21/02/2023
Credit cinema
स्वदेश फिल्म शाहरुख की वन ऑफ द बेस्ट फिल्म और परफॉर्मेंस में गिनी जाती है, ये बात इतनी मर्तबा दोहराई जा चुकी है कि जिसने स्वदेश नही भी देखी है वो भी ये बात चुप चाप मान लेता है। जिसने देखी है या नही देखी है सबको मालूम है कि स्वदेश में शाहरुख खान नासा का साइंटिस्ट रहता है जो अपने देश आता है फिर यहां के लोगो को देखकर यहां के हालात देखकर अपनी नौकरी छोड़कर वापस अपने देश में आकर रहने लगता है। पर स्वदेश इस चार लाइन की कहानी से कही ऊपर और गहरी है, क्युकी ये हमारे देश की कमियां और अच्छाई एक साथ इतनी ईमानदारी से बताती है कि हमे अपने देश और इसकी संस्कृति पर गर्व होने लगता है।
मैं आज आपको बताता हूं कि फिल्म और उसकी कहानी ये काम किस तरह से करती है।
स्वदेश फिल्म की शुरुआत में हमे दिखता है कि मोहन भार्गव (शाहरुख खान ) नासा में वैज्ञानिक है और वो एक बड़े प्रोजेक्ट का एक अहम हिस्सा है। मोहन जब पढ़ाई कर रहा था अमेरिका में तभी उसके मां बाप की मृत्यु एक कार एक्सीडेंट में हो जाती है, इस बुरे वक्त में उसे कावेरी अम्मा संभालती है जो कि उसकी दाईं मां है, जिन्होंने उसे यशोदा की तरह पाला है और वो भी कृष्ण की तरह अपनी कावेरी अम्मा को बहुत प्यार करता है। इस प्वाइंट से फिल्म भारत देश और उसकी संस्कृति को दिखाना और समझाना शुरू करती है, कि हमारे देश की माएं अपने बच्चो के जितना प्यार दूसरो के बच्चो को भी करने की खासियत रखती है।मोहन अपने मां बाप की बरसी के दिन भारत वापस जाकर कावेरी अम्मा को अमेरिका लाने का फैसला करता है।
वो जब दिल्ली के वृद्धा आश्रम पहुंचता है तो उसे पता चलता है कि वृद्धा आश्रम से एक साल पहले ही कावेरी अम्मा को कोई लड़की अपने साथ लेकर जा चुकी है। मोहन उस गांव का नाम लिखवाकर जब आश्रम से निकलने लगता है तो एक बूढ़ी औरत उसे कहती है कि "कावेरी बहुत खुशनसीब है जो उसे लेने दो लोग आए है, हम यहां इतने सालो से है कोई लेने नही आया आज तक।" फिल्म यहां दो चीजे दिखाती है, एक ये कि इस देश में अब ये कल्चर तेजी से बढ़ रहा है कि मां बाप को वृद्धा आश्रम भेजा जाए, तो दूसरी तरफ यहां आज भी ऐसे बच्चे है जो दूसरो के मां बाप को भी लेने वृद्धा आश्रम चले जाते है।
फिल्म में मोहन भार्गव का किरदार एक ऐसे भारतीय का है जो अपने देश से नफरत नही करता है, न ही उसे अपने देश से किसी तरह की कोई शिकायत है, बस वो अपने देश को जानता नही है, उसे देश से जुड़े फैक्ट्स याद है, पर देश कैसा है, उसने कभी महसूस नहीं किया, उसकी परवरिश बड़े शहर में अच्छे घर में हुई थी, उसने अपने आस पास जो देखा जितना देखा उसी को देश मान लिया और इसलिए वो देश की समस्याओं के लिए सिर्फ देशवासियों को जिम्मेदार मानता है, उसे लगता है की ये देश लाइलाज बीमारी है इसलिए वो अमेरिका की नागरिकता के लिए अप्लाई करता है जो कि उसे मिल भी जाती है।
वो जब चरणपुर गांव के किए गीता के बताए गलत रास्ते पर जा रहा होता है तो उसे एक साधू जैसा शख्स मिलता है, वो मोहन के पूछने पर कहता है कि "तुम रास्ता भटक गए हो" मोहन जवाब में कहता है कि नही,"मैं तो बताए हुए रास्ते पर ही चल रहा हूं, शायद कही मोड़ गलत ले लिया है" साधू बोलता है कि "मोड़ गलत नही होते इंसान गलत होते है।" यहां पर डायरेक्टर साधु के जरिए अपनी ऑडियंस से बात कर रहे होते है, खासकर उस ऑडियंस से जिसने लाइफ में तय किए फार्मूले ही अपनाए है,जो हर पीढ़ी अगली पीढ़ी को बताती है सकझाती है, मोहन ने मेहनत की है, नौकरी की है, पैसे कमाए है, सब किया पर फिर भी उसे लगता है कि कही कुछ छूट गया है, कही कोई मोड़ गलत लिया है। जिसके जवाब ने डायरेक्टर अपने दर्शको से कहता है कि बताए हुए रास्तों में बुराई नही थी, बस इंसान इंसान का फर्क होता है कि वो इन रास्तों से क्या समेटता है और क्या छोड़ देता है।
मोहन गांव पहुंचता है तो उसके लिए गांव और गांव वाले एलियन है, और गांव वालो के लिए मोहन एलियन या अजूबा टाइप है। वो कावेरी अम्मा से जब मिलता है तो कावेरी अम्मा मोहन को पानी का ग्लास देती है, मोहन पानी का ग्लास हाथ में लिए रहता है कुछ देर और फिर साइड में टेबल पर रख देता है पीता नही है क्युकी मोहन अपने साथ पैक्ड बोतल का पानी लेकर आया है और वो फिल्टर का ही पानी पीता है। मोहन घर नुमा गाड़ी लेकर भी इसलिए आया है क्युकी वो उस माहौल उस घर में रहने के अनकंफर्टेबल फील कर रहा है जिसे उसने महसूस ही नही किया है कभी। जैसे जैसे मोहन गांव में वक्त बिताता है वैसे वैसे उसके अंदर बदलाव आते है, वो कुएं से पानी निकालकर नहाने लगता है, चारपाई पर जब सोता है तो उसे बहुत जमाने बाद अच्छी नींद आती है, पर मोहन अब भी पीने के लिए बोतल वाला पानी ही इस्तेमाल करता है। मोहन इस वक्त देश का वो युवा है, जो अपने देश को समझने तो लगा है, प्यार भी करता है, पर अभी भी उसका यकीन दूसरो के बताए समझाए आराम पर कायम है।
फिर उसे कावेरी अम्मा दूर दूसरे गांव भेजती है, मोहन वहा रास्ते में गीता को याद करता है। जब वो जमीन का किराया लेने किसान के घर पहुंचता है तो किसान बहुत प्यार से उसे अपनी झोपड़ी में बुलाता है, खाना परोसता है, और फिर अपनी मजबूरी बताता है कि वो क्यू किराया नही दे सकता है। मोहन जब किसान के घर रात में सोता है तो उसे एहसास होता है कि वो किसान जिसके पास कुछ भी नही है, जो अपने बच्चो को दो रोटी खिलाने के लिए संघर्ष कर रहा है, उसने उसे अपने पास जो भी था उसमे से खाना खिलाया क्युकी किसान अतिथि भगवान है की परंपरा को अपने बुरे हालात में भी निभा रहा है, मोहन को एहसास होता है कि जिस देश और जिस देश की संस्कृति से वो भाग रहा है, वो कितनी गहरी है और किस कदर देश के लोग उसे मानते है निभाते है।
मोहन वहा से वापस आता है, पानी की बोतल अब भी उसके साथ है, ट्रेन एक जगह रुकती है,एक दस बारह साल का बच्चा पानी बेच रहा है, मोहन किसान की दयनीय हालत देखकर लौटा है, अब वो देख रहा है कि इस देश के लोग दयनीय स्थिति में होने के बावजूद लड़ रहे है कमाने के लिए, बीस रुपए की बोतल नही बेच रहे पच्चीस रुपए का मीठा पानी बेच रहे है। मोहन जिसने अभी तक बोतल का ही पानी पिया था इस देश में वो उस बच्चे से पानी खरीदता है, अपने देश की मिट्टी की ठंडक में डूबे पानी को वो देखता है, और फिर एक सांस में पी जाता है। मोहन अब बोतल के पानी के चंगुल से छूट चुका है, मोहन का किरदार अब अपने देश को उसकी संस्कृति को उसकी तमाम कमियों के बावजूद प्यार से स्वीकार कर चुका है। यही वो प्वाइंट है जहा से मोहन का किरदार पूरी तरह बदल जाता है, यही खासियत है इस फिल्म की कि ये जादू नही दिखाती, धीरे धीरे उस बदलाव को दर्शको के सामने रखती है जो मोहन के अंदर हो रहा है।
मोहन गांव आकर गांव वालो को समझाता है कि हमारा देश महान नही है, पर उसमे काबिलियत है महान बनने की, और इसके महान न बन पाने के जिम्मेदार हम सब है, खुद मोहन भी।
मोहन बिजली बनाने के लिए गांव वालो को इकट्ठा करता है, वो अलग अलग जाति के लोगो को उनकी प्रतिभा के अनुरूप काम देता है। फिल्म यहां देश के हर तबके का योगदान दिखाती है देश की तरक्की में, बिजली एक मेटाफोर है देश की तरक्की का, कि देश की तरक्की की चाभी इसी देश में है,यही के लोगो के हाथ में है, जरूरत है बस सबको एक साथ आकर समस्या का हल ढूंढने की।
बिजली आने के बाद पता चलता है कि गांव के एक बूढ़े स्वतंत्रता सेनानी अपनी अंतिम सांसे गिन रहे है, पूरा गांव इकट्ठा है, मोहन स्वतंत्रता सेनानी का हाथ पकड़ कर बैठता है, सेनानी उससे कहते है कि "अब तू आ गया है अब मैं चैन से मर सकता हू"। ये सीन बूढ़े व्यक्ति या मोहन के बारे में नही है, बूढ़ा व्यक्ति हमारे देश के उन लोगो का प्रतिन्धित्व कर रहा है जिन्होंने देश को आजाद करने के लिए गोलियां खाई, उन्होंने अपना काम तो पूरा कर दिया है, पर उन्हे सुकून नही है, उनका मकसद सिर्फ आजादी नही था, क्युकी अभी भी लड़ने को बदलने के लिए देश में बहुत कुछ है,हमारे स्वतंत्रता सेनानी युवा पीढ़ी का इंतजार कर रहे है कि वो आए और उनकी जगह ले, उनकी लड़ाई को खत्म न समझे बल्कि उसे आगे बढ़ाए, देश को बेहतर बनाए। फिल्म का सार यही है, शुरुआत के सीन में उस बूढ़े साधु का देश के युवाओं से कहना कि "तुम भटके हुए हो" और फिर बूढ़े व्यक्ति का ये कहना कि "अब तुम आ गए हो अब मैं चैन से मर सकता हूं" एक यात्रा दिखाता है, इस फिल्म को देखकर अपने देश पर गर्व होता है, इसकी संस्कृति पर, इसके लोगो पर, इसकी अच्छाइयों पर और इसकी कमियों पर भी।
मोहन गांव में रुकता नही है, वो दूसरे देश में एक अधूरा काम छोड़ कर आया है, फिल्म सब कुछ छोड़कर भागने और लौटने की बात नही करती है, मोहन अपना प्रोजक्ट पूरा करता है फिर इस्तीफे की बात करता है, फिल्म मोहन के उसके दोस्त के साथ टुकड़ों में बहस दिखाती है, मोहन का बॉस जब कहता है कि "तुम नही जानते तुम क्या खोने जा रहे हो?" तो मोहन बोलता है कि"मैं जानता हूं कि मैं क्या पाने जा रहा हूं " फिल्म एनआरआई या जिन्होंने दूसरे देश में बेहतर जिंदगी चुनी है, उन्हे गलत नही कहती है, ना उन्हे विलेन के रूप में रखती है, फिल्म बस उन्हे अनजान बताती है। फिल्म के आखिर में मोहन घर लौटता है, उसने अपना काम नही छोड़ा बस भारत की स्पेस एजेंसी में काम शुरू करता है, वो मिट्टी में पोस्टमास्टर के साथ कुश्ती लड़ता है, उसके बदन पर मिट्टी लगी हुई है और वो पानी में उतरकर उस पानी से अपने बदन को धुलने लगता है, फिल्म खत्म हो जाती है।