वीरभोग्या वसुन्धरा

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वीरभोग्या वसुन्धरा भारतवर्ष वीरों की धरती है । जो देश, धर्?

20/03/2024
महान् वीरांगना हाड़ी-रानी=================="सिसोदिया कुलभूषण, क्षत्रिय शिरोमणि महाराणा राजसिंह को रूपनगर की राजकुमारी का ...
23/02/2024

महान् वीरांगना हाड़ी-रानी==================
"सिसोदिया कुलभूषण, क्षत्रिय शिरोमणि महाराणा राजसिंह को रूपनगर की राजकुमारी का प्रणाम।

महाराज को विदित हो कि मुगल औरंगजेब ने मुझसे विवाह का आदेश भेजा है। आप वर्तमान समय में क्षत्रियों के सर्वमान्य नायक हैं। आप बताएं, क्या पवित्र कुल की यह कन्या उस म्लेच्छ का वरण करे? क्या एक राजहंसिनी एक गिद्ध के साथ जाए?

महाराज! मैं आपसे अपने पाणिग्रहण का निवेदन करती हूँ। मुझे स्वीकार करना या अस्वीकार करना आपके ऊपर है, पर मैंने आपको पति रूप में स्वीकार कर लिया है। अब मेरी रक्षा का भार आपके ऊपर है। आप यदि समय से मेरी रक्षा के लिए न आये तो मुझे आत्महत्या करनी होगी। अब आपकी...."

मेवाड़ की राजसभा में रूपनगर के राजपुरोहित ने जब पत्र को पढ़ कर समाप्त किया तो जाने कैसे सभासदों की कमर में बंधी सैकड़ों तलवारें खनखना उठीं।

महाराज राजसिंह अब प्रौढ़ हो चुके थे। अब विवाह की न आयु बची थी न इच्छा, किन्तु राजकुमारी के निवेदन को अस्वीकार करना भी सम्भव नहीं था। वह प्रत्येक निर्बल की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझने वाले राजपूतों की सभा थी। वह अपनी प्रतिष्ठा के लिए सैकड़ों बार शीश चढ़ाने वाले क्षत्रियों की सभा थी। फिर एक क्षत्रिय बालिका के इस समर्पण भरे निवेदन को अस्वीकार करना कहाँ सम्भव था! पर विवाह...? महाराणा चिंतित हुए।

महाराणा मौन थे पर राजसभा मुखर थी। सब ने सामूहिक स्वर में कहा, "राजकुमारी की प्रतिष्ठा की रक्षा करनी ही होगी महाराज! अन्यथा यह राजसभा भविष्य के सामने सदैव अपराधी बनी कायरों की भाँति खड़ी रहेगी। हमें रूपनगर कूच करना ही होगा।

महाराणा ने कुछ देर सोचने के बाद कहा, "हम सभासदों की भावना का सम्मान करते हैं। राजकुमारी की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है, और हम अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटेंगे। राजकुमारी की रक्षा के लिए आगे आने का सीधा अर्थ है औरंगजेब से युद्ध करना, सो सभी सरदारों को युद्ध के लिए तैयार होने का सन्देश भेज दिया जाय। हम कल ही रूपनगर के लिए कूच करेंगे।

महाराणा रूपनगर के लिए निकले, और इधर औरंगजेब की सेना उदयपुर के लिए निकली। युद्ध अब अवश्यम्भावी था।

सलूम्बर के सरदार रतन सिंह चुण्डावत के यहाँ जब महाराणा का संदेश पहुँचा, तब रतन सिंह घर की स्त्रियों के बीच नवविवाहिता पत्नी के साथ बैठे विवाह के बाद चलने वाले मनोरंजक खेल खेल रहे थे। उनके विवाह को अभी कुल छह दिन हुए थे। उन्होंने जब महाराणा का सन्देश पढ़ा तो काँप उठे। औरंगजेब से युद्ध का अर्थ आत्मोत्सर्ग था, यह वे खूब समझ रहे थे। खेल रुक गया, स्त्रियाँ अपने-अपने कक्षों में चली गईं। सरदार रतन सिंह की आँखों के आगे पत्नी का सुंदर मुखड़ा नाचने लगा। उनकी पत्नी बूंदी के हाड़ा सरदारों की बेटी थी, अद्भुत सौंदर्य की मालकिन...

प्रातः काल मे मेघों की ओट में छिपे सूर्य की उलझी हुई किरणों जैसी सुंदर केशराशि, पूर्णिमा के चन्द्र जैसा चमकता ललाट, दही से भरे मिट्टी के कलशों जैसे कपोल, अरुई के पत्ते पर ठहरी जल की दो बड़ी-बड़ी बूंदों सी आँखे, और उनकी रक्षा को खड़ी आल्हा और ऊदल की दो तलवारों सी भौहें, प्रयागराज में गले मिल रही गङ्गा-यमुना की धाराओं की तरह लिपटे दो अधर, नाचते चाक पर कुम्हार के हाथ में खेलती कच्ची सुराही सी गर्दन... ईश्वर ने हाड़ी रानी को जैसे पूरी श्रद्धा से बनाया था। सरदार उन्हें भूल कर युद्ध को कैसे जाता?

रतन सिंह ने दूत को विश्राम करने के लिए कहा और पत्नी के कक्ष में आये। सप्ताह भर पूर्व वधु बन कर आई हाड़ी रानी से महाराणा का संदेश बताते समय बार-बार काँप उठते थे रतन सिंह, पर रानी के चेहरे की चमक बढ़ती जाती थी। पूरा सन्देश सुनने के बार सोलह वर्ष की हाड़ा राजकुमारी ने कहा, " किसी क्षत्राणी के लिए सबसे सौभाग्य का दिन वही होता है जब वह अपने हाथों से अपने पति के मस्तक पर तिलक लगा कर उन्हें युद्ध भूमि में भेजती है। मैं सौभाग्यशाली हूँ जो विवाह के सप्ताह भर के अंदर ही मुझे यह महान अवसर प्राप्त हो रहा है। निकलने की तैयारी कीजिये सरदार! मैं यहाँ आपकी विजय के लिए प्रार्थना और आपकी वापसी की प्रतीक्षा करूंगी।"
रतन सिंह ने उदास शब्दों में कहा, "आपको छोड़ कर जाने की इच्छा नहीं हो रही है।युद्ध क्षेत्र में भी आपकी बड़ी याद आएगी! सोचता हूँ, मेरे बिना आप कैसे रहेंगी।"
रानी का मस्तक गर्व से चमक उठा था। कहा," मेरी चिन्ता न कीजिये स्वामी! अपने कर्तव्य की ओर देखिये। मैं वैसे ही रहूंगी जैसे अन्य योद्धाओं की पत्नियाँ रहेंगी। और फिर कितने दिनों की बात ही है, युद्ध के बाद तो पुनः आप मेरे ही संग होंगे न!"

रतन सिंह ने कोई उत्तर नहीं दिया। वे अपनी टुकड़ी को निर्देश देने और युद्ध के लिए कूच करने की तैयारी में लग गए। अगली सुबह प्रस्थान के समय जब रानी ने उन्हें तिलक लगाया तो रतन सिंह ने अनायास ही पत्नी को गले लगा लिया। दोनों मुस्कुराए, फिर रतन सिंह निकल गए।
तीसरे दिन युद्ध भूमि से एक दूत रतन सिंह का पत्र लेकर सलूम्बर पहुँचा। पत्र हाड़ी रानी के लिए था। लिखा था-
" आज हमारी सेना युद्ध के पूरी तरह तैयार खड़ी है। सम्भव है दूसरे या तीसरे दिन औरंगजेब की सेना से भेंट हो जाय। महाराणा रूपनगर गए हैं सो उनकी अनुपस्थिति में राज्य की रक्षा हमारे ही जिम्मे है। आपका मुखड़ा पल भर के लिए भी आँखों से ओझल नहीं होता है। आपके निकट था तो कह नहीं पाया, अभी आपसे दूर हूँ तो बिना कहे रहा नहीं जा रहा है। मैं आपसे बहुत प्रेम करता हूँ। आपका- सरदार रतन सिंह चूंडावत।"

रानी पत्र पढ़ कर मुस्कुरा उठीं। किसी से स्वयं के लिए यह सुनना कि "मैं आपको बहुत प्रेम करता हूँ" भाँग से भी अधिक मता देता है। रानी ने उत्तर देने के लिए कागज उठाया और बस इतना ही लिखा-

"आपकी और केवल आपकी...."

पत्रवाहक उत्तर ले कर चला गया। दो दिन के बाद पुनः पत्रवाहक रानी के लिए पत्र ले कर आया। इसबार रतन सिंह ने लिखा था-

"उसदिन के आपके पत्र ने मदहोश कर दिया है। लगता है जैसे मैं आपके पास ही हूँ। हमारी तलवार मुगल सैनिकों के सरों की प्रतीक्षा कर रही है। कल राजकुमारी का महाराणा के साथ विवाह है। औरंगजेब की सेना भी कल तक पहुँच जाएगी। औरंगजेब भड़का हुआ है, सो युद्ध भयानक होगा। मुझे स्वयं की चिन्ता नहीं, केवल आपकी चिन्ता सताती है।"

रानी ने पत्र पढ़ा, पर मुस्कुरा न सकीं। आज उन्होंने कोई उत्तर भी नहीं भेजा। पत्रवाहक लौट गया। अगले दिन सन्ध्या के समय पत्रवाहक पुनः पत्र लेकर उपस्थित था। रानी ने उदास हो कर पत्र खोला। लिखा था-

"औरंगजेब की सेना पहुँच चुकी। प्रातः काल मे ही युद्ध प्रारम्भ हो जाएगा। मैं वापस लौटूंगा या नहीं, यह अब नियति ही जानती है। अब शायद पत्र लिखने का मौका न मिले,सो आज पुनः कहता हूँ, मैंने अपने जीवन मे सबसे अधिक प्रेम आपसे ही किया है। सोचता हूँ, यदि युद्ध में मैं वीरगति प्राप्त कर लूँ तो आपका क्या होगा। एक बात पूछूँ- यदि मैं न रहा तो क्या आप मुझे भूल जाएंगी? आपका- रतन सिंह।"

हाड़ा रानी गम्भीर हुईं। वे समझ चुकीं थीं कि रतन सिंह उनके मोह में फँस कर अपने कर्तव्य से दूर हो रहे हैं। उन्होंने पल भर में ही अपना कर्तव्य निश्चित कर लिया। उन्होंने सरदार रतन सिंह के नाम एक पत्र लिखा, फिर पत्रवाहक को अपने पास बुलवाया। पत्रवाहक ने जब रानी का मुख देखा तो काँप उठा। शरीर का सारा रक्त जैसे रानी के मुख पर चढ़ आया था, केश हवा में ऐसे उड़ रहे थे जैसे आंधी चल रही हो। सोलह वर्ष की लड़की जैसे साक्षात दुर्गा लग रही थी। उन्होंने गम्भीर स्वर में पत्रवाहक से कहा-"मेरा एक कार्य करोगे भइया?"

पत्रवाहक के हाथ अनायास ही जुड़ गए थे। कहा, "आदेश करो बहन"

"मेरा यह पत्र और एक वस्तु सरदार तक पहुँचा दीजिये।"

पत्रवाहक ने हाँ में सर हिलाया। रानी ने आगे बढ़ कर एक झटके से उसकी कमर से तलवार खींच ली, और एक भरपूर हाथ अपनी ही गर्दन पर चलाया। हाड़ी रानी का शीश कट कर दूर जा गिरा। पत्रवाहक भय से चिल्ला उठा, उसके रोंगटे खड़े गए थे।

अगले दिन पत्रवाहक सीधे युद्धभूमि में रतन सिंह के पास पहुँचा और हाड़ी रानी की पोटली दी। रतन सिंह ने मुस्कुराते हुए लकड़ी का वह डब्बा खोला, पर खुलते ही चिल्ला उठे। डब्बे में रानी का कटा हुआ शीश रखा था। सरदार ने जलती हुई आँखों से पत्रवाहक को देखा, तो उसने उनकी ओर रानी का पत्र बढ़ा दिया। रतन सिंह ने पत्र खोल कर देखा। लिखा था-

"सरदार रतन सिंह के चरणों में उनकी रानी का प्रणाम। आप शायद भूल रहे थे कि मैं आपकी प्रेयसी नहीं पत्नी हूँ। हमने पवित्र अग्नि को साक्षी मान कर फेरे लिए थे सो मैं केवल इस जीवन भर के लिए ही नहीं, अगले सात जन्मों तक के लिए आपकी और केवल आपकी ही हूँ। मेरी चिन्ता आपको आपके कर्तव्य से दूर कर रही थी, इसलिए मैं स्वयं आपसे दूर जा रही हूँ। वहाँ स्वर्ग में बैठ कर आपकी प्रतीक्षा करूँगी। रूपनगर की राजकुमारी के सम्मान की रक्षा आपका प्रथम कर्तव्य है, उसके बाद हम यहाँ मिलेंगे। एक बात कहूँ सरदार? मैंने भी आपसे बहुत प्रेम किया है। उतना, जितना किसी ने न किया होगा।"

रतन सिंह की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। वे कुछ समय तक तड़पते रहे, फिर जाने क्यों मुस्कुरा उठे। उनका मस्तक ऊँचा हो गया था, उनकी छाती चौड़ी हो गयी थी। उसके बाद तो जैसे समय भी ठहर कर रतन सिंह की तलवार की धार देखता रहा था। तीन दिन तक चले युद्ध में राजपूतों की सेना विजयी हुई थी, और इस युद्ध मे सबसे अधिक रक्त सरदार रतन सिंह की तलवार ने ही पिया था। वह अंतिम सांस तक लड़ा था। जब-जब शत्रु के शस्त्र उसका शरीर छूते, वह मुस्कुरा उठता था। एक-एक करके उसके अंग कटते गए, और अंत मे वह अमर हुआ।

रूपनगर की राजकुमारी मेवाड़ की छोटी रानी बन कर पूरी प्रतिष्ठा के साथ उदयपुर में उतर चुकी थीं। राजपूत युद्ध भले अनेक बार हारे हों, प्रतिष्ठा कभी नहीं हारे। राजकुमारी की प्रतिष्ठा भी अमर हुई।

महाराणा राजसिंह और राजकुमारी रूपवती के प्रेम की कहानी मुझे ज्ञात नहीं। मुझे तो हाड़ी रानी का मूल नाम भी नहीं पता। हाँ! यह देश हाड़ा सरदारों की उस सोलह वर्ष की बेटी का ऋणी है, यह जानता हूँ मैं। 🙏

योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

!!!---: झाँसी की रानी :---!!!====================सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,बूढ़े भारत में आई फिर से नयी...
31/12/2023

!!!---: झाँसी की रानी :---!!!
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सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।
महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।
अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी रोयीं रिनवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
'नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'।
यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
संग्राम सिंह बुंदेला, बाबू वीर कुँवरसिंह,सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में।
ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।
अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

: सुभद्रा कुमारी चौहान

अदम्य साहस और स्वाभिमान की प्रतीक, मातृभूमि की रक्षा हेतु सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाली महान वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई जी को कोटि-कोटि नमन।🚩🙏

आपका शौर्य अनंतकाल तक बेटियों को पराक्रमी बनाते हुए राष्ट्रसेवा के लिए प्रेरित करता रहेगा।

योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

!!!---: स्कूल मास्टर से थर्राते थे अंग्रेज :---!!!============================भारतीय इतिहास के छुपाए गए पन्ने फांसी से प...
26/12/2023

!!!---: स्कूल मास्टर से थर्राते थे अंग्रेज :---!!!
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भारतीय इतिहास के छुपाए गए पन्ने

फांसी से पहले उखाड़े नाखून-तोड़े दांत

भारत की आजादी के लिए अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों ने अपना खून बहाया है जिनमें से एक सूर्य सेन भी थे। जिन्होंने मरते दम तक न सिर्फ ब्रिटिश राज के खिलाफ आवाज उठाई बल्कि कई बार गहरी चोट भी दी. इसलिए ब्रिटिश अधिकारियों ने एक स्कूल टीचर और महान क्रांतिकारी सूर्य सेन को असहनीय यातनाएं दी थीं। आखिरी वक्त में वंदेमातरम का उदघोष न कर सके इसलिए दांत तोड़ दिए थे। भारत महान्

सूर्य सेन 'मास्टर दा' ने 63 युवा क्रांतिकारी की एक फौज खड़ी की और 18 अप्रैल, 1930 को चटगांव ब्रिटिश आर्मरी पर हमला किया था। इस घटना के करीब चार साल बाद 12 जनवरी, 1934 को 40 के सूर्य सेन बेरहम यातनाओं के बाद फांसी दी गई थी।

योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

!!!---: हेमू की वीरता :---!!!==================क्रूर दोगला बादशाह अकबर  ने बेहोशी की अवस्था में मुग़लों को हराने वाले एकम...
21/11/2023

!!!---: हेमू की वीरता :---!!!
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क्रूर दोगला बादशाह अकबर ने बेहोशी की अवस्था में मुग़लों को हराने वाले एकमात्र हिन्दू राजा वीर हेमू की हत्या कर दी थी। भारतीय इतिहास के छुपाए गए पन्ने

हेमचन्द का जन्म मेवात स्थित रिवाड़ी में बेहद गरीब परिवार में हुआ था। हेमू का पारिवारिक पेशा पुरोहिताई का था, परन्तु 12 वीं शताब्दी के बाद भारत में इस्लाम के स्थापित होने के साथ ही मुस्लिम बादशाहों ने हिन्दुओं के धार्मिक आयोज़नो पर रोक लगानी शुरू कर दी। इससे पुरोहिताई से घर चलना बहुत मुश्किल हो गया । तब हेमू ने शेरशाह सूरी की सेना को खाना पहुँचाने का काम हाथ में लिया। लेकिन तेज़ तर्रार हेमू की कद काठी और योग्यता देख कर शेरशाह सूरी ने उसे अपनी सेना में रख लिया। वीर हेमू जल्दी ही अफ़ग़ान सेना का सेनापति बन गया। लेकिन इसी समय शेरशाह सूरी की असमय मृत्यु हो गई। शेरशाह की मृत्यु के बाद दिल्ली की सत्ता हेमू के हाथ में आ गयी। हेमू ने अपने जीवनकाल में लगातार २२ युद्धों में विजय हासिल की। भारत महान्

कहा जाता है जिस समय हेमू अपनी सेना के साथ निकलता था, मुसलमान सरदार अपने किले छोड़कर भाग जाया करते थे । भारतीयं विज्ञानम्

यहाँ तक कि जब अकबर ने हेमू पर हमला करने की सोची, तब सभी ने उसे जान बूझ कर मौत के मुह में न जाने की सलाह दी थी। हेमू ने १५५६ में अपना राज्याभिषेक करके अपना नाम हेमचन्द्र विक्रमादित्य रखा। चाणक्य नीति के अनमोल सुविचार

"इसी बीच शेरशाह की मृत्यु के बाद भगोड़ा हुमायूं ने 1555 में शेरशाह के अधिकारियों को हराकर एक बार फिर दिल्ली-आगरा पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। लेकिन इसके अगले ही वर्ष छत की सीढ़ियों से गिरकर हुमायूं की मृत्यु हो गई। तब सत्ता हुमायूं के बेटे अकबर को प्राप्त हुई।" भारतीय महापुरुष

१५५६ में पानीपत के दूसरे युद्ध में अकबर की सेना पूरी तरह से युद्ध हार चुकी थी, आर्य सुविचार

और स्वयं अकबर भी बैरम खान के साथ भागने की तैय्यारी में था। परन्तु कहा जाता है कि “- न च विद्या न च पौरुषं भाग्यं फलति सर्वदा ” चाणक्य नीति

दुर्भाग्यवश तभी हेमू, आँख में तीर लगने से बेहोश होकर गिर गया। उसकी बेहोशी के बाद मुगलों द्वारा अफवाह फैला दी गई कि 'हेमू मर गया है।' यह सुनकर हेमू की सेना में भगदड़ मच गयी और सैनिक इधर से उधर भागने लगे। इस भगदड़ में हेमू के उच्च अधिकारी समेत लगभग 5 हज़ार सैनिकों ने अपने प्राण गंवा दिए। इसी मौके का फायदा उठा कर भारत के तथाकथित महान शासक अकबर ने बेहोशी की अवस्था में हेमू की हत्या कर दी थी।

योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

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