने भी उसे वर्तमान में अप्रासंगिक बता दिया। किसी ने भी एक बार भी आयुर्वेद की उपयोगिता नहीं बताई। उसे अपरिहार्य नहीं बताया। प्रकारांतर से वह भी भारत की ज्ञान परंपरा के विरुद्ध खड़े दिखाई पड़े।
दूसरी ओर ढेर सारे माननीय वैद्य बाबा रामदेव के बारे में अनर्गल बोलते दिखे। बहुत सारे आयुर्वेद की समीक्षा करते दिखे। एलोपैथ की प्रशंसा करते वैद्य भी दिखे। एलोपैथ को अपरिहार्य बताते वैद्य भी दिखे।
यहाँ मैं सोशल मीडिया एक्टीविस्टों की बात नहीं कर रहा, उनकी तो और भी अधिक दयनीय स्थिति है। पिछले वर्ष वे क्लोरोक्वीन के लिए उत्साहातिरेक में थे, तो इस वर्ष DRDO की दवा के लिए हुए जा रहे हैं।
इसे ही आत्महीनता कहते हैं। यह आत्महीनता इकोसिस्टम से पैदा होती है। एलोपैथ के इस इकोसिस्टम की चर्चा मैं नीचे कर रहा हूँ। जिसका परिणाम है कि आयुर्वेद के वैद्य भी एलोपैथ को अपरिहार्य बता रहे हैं।
ईश्वर हमें इस आत्महीनता से मुक्त करें, अब केवल यही प्रार्थना की जा सकती है।
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एलोपैथ के इकोसिस्टम को समझें
जैसे देश में कम्युनिस्टों का अपना एक इकोसिस्टम है, ठीक उसी प्रकार एलोपैथ का भी अपना एक इकोसिस्टम है। इस इकोसिस्टम का तोड़ ढूंढे बिना आप आप उसका मुकाबला नहीं कर सकते। आइए समझते हैं कि एलोपैथ का इकोसिस्टम क्या है?
#शिक्षा
भारत की पूरी शिक्षा एलोपैथ की पोषक है। देश की पूरी शिक्षा, विशेषकर #विज्ञान की शिक्षा #यूरोपीय है। उसमें कुछ भी भारतीय नहीं है। इसलिए इस तंत्र में शिक्षित व्यक्ति को #भारतीय_विज्ञान की न तो जानकारी होती है, न समझ होती है और न ही उस पर कोई श्रद्धा होती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों के संपर्क के कारण उसकी श्रद्धा जागृत भी हो जाए तो भी भारतीय विज्ञान की उसकी जानकारी और समझ दोनों ही शून्य होते हैं। इसलिए वह आयुर्वेद को केवल गौरवगान की वस्तु समझता है, प्रयोग के लिए उसे एलोपैथ पर ही भरोसा होता है।
#अर्थतंत्र
भारतीय अर्थतंत्र चूँकि यूरोपीय प्रारूप पर बना हुआ है, इसलिए यह भी पूरी तरह एलोपैथ का पोषक है। वर्तमान अर्थतंत्र अधिकाधिक उपभोग पर आधारित है, जो केवल रोगोत्पादक ही होता है। संयम से वर्तमान अर्थतंत्र चिढ़ता है। इसलिए घर पर बने चिप्स, नमकीन, पोहे, भुन्जा आदि के स्थान पर पैकेज्ड भोजन सामग्रियां, घर की मिठाइयों की बजाय बाजार की मिठाइयां तथा चॉकलेट-आइसक्रीम, घर के शरबत की बजाय बाजारू कोल्ड ड्रिंक आदि का प्रचार यह अर्थतंत्र करता है। घरेलू उत्पादन विकेंद्रित होता है और स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है, परंतु वह जीडीपी यानी देश के नकली विकास दर को कम करता है। केंद्रीकृत तथा मशीनकृत उत्पादन स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह होता है, परंतु जीडीपी को बढ़ाता है। उदाहरण के लिए दातुन के प्रयोग से जीडीपी गिरती है और टूथपेस्ट के प्रयोग से जीडीपी बढ़ती है, परंतु दातुन दाँतों के लिए लाभकारी है, टूथपेस्ट बिल्कुल भी नहीं।
एलोपैथ की तमाम दवाएं मशीनों से केंद्रीकृत उत्पादन ही की जा सकती हैं। कोई भी एलोपैथ डॉक्टर अपनी दवाएं स्वयं नहीं बना सकता। इसलिए एलोपैथ वर्तमान अर्थतंत्र के लिए बहुत ही लाभकारी है, भले ही उससे समाज का स्वास्थ्य एकदम नष्ट हो जाए। दूसरी ओर आयुर्वेद के घरेलू नुस्खे तो घर में बनते ही हैं, इसकी औषधियां भी अधिकांश वैद्य स्वयं ही बनाते हैं। केवल यूरोपीय पद्धति से बने आयुर्वेदिक कॉलेजों से पढ़े वैद्य ही कंपनियों की दवाओं पर निर्भर रहते हैं। इसलिए आज भी आयुर्वेद बाजार नहीं बन पाया। यही कारण है कि वर्तमान अर्थतंत्र एलोपैथ का पोषण करता है। अमेरिका में तो दवानिर्माता कंपनियां सरकार तक बनाती बिगाड़ती हैं।
#मीडिया
वर्तमान मीडिया पूरी तरह अर्थतंत्र द्वारा संचालित है। #आयुर्वेद उसके किसी काम की नहीं है। आय़ुर्वेद के बिखरे पड़े वैद्यों की श्रृंखला उसे विज्ञापनरूपी धन दे नहीं सकतीं। वह तो केवल #एलोपैथ की दवा कंपनियां, उसकी मशीनें बनाने वाली कंपनियां और उसके बड़े-बड़े पंचसितारा अस्पताल आदि ही देंगे। इसलिए मीडिया केवल एलोपैथ के समाचारों को ही समाचार समझता है। आयुर्वेद पर चर्चा उसके लिए भी केवल प्राचीन का गौरवगान मात्र ही है।
#शासन और #प्रशासन
भारत का शासन और प्रशासन पूरी तरह अंग्रेजी यानी एंग्लो-सैक्शन प्रोटेस्टैंट क्रिश्चियन तंत्र द्वारा विकसित और समर्थित है। इसलिए वहाँ भी भारतीयता को घोरतम अभाव है। इसलिए वे केवल यूरोपीय प्रयोगों को ही विज्ञान मानते हैं। यूरोपीय तकनीकियां ही उनके लिए मानवोपयोगी हैं। वे भारतीय विज्ञान को केवल टोना-टोटका आदि ही मानते हैं। उनके लिए स्वास्थ्य सेवाओं का विकास करने का अर्थ होता है केवल एलोपैथ के तंत्र को मजबूत करना।
इससे उनके भ्रष्टाचाररूपी निहित स्वार्थों की भी पूर्ति होती है। एलोपैथ के लिए मशीनें एक अनिवार्य हिस्सा हैं। इन मशीनों को बनाने वाली कंपनियां पूरे देश में उसकी बिक्री के लिए शासन और प्रशासन को मोटा कमीशन दे सकती हैं, जो कि कोई भी आयुर्वेदिक वैद्य नहीं दे सकता। इसी प्रकार एलोपैथ के इन्फ्राट्रक्चर के विकास में भी भारी व्यय होता है, जिसमें भरपूर भ्रष्टाचार की संभावना होती है। एलोपैथ की ओषधियों का बड़े पैमाने पर आयात होता है, इसमें भी भारी आय की संभावना होती है। इसलिए देश का शासन और प्रशासन #आयुर्वेद को प्रोत्साहित करने पर ध्यान नहीं देता। वह वैद्यों के दावों की उपेक्षा करता है, भले ही वह कितना भी दमदार हो और एलोपैथ के अनुमानों का भी भरपूर प्रचार करता है, चाहे उसे तुरंत खारिज करना पड़े। यह कोरोना के मामले में देख चुके हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि एलोपैथ का एक पूरा इकोसिस्टम है, जो उस पर चर्चा प्रारंभ होते ही सक्रिय हो जाता है और उसके पक्ष में वातावरण बनाने लगता है। इसमें ध्यान देने वाली बात यह है कि इस इकोसिस्टम का एक बड़ा हिस्सा शासन के बल से ही बनता है, समाज के बल से नहीं बनता। यदि शासन का बल इसमें से निकल जाए तो एलोपैथ कोमा में चला जाएगा।
लेखक : रवि शंकर, कार्यकारी संपादक, भारतीय धरोहर